पाठ्यक्रम की अवधारणा और सिद्धांत|Concept and principles of curriculum

पाठ्यक्रम की अवधारणा और सिद्धांत|Concept and principles of curriculum

पाठ्यक्रम की अवधारणा और सिद्धांत|Concept and principles of curriculum

पाठ्यक्रम की अवधारणा एवं इसकी प्रकृति का वर्णन कीजिए।

पाठ्यक्रम की अवधारणा (Concept of Curriculum) – शिक्षा मानव के सर्वांगीण विकास के लिए अनिवार्य है। यह उसके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक पक्षों को परिस्कृत कर उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है।

वर्तमान समय में व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति शिक्षा से ही सम्भव है। जॉन डीवी ने इस प्रक्रिया को ‘त्रिमुखी’ प्रक्रिया कहा है। शिक्षा की प्रक्रिया में विभिन्न समय में देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप कभी शिक्षकों, कभी शिक्षार्थी, कभी विषय-वस्तु एवं कभी शिक्षण उद्देश्यों को महत्व दिया जाता रहा है। वर्तमान समय में व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के उद्देश्यों को विशेष महत्व दिया जाता है। उद्देश्य साध्य होते हैं, इनकी प्राप्ति के लिए साधनों की आवश्यकता होती है। शिक्षण अधिगम एवं शिक्षण प्रशिक्षण की प्रक्रिया में भी उद्देश्यों को महत्व दिया जाता है। अतः शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के सर्वोत्तम साधनों में पाठ्यक्रम एवं पाठ्य-पुस्तकें महत्वपूर्ण हैं। शिक्षा प्रक्रिया की सार्थकता किता एवं प्रभावशीलता के लिए साधनों एवं साध्य में परस्पर समन्वयन स्थापित होना आवश्यक है।

शैक्षिक प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती है, इसके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में निरन्तर परिवर्तन एवं परिमार्जन होता है। व्यक्ति शिक्षा प्रक्रिया में साध्य होता है। व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन एवं परिमार्जन अनेक साधनों या माध्यमों से होता है जिन्हें हम दो वर्गों में वर्गीकृत करते हैं- औपचारिक एवं अनौपचारिक। औपचारिक के अन्तर्गत वे साधन आते हैं जिनका नियोजन निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए व्यवस्थित ढंग से संस्थापित संस्थाओं में किया जाता है जिन्हें विद्यालय कहा जाता है। परन्तु व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन एवं परिमार्जन की प्रक्रिया विद्यालय में पूर्ण न होकर विद्यालय के बाहर भी निरन्तर जीवन पर्यन्त चलती रहती है। ये बाहरी परिवर्तन विद्यालय सीमा से बाहर परिस्थितियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं क्योंकि इन परिस्थितियों को सुनियोजित रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। अतः ये अनौपचारिक साधन या माध्यम के अन्तर्गत आती हैं। विद्यालय में शिक्षार्थी को जो भी शिक्षा प्रदान की जाती हैं उसका एक निश्चित उद्देश्य होता है। शिक्षा प्रक्रिया में तीन प्रमुख प्रक्रियाएँ हैं, जिन्हें जॉन डीवी ने ‘त्रिआयमी’ प्रक्रिया कहा है। जॉन डीवी के अनुसार ये तीनों प्रक्रियाएँ अर्थात् उद्देश्य निर्धारण, शिक्षण पद्धति तथा पाठ्यक्रम शैक्षिक पाठ्यक्रम की अवधारणा को व्यक्त करते हैं।

की प्रकृति या स्वरूप (Nature of Curriculum) – पाठ्यक्रम की पाठ्यक्रम प्रकृति को शैक्षिक विकास द्वार समझा जा सकता है। प्राचीनकाल में शिक्षा की प्रकृति पूर्णतया अनौपचारिक थी। उस समय बालकों की शिक्षा परिवार एवं समाज के मध्य होती थी। बालक परिवार एवं दसमाज के साथ सहयोगी बनकर प्रत्यक्ष अनुभव व निरीक्षण द्वारा शिक्षा प्राप्त करता था। किन्तु सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव के ज्ञान में वृद्धि होती गई और मानव जीवन में विविधताएँ परिलक्षित होती गयीं। जिसके कारण मानव के पास समय एवं साधन का अभाव होने लगा तथा उसको शिक्षा की आवश्यकता उत्पन्न हुई और प्रत्येक विकासशील समाज ने अपने बालकों की शिक्षा के उद्देश्य से इसे विधिवत एवं क्रमबद्ध बनाने के प्रयास प्रारम्भ किये। इन्हीं प्रयासों के फलस्वरूप विद्यालयों का उद्भव एवं स्थापना हुई। इस प्रकार समाज द्वारा जो उपयोगी एवं महत्वपूर्ण ज्ञान अपने बच्चों को समुचित ढंग से नहीं दिया जा रहा था उसकी जिम्मेदारी अनुभवी विद्वानों को दे दी गयी। इन विद्यालयों में शिक्षा प्रदान करने हेतु जो ज्ञान निश्चित एवं निर्धारित किया गया था उसे पाठ्यक्रम कहा गया।

आधुनिक समय में पाठ्यक्रम की प्रकृति में अत्यधिक परिवर्तन हो गये हैं जहाँ प्राचीन समय में पाठ्यक्रम का अर्थ पाठ्यवस्तु के रूप में लगाया जाता था वहीं वर्तमान में पाठ्यक्रम की परिभाषा बहुत व्यापक हो गयी है। वर्तमान में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं जिन्हें अतिरिक्त पाठ्यक्रम क्रियाओं के नाम से जाना जाता है।

सभी विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषाओं के आधार पर पाठ्यक्रम की प्रकृति को निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-

(1) पाठ्यक्रम की प्रकृति में शिक्षार्थी की ज्ञान वृद्धि हेतु नियोजित सभी परिस्थितियाँ तथा उन्हें उचित क्रमबद्ध करने वाले सैद्धान्तिक आधार सम्मिलित होते हैं।

(2) पाठ्यक्रम में शिक्षार्थी के वे सभी अनुभव, जिन्हें वह कक्षा, प्रयोगशाला, खेल का मैदान, पुस्तकालय, पाठ्येत्तर क्रियाओं द्वारा प्राप्त करता है समाहित होते हैं।

(3) पाठ्यक्रम की प्रकृति में सैद्धान्तिक विषयों के साथ-साथ अनुभवों की समपूर्णता भी समाहित होती है जिनकों शिक्षार्थी विभिन्न औपचारिक साधनों से प्राप्त करता है।

(4) पाठ्यक्रम की प्रकृति में वे सभी अनुभव समाहित होते हैं, जो विद्यालय में शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं।

पाठ्यक्रम के अर्थ एवं परिभाषा का विस्तार में वर्णन कीजिए।

पाठ्यक्रम की अवधारणा और सिद्धांत|Concept and principles of curriculum

शिक्षा का मुख्य कार्य व्यक्ति के व्यवहार को सतत बनाना एवं परिमार्जन करना होता है। व्यक्ति के व्यवहार में यह परिवर्तन अनेक माध्यमों से होते हैं, किन्तु मुख्य रूप से इन माध्यमों को दो रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है- औपचारिक एवं अनौपचारिक। औपचारिक रूप के अन्तर्गत वे माध्यम आते हैं जिनका नियोजन कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए व्यवस्थित ढंग से संस्थापित संस्थाओं में किया जाता है। इस प्रकार की संस्थाओं को विद्यालय कहा जाता है, किन्तु व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन की प्रक्रिया विद्यालय एवं विद्यालयीय जीवन में ही पूर्ण नहीं- हो पाती है, बल्कि यह विद्यालय से बाहर तथा जीवन भर चलती रहती है। पाठ्यक्रम का सम्बन्ध शिक्षा के औपचारिक माध्यम से है।

पाठ्यक्रम का अर्थ – पाठ्यक्रम शब्द या करीक्यूलम लैटिन भाषा से निष्पन्न है। यह लैटिन शब्द ‘कुरेंर’ से बना है। ‘कुरेंर’ का अर्थ है ‘दौड़ का मैदान’ दूसरे शब्दों में ‘करीक्यूलम’ वह क्रम है जिसे किसी व्यक्ति को अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए पार करना होता है। अतः पाठ्यक्रम वह साधन है, जिसके द्वारा शिक्षा व जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति होती है। यह अध्ययन का निश्चित एवं तर्कपूर्ण क्रम है, जिसके माध्यम से शिक्षार्थी के व्यक्तित्व का विकास • होता है तथा वह नवीन ज्ञान एवं अनुभव को ग्रहण करता है। शिक्षा के अर्थ के बारे में दो धारणाएँ हैं- पहला प्रचलित अथवा संकुचित अर्थ और दूसरा वास्तविक या व्यापक अर्थ। संकुचित अर्थ में केवल स्कूली शिक्षा या पुस्तकीय ज्ञान तक ही सीमित होती है, तदनुसार संकुचित अर्थ में पाठ्यक्रम भी केवल विभिन्न विषयों के पुस्तकीय ज्ञान तक ही सीमित है, परन्तु विस्तृत अर्थ में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत वह सभी अनुभव आ जाते हैं जिसे एक नई पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ियों से प्राप्त करती है। साथ ही विद्यालय में रहते हुए शिक्षक के संरक्षण में विद्यार्थी जो भी क्रियाएँ करता है, वह सभी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत आती हैं तथा इसके अतिरिक्त विभिन्न पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ भी पाठ्यक्रम का अंग होती हैं। अतः वर्तमान समय में ‘पाठ्यक्रम’ से तात्पर्य उसके विस्तृत स्वरूप से ही है।

पाठ्यक्रम के अर्थ को और अच्छी तरह समझने के लिए हमें शिक्षा के विकास पर भी एक दृष्टि डालनी आवश्यक है। आदिकाल में शिक्षा का स्वरूप पूर्णतया अनौपचारिक होता था अर्थात् शिक्षा किसी विधि एवं क्रम में बँधी हुई नहीं थी। बालक उस समय बड़ों एवं पूर्वजों के अनुभव सुनकर शिक्षा प्राप्त करता था, किन्तु सभ्यता के विकास के साथ-साथ चुनाव के ज्ञान राशि के संचित कार्य में निरन्तर वृद्धि होती गई तथा मनुष्य के जीवन में जटिलताएँ एवं विविधताएँ आती गईं। परिणामस्वरूप व्यक्ति के पास समय और साधन का अभाव होने लगा तथा उसकी शिक्षा अपूर्ण रहने लगी। अतः प्रत्येक विकासशील समाज ने अपने बालकों को समुचित शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से इसे विधिवत् एवं क्रमबद्ध बनाने के प्रयास प्रारम्भ किये। विद्यालयों का “उद्भव तथा उनकी स्थापना इन्हीं प्रयासों का परिणाम है। इस प्रकार समाज जो उपयोगी एवं महत्वपूर्ण ज्ञान अपने बालकों को समुचित से नहीं दे पा रहा था उसने उसकी जिम्मेदारी अनुभवी विद्वानों को सौंप दी। इन विद्यालयों द्वारा बालकों को जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने तथा उन्हें समुचित ढंग से शिक्षा प्रदान करने हेतु जो ज्ञानराशि निश्चित एवं निर्धारित की गई तथा की जाती है उसे ही ‘पाठ्यक्रम’ का नाम दिया गया है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम अध्ययन का ही एक क्रम है, जिसके अनुसार चलकर विद्यार्थी अपना विकास करता है। अतः यदि शिक्षा की तुलना दौड़ से की जाए तो पाठ्यक्रम उस दौड़ के मैदान के समान है जिसे पार करके दौड़ने वाले अपने निश्चित लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं।

पाठ्यक्रम की परिभाषा (Definition of Curriculm) – ‘पाठ्यक्रम’ को परिभाषित करते हुए एक विद्वान् ने इसे ह्वाट ऑफ एजूकेशन (What of Education) कहा है। प्रथम दृष्टि में यह परिभाषा बहुत अधिक सरल एवं स्पष्ट प्रतीत होती है, परन्तु इस ‘ह्वाट’ की व्याख्या करना तथा कोई निश्चित उत्तर प्राप्त करना बहुत कठिन कार्य है। इस सम्बन्ध में अमेरिका के ‘नेशनल एजूकेशन एसोसिएशन’ ने अपनी टिप्पणी इस प्रकार की है-

“विद्यालयों का कार्य क्या है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर कई बार अनेक ढंग से दिया जा चुका है फिर भी बार-बार उठाया जाता है। कारण स्पष्ट है। यह एक ऐसा शाश्वत प्रश्न है जिसका उत्तर अन्तिम रूप से कभी दिया भी नहीं जा सकता है। यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर प्रत्येक समाज एवं प्रत्येक पीढ़ी की बदलती हुई प्रकृति एवं आवश्यकताओं के अनुसार बदलता रहता है।”

बबिट महोदय के अनुसार, “उच्चतर जीवन के लिए प्रतिदिन और चौबीस घण्टे की जा रही समस्त क्रियाएँ पाठ्यक्रम के अन्तर्गत आ जाती हैं।” एक अन्य विद्वान् ले के अनुसार, “पाठ्यक्रम का विस्तार वहाँ तक है, जहाँ तक जीवन का।”

परन्तु इन विचारों को पाठ्यक्रम की समुचित परिभाषा मानना तर्कसंगत नहीं लगता है, क्योंकि पाठ्यक्रम का सम्बन्ध शिक्षा के औपचारिक अभिकरण विद्यालय से है तथा विद्यालय ही पाठ्यक्रम की सीमा भी है।

बाल्टर एस. मनरो के शब्दकोष के अनुसार, “पाठ्यक्रम को किसी विद्यार्थी द्वारा लिये जाने वाले विषयों के रूप में परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम की कार्यात्मक संकल्पना के अनुसार इसके अन्तर्गत वह सब अनुभव आ जाते हैं जो विद्यालय में शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं।”

इस संकल्पना के अनुसार पाठ्यक्रम विकास के अन्तर्गत प्रयुक्त किये जाने वाले अनुभवों के आयोजन में पाठ्यक्रम को व्यवस्थित करने, उसे क्रियान्वित करने तथा उसका मूल्यांकन करने सम्बन्धी पक्ष सम्मिलित होते हैं।

ब्लांडस के शिक्षा कोष के अनुसार, “पाठ्यक्रम को क्रिया एवं अनुभव के परिणाम के रूप में समझा जाना चाहिए न कि अर्जित किये जाने वाले ज्ञान और संकलित किये जाने वाले तथ्यों के रूप में। विद्यालय जीवन के अन्तर्गत विविध प्रकार के कलात्मक शारीरिक एवं बौद्धिक अनुभव तथा प्रयोग सम्मिलित रहते हैं।”

राबर्ट एम. डब्ल्यू ट्रेवर्स ने अपनी पुस्तक ‘इन्ट्रोडक्सन टु रिसर्स’ में पाठ्क्रम की गत्यात्मकता पर बल देते हुए लिखा है, “एक शताब्दी पूर्व पाठ्यक्रम की संकल्पना उस पाठ्य- सामग्री का बोध कराती थी जो छात्रों के लिए निर्धारित की जाती थी, परन्तु वर्तमान समय में पाठ्यक्रम की संकल्पना में परिवर्तन आ गया है। यद्यपि प्राचीन संकल्पना अभी भी पूर्णरूपेण लुप्त नहीं हुई है, लेकिन अब माना जाने लगा है कि पाठ्यक्रम की संकल्पना में छात्रों की ज्ञान वृद्धि के लिए नियोजित सभी स्थितियाँ, घटनाएँ तथा उन्हें उचित रूप में क्रमबद्ध करने वाले सैद्धान्तिक आधार समाहित रहते हैं।”

सी.वी. गुड द्वारा सम्पादित शिक्षा कोष में पाठ्यक्रम की तीन परिभाषाएँ दी गई हैं, जो इस प्रकार है-

  1. “अध्ययन के किसी प्रमुख क्षेत्र में उपाधि प्राप्त करने के लिए निर्धारित किये गये क्रमबद्ध विषयों अथवा व्यवस्थित विषय-समूह को पाठ्यक्रम के नाम से अभिहित किया जाता है।”
  2. “किसी परीक्षा को उत्तीर्ण करने अथवा किसी व्यावसायिक, क्षेत्र में प्रवेश के लिए किसी शिक्षालय द्वारा छात्रों के लिए प्रस्तुत विषय-सामग्री की समग्र योजना को पाठ्यक्रम कहते हैं।”
  3. (3) “व्यक्ति को समाज में समायोजित करने के उद्देश्य से विद्यालय के निर्देशन में निर्धारित शैक्षिक अनुभवों का समूह पाठ्यक्रम कहलाता है।”

कनिंघम के अनुसार, “पाठ्यक्रम कलाकार (शिक्षक) के हाथ में एक साधनं है जिससे वह अपनी सामग्री (शिक्षार्थी) को अपने आदर्श (उद्देश्य) के अनुसार अपनी चित्रशाला (विद्यालय) में ढाल सके।”

डीवी के अनुसार, “सीखने का विषय या पाठ्यक्रम, पदार्थों, विचारों और सिद्धान्तों का चित्रण है जो निरन्तर उद्देश्यपूर्ण क्रियान्वेषण से साधन या बाधा के रूप में आ जाते हैं।”

सैमुअल के अनुसार, “पाठ्यक्रम में शिक्षार्थी के वे समस्त अनुभव समाहित होते हैं जिन्हें वह कक्षा-कक्ष में प्रयोगशाला में, पुस्तकालय में, खेल के मैदान में, विद्यालय में सम्पन्न होने वाली अन्य पाठ्येत्तर क्रियाओं द्वारा तथा अपने अध्यापकों एवं सार्थियों के साथ विचारों के आदान-प्रदान के माध्यम से प्राप्त करता है।”

माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल उन सैद्धान्तिक विषयों से नहीं है जो विद्यालयों में परम्परागत रूप से पढ़ाये जाते हैं, बल्कि इसमें अनुभवों की वह सम्पूर्णता भी सम्मिलित होती है, जिनको विद्यार्थी विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यशाला, खेल के मैदान तथा शिक्षक एवं छात्रों के अनेक अनौपचारिक सम्पर्कों से प्राप्त करता है। इस प्रकार विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यक्रम हो जाता है जो छात्रों के जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है और उनके सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता देता है।”

बेण्ट और क्रोनेनबर्ग के अनुसार, “पाठ्यक्रम पाठ्य-वस्तु का सुव्यवस्थित रूप है जो बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तैयार किया जाता है।”

फ्रोबेल के मतानुसार, “पाठ्यक्रम सम्पूर्ण मानव जाति के ज्ञान एवं अनुभव का प्रतिरूप होना चाहिए।

पाठ्यक्रम के प्रकार बताइए। पाठ्यक्रम एवं पाठ्य-वस्तु पर एक लेख लिखिए।

पाठ्यक्रम के प्रकार बताइए। पाठ्यक्रम एवं पाठ्य-वस्तु पर एक लेख लिखिए।

पाठ्यक्रम के प्रकार – पाठ्यक्रम के आज अनेक प्रकार विद्यमान हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख रूपों का आगे उल्लेख किया जा रहा है।

शिक्षक-केन्द्रित पाठ्यक्रम – जिस पाठ्यक्रम की योजना शिक्षक का केन्द्र बिन्दु मानकर बनाई जाती है और जिसमें अध्याक की रुचि, आवश्यक, योग्यता एवं अनुभव को ध्यान में रखा जाता है उसे शिक्षक-केन्द्रित पाठ्यक्रम कहते हैं। इस पाठ्यक्रम का प्रचलन प्राचीन काल में भारत और अन्य देशों में था। इसकी उपयोगिता संदिग्ध है अतः इसको त्याग देना ही उचित है।

विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम- इसमें पाठ्य-विषयों का अध्ययन-अध्यापन प्रमुख है। इसमें पाठ्यक्रम को विभिन्न विषयों में विभक्त कर दिया जाता है और प्रत्येक विषय के शिक्षण की व्यवस्था की जाती है। इस प्रकार का पाठ्यक्रम अमनावैज्ञानिक है। अतः इसकी उपयोगिता कम है, यद्यपि अभी तक हमारे विद्यालयों में प्रायः इसी प्रकार का पाठ्यक्रम प्रचलित है।

बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम- इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बालक की रुचि, योग्यता और अभिवृत्ति का ध्यान रखा जाता है। इसके निर्माण में बालक को केन्द्र में रखा जाता है। बाल- केन्द्रित पाठ्यक्रम को शिक्षा में सर्वाधिक महत्व देने का श्रेय रूसो को दिया जाता है। यह पाठ्यक्रम मनोवैज्ञानिक है और अनेक आधुनिक शिक्षण पद्धतियों में इसे महत्व दिया गया है।

क्रिया-केन्द्रित पाठ्यक्रम- इसमें विभिन्न क्रियाओं को महत्व दिया जाता है। इसके द्वारा विभिन्न सामाजिक क्रियाओं को सम्पन्न करके बालक शिक्षा प्राप्त करता है। डीवी, ब्रूवेकर, किलपैट्रिक आदि प्रयोजनवादियों ने इस प्रकार के पाठ्यक्रम पर विशेष बल दिया है।

अनुभव केन्द्रित पाठ्यक्रम- इस प्रकार के पाठ्यक्रम में समूची मानव जाति के अनुभवों के समावेश करने की बात कही जाती है। मानव जाति ने वर्तमान तथा अतीत में अनेक अनुभव प्रापत किये हैं। इनसे बालक को प्रेरणा मिलती है। अतः इन अनुभवों को प्रमुखता देकर बालक को इन्हें सिखाया जाए, जिससे वे अपने जीवन को सफल बना सकें। इस प्रकार के पाठ्यक्रम का समर्थन टी०पी० नन ने सर्वाधिक किया है।

शिल्प केन्द्रित पाठ्यक्रम – इसमें कताई-बुलाई, कृषि, बढ़ईगीरी, लुहारीगीरी, धातुकर्म, सिलाई कर्म किसी शिल्प को केन्द्र मानकर उसी के इर्दगिर्द अन्य विषयों की योजना बनाई जाती है। इस प्रकार बालक जो शिक्षा प्राप्त करता है वह अधिक रुचिकर एवं स्थाई होती है। इस पाठ्यक्रम का समर्थन महात्मा गाँधी, डॉ० जाकिर हुसैन, विनोबा भावे, आर्यनायकम ने सबसे अधिक किया। बेसिक शिक्षा में इसी पाठ्यक्रम को अपनाने की बात कही गई है।

कोर पाठ्यक्रम – इस प्रकार के पाठ्यक्रम में कुछ विषय व क्रियाएँ अनिवार्य होती हैं एवं कुछ ऐच्छिक। उदाहरणार्थ- भाषा, गणित जैसी कुछ क्रियाएँ सबके लिए अनिवार्य होती हैं। इस पाठ्यक्रम का विकास अमेरिका में हुआ है।

पाठ्यक्रम एवं पाठ्य-वस्तु में सम्बन्ध- पाठ्यक्रम के अन्तर्गत वे सभी अनुभव आ जाते हैं जिन्हें छात्र विद्यालयीय जीवन में प्राप्त करता है तथा जिनमें कक्षा के अन्दर एवं बाहर आयोजित की जाने वाली पाठ्य एवं पाठ्‌येत्तर क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। जबकि पाठ्य-वस्तु (सिलेबस) में निर्धारित पाठ्य-विषयों से सम्बन्धित क्रियाओं का ही समावेश होता है। इस प्रकार पाठ्य-वस्तु के अन्तर्गत किसी विषय-वस्तु का विवरण शिक्षण के लिए तैयार किया जाता है जिसे शिक्षक छात्रों को पढ़ाता है।

पाठ्यक्रम और पाठ्य- वस्तु के अन्तर को एक विद्वान ने भिन्न दृष्टि से प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार, “पाठ्य-वस्तु पूरे शैक्षिक सत्र में विभिन्न विषयों में शिक्षक द्वारा छात्रों को दिये जाने वाले ज्ञान की मात्रा के विषय में निश्चित जानकारी प्रस्तुत करती है जबकि पाठ्यक्रम यह प्रदर्शित करता है कि शिक्षक किस प्रकार की शैक्षिक क्रियाओं के द्वारा पाठ्य-वस्तु का निर्धारण करता है तथा पाठ्यक्रम उसे देने के लिए प्रयुक्त विधि का।”

हेनरी हरेप (Henry Harrap) के अनुसार, “पाठ्य-वस्तु (सिलेबस) केवल मुद्रित संदर्शिका है जो यह बताती है कि छात्र को क्या सीखना है? पाठ्य-वस्तु की तैयारी पाठ्यक्रम विकास के कार्य का एक तर्क सम्मत सोपान है।”

यूनेस्को (UNESCO) के एक प्रकाशन ‘Preparing Textbook Manuscripts’ (1970) में पाठ्यक्रम एवं पाठ्य-वस्तु के अन्तर को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-

“पाठ्यक्रम अध्ययन हेतु विषयों, उनकी व्यवस्था एवं क्रम का निर्धारण करता है और इस प्रकार एक सीमा तक मानविकी एवं विज्ञान में सन्तुलन तथा अध्ययन विषयों में एकरूपता करता है, जिससे विषयों के बीच अन्तर्सम्बन्ध स्थापित करने में सुविधा होती है। इसके साथ ही पाठ्यक्रम, विभिन्न विषयों के लिए विद्यालय की समय-अवधि का आवंटन, प्रत्येक विषय को पढ़ाने के उद्देश्य, क्रियात्मक कौशलों को प्राप्त करने की गति तथा ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र के स्कूलों के शिक्षण में विभेदीकरण का निर्धारण करता है। विकासशील देशों में स्कूल पाठ्यक्रम वहाँ की विकास की आवश्यकताओं से सीधे जुड़ा हुआ होता है। पाठ्य-वस्तु निर्धारित पाठ्य-
विषयों के शिक्षण हेतु अन्तर्वस्तु, उसके ज्ञान की सीमा, छात्रों द्वारा प्राप्त किये जाने वाले कौशलों को निश्चित करता है तथा शैक्षिक सत्र में पढ़ाये जाने वाले व्यक्तिगत पहलुओं एवं निष्कर्षों की विस्तृत जानकारी प्रदान करता है।… पाठ्य-वस्तु किसी पाठ्य-विषय के लिए अधिगम के एक स्तर विशेष पर पाठ्यक्रम का एक परिष्कृत एवं विस्तृत रूप होता है।”

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि पाठ्यक्रम के अन्तर्गत समाहित होने वाली कुछ क्रियाएँ पाठ्य-वस्तु के क्षेत्र से बाहर रह जाती हैं तथा पाठ्य-वस्तु उसका एक अंश बनकर रह जाती है। उदाहरणार्थ- हाईस्कूल के पाठ्यक्रम में गणित एक विषय के रूप में सम्मिलित किया जाता है, किन्तु गणित विषय के अन्तर्गत जिन उप-विषयों (अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित) की एक निश्चित पाठ्य सामग्री अथवा प्रकरणों को पढ़ाने के लिए निर्धारित किया जाता है उसे गणित की पाठ्य-वस्तु कहा जायेगा। इस प्रकार पाठ्य-वस्तु का सम्बन्ध ज्ञानात्मक पक्ष के विकास से होता है, जबकि पाठ्यक्रम का सम्बन्ध बालक के सम्पूर्ण विकास से होता है।

विद्यालय के अन्तर्गत शिक्षण क्रियाओं का सम्बन्ध ज्ञानात्मक पक्ष से होता है। खेलकूद तथा शारीरिक प्रशिक्षण का सम्बन्ध शारीरिक विकास से होता है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास हेतु सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं विशेष पर्वों को मनाने का आयोजन किया जाता है। एन.सी.सी. तथा स्काउटिंग आदि के कार्यक्रमों से नेतृत्व के गुणों का विकास होता है। इस प्रकार पाठ्यक्रम के अन्तर्गत विद्यालय की समस्त क्रियाओं को समाविष्ट किया जाता है तथा इसका स्वरूप व्यापक होता है जबकि पाठ्य-वस्तु का स्वरूप सुनिश्चित होता है तथा इसके अन्तर्गत केवल शिक्षण विषयों के प्रकरणों को ही सम्मिलित किया जाता है।

पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त का विस्तार में वर्णन कीजिए।

पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त (Principles of Curriculum Construction) – शैक्षिक पाठ्यक्रम का मुख्य कार्य छात्रों में व्यवहारगत परिवर्तन लाना, शिक्षण को प्रभावशाली बनाना एवं पाठ्यक्रम को अद्यतन रूप देना होता है। पाठ्यक्रम के सिद्धान्तों का वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

उपयोगिता के सिद्धान्त का अनुशरण- पाठ्यक्रम के सभी तत्वों की कुछ न कुछ उपयोगिता होना आवश्यक है। यदि पाठ्यक्रम छात्रों को कोई उपयोगी ज्ञान प्रदान नहीं करता है, पाठ्यक्रम का हृदय से स्वागत करता है जो कि उसके लिए उपयोगी होता है, उन्हें जीवन मूल्य प्रदान करता है और उनके जीवन को स्वावलम्बी बनाता है। इसलिए पाठ्यक्रम को उपयोगी होना चाहिए। इस सिद्धान्त की उपयोगिता पर बल देते हुए रायबर्न ने लिखा है, “चयन का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है और शिक्षक के अच्छे चयन की योग्यता पर उसके कार्य की सफलता बहुत कुछ निर्भर करती है।”

प्रेरणात्मक दृष्टिकोण- अध्ययन के प्रति छात्रों द्वारा किए जाने वाले प्रयास को प्रोत्साहित कर उन्हें सीखने के लिए और प्रेरित किया जाना चाहिए क्योंकि प्रेरणा वह आन्तरिक स्थिति है जो छात्रों को उद्देश्य प्राप्ति के लिए सतत् क्रियाशील रखती है। प्रेरित किए जाने पर छात्र की अध्ययन के प्रति रुचि स्वतः ही जागृत हो जाती है और सीखने की प्रक्रिया सरल व तीव्र हो जाती है।

समन्वयात्मक दृष्टिकोण- इसके द्वारा शिक्षण कार्य को अत्यधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। विषय वस्तु के शिक्षण में यथा सम्भव ऐसे तथ्यों को भी सम्मिलित किया जाए जो छात्र के द्वारा पढ़े जाने वाले विषयों में में से किसी एक विषय से सम्बन्ध रखता हो। यह सम्बन्ध दो प्रकार का शीर्षात्मक एवं अनुप्रस्थीय होना चाहिए।

रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest) – पाठ्यक्रम प्रेरणात्मक होना चाहिए और यह तभी सम्भव है जब वह छात्रों की रुचि, योग्यता, इच्छा एवं आवश्यकता पर आधारित हो। आधुनिक शिक्षा की प्रवृत्ति के अनुसार पाठ्यक्रम बालकेन्द्रित होना चाहिए और ऐसे पाठ्यक्रम का निर्माण केवल वही व्यक्ति कर सकता है जो कि बाल मनोविज्ञान का ज्ञाता हो। इस सम्बन्ध में पिन्सेट ने स्पष्ट किया है कि, “जब तक छात्रों में सक्रिय रुचि नहीं होती तब तक सर्वोत्तम शिक्षण कार्य नहीं होगा।”

नियोजन का सिद्धान्त (Principle of Planning)- ज्ञान के विस्तृत भण्डार में से छात्रोपयोगी ज्ञान का चयन कर उनके समक्ष प्रस्तुत करना एक अलग महत्व रखता है। प्रत्येक शिक्षक इस कार्य को सही ढंग से नहीं कर पाता व अध्ययन के क्षेत्र में अपना मार्ग भूलकर इधर- उधर भटकने लगता है। अतः अर्जित ज्ञान-भण्डार से चयन की गई विषयवस्तु को छात्रों के सम्मुख रखने से पहले एक योजना बना ली जानी चाहिए, जो छात्रों को पढ़ानी है।

वर्तमान पर बल (Principle of Stress of Present Time)- पर्यावरण के निर्माण में वर्तमान पर अत्यधिक बल दिया जाना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही उद्देश्यपूर्ण एवं अर्थपूर्ण होता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि पाठ्यक्रम के अर्न्तगत अतीत को स्थान नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि अतीत की सहायता से वर्तमान को अर्थपूर्ण एवं स्पष्ट बनाया जाता है।

जीवन से सम्बद्धता का सिद्धान्त (Principle of Linking with Life)- इसके अनुसार जीवन ही शिक्षा है अर्थात् शिक्षा और जीवन को परस्पर अलग नहीं किया जा सकता है। जीवन और शिक्षा दोनों एक साथ चलते हैं जब शिक्षा जीवन है, तो छात्र को जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से परिचित कराना आवश्यक है। इस प्रकार पाठ्यक्रम सूचनाप्रद एवं वर्णात्मक बनाना अत्यन्त लाभकारी है तृभी हम आदर्श नागरिकों का निर्माण कर सकते हैं।

प्रजातान्त्रिक मूल्य का सिद्धान्त (Principle of Democratic Value) – पाठ्यक्रम प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए। आज का युग प्रजातान्त्रिक युग है, इसकी सफलता सुनागरिक पर निर्भर करती है। छात्र ही भावी नागरिक है। अतः सुयोग्य एवं आदर्श नागरिकों का निर्माण करने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि कला शिक्षण के पाठ्यक्रम में कला के माध्यम से प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों, समानता, भ्रातृत्व, न्याय-प्रियता आदि मूल्यों को किया जाए। भी सम्मिलित

आवृत्ति का सिद्धान्त (Principle of Frequency) – इसमें अर्जित ज्ञान को स्थाई बनाने के लिए आवश्यक है इस ज्ञान को शिक्षण में पुनः दोहराया जाए जिससे वह स्थाई ज्ञान बन सके। इस सिद्धान्त को शिक्षक अध्ययन में आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाकर दोहराने की मात्रा पाठ के आधार पर निश्चित कर सकता है।

विविधिता व लोच का सिद्धान्त (Principle of Vividness and Flexibility) – शिक्षा में व्यक्तिगत विभेद के महत्व को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए। पाठ्यक्रम कोई अन्तिम उत्पाद नहीं है, यह तो अन्तिम उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन मात्र है, उद्देश्यों को प्राप्त करने की शिक्षण विधियाँ, प्रविधियाँ परिवर्तित होती रहती हैं। जिस प्रकार कला की मान्यताएँ आदर्श, आवश्यकताएँ आदि समयानुसार परिवर्तित होती रहती हैं, उसी प्रकार पाठ्यक्रम के तथ्यों को भी इस प्रकार निर्धारित करना चाहिए जिससे उनमें समयानुसार परिवर्तन किया जा सके।

अनुभवों की पूर्णता का सिद्धान्त (Principle of Completeness) of Experiences) – माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल सैद्धान्तिक विषयों से ही नहीं लिया जाता वरन् इसमें अनुभवों की पूर्णता निहित होती है। पाठ्यक्रम में वे सभी अनुभव सम्मिलित होते हैं जो विद्यालय द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं। पाठ्यक्रम में इन सभी अनुभवों को इस प्रकार एक कार्यक्रम के रूप में व्यवस्थित व नियोजित किया जाना चाहिए जिससे वह छात्रों के मानसिक-शारीरिक, सामाजिक, भावात्मक व नैतिक विकास को अग्रेसित कर सकें।”

व्यापकता का सिद्धान्त (Principle of Comprehensiveness) – पाठ्यक्रम व्यापक होना चाहिए। यह केवल, कक्षा-कक्ष, पाठ्य पुस्तक तथा पुस्तकालयों तक ही सीमित नहीं होता है। खिलिन के अनुसार, “शिक्षा अभिप्राययुक्त एवं नैतिक क्रिया है, अतः ये कल्पना नहीं की जा सकती है कि वह उद्देश्य विहीन है। इससे सिद्ध होता है कि बिना उद्देश्य प्राप्त किए शिक्षण कार्य का कोई महत्व नहीं है, अतः शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम में वे सभी स्थान, विचार तथा क्रियाएँ सम्मिलित की जाएँ, जो शिक्षा के या किसी एक विषय के निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होते हैं।”

व्यावहारिकता के तत्वों को प्रधानता- आज व्यावहारिकता को अत्यधिक महत्व दिया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार हमारा वातावरण यदि केवल सैद्धान्तिक बातों पर निर्भर होगा, तो विद्यार्थी उसमें रुचि न लेंगे व उसमें कठिनाई का अनुभव करेंगे, जिससे ज्ञान निरर्थक सिद्ध होगा। अतः ज्ञान को व्यवहारिक रू प्रदान किया जाना चाहिए, जिससे छात्र उसका सरलता से हृदयंगम कर सकें।

सामाजिक आवश्यकता का ध्यान- बालक की आवश्यकता के साथ-साथ समाज की आवश्यकता का ध्यान रखना भी आवश्यक है। बालक का विकास शून्य में नहीं होता। बालक की क्षमताओं के विकास के लिए एवं उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी समाज का ध्यान रखना आवश्यक होगा। हमारे माध्यमिक विद्यालयों में स्वतन्त्रता से पहले इंग्लैण्ड के इतिहास एवं अंग्रेजों के अध्ययन पर अधिक बल था। समाज की आवश्यकता के कारण ऐसा नहीं था वरन् अंग्रेजी सरकार की मशीनरी को चलाने की आवश्यकता की पूर्ति के लिए ऐसा किया जाता था। समाजशास्त्री इस सिद्धान्त को अत्यधिक आवश्यक सिद्धान्त मानते हैं।

रचनात्मक का सिद्धान्त- प्रत्येक बालक में कुछ-न-कुछ रचनात्मक शक्ति होती है। पाठ्यक्रम को इस प्रकार का बनाना चाहिए कि वह छात्रों को रचनात्मक कार्यों का अवसर प्रदान कर सके। यदि बालक की रचनात्मक शक्ति के प्रकट होने का अवसर नहीं मिलेगा तो उसका व्यक्तित्व पूर्णरूप’ से विकसित नहीं हो सकेगा। बालक को सृजनात्मक कार्यों की प्रेरणा मिलनी चाहिए और कलात्मक रचना की गुप्त शक्तियों के विकास का अवसर मिलना चाहिए। इस सिद्धान्त का समर्थन सबसे अधिक रेमॉण्ट महोदय ने किया है।

खेल तथा कार्य में समन्वय- खेल में तात्कालिक आनन्द उद्देश्य होता है जबकि कार्य में सुदूर प्रयोजन निहित होता है। इसीलिए पुराने समय में कहा जाता है कि ‘खेलते समय खेलों और काम करते समय काम करो।’ हम देखते हैं कि बालक खेल में अत्यधिक आनन्द लेता है। खेल और कार्य एक नहीं हो सकते किन्तु खेल और कार्य सम्बन्धी क्रियाओं में यदि कुछ सम्बन्ध स्थापित हो सके तो इससे व्यक्तित्व का विकास शीघ्र होता है। सीखना एक ऐसा कार्य है जिसमें खेल की क्रियाओं से सहायता मिल सकती है। खेल-विधि द्वारा अध्ययन अधिक रुचिकर हो सकता है। खेल की पद्धति से सीखी हुई बात अधिक आनन्ददायी एवं स्थाई हो सकती है। अतः जहाँ तक सम्भव हो, खेल और कार्य में समन्वय स्थापित किया जाय किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि खेल से सम्बन्धित करने के लोभ में कार्य के प्रयोजन को ही भूल जायें। मॉन्तेसरी स्कूल तथा किण्डरगार्टन स्कूल में खेल तथा कार्य में पर्याप्त समन्वय दिखायी पड़ता है। प्रोजेक्ट मेथड तथा एक्टीविटी स्कूल में भी यह समन्वय दिखाई पड़ता है। पाठ्यक्रम में खेल तथा कार्य के अवसर प्रदान किये जायें और सम्भव हो तो दोनों में समन्वय की शिक्षा भी इंगित की जाय।

व्यवहार के आदर्शों की प्राप्ति का सिद्धान्त- मानव जीवन का लक्ष्य है- सुन्दर एवं स्वस्थ जीवनयापन करना। स्वस्थ जीवन के लिए स्वस्थ व्यवहार आवश्यक है। स्वस्थ व्यवहार किस प्रकार हो, इसका निर्णय संस्कृति करती है। स्वस्थ व्यवहार के इन प्रतिमानों तक छात्र को पहुँचाना होता है। पाठ्यक्रम में इस प्रकार की सामग्री का चयन हो कि बालक व्यवहार के आदर्शों का ज्ञान प्राप्त कर सकें। साथ ही, पाठ्यक्रम को इस प्रकार के अवसर भी प्रदान करने चाहिए कि छात्र उन आदर्शों तक पहुँचने का प्रयत्न कर सके।

वर्तमान पाठ्यक्रम के दोषों का वर्णन दीजिए।

वर्तमान पाठ्यक्रम के दोष- अब यह चेतना बढ़ती जा रही है कि हमारे पाठ्यक्रम में बहुत-सी दुर्बलतायें हैं और और इन्हीं दुर्बलताओं के कारण हमारी शैक्षिक पुनर्गठन योजनायें असफल हो गई है। एक के बाद एक, अनके कमेटियों ने इन दुर्बलताओं की तरफ ध्यान दिलाया, लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई सक्रिय एवं ठोस कदम नहीं उठाया गया है। हमारा पाठ्यक्रम शिक्षा के वास्तविक आदर्शों एवं उद्देश्यों की पूर्ति करने में असफल हो गया के हितों की सेवा की है और न समाज की आवश्यकताओं का हुए सुधार के प्रयत्न किये गये हैं। है। इसने न न तो विद्यालयों ही ध्यान रखा है। इसमें हिचकिचाते

हमारे स्कूलों में कोई पाठ्यक्रम नहीं है, विभिन्न विषयों के लिए केवल ‘सिलेबस’ ही निर्धारित है। यह केवल उस सामग्री की रूपरेखा निर्दिष्ट करता है जोकि विभिन्न विषयों के अन्तर्गत बालकों को पढ़ाया जाना है। सामग्री का चुनाव बालकों की रुचि एवं योग्यताओं का ध्यान रखे बिना ही किया गया है। विभिन्न आयु स्तर के बालकों के लिए उसमें न तो सामाजिक प्रेरणा है और न मनोवैज्ञानिक प्रेरणा ही। चूंकि वह उनके वातावरण से सम्बन्धित नहीं है, इसलिए उसका सामाजिक जीवन पर कोई प्रभाव पड़ने की सम्भावना नहीं है। उसका प्रधान लक्ष्य तथ्यात्मक सामग्री को याद कराना है। वह विद्यार्थियों में आवश्यक योग्यतायें प्रोत्साहित नहीं करता और न् उनमें कोई ऐसी अच्छी एवं उचित प्रवृत्तियाँ ही विकसित करता है जोकि उसे स्वस्थ नागरिक बनाने में सहायता दें। वह बालकों को किसी व्यवसाय के योग्य नहीं बनाता और न उनकी प्राकृतिक क्षमताओं एवं शक्तियों का ही उपयोग करता है। इसका स्पष्ट परिणाम यह होता है कि बालक आत्म-निर्भर नहीं हो पाते। वह उन्हें केवल यूनिवर्सिटी शिक्षा प्राप्त करने के योग्य बनाता है। अब यह अति आवश्यक है कि पाठ्यक्रम में अविलम्ब समुचित परिवर्तन किये जायें।

विभिन्न राज्यों के निर्धारित सिलेबसों के अध्ययन एवं विश्लेषण से यह ज्ञात होगा कि वे बहुत ‘पुस्तकीय’ स्वभाव के हैं। वे तार्किक अध्ययन के महत्त्व पर जोर देते हैं और तथ्यात्मक ज्ञान प्रदान करने की व्यवस्था करते हैं। इनमें इस बात का प्रयत्न नहीं किया गया है कि बालकों को आधारभूत बातों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो। इसका स्पष्ट परिणाम यह होता है कि बालक की समरण शक्ति पर अनावश्यक दबाव पड़ता है और उसको सामग्री भी समझ में नहीं आ पाती। इस प्रकार जो अधूरा ज्ञान प्राप्त होता है उससे बालक का दृष्टिकोण विस्तृत नहीं होता और न उसकी सहानुभूतियों का ही परिमार्जन होता है। इस प्रकार प्राप्त हुए ज्ञान का न तो कोई उपयोग है न अर्थ ही। इन विषयों के अध्ययन से उन्हें जो क्षमता प्राप्त होती है वह बहुत साधारण और अपर्याप्त है। “ऐसे विद्यार्थियों के लिए संकुचित मनोवृत्ति वाला पुस्तकीय पाठ्यक्रम उचित प्रकार की ‘तैयारी’ प्रदान नहीं करता। यह आवश्यक है कि वे विविध बौद्धिक एवं शारीरिक क्रियाओं में, क्रियात्मक कार्य-कलापों में, सामाजिक अनुभवों में भाग लें और यह सब केवल पुस्तकीय अध्ययन द्वारा सम्भव नहीं है।”

सार्थक एवं लाभप्रद होने के लिये यह आवश्यक है कि पाठ्यक्रम बालकों के विविध मुखी व्यक्तियों के विकास का प्रयत्न करे। वह इस प्रकार बनाया जाय कि विभिन्न आयु स्तर के विभिन्न रुचि वाले बालकों की आवश्यकताओं को (बौद्धिक, शारीरिक, भवात्मक, नैतिक एवं सामाजिक) पूरा करने में समर्थ हो।

भारत में माध्यमिक विद्यालयों में आजकल जो पाठ्यक्रम प्रचलित है वह दोषपूर्ण है। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने वर्तमान पाठ्यक्रम के निम्नलिखित दोषों की ओर ध्यान दिलाया है।

  1. वर्तमान पाठ्यक्रम संकुचित दृष्टिकोण से निर्मित किया गया है।
  2. इसमें पुस्तकीय एवं सैद्धान्तिक ज्ञान पर अत्यधिक बल दिया गया है।
  3. इसमें महत्वपूर्ण एवं सम्पन्न सामग्री का अभाव है। पाठ्यक्रम की अनावश्यक तथ्यों एवं सूक्ष्म विवरणों से लाद दिया गया है और स्मृति पर बहुत भार पड़ता है।
  4. इसमें क्रियात्मक एवं व्यावहारिक कार्यों के लिए अपर्याप्त स्थान है।
  5. इसमें बालक की आवश्यकताओं एवं क्षमताओं का ध्यान नहीं रखा गया है। व्यक्तिगत विभिन्नता उपेक्षित है।
  6. वर्तमान पाठ्यक्रम में परीक्षाओं का सर्वाधिक महत्व है।
  7. देश के आर्थिक एवं औद्योगिक विकास के लिए तकनीकी एवं व्यावसायिक विषय आवश्यक हैं। वर्तमान पाठ्यक्रम में इन विषयों का समावेश नहीं है।

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