साम्प्रदायिकता: भारत में इसके अर्थ, इतिहास और समाधान का विश्लेषण

साम्प्रदायिकता: भारत में इसके अर्थ, इतिहास और समाधान का विश्लेषण

साम्प्रदायिकता: भारत में इसके अर्थ, इतिहास और समाधान का विश्लेषण

भारत शुरू से ही वसुधैव कुटुम्बकम’ अर्थात् सम्पूर्ण जगत एक परिवार है, के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता हुआ विश्व को प्रेम और शान्ति का सन्देश देता रहा है। बावजूद इसके विश्व के अन्य देशों की तरह आज यहाँ भी साम्प्रदायिकता की समस्या घर कर गई है, जो देश की शान्ति और एकता का भंग करने का प्रयास कर रही है। हिन्दू-मुस्लिम दंगे में जब ‘बशीर बद्र’ का घर जला दिया गया था, तो उन्होंने अपने दिल का दर्द कुछ इन पंक्तियों में व्यक्त किया था

लोग टूट जाते हैं इक घर बनाने में “

तुम तरस भी नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।”

आइए, साम्प्रदायिकता का अर्थ समझते हुए भारत के सन्दर्भ में इस समस्या का विश्लेषण करते हैं

यदि एक हिन्दू गर्व से कहता है कि वह हिन्दू है, तो क्या यह साम्प्रदायिकता है? यदि एक मुसलमान कहता है कि उसे मुसलमान होने का गर्व है और एक अच्छा मुसलमान बने रहने के लिए वह अपनी जान भी दे सकता है, तो क्या यह साम्प्रदायिकता मानी जाएगी? जब एक अल्पसंख्यक समुदाय को लगता है कि उसका कई दशकों से अन्यायपूर्ण दमन के साथ शोषण हो रहा है और प्रतिक्रियास्वरूप वह तीव्र विरोध करतो है, तो क्या वह साम्प्रादायिकता कही जा सकती है? यदि ईसाई, बौद्ध और पारसी अपना व्यक्तिगत और निजी जीवन अपने विश्वासों और धार्मिक मतों के अनुसार व्यतीत करते है, तो क्या वे साम्प्रदायिक हैं? ऐसे अनेक प्रश्न है, जो हमें साम्प्रदायिक की सुस्पष्ट परिभाषा ढूँढने के लिए विवश करते हैं।

प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. विपिन चन्द्र ने साम्प्रदायिकता को स्पष्ट करते हुए इसके तीन चरणों की व्याख्या प्रस्तुत की है- उनका मानना है कि प्रथम चरण के अन्तर्गत किसी समुदाय या समूह विशेष के सदस्य अपने समूह से सम्बन्धित हितों की पहचान करते हैं। वास्तव में, इसे साम्प्रदायिकता नहीं कहा जा सकता, लेकिन साम्प्रदायिकता के उ‌द्भाव का आधार यही छिपा होता है। इसके अगले अर्थात् द्वितीय चरण में वे न केवल अपने समूह के सदस्यों के हितों की पहचान करते हैं, बल्कि उनके हितों को अन्य समूहों के सदस्यों के हितों से भिन्न मानते हैं।

प्रो. विपिन चन्द्र का मानना है कि वास्तव में यह साम्प्रदायिकता है, जहाँ समूह विशेष के सदस्यों के हित समाज के अन्य समूहों के सदस्यों के हितों से भिन्न लगते हैं, लेकिन यह भिन्नता उग्र रूप तब धारण कर लेती है, जब किसी समूह या समुदाय विशेष के सदस्यों को अपने हित अन्य समूहों या समुदायो के सदस्यों की तुलना में न केवल भिन्न लगते हैं, बल्कि विपरीत भी लगते हैं। इस तीसरे चरण में साम्प्रदायिकता अपने उग्र स्वरूप में आ जाती है। समूह या समुदाय विशेष के सदस्यों को समाज के अन्य सदस्यों के हित विरोधी लगते हैं। यहीं हितों का संघर्ष प्रारम्भ होता है, समूहों या समुदायों के आपसी संघर्ष में परिवर्तित हो जाता है।

साम्प्रदायिकता: भारत में इसके अर्थ, इतिहास और समाधान का विश्लेषण

वास्तव में साम्प्रादायिकता एक विचारधारा है, जो बताती है कि समाज धार्मिक समुदायों में विभाजित है, जिनके हित एक-दूसरे से भिन्न हैं और कभी-कभी उनमें पारस्परिक उग्र विरोध भी होता है। साम्प्रदायिकता का अंग्रेजी पर्याय है ‘Communalism’। ‘Communalism’ अपने मूल शब्द ‘Commune’ (कम्यून) से उत्पन्न हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ-मिल-जुलकर भाईचारे के साथ रहना है, लेकिन इतिहास की कुछ उन विशिष्ट आवधारणाओं में साम्प्रदायिकता भी शामिल है, जो अपना वास्तविक अर्थ अपने मूल अर्थ से भिन्न रखती है।

साम्प्रदायिकता की विचाराधारा मूलतः धार्मिकता से जुड़ी होती है। धर्म के साथ मेल करके ही साम्प्रदायिकता की विचारधारा पल्लवित होती है। साम्प्रदायिक व्यक्ति वे होते हैं, जो राजनीति को धर्म के माध्यम से चलाते हैं। साम्प्रदायिक व्यक्ति धार्मिक नहीं होता, बल्कि वह एक ऐसा व्यक्ति होता है, जो राजनीतिक को धर्म से जोड़कर राजनीति रूपी शतरंज की चाल खेलता है। उसके लिए धर्म एवं ईश्वर केवल उपकरण मात्र है, जिनका उपयोग वह समाज में विलासितापूर्व जीवन जीने एवं व्यक्तिगत लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए करता है। धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता की आग फैलाने वाले लोगों पर कटाथ करते हुए हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने ‘मधुशाला’ में लिखा है

वैर बढ़ाते मन्दिर मस्जिद

मेल कराती मधुशाला।

भारत पर विदेशी मुसलमानों के आक्रमण लगभग दसवीं शताब्दी में प्रारम्भ हो गए थे, परन्तु महमूद गजनबी और मुहम्मद गोरी जैसे मुस्लिम आक्रमणकारी धार्मिक आधिपत्य स्थापित करने की अपेक्षा आर्थिक संसाधनों को लूटने अधिक रूचि रखते थे। कुतुबुद्दीन ऐबक के आगमन एवं इसके दिल्ली का पहला शासक बनने के बाद ‘इस्लाम धर्म’ भारत में अपने पैर जमाए। इसके पश्चात् मुगलों ने अपने साम्राज्य को संगठित करने की प्रक्रिया में इस्लाम को मुख्य हथियार बनाते हुए धर्म परिवर्तन के प्रयत्न किए तथा हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच साम्प्रदायिक झगड़ों का भड़काने का प्रयास किया।.

जब अंग्रेजी ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के माध्यम से भारत पर अपना अधिपत्य जमाया, तो प्रारम्भ में उन्होंने हिन्दुओं को संरक्षण देने की नीति अपनाई, परन्तु 1857 में प्रथम स्वतन्त्रता संग्रामी के पश्चात् अंग्रेजों ने भारतीय जन-एकता का खण्डित करने के लिए खुलकर ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई, फलस्वरूप झगड़ों को अत्याधिक प्रोत्साहन मिला। यह कहा जा सकता है कि हिन्दुओं और मुस्लमानों के बीच पारस्परिक विरोध बहुत पुराना मुद्दा है, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश शासन की विरासत है। अंग्रेजों ने भारत को स्वतन्त्र तो किया, मगर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में बाँटकर दोनों देशों को साम्प्रदायिकता की आग में झुलसने के लिए छोड़ दिया, जिसका लेखिका ‘अमृता प्रीतम’ ने अपने उपन्यास ‘पिंजड़’ में बड़ा ही सजीव वर्ण किया है। दोनों देशों के साम्प्रदायिक हिन्दुओं और मुसलमानों की व्यंग्यात्मक शैली में निन्दा करते हुए भारत के वर्तमान शायर ‘निंदा फाजली’ ने लिखा है

“हिन्दू भी मजे में है, मुसलमां भी मजे में,

इंसान परेशान यहाँ भी है, वहाँ भी।”

इतिहासकार प्रो. विपिन चन्द्र का मानना है कि कांग्रेस ने प्रारम्भ से ही ‘चोटी से एकता’ (Unity from the Top) की नीति अपनाई, जिसके अन्तर्गत मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के मुसलमानों (जिन्हें मुसलमान समुदाय का नेता माना जाता था) को अपनी ओर करने का प्रयत्न किया गया। हिन्दू और मुसलमान दोनों के द्वारा जनता की साम्राज्य विरोधी भावनाओं की सीधी अपील करने के स्थान पर यह मध्यम एवं उच्च वर्ग के मुसलमानों पर छोड़ दिया गया कि मुसलमान जनता को आन्दोलन में सम्मिलित करें। इस प्रकार, ‘चोटी से एकता’ उपागम साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित नहीं कर पाया।

सम्भवतः प्रारम्भ में राष्ट्रीय नेतृत्व में यह अप्रत्यक्ष सहमति थी कि हिन्दू, मुसलमान और सिख पृथक समुदाय जिनमें केवल राजनीतिक एवं आर्थिक मामलों में एकता है, परन्तु धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं में नहीं इस प्रकार साम्प्रदायिकता के बीज बीसवीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थांश में पाये गए। पाकिस्तान का नारा मुस्लिम लीम लाहौर में सर्वप्रथम वर्ष 1940 में दिया। मुस्लिम जनता के विभिन्न समूहों में पाकिस्तान के बारे में विभिन्न मत थे। मुसलमान कृषकों के लिए पाकिस्तान का अर्थ था- “हिन्दू जमींदार के शोषण से मुक्ति, मुसलमान व्यापारी वर्ग के लिए इसका अर्थ था- ‘सुव्यवस्थित हिन्दू व्यापारिक तन्त्र से छुटकारा, जबकि मुसलमान बुद्धिजीवी वर्ग के लिए इसका अर्थ था- ‘बेहतर रोजगार के अवसर।’

भारत के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के राजनीतिक और सामाजिक दोनों स्त्रोत थे और उनमें संघर्ष का उत्तरदायी केवल धर्म ही नहीं था। आर्थिक स्वार्थ और सांस्कृतिक एवं सामाजिक रीति-रिवाज भी प्रमुख कारक थे, जिन्होंने दोनों समुदायों के बीच की दूरी को और बढ़ा दिया और यही दूरी धीरे-धीरे उग्र होकर घृणा, द्वेष एवं प्रतिशोध पर आधारित साम्प्रदायिक हिंसा में तब्दील हो गई।

साम्प्रदायिकता धर्म की अपेक्षा राजनीति से अधिक प्रेरित होती है। साम्प्रदायिकता तनाव का कर्माधर्ता राजनीतिज्ञों का एक वर्ग होता है, जो पाखण्डी धार्मिक व्यक्तियों के एक वर्ग को साथ लेकर अपनी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ करने एवं स्वयं को समृद्ध बनाने के रूप में प्रस्तुत करता है। वास्तव में, साम्प्रदायिक हिंसा धर्मिक कट्टरवादियों द्वारा भड़काई जाती है इसकी पहल असामाजिक तत्वों द्वारा की जाती है। राजनीति में सक्रिय व्यक्ति इसे समर्थन देते हैं, निहित स्वार्थी तत्व इसे वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं और पुलिस एवं प्रशंसकों की निर्दयता के कारण यह तेजी से फैलाती है।

भारत में साम्प्रदायिकता का एक महत्वपूर्ण कारक पड़ोसी देश पाकिस्तान के शासकों की भारत के प्रति द्वेष की भावना भी है। अस्थिरता उत्पन्न करने वाले पाकिस्तान के कई प्रयत्नों ने हिन्दुओं और मुसलमानों में एक-दूसरे के प्रति दुर्भावना और सन्देह को पैदा किया है। पाकिस्तान द्वारा भारतीय सीमा पर की जाने वाली गोलाबारी और वहाँ के आतंकवादियों द्वारा ताज आदि पर किए गए हमलों से यह बात प्रमाणित भी हो चुकी है।

यही बात भारत के कुछ हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपन्थियों एवं संगठनों के लिए भी कही जा सकती है, जो धर्म के नाम पर अपने ही देश में द्वेषपूर्ण भावनाएँ भड़का रहे है। चाहे कश्मीर हिंसा का मामला हो या राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद’ का विवाद हो या फिर वाराणसी में ‘काशी- विश्वनाथ मन्दिर’ और उसके बराबर स्थित मस्जिद का विवाद, इस तरह के सभी तनावों को बढ़ाने में योगदान देते हैं। उनके द्वारा अफवाहों पर आधारित तथ्यों की गलत प्रस्तुति आग में घी जैसा काम करती है। भारत के मशहूर शायर ‘जावेद अख्तर’ ने कट्टरवादी हिन्दुओं द्वारा बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर अपने शब्दों के माध्यम से इस प्रकार विरोध जताया था

“हम कहते हैं इंसानों में इंसानों से प्यार रहे

वो कहते हैं हाथों में त्रिशूल रहे तलवार रहे,

हम कहते हैं बेघर-बेदार लोगों को आबाद करो

वो कहते हैं भूले-बिसरे मन्दिर-मस्जिद याद करो,

हम कहते है। रामराज में जैसा हुआ वैसा हो

वो कहते हैं खून-खराबा होता है तो होने दो।”

साम्प्रदायिक हिंसा की यदि सामाजिक व्याख्या की जाए, तो कहा जा सकता है कि लोग हिंसा का उपयोग इसलिए, करते हैं, क्योंकि वे असुरक्षा एवं चिन्ता से ग्रसित होते हैं। इन भावनाओं एवं चिन्ताओं की उत्पत्ति उन सामाजिक अवरोधों से होती है, जो दमनात्मक सामाजिक व्यवस्थाओं और सत्ताधारी अभिजनों द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं। व्यक्ति की पृष्ठभूमि एवं पालन-पोषण के कारण उसमें ऐसी भावनाओं का जन्म होता है।

साम्प्रदायिक दंगों से निपटने के लिए कुछ महत्वपूर्ण प्रभावी कदम उठाए जा सकते हैं, जैसे-साम्प्रदायिक मानसिकता रखने वाले राजनीतिज्ञों को चुनाए लड़ने से वंचित करना, धर्मान्ध लोगों के विरूद्ध निरोधात्मक कार्यवाही करना, पुलिस विभाग को राजनीतिज्ञों के नियन्त्रण से मुक्त करना, पुलिस खुफिया विभाग को और शक्तिशाली बनाना, पुलिस बल की पुनर्संरचना करना, पुलिस प्रशासन को अधिक संवेदनशील बनाना, पुलिस अधिकारियों के प्रशिक्षण के अन्तर्गत उन्हें धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाने के योग्य बनाना आदि। सरकार को ऐसे निवारक उपाय भी करने होंगे, जिनके द्वारा भेदभाव एवं सापेक्षिक वचन की भावना को कम किया जा सके। आज मानव नागरिक संहिता की अत्याधिक आवश्यकता है।

भारत एक ऐसा देश रहा है, जहाँ मुसलमान बाहरी आक्रमणकारी के रूप में हो अवश्य आए, लेकिन एक बार आने बाद वे बाहरी नहीं रह गए। उन्होंने इस देश को ही अपना देश माना और यहाँ की संस्कृति को बहुत गहराई तक आत्मसात किया। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति के अन्तर्गत ही अकबर ने ‘दीन-ए-इलाही’ धर्म चलाया और अवध के नवाब वाजिद अली शाह तो एक ही दिन गम का त्योहार मुर्हरम और खुशी का त्योहार होली, पड़े पर, दोनों ही मनाते थे। कारण स्पष्ट था, क्योंकि मजहब अपनी जगह हैं और इंसानियत या आत्मीयता अपनी जगह।

कोई भी मजहब किसी को वैमनस्य नहीं सिखाता। ‘अमीर खुसरों’ ने अपनी मसनवी ‘नूरी सिपह’ में लिखा है-“लोग पूछते हैं कि भारत के प्रति मेरे मन में श्रद्धा क्यों है? भारत मेरी जन्मभूमि और मेरा देश है। पैगम्बर ने कहा है कि अपने देश से प्रेम करना मजहब का एक हिस्सा है।” धर्म के आधार पर लोगों को विभाजित करने का कार्य केवल निजी स्वार्थों की पूर्ति करने वाले असामाजिक एवं निकृष्ट कोटि के लोग ही करते हैं।

भारत की जनता अब इतनी परिपक्व हो चुकी है कि वह शराफत का मुखौटा लगाए इन स्वार्थी, कपटी एवं धूर्त लोगों की आसानी से पहचान कर उनका मुँहतोड़ जवाब दे सके। हमें स्वयं को इतना सुदृढ़ एवं विवेकशील बनाना होगा कि उचित अनुचित, नैतिक-अनैतिक, तार्किक- अतार्किक आदि के बीच अन्तर की स्पष्ट पहचान की जा सके, जिसका राष्ट्रीय एकता एवं मानवीयता की गरिमा बरकरार रहे। आज हम सबको स्वामी विवेकानन्द की कही बात को आचरण लाने की आवश्यकता है-“हम भारतीय सभी धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते व्रन् सभी धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार भी करते हैं।”

Important Link

Disclaimer: chronobazaar.com is created only for the purpose of education and knowledge. For any queries, disclaimer is requested to kindly contact us. We assure you we will do our best. We do not support piracy. If in any way it violates the law or there is any problem, please mail us on chronobazaar2.0@gmail.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *