बैंकों का विलय – आधारभूत ढाँचे में परिवर्तन की आवश्यकता पर बल|
गैर निष्पादित सम्पत्तियाँ (एनपीए) और फँसे हुए कर्जों का बढ़ता बोझ, अनेक बैकों के मूल्य में कमी, प्रबन्धन से जुड़ी समस्याओं के कारण बैंकिंग प्रणाली में ठोस सुधारों की आवश्यकता लम्बे समय से महसूस की जा रही है। इस स्थिति के अन्तर्गत केन्द्र सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पुर्नगठित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
इस समय देश में भारतीय स्टेट बैंक को छोड़कर 20 अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक मौजूद हैं। अब बैंकिंग परिदृश्य में बदलाव आ रहा है। निजी क्षेत्र के बैंकों की बढ़ती बैंकिंग सक्रियता, • गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों भुगतान बैंकों और छोटे वित्तीय बैंकों की संख्या में हो रही निरन्तर वृद्धि इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय सम्बन्धी इस निर्णय से जहाँ एक ओर विकासशील अर्थव्यवस्था की ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायता मिलेगी, वहीं दूसरी ओर अन्य आर्थिक उतार-चढ़ावों को झेलने तथा राजकोष पर अनावश्यक विकास हेतु संसाधन जुटाने की दृष्टि से सार्वजनिक क्षेत्रों में निर्भरता के बिना मजबूत निवेश एवं प्रतिस्पर्धी बैंकों के निर्माण में भी मदद मिलेगी।
विलय की पृष्ठभूमि
भारत में आधुनिक बैंकिंग की शुरूआत ब्रिटिश राज में हुई। 19वीं शताब्दी के आरम्भ में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 3 बैंकों की शुरूआत की-बैंक ऑफ बंगाल (1809 में), बैंक ऑफ बॉम्बे (1840 में), तथा बैंक ऑफ मद्रास (1843 में)। लेकिन इन तीनों बैंकों का विलय एक नए बैंक इम्पीरियल बैंक में कर दिया गया, जिसका वर्ष 1955 में भारतीय स्टेट बैंक में विलय कर दिया गया। भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना वर्ष 1935 में हुई थी। स्वतंत्रता से पूर्व के पश्चात् रिजर्व बैंक केंद्रीय बैंक के रूप में सक्रिय था। उसे बैंकों का बैंक घोषित किया।
विलय के सम्बन्ध में वर्ष 1991 में यह सुझाव दिया गया था कि कि भारत के बदलते आर्थिक परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए देश में कुछ मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक होने चाहिए। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय को लेकर पिछले 10-15 वर्षों के दौरान कई समितियाँ गठित हुईं, लेकिन किसी के भी सुझावों पर अमल नहीं हो पाया। वर्ष 2003 में भारतीय बैंक संघ ने बैंकों के विलय की रूपरेखा तैयार की। इसके बाद केन्द्र सरकार ने तत्कालीन वित्त सचिव आर.एस गुजराल की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति का भी गठन किया। इस समिति ने सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंकों को मिलाकर सात बड़े बैंक बनाने की सिफारिश की। उसके बाद प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने अल्टरनेटिव मैकेनिज्म के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय को सैद्धान्तिक रूप से मन्जूरी प्रदान कर दी। एक लम्बे समय बाद मई, 2016 में इस सम्बन्ध में प्रभावी कार्यवाही प्रारम्भ हुई तथा छह बैंकों के भारतीय स्टेट बैंक में विलय की घोषण की गई। इस निर्णय के द्वारा राष्ट्रीयकृत बैंकों के विलय के फलस्वरूप सशक्त एवं प्रतिस्पर्धी बैंकों के निर्माण में मदद मिलेगी।
विलय की आवश्यकता
भारतीय बैंकिंग व्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संख्या बहुत अधिक है। ये सभी बैंक लगभग एक समान क्षेत्र में एक ही प्रकार के उपभोक्ताओं को अपनी सुविधाएँ प्रदान करने को प्रयत्नशील रहते हैं। इससे जहाँ बैंकों के मध्य अधिक गैर-जरूरी व आतार्किक प्रतिस्पर्धा वाले वातावरण का निर्माण होता है, वहीं इससे बैंकिंग गतिविधियों की लागत भी अधिक हो जाती है, जिससे सरकार पर बोझ बढ़ता है। चूँकि भारत अभी उभरती अर्थव्यवस्था वाला देश है, अतः यहाँ ऐसे बड़े बैंकों की आवश्यकता है, जो बड़े पैमाने पर कम जोखिम के साथ ऋण प्रदान करने में सक्षम हों। भारत की वैश्विक सुपर पॉवर बनने के लिए बड़े बैंकों का होना आवश्यक है, जिसके लिए बैंकों का आपस में विलय एक अच्छा विकल्प है।
वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा बने रहने के लिए एवं विश्वस्तरीय पहचान बनाने के लिए बैंकों के प्रस्तावित एकीकरण या विलय का उद्देश्य मजबूत बैंकों की स्थापना करना है। बैंकों के व्यावसायिक-वाणिज्यिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए तथा संसाधनों के एक ही स्थान पर होने वाले केन्द्रीकरण की समस्या से जिजात पाने के लिए, बाजार में होने वाली उथल-पुथल का सामना करने में सक्षम बनाने के लिए, वैश्विक स्तर पर होने वाले परिवर्तनों का सामना करने के लिए बैंकों के विलय की आवश्यकता होती है।
बड़े बैंक, संसाधन जुटाने के मामले में छोटे बैंकों की तुलना में कहीं अधिक सक्षम होते हैं। ऐसे बैंक संसाधनों के लिए सरकार पर अधिक निर्भर नहीं रहते। अतः सरकारी निर्भरता नगण्य करने के लिए बैंकों के विलय की आवश्यकता है।
विलय की प्रक्रिया में बैंकों का एनपीए नगण्य करने के लिए व बैंकों के एकीकरण द्वारा उनका पूँजी आधार बढ़ाने के लिए और विशाल परियोजनाओं के लिए अधिक कर्ज देने में कठिनाई महसूस नहीं करने के लिए भी विलय की आवश्यकता होती है।
विलय की प्रक्रिया
बैंकों के एकीकरण का एकमात्र आधार व्यावसायिक होगा। एकीकरण के अन्तर्गत एक या दो छोटे बैंकों का विलय किसी बड़े बैंक में किया जाएगा। इन बैंकों के एकीकरण की प्रक्रिया में बैंकों की संख्या कम करने पर बल होगा, लेकिन किसी भी प्रकार के रोजगार पर आँच नहीं आने दी जाएगी। एकीकरण की प्रक्रिया में एकीकरण के प्रमुख मानको जैसे-बैंक की वित्तिय स्थिति, एनपीए, भौगोलिक आधार, मानव संसाधन एकीकरण और तकनीकी एकीकरण को शामिल किया जाएगा। वस्तुतः केन्द्र सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विलय को एक वैकल्पिक व्यवस्था के तहत सैद्धान्तिक मंजूरी दी है। यह वैकल्पिक व्यवस्था मन्त्रियों की एक समिति की निगरानी में होगी, जिसका गठन प्रधानमंत्री द्वारा किया जाएगा। इसकी भली-भाँति समीक्षा भी की जाएगी। बैंक कामकाज में तालमेल सहित विभिन्न मुद्दों पर गौर करने के बाद निर्णय करेंगे कि कौन-से बैंक का विलय किस बैंक में किया जाएगा। बैंकों के अधिग्रहण की प्रक्रिया में सरकार किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी। बैंकों के विलय की सैद्धान्तिक मंजूरी के बाद बैंक अधिनियम और सेवी को अनिवार्यता के अनुसार कार्यवाही की जाएगी। प्रक्रिया सम्पूर्ण हो जाने के बाद केन्द्र सरकार रिजर्व बैंक के साथ विचार-विमर्श कर इसके लिए अधिसूचना जारी करेगी। पहले चरण की विलय प्रक्रिया में सरकार इन बैंकों की संख्या घटाकर 10-12 करना चाहती है, जिसे बाद में और कम करके 4-5 तक लाया जा सकता है।
विलय के बाद की सम्भवना
राष्ट्रीयकृत बैंक कमिर्यों की विभिन्न यूनियानों का संयुक्त मंच यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस बैंकों के विलय एवं एकीकरण का लगातार विरोध करता रहा है और इसे मुद्दा बनाकर समय-समय पर हड़ताल का आह्वान भी करता रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को एकीकृत कर एक बड़ा बैंक बनाने की प्रक्रिया बेहद जटिल है। भारतीय स्टेट बैंक और उसके सहयोगी बैंकों में तकनीक, उत्पाद, नीतियाँ आदि लगभग एक जैसी थी तथा उनकी कार्यप्रणाली में समानता व एकरूपता थी। इसलिए उनके विलय में अधिक कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य बैंकों में ऐसा नहीं है। कारण यह है कि भिन्न कार्य परिस्थितियों के अभ्यस्त हो चुके कर्मचारियों को एक ही प्लेटफार्म पर एक ही तरीके से कार्य करने में ताल-मेल बिठाने की समस्याएँ आने की आशंका बनी रहती है। किसी भी प्रकार के विलय के बाद मानव संसाधन स्तर पर असन्तोष उत्पन्न होने की सम्भावना भी बराबर बनी रहती है। साथ ही सूचना व प्रौद्योगिकी, वेतन व भत्ते, प्रणाली आदि का एकीकरण करना भी आसान नहीं होता है।
निष्कर्ष
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एकीकरण उन्हें पूँजी की कमी से बचाने का कोई रामबाण उपाय नहीं है। यह केवल बैंकों पर ही नहीं, बल्कि प्रत्येक उस क्षेत्र पर भी लागू होता है, जहाँ पूँजी अधिक लगी है और मुनाफे के बजाय घाटा अधिक होता है। इनके विलय की राह में सबसे बड़ी बाधा मानव संसाधन का एकीकरण है। भारत जैसे विविधातापूर्ण देश में बड़े बैंक सफलता की गारण्टी नहीं है, क्योंकि हमारा सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवेश चीन, अमेरिका या यूरोपीय देशों से काफी अलग है। ऐसे में बेहतर पूँजी प्रबन्धन, ऋण प्रस्तावों के मूल्यांकन में गुणवत्ता का समावेश, एनपीए की वसूली के लिए एकीकृत प्रयास, ऋण वसूलने के लिए बैंक अधिकारियों को प्रभावी अधिकार, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, कुशल मानव संसाधन, परिचालन व अन्य खर्चों में कटौती, राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्ति आदि उपायों से भी बैंकों की कार्यकुशलता बढ़ाई जा सकती है।
बैंकिंग व्यवस्था को मजबूत करने के लिए बैंकों का विलय होना एक अच्छा विकल्प है। हालांकि बैंकों का यह विलंय उचित कारणों से तथा उपयुक्त बैंकों के साथ होना चाहिए। बैंकों की बढ़ती गैर-निष्पादित परिसम्पत्तियों की स्थिति में यह और भी चुनौतिपूर्ण है, क्योंकि इसमें चूक या अक्षमता, पूरी बैंकिंग प्रणाली को भी संकट में डाल सकती है।
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