असम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर : सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर कितना प्रभाव ?

असम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर : सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर कितना प्रभाव ?

असम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर : सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर कितना प्रभाव ?

अपने नाम के अनुरूप ‘असम’ भौगोलिक असमानता (जंगल, पठार, पहाड़, मैदान एवं घाटी) के साथ-साथ जातीय एवं धार्मिक विभिन्नता का भी धनी है। मौजूदा असमिया समाज आर्य-अनार्य, जनजाति, गैर-जनजाति, मूल निवासी और आब्रजकों से मिलकर बना है। यहां क्रमशः ऑस्ट्रेलायड, द्रविड़, तिब्बती-बर्मी, मंगोल, आर्य एंव आव्रजक (बांग्लाभाषी हिंदू एवं मुस्लिम, बिहार एवं ओडिशा से आए चाय बागान मजदूर) आए।

प्रत्येक जाति समूह अपने से बाद आए जाति समूह को असम का मूल नागरिक नहीं मानता है और उन्हें अपने इलाकों से दूर खदेड़ना चाहता है। ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के उत्तरी क्षेत्रों में केंद्रित भारतीय चीनी समूह के अन्तर्गत तिब्बती-बमी कुल के बोडो स्वयं को असम का मूलवासी मानते हैं औश्र इसके लगभग 50 प्रतिशत भू-भाग पर अलग बोडो राज्य क लिए एक समझौता हुआ था। इसी प्रकार असम अधिवासित अन्य समूह बांगलाभाषी आव्रजकों को अपनी संस्कृति एवं सभ्यता के लिए खतरा मानते हैं और इन्हें असम से बाहर करना चाहते हैं।

इसके लिए असम के अनेक संगठनों ने वर्ष 1979 से 1985 तक असम आंदोलन चलाया। अंततः 15 अगस्त, 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी एवं असम के संगठनों के मध्य यह समझौता हुआ कि 24 मार्च (मध्य रात्रि), 1971 के बाद आए अव्रजकों को असम से बाहर किया जाना चाहिए।

असम समझौते को लागू करने के लिए यह आवश्यक था कि 24 मार्च, 1971 तक असम में वैध रूप से अधिवासित नागरिकों की पहचान का डेटा एकत्र किया जाए। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु असम के लिए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को संशोधित करके डेटा का प्रस्तुतीकरण किया गया है।

30 जुलाई, 2018 को नागरिक रजिस्टर का पूर्ण मसौदा प्रकाशित किया गया। इस मसौदे में कुल प्राप्त 3,29,91,384 आवेदन-पत्रों में से 2,89,83,677 नाम शामिल किए गए। शेष 40,07,707 नाम मसौदे में शामिल न किए जाने योग्य घोषित कर दिए गए।

राष्ट्रीय नागरिक रजस्टिर के पूर्ण ड्राफ्ट के प्रकाशित होते ही 40 लाख से अधिक लोग अवैध नागरिकता के भय से आशंकित हो उठे थे।

इसी संबंध में असम की राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की अंतिम सूची 31 अगस्त, 2019 को जारी की गई। अंतिम सूची में 19,06,657 लोगों को निकाल दिया गया और 3,11,21,004 लोगों को भारतीय नागरिक बताया गया। जैसा कि लगभग 19 लाख लोगों का नाम इसमें हैं, परन्तु सरकार द्वारा उन्हें अपनी नागरिकता सिद्ध करने हेतु 120 दिन में विदेशी ट्रिब्यूनल में अपील करने का अधिकार दिया गया है।

इसके लिए 400 ट्रिब्यूनल की स्थापना की बात की गई है। और इसकी स्थापना की जा रही है। विदेशी ट्रिब्यूनल अर्ध न्यायिक कोर्ट होते हैं, जो एनआरसी सूची से निकाले गये लोगों की अपील सुनते हैं।

असम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर : सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर कितना प्रभाव ?

एनआरसी की अंतिम सूची से बाहर किए गये लोगों को तब तक हिरासत में नहीं लिया जा सकता जब तक कि विदेशी ट्रिब्यूनल अपना फैसला नहीं सुना देता। परन्तु यदि वे ट्रिब्यूनल के निर्णय से असंतुष्ट रहते हैं, तो वे हाईकोर्ट व शीर्षस्थ न्यायालय में भी अपील कर सते हैं। इससे अनुतोष प्राप्त होने पर उनका नाम दुबारा नागरिकता रजिस्टर में जुड़ जाएगा।

परन्तु इससे लगभग 19 लाख लोगों का गैर-नागरिक हो जाने का भय सताने लगा है। एक ही परिवार के कुछ लोगों के नाम सूची में हैं और कुछ नाम सूची में नहीं भी हैं। इसका कारण बताते हुए राज्य समन्वयक प्रतीक हजेला ने कहा है, ‘नागरिकता की योग्यता” व्यक्तिगत है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी नारिकता स्वयं प्रमाणित करनी होगी। परिवार महत्वपूर्ण है किंतु यह परिवार आधारित नहीं है। एक ही परिवार में पति कट ऑफ डेट (24 मार्च, 1971) के पूर्व का हो सकता है और पत्नी कट ऑफ डेट के बाद की हो सकती है। इसके विपरीत स्थिति भी हो सकती है यह वंशधरता आधारित है। पत्नी को नागरिक होने के लिए अपने पूर्वजों के साथ अपनी वंशधरता पृथकतः प्रमाणित करनी होगी। नागरिक पुरूष से विवाह के आधार पर उसे नागरिकता नहीं प्राप्त होगी।

अंततः गैर-नागरिक यानी विदेशी अवैध प्रवासी ही राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में स्थान नहीं पा सकेंगे। कुछ ऐसे आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि राजनीतिक शह प्राप्त कर अवैध प्रवासी हिंसक घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं, तो उसके लिए देश के कानून के मुताबिक कार्रवाई भी होगी।

असम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर : सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर कितना प्रभाव ?

परन्तु इसके बाद यह निर्धारित हो जाने कि कितने लोग असम के अर्थात् भारतीय नागरिक हैं, के बाद राज्य के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर गहरे प्रभाव पड़ने की आशंका/संभावना है।

असम, असम और भारतीय नागरिकों के लिए होगा। यहां से बांग्लादेशी प्रवासियों को जाना होगा। इससे यहां के मूल निवासियों की रोजगार संभावनाएं बढ़ेंगी।

गैर-असमी यहां जमीनें न खरीद सकेंगे, जिससे यहां की भाषायी एवं सांस्कृतिक अक्षुणता बनाए रखने में मदद मिलेगी तथा बढ़ते जनसंख्या घनत्व पर भी रोक लगेगी।

संभवना व्यक्ति की जा रही है कि नागरिक रजिस्टर निर्मित हो जाने के बाद सरकार सभी को पहचान-पत्र जारी कर सकती है। इससे गैर-नागरिकों की पहचान संभव हो सकेगी।

इतनी बड़ी संख्या में लोगों को राज्य से बाहर कर दिए जाने पर यहां चाय-बागानों में मजदूरों की भारी किल्लत हो सकती है। दरअसल चाय बागानों में मजदूरों के की भारी किल्लत हो सकती है। दरअसल चाय बागानों में मजदूरों के रूप में काम करने के अवसरों से आकर्षित होकर ही लोग बाहर से असम में आए थे। सरकार ऐसे लोगों को दीर्घकालिक वर्क परमिट जारी कर सकती है, जिन्हें मताधिकार और अचल संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं होगा।

गैर-नागरिकों का यथोचित रिकॉर्ड न रहने पर कानून एवं व्यवस्था की स्थिति प्रभावित हो सकती है।

नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 के अधिनियम बन जाने के पश्चात् जब बांगलादेश के हिंदू प्रवासियों को नागरिकता दी जाएगी तब सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खतरा भी विद्यमान रहेगा।

इतनी बड़ी जनसंख्या के शरणार्थी के रूप में ज्यादा समय तक रहने पर राज्य की अर्थिक स्थिति पर भारी बोझ पड़ सकता है।

एक अन्य सामाजिक पहलू भी विचारणीय है जिसमें एक ही परिवार के कुछ सदस्य भारत के नागरिक घोषित होंगे और कुछ अवैध प्रवासी। उदाहरण के लिए एक केस में यदि पिता 24 मार्च, 1971 से पूर्व बांग्लादेश से प्रवासी के रूप में भारत आया है और माता 1980 में बांग्लादेशी विस्थापित के रूप में अवैध प्रवासन करके भारत आयी हो। इनका एक पुत्र 30 जून, 1987 को पैदा हुआ हो और एक पुत्री का जन्म 1988 में हुआ हो, तो प्रश्न उठेगा कि पिता को किस तिथि से भारत का नागरिक माना जाएगा? यदि पिता एवं पुत्री के जन्म के बाद भारत का नागरिक माना जाता है, तो नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 3 के अनुसार, पिता एवं पुत्री भारत के नागरिक होंगे तथा माता एवं पुत्री भारत के नागरिक नहीं होंगे। ऐसी स्थिति में एक ही परिवार के कुछ सदस्यों को बांग्लादेश भेजा जाएगा। ऐसी परिस्थितियों का सामना करने वाला एक व्यक्ति मार्मिक अपील करते हुए कहता है, ‘मुझे गोली मार दी जाए, उधर भी मुझे गोली. मार दी जाए, उधर भी मुझे गोली मार दी जाएगी। कम से कम यहां मेरी अंत्येष्टि करने वाले लोग तो होंगे।” इन सामाजिक पहलुओं के कारण यह मसला अत्यंत जटिल हो उठा है।

सबसे बड़ा सवाल -अंतिम प्रक्रिया से भी बाहर होने वाले अवैध प्रवासियों का क्या होगा? क्कया उन्हें वापस भेजना संभव होगा? इन नागरिकता विहीन लोगों के क्या अधिकार होंगे? अगर उन्होंने संपत्तियां खरीद रखी हैं, तो उसका क्या होगा? आदि। इन प्रश्नों के जवाब में कहा जा सकता है कि हमारे देश में शरणार्थियों के लिए भी कानून है। भले ही राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को सूचीबद्ध करने का कार्य माननीय सर्वोच्च न्यायालय के अधीनता में हो रहा है, बाद की परिस्थितियों के लिए सभी राजनैतिक दल मिल-जुलकर बैठकर तरीके निश्चित कर सकते हैं। बेशक इसमें मानवीय दृष्टिकोण की भी अहम भूमिका होगी। बांग्लादेश के प्रधानमंत्री से भी विचार-विमर्श किया जाना अनुचित न होगा।

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के मूल में असमिया पहचान का मुद्धा ही सर्वोपरि है। असम समझौते के अनुच्छेद 6 में असम की भाषायी और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा का उल्लेख है। इस मूल भावना के विपरीत केंद्र में सत्तासीन भाजपा द्वारा लाए जा रहे उस कानून को माना जा रहा है, जिसमें मुस्लिम अवैध प्रवासियों के अतिरिक्त अन्य धर्मों के अवैध प्रवासियों के लिए अलग प्रावधान की व्यवस्था की जा रही है।

नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 में अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है। इस विधेयक के समर्थकों का कहना है कि वे हमारे अपने लोग हैं, राजनीतिक और ऐतिहासिक कारणों से वे भारत में शरणार्थी बन गए हैं। वस्तुतः असम के राजनीतिक दल इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। उनका तर्क है कि अवैध प्रवासियों का धर्म के आधार पर विभेद महीं होना चाहिए और सभी धर्मों के अवैध प्रवासियों को असम से बाहर भेजा। जाना चाहिए। यदि इन शरणार्थियों को नागरिकता दी जाती है, तो उन्हें संपूर्ण भारत में कहीं भी बसने का अधिकार प्राप्त होगा न कि केवल असम में। लेकिन अधिकांश के असम में ही बसने का खतरा तो विद्यमान है ही।

मूल असमी अपनी भाषा एवं जनसंख्या में बदलाव से आशंकित हैं। वर्ष 1991 में असम में असमी एवं बांग्ला बोलने वालों का प्रतिशत क्रमशः लगभग 58 एवं 22 था, जो वर्ष 2011 में क्रमशः लगभग 48 एवं 28 हो गया। इसी प्रकार वर्ष 2011 में असम की जनसंख्या में मुस्लिम जनसंख्या का प्रतिशत 30.9 था, जो वर्ष 2011 में बढ़कर 34.2 प्रतिशत हो गया। बेशक असमी पहचान का संकट बढ़ रहा है। लेकिन इस संकट के बावजूद यह ध्यान रखना जरूरी है कि संकट के समाधान में मानवीय दृष्टिकोण को तिलांजलि नदे देदी जाए। विश्व में शायद यह पहला अवसर होगा, जब किसी एक ही दिन इतनी बड़ी जनसंख्या नागरिकता से महरूम हो रही है। इतनी बड़ी जनसंख्या को ऐसे ही इनके हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता है।

हम इतिहास प्रसिद्ध कामागाटामारू प्रकरण को विस्मृत नहीं कर सकते हैं, जब 376 भारतीय यात्रियों को लेकर कामागाटामारू नामक जहाज ब्रिटिश कोलम्बिया (कनाडा) पहुंचा, तो 24 को छोड़कर शेष भारतीयो को जहाज से उतारने से मना कर दिया गया।

जब सितंबर, 1914 में यह जहाज वापस कोलकाता पहुंचा, तो तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इन यात्रियों के साथ-साथ कानून के उल्लंघनकर्ता के तौर पर व्यवहार किया। अधिकारियों क व्यवहार से दंगा भड़क गया। प्रत्युत्तर में ब्रिटिश सरकार ने यात्रियों पर गोलीबारी कर दी और 19 निरीह यात्रियों की मौत हो गई।

तत्कालीन कनाडा सरकार ने यदि मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए इन यात्रियों का शरण दी होती और बाद में बातचीत से मामले को सुलझाने का प्रयास किया होता, तो शायद यह घटना न घटी होती। मई, 2016 में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन टूडो ने कनाडा की संसद में वर्ष 1914 की इस घटना के लिए अधिकाधिक क्षमा याचना भी की थी। आज असम के नागरिकता रजिस्टर की अंतिम सूची जारी होने के बाद बहुत बड़ी संख्या में लोगों के गैर-नागरिक हो जाने की परिस्थिति- उत्पन्न हुई है।

समस्या का समाधान जल्दबाजी में, केवल कानूनी प्रावधानों के तहत ही नहीं बल्कि मानवीय दृष्टिकोण के साथ किए जाने की महती आवश्यकता है।

बांग्लादेश से भी सहानुभूतिपूर्वक अपने इन नागरिकों के प्रति व्यवहार अपेक्षित है। समस्या का समाधान भले ही देर से हो, इसे तर्कपूर्ण एवं सोच समझकर अंजाम दिया जाना चाहिए अन्यथा कोई अवांछित घटना नए पहलुओं को जन्म दे सकता है।

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