अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम: कारण, प्रभाव और समाधान

अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम: कारण, प्रभाव और समाधान

अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम: कारण, प्रभाव और समाधान

जनसंख्या में अनियंत्रित वृद्धि एक सापेक्ष शब्द है। देश में उत्पादित खाद्यान्नों उपलब्ध संसाधनों के परिप्रेक्ष्य में अधिक तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या आर्थिक वृद्धि दर और सामाजिक संतुलन दोनों को नकारात्मक ढंग से प्रभावित करती है। वस्तुतः स्वास्थ्य संबंधी प्रगति दर के कारण घटती मृत्यु और स्थायी जन्म दर इस विसंगति के मूल में स्थित हैं। यद्यपि मानव संसाधन किसी भी देश की प्रगति के लिए आवश्यक है तथापि इसमें कमी या वृद्धि से उस देश का विकास प्रभावित हो जाता है। यानि एक आदर्श स्थिति के लिए इसमें संतुलन आवश्यक है।

जनसंख्या विस्फोट हमारे देश की एक गंभीर आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्या है। वर्ष 1930-31 में अविभाजित भारत की जनसंख्या 20 करोड़ थी। 20 वर्षों पश्चात् यही जनसंख्या 1951 में 36 करोड़ हो गई। तत्कालीन जनगणना आयुक्त श्री गोपाल स्वामी ने बढ़ती हुई जनसंख्या के कुप्रभावों पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त किया था, जो कुछ वर्षों के पश्चात् ही सत्य साबित हुआ। अनवरत वृद्धि की ओर प्रवृत्त यह विभीषिका आज 120 करोड़ को पार कर गई
है, जो निश्चय ही विचारणीय है।

प्रसिद्ध अर्थशस्त्री माल्थस ने यह चेतावनी दी कि यदि जनसंख्या को आत्म-संयम अथवा कृत्रिम संसाधनों द्वारा नियंत्रित नहीं किया गया तो प्रकृति अपने क्रूर हाथों से बढ़ती हुई जनसंख्या को नियंत्रित कर सकती है। इसे नियंत्रित करना इसलिए आवश्यक है कि खाद्य सामग्री अंकगणितीय दर से अर्थात् 1,2,3,4,आदि के क्रम में बढ़ती है, वहीं जनसंख्या सदैव ज्यामितीय दर से अर्थात् 1,2,4,8,16 के क्रम में बढ़ती है। भारत के संदर्भ में माल्थस ने यह भविष्यवाणी की थी कि भारत की जनसंख्या शीघ्र ही दोगुनी हो जाएगी। उनकी यह कल्पना शीघ्र ही प्रासंगिक हो गई। भारत ही नहीं, अपितु समस्त भूमंडल जनाधिक्य की समस्या से त्राहिमाम कर रहा है।

बीसवीं सदी में भारत की जनसंख्या वृद्धि को चार प्रमुख चरणों में बांटा जा सकता है- स्थिर जनसंख्या (1901-1921), क्रमिक वृद्धि (1921-1951), तेजी से वृद्धि (1951- 1981), निश्चित कमी के लक्षण के साथ ऊंची वृद्धि (1981-2001)

बीसवीं सदी के प्रारंभ यानि वर्ष 1921 तक यह प्रवृत्ति दिखाई दी। अतः वर्ष 1921 को ‘महाविभाजक वर्ष’ कहते हैं। इसके उपरांत देश एक-एक करके जनसांख्यिकीय संक्रमण के विभिन्न चरणों से सफलतापूर्वक गुजरात गया और अब यह माना जा रहा है कि हम पांचवें चरण में प्रवेश कर चुके हैं, जिसे सामान्यतया ‘तेजी से उर्वरता में आ रही कमी’ कहा जा सकता है।

जनसंख्या की दृष्टि से भारत का स्थान विश्व मे दूसरा है, जबकि जनघनत्व के मामले में हम कहीं ऊपर हैं। भारत में जनसंख्या वृद्धि के चलते भूमि और संसाधनों पर दबाव स्वतः महसूस किया जा सकता है।

किसी भी देश की जनसंख्या को घटाने या बढ़ाने में प्रमुखतः तीन कारक उत्तरदायी हैं- जन्म दर, मृत्यु दर तथा आवास-प्रवास। यदि जन्म दर अधिक है और मृत्यु दर कम है, तो जनसंख्या बढ़ेगी और यदि जन्म दर कम है और मृत्यु दर अधिक है, तो जनसंख्या घटेगी। इसी प्रकार यदि दूसरे देशों से आने वाले लोगों की संख्या विदेशों में जाने वाले लोगों की तुलना में अधिक है, तो जनसंख्या बढ़ेगी किंतु विपरीत स्थिति होने पर जनसंख्या घटेगी।

आधुनिक चिंतक समाज की प्रत्येक उन्नति और अवनति को मानव विकास सूचकांक की कसौटियों पर नापनां समझते हैं। इन मानकों में साक्षरता, स्वास्थ्य, मनोरंजन और गरिमा का अधिकार सम्मिलित हैं।

भारत की सभी राज्यों के जनांकिकीय विश्लेषणों से यह प्रमाणित होता है कि साक्षरता और विकास की दौड़ में आगे रहे राज्य जनसंख्या नियंत्रण के लक्ष्यों को प्राप्त करने में भी सफल रहे।

भारतीय समाज की परंपरागत विकृतियाँ भी इस समस्या के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। बाल-विवाह इनमें सार्वधिक महत्वपूर्ण है। सर्वेक्षणों के आधार पर कहा गया है कि भारत में लगभग 40 प्रतिशत लड़कियाँ आज भी 18 से कम आयु में विवाह के बंधन में बंधने को विवश होती है।

ऐसे विवाह की सबसे बड़ी विसंगति है कि कम उम्र से ही संतति-जनन प्रारंभ हो जाता है। वर और कन्या के विकास की संभावनाएं क्षीण होने के साथ ही खान-पान आवास, बेरोजगारी गरीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी अन्य समस्याएं विकराल रूप से खड़ी हो जाती हैं।

प्रख्यात जनांकिकीविद् आशीष बोस के अनुसार, “हम गर्भनिरोधक प्रौद्योगिकी’ (Con- traceptive Technology) की, धन संबंधी प्रोत्साहन की, वन्ध्यकरण (Sterilisation) संख्या की और परिवार नियोजन के लक्ष्यों की बात न करें। इसके स्थान पर समस्या के मानवीय आयामों पर बल दें। इस संबंध में विवाह की आयु प्रमुख है। 14-18 वर्ष की किशोर लड़कियों के लिए निपुणता-निर्माण (skill formation) और आय-उत्पादन (Income Generation) के प्रोग्राम विवाह की आयु को ऊंचा उठाने में अधिक सहायक होंगे।

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में संयुक्त परिवार प्रणाली होने के कारण परिवार के वयोवृद्ध अपने पौत्र-पौत्रियों का विवाह अपने जीवनकाल में ही देखना चाहते हैं और वृहद परिवार को शक्ति सत्ता प्रतिष्ठा का सूचक माना जाता है।

परिवार नियोजन का स्त्रियों की शिक्षा से सीधा संबंध है और स्त्रियों की शिक्षा का सीधा संबंध विवाह के समय आयु से, स्त्रियों की आम प्रतिष्ठा से, उनकी जनन क्षमता के आचरण (Fertility behaviour) से और शिशु मृत्यु दर आदि से। शिक्षा एक व्यक्ति को उदार, नए विचारों को ग्रहण करने वाला और तार्किक बनाती है। यदि स्त्री और पुरूष दोनों शिक्षित हैं तो वे परिवार नियोजन के तर्क को आसनी से समझ लेगें, परंतु यदि उनमें से एक या दोनों निरक्षर हैं तो वे अधिक रूढ़िवादी, अतार्किक और धार्मिक विचारों के होंगे। यह बात इससे और भी स्पष्ट हो जाती है कि केरल में जहां 2011 की जनगणना के अनुसार, साक्षरता दर 94 है, जिसमें पुरूषों की साक्षरता दर 96.1% तथा स्त्रियों की 92,1% है, वहीं जन्म दर सबसे कम है, जबकि सबसे कम साक्षरता वाले राज्य बिहार, राजस्थान इत्यादि में जन्म दर अधिक है। यही बात अन्य राज्यों पर भी लागू होती है।

जनसंख्या वृद्धि में आर्थिक पक्ष भी कम जिम्मेदार नहीं है, जिसमें गरीबी और अशिक्षा समाहित हैं। निम्न जीवन-स्तर के कारण लोग यह सोचते हैं कि अधिक संतानों होंगी, तो वे भी उत्पादन कार्य में लगाकर अधिक धन अर्जित करेंगी और जीवन-स्तर को उन्नत कर सकेंगी। साथ ही निम्न जीवन-स्तर के कारण संतानों की शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण इत्यादि के लिए अधिक खर्च नहीं करना पड़ेगा और जितनी अधिक संतानों होंगी, आर्थिक स्थिति उतनी ही अधिक सुदृढ़ होगी। भाग्यवादी विचाराधारां के कारण स्त्रियों का मानना है कि यदि मेरे भाग्य में अधिक बच्चे लिखे हैं, तो वे होंगे। यदि नहीं, तो नहीं होंगे। मुझे इसकी चिंता क्यों करनी चाहिए?

भारतीय समाज पुरूष प्रधान समाज है, जहां स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों को अधिक अधिकार प्राप्त हैं। परंपराओं से बधे होने के कारण पुत्र प्राप्ति की लालसा भी जनसंख्या वृद्धि का कारण ‘है। हमारे धर्मशास्त्रों में ‘मोक्ष’ प्राप्त करना मनुष्य का अंतिम लक्ष्य बताया गया है। अतः मोक्ष तभी प्राप्त हो सकता है, जब व्यक्ति पुत्र उत्पन्न करे। इसलिए संतानोपत्ति तब तक होती रहती है, जब तक पुत्र की प्राप्ति न हो जाए।

भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अनुसार, हिंदू विवाह को एक धार्मिक संस्कार माना गया है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस संस्कार को पूरा करना आवश्यक माना गया। विवाह की अनिर्वायता का परिणाम संतानोपत्ति के रूप में प्राप्त होता है।

जनसंख्या वृद्धि के कारण ऐसी समस्या आ जुड़ी है, जिसका समाधान किसी के पास नहीं है, वह है भूमि की सीमितता। सीमित क्षेत्रफल में बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव के परिणामस्वरूप कृषि योग्य भूमि का अभाव होता जा रहा है। अमूल्य वनों को काटकर लोग। इससे प्राप्त भूमि पर खेती करते जा रहे हैं, जिससे आवश्यक वन सम्पदा के विनाश एवं जंगली जानवरों के वंशलोप के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी विकराल रूप लेती जा रही है।

प्रो. कोलिन क्र्लोक जनसंख्या वृद्धि को देश के आर्थिक विकास के लिए हानिकारक मानते हैं, क्योंकि बचत का अधिकांश भाग जनसंख्या पर खर्च होने से शुद्ध राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय बहुत ही कम रह जाती है। प्रो. विलार्ड की मान्यता है कि विकासशील राष्ट्रों की जनसंख्या की वृद्धि दर में कमी होने पर आय में वृद्धि होती है क्योंकि इन देशों में आर्थिक परिस्थितियां विकास के अनुकूल नहीं है।

जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति प्राकृतिक संसाधनों में भी कमी हो जाती है और उत्पादकता घटती है ऐसी परिस्थिति में जनाधिक्य वाले देशों में पूंजीगत भंडार में वृद्धि करना असंभव हो जाता है, क्योंकि यहां बचत ही नहीं हो पाती। ऐसे देशों में भुखमरी की समस्या भी पैदा हो जाती है, क्योंकि खाद्यान्न संकट के कारण दूसरे देशों से खाद्यान्न आयात कर पूर्ति करना सभी विकासशील देशों के लिए संभव नहीं परिणामस्वरूप संतुलित भोजन प्राप्त न होने से कुपोषित हो जाने के कारण ऐसे देशों के निवासियों की कार्य क्षमता प्रभावित होती है। जनसंख्या वृद्धि का सीधा संबंध ‘मांग और पूर्ति’ सिद्धान्त को प्रभावित करता है, जिससे महंगाई बढ़ती है और गरीबी जैसे अभिशाप का जन्म होता है। इससे लोगों का जीवनस्तर जहां प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है, वहीं बेरोजगारी जैसी विकट समस्या भी सिर उठाती है।

जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए राष्ट्रीय योजना समिति (जिसे 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने नियुक्त किया) ने वर्ष 1940 में डॉ. राधाकमल मुखर्जी की अध्यक्षता में जनसंख्या पर जिस उपसमिति को निर्मित किया, उसने आत्मसंयम, संतति निग्रह के सस्ते और निरापद तरीकों की जानकारी फैलाने और संतति-निग्रह (Birth Control) चिकित्सालयों को खोलने पर बल दिया।

उसने विवाह की आयु बढ़ाने, बहु-विवाह को रोकने, आँनुवांशिक रोगों से ग्रसित व्यक्तियों को बन्ध्य (Sterilize) करने के लिए एक सुजननिक (Eugenic) कार्यक्रम बनाने की अनुशंसा भी की। वर्ष 1943 में सरकार द्वारा नियुक्त ‘भोर कमेटी’ ने आत्मनियंत्रण के तरीके की निंदा और ‘परिवारों की संकल्पित परिसीमन’ को समर्थन किया। स्वंत्रता के पश्चात् वर्ष 1952 में एक ‘जनसंख्या नीति समिति’ और वर्ष 1953 में एक ‘परिवार नियोजन शोध और परियोजना समिति’ का गठन किया गया।

वर्ष 1952 में ही भारत विश्व का पहला ऐसा देश बना, जिसने ‘परिवार नियोजन कार्यक्रम’ की शुरूआत की। वर्ष 1956 में ‘केन्द्रीय परिवार नियोजन बोर्ड’ स्थापित किया गया, जिसने बन्ध्यकरण’ (Sterilization) पर बल दिया। साठ के दशक में जनसंख्या के विकास को यथोचित समय में स्थिर करने के लिए एक अधिक सशक्त परिवार नियोजन कार्यक्रम की वकालत की गई। शुरू में सरकार का विश्वास था कि लोगों में परिवार नियोजन कार्यक्रम के प्रति काफी उत्साह है और केवल गर्भनिरोधक सुविधाएं उपलब्ध कराकर ही लक्ष्य की पूर्ति की जा सकती है। किंतु, बाद में उसे यह लगा कि लोगों को प्रेरित करने की आवश्यकता है और जनता को इस बारे में शिक्षित करना पड़ेगा। चौथी पंचवर्षीय योजना में (1969-74) परिवार नियोजन को ऊंची प्राथकिता दी गई।

वर्ष 1971 में ‘मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेन्सी एक्ट’ बनाया गया। पांचवीं पंचवर्षीय योजना में परिवार नियोजन कार्यक्रम का मां और शिशु स्वास्थ्य कार्यक्रमों के साथ एकीकरण किया गया। वर्ष 1976 में भारत ने जनसंख्या नीति की घोषणा की, जिसके अनुसार, छठीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक जन्म दर को घटाकर 25 प्रति हजार करना था किन्तु, आपातकाल के समय लोगों के साथ नसबंदी करने के लिए जबरदस्ती भी की गई, जिससे परिवार नियोजन को धक्का लगा। वर्ष 1977 में ‘परिवार नियोजन’ का नाम बदलकर ‘परिवार कल्याण’ कर दिया गया और ऐसे कार्य जो ‘परिवार नियोजन’ के दायरे से बाहर थे, जैसे परिवार कलयाण के समूचे जिसमें महिलओं के शैक्षिक स्तर में सुधार भी सम्मिलित था, इसमें शामिल कर लिया गया। परिवार नियोजन में भारत ने UNFP के नियम को अपनाया, जिसके अनुसार पहले बच्चे में देरी और अगले वाले बच्चे में अंतराल करना होता है।

जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए उपाय सुझाने के लिए ‘स्वामीनाथन कमेटी’ गठित की गई, किंतु अनेक विशेषज्ञों ने इस समिति की सिफारिशों की आलोचना की और सुझाव दिए कि इन्हें अस्वीकार किया जाना चाहिए, क्योंकि इस रिपोर्ट में गहन विश्लेषण व औचित्य का अभाव है। 15 फरवरी, 2000 को भारत सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण एवं परिवार कल्याण आदि उपायों को ध्यान में रखते हुए जनसंख्या नीति की घोषणा की, जिसमें तमाम प्रावधानों को सम्मिलित किया गया, किंतु इसका सार्थक परिणाम अभी भी प्राप्त नहीं हुआ।

वस्तुतः जनसंख्या नियंत्रण के लिए होने वाले प्रयासों के वरीयता क्रम में बाल विवाह पर प्रतिबंध शीर्ष पर होना चाहिए।

इनके अतिरिक्त शैक्षिक प्रसार और रोजगारपरक अर्थव्यवस्था के विस्तार द्वारा सामाजिक पितृप्रधान में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।

व्यक्ति को सात्विक विचारधारा अपनाते हुए अपने रहन-सहन, खान-पान पर विशेष ध्यान देना, होगा, जिससे वह संयमित एंव स्वस्थ जीवन जी सके। सरकार द्वारा मनोरंजन के साधनों में और वृद्धि की जाय तथा लघु एवं कुटीर उद्योगों को अधिक से अधिक स्थापित किया जाय, जिससे लोग अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के साथ कार्यों में व्यस्त रहेंगे। इसके साथ ‘हम दो हमारे दो’ की नीति का कड़ाई से पालन होना चाहिए। यह व्यवस्था सरकारी नौकरियों से लेकर पंचायत तथा अन्य चुनावों में जनप्रतिनिधियों के लिए लागू होनी चाहिए।

मानव की कुछ मूलभूत शारीरिक आवश्यकताएं भी होती हैं जिनके दमन से स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है। गर्भ निरोधक के उपायों द्वारा संतानोत्पत्ति को रोका जा सकता है जबकि महात्मा गांधी परिवार नियोजन का सबसे अच्छा ‘आत्म-संयम’ मानते हैं।

जनसंख्या वृद्धि के कारण अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बेरोजगारी, पर्यावरण का अवनयन, आवासों की कमी, कुपोषण, निम्न जीवन-स्तर के साथ कुस्वास्थ जैसी समस्याएं अनुषंगी रूप में जुड़ी रहती है। भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है। यह गरीबी और अभाव अपराध, चोरी, भ्रष्टाचार, काला-बाजारी व तस्करी जैसी समस्याओं को जन्म देते हैं।

पर्यावरण की दृष्टि से भी जनसंख्या वृद्धि हानिकारक है। बढ़ती जरूरतों के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध व निर्गम दोहन हो रहा है, जिसके भयावह दुष्परिणाम देखने को मिल रहे हैं। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण एवं मृदा-प्रदूषण के के लिए भी जनसंख्या वृद्धि को मुख्य कारण माना जाता है।

वैसे कुछ लोगों का यह भी मानना है कि मानव संसाधन सबसे बड़ा और प्रमुख संसाधन होता है। इस दृष्टि से यदि भारत के संदर्भ में बात की जाये तो भारत की स्थिति चिंताजनक नहीं, बल्कि अग्रणी होनी चाहिए थी, क्योंकि भारत की विशाल जनसंख्या में युवाओं का प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है।

अनुमान लगाया जा रहा है कि 2020 तक भारत दुनिया का सबसे युवा देश होगा। जनसंख्या को देखने का यह नजरिया कहता है कि तमाम सामाजिक व आर्थिक समस्याओं की जड़ जनसंख्या नहीं, बल्कि भ्रष्टाचारर, संसाधनों का असमान वितरण, गरीबी-अमीरी के बीच बढ़ती खाई और विज्ञान व तकनीक का अल्प विकास इत्यादि समस्याएं हैं।

हालांकि वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए भारत के संदर्भ में यही कहा जा सकता है कि फिलहाल भारत अपनी तेजी से बढ़ रही जनसंख्या का विकास की सीढ़ी नहीं बना सकता। जब तक हमारा देश ऐसा कर पाने में सक्षम नही हो जाता, उसे अपना विशेष जोर जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में ही लगाना होगा। अतः बात घूम कर वहीं आती है कि हमें शीघ्रतिशीघ्र जनसंख्या के सैलाब को नियंत्रित करना ही होगा। अन्यथा हमारे आर्थिक विकास की गति धीमी रहेगी और हमें जन-विस्फाट के परिणाम भुगतने होंगे।

अलक घोष कहते हैं कि “भारत में सावधानीपूर्वक जनसंख्या नियोजन की शीघ्र आवश्यकता है अन्यथा जनसंख्या वृद्धि हमारी आर्थिक वृद्धि का समाप्त कर देगी”। ऐसा माना जाता है कि यदि जन-वृद्धि का क्रम इसी प्रकार बढ़ता रहा तो जीवन के लिए उपलब्ध सभी साधन समाप्त हो जाएंगे। प्रसिद्ध विद्वान प्रो. कार सांडर्स का मत है कि संसार की जनसंख्या में 10 की दर से वृद्धि हो रही है तथा यह वृद्धि इसी गति से होती रही तो मानव को पृथ्वी पर खड़े रहने तक का स्थान नहीं मिल पाएगा।

यह नारा अकारण नहीं दिया गया है-‘अगर चाहते सुख समृद्धि, रोको जनसंख्या वृद्धि’। सुख-समृद्धि एवं समस्याओं से मुक्त समाज के लिए यह आवश्यक है कि अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि को रोका जाए और संतुलन की स्थिति निर्मित की जाए। हमारी सरकार इस दिशा में प्रयासरत भी है। भारत सरकार ने वर्ष 2045 तक जनसंख्या स्थिरीकरण का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जहां पारदर्शी एवं सुचिंतित सरकारी प्रयास आवश्यक हैं, वहीं जनसहयोग भी आवश्यक है। हम संकीर्ण एवं रूढ़िवादी मानसिकता का त्याग कर यदि सरकार का साथ दें, तो सुखद परिणाम मिलने तय हैं। तसल्लीबख्श बात यह है कि वर्ष 2011 की जनगणना के अंतिम आंकड़ों से यह ध्वनित होता है कि छोटे परिवार की अवधारणा के बलवती होने से जन्म दर में मामूली गिरावट आयी है।

जैसा कि वर्ष 2021 की जनगणना हेतु कार्य प्रारंभ हो चुके हैं, उम्मीद करते हैं कि सरकार द्वारा इसे प्रकाशित किए जाने तक जनसंख्या वृद्धि को रोका जाने से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रयास किए जाएंगे। इस संदर्भ में 15 अगस्त, 2019 को लाल किला के प्राचीर से भारत के प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्पष्ट संकेत भी किए गये हैं कि अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि राष्ट्र की खुशहाली में बाधक है और इसपे लगाम लगाने की आवश्यकता है। जनसंख्या की समस्या समाधान का श्रेष्ठतम तरीका है कि स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी सुविधाओं के प्रसार और गुणवत्ता में अविलम्ब वृद्धि करना। इससे जनसंसाधन के गुणात्मक विकास को प्रोत्साहन मिलेगा और सामाजिक परिवर्तन की दिशा सुनिश्चित की जा सकेगी|

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