राजभाषा राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा हिन्दी| Official language, national language and contact language Hindi

राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा हिन्दी| Official language, national language and contact language Hindi

राजभाषा का अर्थ है राजा या राज्य की भाषा- वह भाषा जिसमें शासक या शासन का काम होता है और राष्ट्रभाषा वह है जिसका व्यवहार राष्ट्र के सामान्य जन करते हैं।

राजभाषा का प्रयोग क्षेत्र सीमित होता है, जैसे वर्तमान काल में भारत सरकार के कार्यालयों और सार्वजनिक क्षेत्र के व्यवसायों के अतिरिक्त कुछ प्रदेशों, उदाहरणार्थ- हरियाणा, उ.प्र., म.प्र., बिहार, राजस्थान, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में राजकाज हिन्दी में होता है। तमिलनाडु, बंगाल, महाराष्ट्र या आंध्र प्रदेश की सरकारें अपनी-अपनी भाषा में कार्य करती हैं, हिन्दी में नहीं।

जबकि राष्ट्र‌भाषा का क्षेत्र विस्तृत और देश व्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क भाषा है। राष्ट्रभाषा के साथ जनता का भावात्मक लगाव होता है क्योंकि उसके साथ जनसाधारण की सांस्कृतिक परम्पराएँ जुड़ी रहती है। राजभाषा के प्रति वैसा सम्मान हो तो सकता है, लेकिन नहीं भी हो सकता है, क्योंकि वह अपने देश की भी हो सकती है, किसी गैर देश से आए शासक की भी हो सकती है।

वास्तव में, देश की संस्कृति से राजभाषा का कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। राष्ट्रभाषा या संपर्क भाषा सदा कोई स्वदेशी भाषा ही होगी।

ध्यातव्य है कि राजभाषा की अभिव्यक्ति सीमित विषयों तक होती है मसलन-शासन, विधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका आदि तक। और यह अभिव्यक्ति क्रमशः रूढ़ और रूक्ष हो जाती है। इसमें लालिमा, मुहावरेदारी या शैली वैविध्य का कोई स्थान नहीं होता है। हर दफ्तर की बनी-बनायी शब्दावली है, वाक्यों का एक ढर्रा है। जबकि राष्ट्रभाषा का संबंध जीवन के प्रत्येक पक्ष से होता है।

राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा हिन्दी| Official language, national language and contact language Hindi

लेकिन इसका आशय यह नहीं है कि राजभाषा और राष्ट्रभाषा में परस्पर कोई लगाव नहीं है। सच तो यह है कि राजभाषा राष्ट्रभाषा पर अपना प्रभाव डालती है। कारण यह है कि जो भी भाषा राजभाषा के पद पर आसीन होती है लोग उसी में शिक्षा पाना आवश्यक समझते हैं। रोजी- रोटी, सामाजिक प्रतिष्ठा और भौतिक लाभ के लिए युवा वर्ग में उसी भाषा का बोलबाला होता है। शासन की भाषा का अनुकरण होने लगता है। कचहरी और सरकारी कार्यालयों से संपर्क रखने वाले लोगों के द्वारा वही भाषा जनसाधारण में प्रचलित होती है। मध्य युग में फारसी का और आधुनिक युग में अंग्रेजी का हिन्दी पर जो प्रभाव पड़ा है और आज भी पड़ रहा है, वह सर्वविदित है। अतः यह कहना तर्कसंगत होगा कि राजभाषा की स्वाभाविक और आंतरिक प्रगति में बाधा पहुँचती है।

स्मरणीय है कि भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् राजसत्ता जनता के हाथ में आई। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह आवश्यक हो गया है कि देश की राजकाज, लोक की भाषा में हो। अतः राजभाषा के रूप में हिन्दी को एकमत से स्वीकार किया गया। 14 सितम्बर, 1949 ई. को भारत के संविधान में हिन्दी को मान्यता प्रदान की गई। भारतीय संविधान के अनु. 343 (1) में उल्लेख किया गया कि संघ की राजभाषा हिन्दी होगी।

यह भी उल्लेखनीय है कि अनु. 343(2) में संविधान के क्रियाशील होने से 15 वर्ष तक के लिए अंग्रेजी के प्रयोग को प्राधिकृत किया गया था। अनु. 343 (3) में संसद को उक्त अवधि के बाद भी अंग्रेजी के प्रयोग को प्राधिकृत करने हेतु विधि-निर्माण का अधिकार दिया गया है। फलतः राजभाषा अधिनियम 1963 द्वारा यह उपबंध किया गया कि सभी राजकीय कार्यों में अंग्रेजी का प्रयोग 15 वर्षों तक होता रहेगा। पुनः राजभाषा नियम 1976 के तहत हिन्दी के साथ अंग्रेजी में कामकाज संबंधी प्रावधान को जारी रखा गया।

जहाँ तक राष्ट्रभाषा का प्रश्न है तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहने पर यह कहकर आपत्ति उठायी जाती है कि भारत की अनेक भाषाओं की तुलना में उसे अधिक गौरव दिया जा रहा है। हिन्दी का विरोध सबसे अधिक तमिलनाडु में है। वहाँ के राजनीतिबाजों ने हिन्दी विरोध को चुनाव का मुद्दा बना रखा है। यदि वे तमिल का समर्थन करते हैं तो बात समझ में आती, परंतु वे अंग्रेजी का समर्थन करते है मानो अंग्रेजी से तमिल भले ही दूषित हो जाय या अंग्रेजी पढ़े-लिखे उनसे बाजी मार ले जायें तो कोई बात नहीं।

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सच्चाई यह है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने वाले उसे कोई गौरव प्रदान करने की भावना से ऐसा नहीं करते और न अन्य भाषाओं को उसकी तुलना में हीन बताने की भावना से। वस्तुतः राष्ट्रभाषा शब्द के प्रयोग का ऐतिहासिक कारण है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा इसलिए नहीं कहा गया कि वह राष्ट्र की एकमात्र या सर्वप्रमुख भाषा है, बल्कि इस नाम का प्रयोग अंग्रेजी को ध्यान में रखकर किया गया। अंग्रेजी एक विदेशी भाषा थी जो विदेशी शासन का अनिवार्य अंग थी। अंगी के साथ अंगों का भी निराकरण आवश्यक हो जाता है। अंग्रेजी शासन-सूत्र का विरोध करते समय उससे सम्बद्ध और भी जो वस्तुएँ थीं उनका विरोध आवश्यक हो गया। बात बहुत हद तक ठीक भी है कि विदेशी भाषा का प्रभाव केवल शासन तक ही सीमित नहीं रहता, वह संस्कृति को भी प्रभावित करती है। इसलिए स्वाधीनता संग्राम के समय नेताओं ने प्रत्येक दृष्टि से स्वदेशीपन, या यों कहें कि राष्ट्रीयता की भावना जगाने की कोशिश की। यह नाम उसी प्रसंग में सामने आया। अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को छोड़कर अपनी भाषाओं के प्रति उन्मुख होना चाहिए, यह उस आन्दोलन का लक्ष्य था। इसलिए कांग्रेस ने कानपुर अधिवेशन (1925) में यह प्रस्ताव स्वीकृत किया कि अपने सभी कार्यों में प्रादेशिक कांग्रेस कमेटियाँ प्रादेशिक भाषाओं अथवा हिन्दुस्तानी (हिन्दी) का प्रयोग करें और अखिल भारतीय स्तर पर हिन्दी भाषा का प्रयोग हो। यह प्रस्ताव विदेशी भाषा के स्थान पर राष्ट्रीय भाषा के प्रयोग को स्थान देने के लिए स्वीकृत किया गया। जैसा कहा गया है, विदेशी शासन के विरुद्ध आंदोलन को सक्रिय बनाने का यह एक अंग था। दूसरी बात यह कि संपूर्ण राष्ट्र में संचार की कोई भाषा हो सकती है तो वह है हिन्दी। हिन्दी की इसी विशेषता को ध्यान में रखकर उसे संविधान ने राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया। अतः समग्र राष्ट्र के लिए जो भाषा संपर्क करने का कार्य कर सके उसे राष्ट्रभाषा कहने में कोई हानि या आपत्ति नहीं है। यही कारण है जिनके आधार पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा की संज्ञा दी जाती है।

यह ध्यान रखने की बात है कि भारतीय संविधान में हिन्दी के लिए कहीं भी राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इसे या तो संघभाषा (Language of the Union) या संघ की राजभाषा (Official Language of the Union) कहा गया है। संघ भाषा कहने के पीछे भी उद्देश्य-वही है जो राष्ट्रभाषा के पीछे। जो भाषा सारे संघ के लिए प्रयुक्त हो उसे संघभाषा कहना उचित ही है।

गौरतलब है कि भाषायी आधार पर राज्यों के निर्माण के पश्चात् प्रत्येक राज्य के लिए एक-एक भाषा स्वीकृत हुई। इसको चाहें तो राज्यभाषा भी कह सकते हैं। किसी राज्य अथवा प्रदेश का शासन कार्य वहीं की भाषा में होगा जैसे बंगाल का बंगला में, तमिलनाडु का तमिल में, महाराष्ट्र का मराठी में। इस सीमा में हिन्दी को दखल नहीं देना है। प्रत्येक राज्य की भाषा को अपना कार्य उस भाषा में करने की पूरी छूट और स्वतंत्रता है।

किन्तु भारत 28 राज्यों का एक संघ है इसलिए राज्य की सीमा पार करने पर ऐसी स्थिति आती है जिसमें एक भाषा छोड़कर दूसरी भाषा से मुकाबला होता है। केरल की भाषा मलयालम है तो कश्मीर की कश्मीरी। ये दोनों भाषाएँ परस्पर अबोध्य हैं। इस कठिनाई को दूर करना है। यह कार्य अंग्रेजी में हो, यह ठीक नहीं है। यह कार्य हिन्दी को करना चाहिए। इसलिए अंततः प्रादेशिक संचार के लिए हिन्दी आवश्यक है।

एक प्रश्न यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच संचार की भाषा क्या हो? यह कार्य अब तक अंग्रेजी ने किया है, करती आ रही है, उसे अब हिन्दी करे तो आवश्यक है।

इससे आगे बढ़ने पर अंतर्राष्ट्रीय संचार की स्थिति आती है जिसमें दूसरे देशों के साथ हमारा संपर्क अपेक्षित होता है। यह काम हम अक्सर अंग्रेजी से लेते रहे हैं, लेकिन उससे राष्ट्रीय सम्मान को अनेक बार ठेस पहुँचती है।

यह उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में जो सभ्य-समुत्रत देश है। वह अपनी भाषा के माध्यम से ही अपना कार्य करते हैं और उसमें गौरव का अनुभव करते हैं। रूस, फ्रांस या चीन अंग्रेजी में अपने पत्रादि प्रस्तुत नहीं करते हैं। फिर हिन्दुस्तान जैसा समृद्ध परंपराओं का देश अंग्रेजी को गले लगाए रखकर हमेशा यह बताता चले कि हम दो सौ वर्षों तक पराधीन रहे हैं और उसकी यह निशानी है, कोई सम्मान की बात नहीं होगी। इसलिए हमें अंतर्राष्ट्रीय उपयोग के लिए भी एक भाषा रखनी होगी और वह स्थान हिन्दी ही ले सकती है। हाँ, अंतर्राष्ट्रीय प्रयोग के मुताबिक हिन्दी को भी ढलना होगा।

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यह जानकर प्रीतिकर आश्चर्य होता है कि बाजार ने भी हिन्दी को सबकी ‘पहली संपर्क भाषा’ बनाने का काम किया। बहुराष्ट्रीय निगम अपने यहाँ अंग्रेजी के साथ हिन्दी जानने वालों को रखने की बात करते हैं। उनका मानना है कि वे कारपोरेट या सरकार से अंग्रेजी में निपट सकते हैं, लेकिन गाँव-कस्बे की हिन्दी वाली जनता से तो उसी के मुहावरे में निपटना होगा।

कुल मिलाकर आज हिन्दी राजभाषा, राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा के रूप में महती दायित्वों का निर्वहन कर रही है। सच पूछा जाय तो हिन्दी बोलचाल से, मनोरंजन के माध्यम से इंटरनेट, फेसबुक, ट्वीटर, ब्लॉग से और बाजार के उपभोक्ता ब्रांडों के माध्यम से बढ़ रही है। यह किसी भी सरकार की नीति से बड़ी ताकत है।

भारत में राजभाषा की समस्या : अतीत, वर्तमान तथा संभावनाएँ

राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने राजभाषा हिंदी के बारे में कहा था, “अगर आप राजभाषा के रूप में हिंदी को अपना रहे हैं, तो उसके अंकों को भी अपनाइए। अंकों का लिपि के साथ ही साथ विकास होता है और लिपि भाषा ही साथ उसी गति से पल्लवित होती है। ये सब मिलकर ही भाषा निर्मिति में पूर्णता लाते हैं। आप इस पूर्णता के चेहरे पर पैबंद नहीं लगा सकते।”

विश्व में शायद ही कोई ऐसा राष्ट्र हो जहाँ उसकी अपनी राष्ट्रभाषा को सम्मान न मिला हो परंतु दुर्भाग्यवश भारत आज इसका एकमात्र अपवाद है।

राष्ट्रपिता गाँधीजी ने कहा था, “कोई देश सच्चे अर्थ में तब तक स्वतंत्र नहीं है, जब तक अपनी भाषा में नहीं बोलता।” भाषा का मसला हमारे यहाँ कोई नया नहीं है, भारत में हर प्रांत की अपनी एक अलग भाषा है। हमारा देश एक जनतंत्र राष्ट्र है, इसकी एक समस्या भाषा भी है। एक वर्ग द्वारा यह माना जाता है कि यह समस्या हिंदी की देन है। अगर हिंदी को संविधान की आठवीं अनुसूची में संपर्क भाषा या राजभाषा स्वीकार न किया गया होता तो शायद देश भाषा की इस समस्या का काला मुँह कभी नहीं देखता। इस तरह का तर्क देना अब हमारी राष्ट्रीय चेतना का अंग हो गया है कि अगर ऐसा न होता तो वैसा हो जाता।

हिंदी का विकास संस्कृत से विकसित प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, खड़ी बोली से हुआ। उत्तर भारत में अपभ्रंश से विकसित ‘अवहट्ट’ एवं ‘पिंगल’ से एक नई भाषा का विकास हुआ जिसे क्रमशः ‘हिंदुई’ ‘हिंदवी’ ‘जबाने-ए-हिंदी’ एवं अंततः हिंदी के नाम से जाना गया। लगभग इसी कालखण्ड में अन्य क्षेत्रीय भाषाओं कन्नड़, तेलुगू, बंगला आदि का भी विकास हुआ। इसके बांद राजनीतिक परिदृश्य में विदेशी प्रभाव के कारण यह स्थान क्रमशः अरबी, फारसी एवं अंग्रेजी को प्राप्त हुआ, राजर्षि टंडन जी ने हिंदी के बारे में एक बार कहा था, “सम्मेलन हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानता है।”

भारत में राजभाषा की समस्या : अतीत, वर्तमान तथा संभावनाएँ

स्वाधीनता के आंदोलन के दौरान हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित हुई। शासन- प्रशासन द्वारा उपेक्षित हिंदी ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एवं महामना मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में अपनी अस्मिता का संघर्ष छेड़ दिया। भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग में हिन्दी निरंतर विकसित हुई। कबीर की उक्ति है संसकीरित कूप जल भाषा बहता नीर। केशव दास की भाषिक क्रांति विशेष उल्लेखनीय है। केशव के हृदय ने स्वीकारा-

भाषा बोलि न जानहीं जिनके कुल के दास तिन्ह भाषा कविता करी जड़मती
केशवदास। नेताजी सुभाषचंद्र बोस का मत था, यदि हम लोगों ने मन से प्रयत्न किया, तो वह दिन दूर नहीं, जब भारत स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्रभाषा होगी हिन्दी। सबसे पहले स्वामी दयानंद एवं गाँधीजी ने राष्ट्र को एकजुट रखने वाली हिन्दी की अपरिहार्यता को महसूस किया। गाँधीजी स्वदेशी के ग्यारह सूत्रों में हिन्दी को एक सूत्र के रूप में रखा’ अहिंदी भाषी क्षेत्र के होते हुए भी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर, चक्रवर्ती राजगोपालचारी, लोकमान्य तिलक आदि राष्ट्रभाषा हिंदी के कट्टर समर्थक थे। परंतु कुछ स्वार्थी तत्वों ने हिन्दी पर सांप्रदायिकता का आरोप थोपा तो राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने इसका कड़ा प्रतिवाद करते हुए कहा, “यदि खुसरो, जायसी, रहीम, रसखान की भाषा होते हुए भी हिंदी सांप्रदायिक सिद्ध हो जाए तो मैं हिंदी साहित्य सम्मेलन भवन में आग लगा दूँगा।”

राजभाषा के रूप में हिंदी को अंग्रेजी की जगह 1965 में ही ले लेनी थी। उस समय लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे। वे हिंदी के हिमायती थे। उन्होंने इस विषय में दृढ़तापूर्वक कदम उठाने का इरादा किया। कलकत्ता के एक समारोह में तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष को प्रोफेसर सुकुमार सेन ने ‘आशुन राजपुत्र’ कहकर संबोधित किया। तमिलनाडु में एकाधिक घटनाओं में अनेक व्यक्तियों ने हिंदी के विरोध में आत्मदाह किया। इंदिरा गाँधी उस समय सूचना मंत्री थीं। वह दक्षिण गईं। उन्होंने वहाँ कहा, “यदि स्थिति ऐसी विषम है तो हमें इस विषय पर दोबारा विचार करना चाहिए।” बाद में घटनाओं ने साबित कर दिया कि स्थिति सचमुच विषम थी।

राजभाषा शब्द ठीक नहीं लगता, हिंदी के संदर्भ में हिंदी यदि राजभाषा है तो अन्य भारतीय भाषायें क्या हैं- प्रजा भाषा? संपर्क भाषा इससे बेहतर शब्द है। हिंदी की उन्नति का मतलब सिर्फ हिंदी की उन्नति कदापि नहीं है, वह भारत की सभी भाषाओं और बोलियों की उन्नति के साथ-साथ- साथ विकसित होगी। अंग्रेजी साम्राज्यवादी शोषकों की भाषा थी। उस अंग्रेजी ने इस देश में भारतीय भाषाओं को उनके अधिकारों से वंचित कर रखा था लेकिन स्वाधीन भारत में हिंदी को अंग्रेजी की जगह नहीं लेनी है, उसे अन्य भारतीय भाषाओं के साथ-साथ फलना-फूलना है। इस संदर्भ में आयरिश साहित्यकार का यह कथन उल्लेखनीय है-

“The nation without mother-tongue can not be called a nation. The defence of one’s mother tongue is a more powerful barrier against the intransition of foreigners than even the national barriers of rivers and mountains.” स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा बनाए जाने का विरोध किया था। उनका कहना था, “संविधान और कानून हम भले ही हिंदी के पक्ष में बना लें लेकिन व्यवहार में अंग्रेजी बनी रहेगी” अंततोगत्वा राष्ट्रपिता गाँधीजी एवं अन्य राष्ट्रवादी नेताओं के प्रभाव से संविधान के अनुच्छेद 34 3(i) में भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी एवं लिपि देवनागरी स्वीकृत हो गई। इसके अलावा संविधान की आठवीं अनुसूची में पन्द्रह भारतीय भाषाओं को भी दर्ज किया गया जिसकी संख्या 22 हो गई परंतु उसी समय हिंदी के विरुद्ध षडयंत्रकर्ताओं को एक कूटनीतिक सफलता मिली और हिंदी के ऊपर ‘पिछड़ेपन’ का लेबिल लगाकर पंद्रह वर्षों के लिए अंग्रेजी को अभय दान दे दिया गया। तत्पश्चात् संविधान में इस अभयदान अवधि को प्रत्येक 15 वर्षों बाद बढ़ा देने की व्यवस्था कर दी गई। वहीं से राष्ट्र, राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रभाषा के दुर्दिन की शुरूआत हो गई। नेताओं, नौकरशाहों एवं नवधनाढ्यों के त्रिगुट ने भारत की समस्या को ही अत्यंत जटिल बना दिया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 344 के अनुसार संविधान के लागू होने के पाँच साल बाद राष्ट्रपति को एक राजभाषा आयोग तय करने का अधिकार दिया गया था। इसके अनुसार 7 जून, 1955 को राष्ट्रपति द्वारा एक आयोग का गठन किया गया। बंबई राज्य के भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय श्री बाल गंगाधर खेर इस आयोग के अध्यक्ष थे तथा विभिन्न राज्यों के 20 सदस्य प्रतिनिधि थे- इस आयोग ने जुलाई, 1956 में अपना प्रतिवेदन राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जिसके मुख्य सुझाव निम्न हैं-

1. भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दी जा सकती है। विज्ञान तथा अनुसंधान के क्षेत्रों तथा अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अंग्रेजी भाषा का ज्ञान आवश्यक है परंतु शिक्षा, प्रशासन, सार्वजनिक जीवन तथा दैनिक कार्य-कलापों में विदेशी भाषा का प्रयोग उचित नहीं है।

2. यद्यपि साहित्यिक दृष्टि से भारत की सभी भाषायें समृद्ध हैं। फिर भी अधिक लोगों एवं समझी जाने का कारण हिंदी समस्त भारत के लिए एक सुस्पष्ट भाषा माध्यम है।

3.संसद के अधिनियमों में अंग्रेजी के साथ हिंदी का प्रयोग भी रहेगा।

4. पंद्रह वर्षों के बाद उच्चतम न्यायालय की भाषा भी हिंदी होगी।

5. उच्च न्यायालयों में क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग राज्य सरकार राष्ट्रपति की अनुमति से ही कर सकती है।

इन नियमों और व्यवस्थाओं के बावजूद हिंदी का प्रयोग न तो बढ़ाया गया और न अन्य व्यवस्थायें ही हुई, इसके विरुद्ध फ्रैंक एन्थोनी पी. सुब्बाराव ने हिंदी विरोध का अभियान छेड़ा तथा संसद में पुनः राजभाषा विवाद उठा। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और सेठ गोविन्द दास जैसे राष्ट्र नेताओं ने इसका तीव्र विरोध किया परंतु हिंदी का दुर्भाग्य रहा कि जिस शिक्षा मंत्रालय के हाथ में हिंदी के प्रसार का दायित्व था उसके मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद थे और वह हिंदुस्तानी के समर्थक थे। हिंदी के विस्तारित न होने का एक कारण विज्ञान और तकनीकी शब्दावली की निर्माण की एक समिति थी जिसके अध्यक्ष डॉ. रघुवीर ने संस्कृतिनिष्ठ ऐसी हिंदी का विकास किया, जिनका जनसामान्य से कोई संबंध नहीं था। इन सबके बावजूद कुछ प्रगति हुई और अनुवाद तथा विभागीय परीक्षाओं की योजना बनाई गई।

राजभाषा के रूप में हिंदी का विकास- सन् 1965 ई. से भारतीय संविधान के अनुसार हिंदी को पूर्णतः प्रतिष्ठित हो जाना था परंतु इस काल तक हिंदी का प्रचार पूरी तरह न हो सकने का बहाना लेकर सरकार ने संविधान में संशोधन करना चाहा और हिंदी के नाम पर उत्तर और दक्षिण ने विरोध दिखाया। यद्यपि इस विरोध का संकेत फ्रैंक-एन्थोनी जैसे अंग्रेज पहले से ही दे रहे थे लेकिन तमिल और बंगाल के उन नेताओं में भी अब हिंदी का विरोध प्रारंभ किया जो भाषा विज्ञान और राष्ट्र प्रेम के आधार स्वतंत्रता के नाम पर हिंदी के पक्षधर थे। इस तरह यह विरोध गहरा हुआ और राजनीतिक हो गया, जिसकी आड़ में अंग्रेजी को सहभाषा बनाए रखा। संसद में संविधान में संशोधन करके अनिश्चित काल के लिए अंग्रेजी के प्रयोग का द्वार खोल दिया तथा राजभाषा संशोधन अधिनियम, 1967 के आधार पर यह घोषित किया किया-

“For section 3 of the official languages Act, 1963 the following sections shall be substituted normally not withstanding the experiation of the period of fifteen years from the commencement of constitution, the English language may as from the appointed day continue to be used in addition to Hindi.”

संपत्ति हिंदी प्रदेश की राज्य सरकारें जिन पर हिंदी के क्षेत्रीय प्रसार का दायित्व था, एक नया रूख अपना रही हैं। केंद्र यदि उत्तर और दक्षिण का बहाना बनाता है तो प्रांतीय सरकारें हिंदी व उर्दू का विवाद द्वितीय राजभाषा के रूप में उठाना चाहती हैं, जिन राज्य सरकारें का अभी अंग्रेजी मोह तक नहीं छूटा है तथा हिंदी की प्रतिष्ठा स्वतंत्रता के इतने वर्षों में नहीं कर पाए हैं, वे दूसरी राजभाषा के नाम पर तीन राजभाषाओं को लागू कर किस बुद्धिमता और दूरदर्शिता का परिचय दे रही हैं। वस्तुतः राजभाषा का प्रश्न होने पर भी इसका विनिश्चय तभी होगा, जब राजनीतिक दाँव- पेंच से शासन मुक्त हो।

फ्रेडरिक जानसोर ने Notes on Indian Affairs में कहा था, “एक शिक्षित व्यक्ति जिसें हिन्दुस्तानी भाषा का साधारण ज्ञान है, नागरी लिपि सीख सकता है।” लेकिन विभाजन करने वालों को यह सहन नहीं. था इसलिए जान सोर की बात नहीं मानी गई। प्रश्न यह है कि भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को ही क्यों बनाया जाय ?

5 जुलाई, 1928 ई. को यंग इंडिया में महात्मा गाँधी ने लिखा, “यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा का दिया जाना बंद कर देता। सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषायें अपनाने के लिए मजबूर कर देता। जो आना-कानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता। मैं पाठ्य-पुस्तकें तैयार किए जाने तक इंतजार न करता।” इसके पूर्व लोकमान्य तिलक ने कहा था, “अभी जितनी भी भाषायें भारत में प्रचलित हैं। उनमें हिंदी ही सर्वत्र प्रचलित है। इसी हिंदी को भारत वर्ष की एकमात्र भाषा स्वीकार कर ली जाय तो सहज ही में एकता संपन्न शक्ति है।” हर साल 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है। हिंदी पखवारा कार्यक्रम प्रत्येक सरकारी कार्यालयों में मनाया जा रहा है। लेकिन उससे हम कितना कुछ सीख पाते हैं। कुछ लोग हिंदी की वर्तमान स्थिति पर इतने निराश हो गए हैं कि इन सारे आयोजनों को विलाप की संज्ञा दे रहे हैं लेकिन यह सोचने की बात है कि क्या हिंदी में आगे बढ़ने की क्षमता नहीं रह गई है? या हम अपनी ही कमजोरी को छिपाने के लिए हिंदी के नाम पर आँसू बहाने बैठ जाते हैं। सरकारी उपेक्षा के कारण हमारी अपनी भाषा का यह हाल हो रहा है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भारत के बारे में कहा था, “आवहु बैठि रावहुँ सब भाई, भारत की दुर्दशा न देखी जाए।” अब भारत पर साम्राज्यवादी ताकतें शासन कर रही थीं और देश में आजादी का आंदोलन शुरू हो गया था। तब हिंदी के साहित्यकारों ने देश की जनता को जगाने का काम किया था। सच्चाई तो यह है कि हिंदी साहित्य स्वाधीनता आंदोलन के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा था।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के विकास एवं सम्मान के साथ आचार्य विनोबा भावे की इच्छानुसार संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को मान्यता प्रदान करवाने के प्रयास तेज करने की आवश्यकता है, परंतु अंतर्राष्ट्रीय सम्मान से पहले हमें हिंदी को राष्ट्रीय सम्मान का हक दिलवाना होगा। सरकारी तंत्र की ओर से इसे वास्तविक अर्थों में राजभाषा बनाना होगा। बुद्धिजीवियों की ओर से आधुनिक, आर्थिक, व्यापारिक युग के अनुरूप ज्ञान-विज्ञान, व्यापार आदि के अनुकूल बनाना होगा एवं अत्याधुनिक संचार साधनों कम्प्यूटर, इंटरनेट, ई-मेल आदि पर हिंदी को बढ़ावा देना होगा जिससे हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाएँ रोजगार परक बन सकें। हिंदी एवं अन्य भाषा सामग्रियों का एक दूसरे में परिष्कृत एवं परिमार्जित अनुवाद किया जाना चाहिए। बच्चों को प्राथमिक रूप से मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा हिंदी तथा उच्च शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हिंदी एवं अंग्रेजी होना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी भाषा और उसके साहित्य में जितना काम हो रहा था उसकी गति कम हो गई। उत्साह भी कम हो गया लेकिन ऐसा भी हुआ कि हिंदी भाषा की क्षमता बढ़ी है। हिंदी में सिर्फ साहित्य ही नहीं विज्ञान दर्शन, कृषि, मनोविज्ञान आदि विषयों में भी पुस्तकें लिखी गई है। आज “विज्ञान और प्रौद्योगिकी में जिस गति से प्रगति हो रही है। उसके साथ सामंजस्य बिठाने के लिए अधिक परिश्रम करना होगा। हिंदी भाषी क्षेत्रों में सरकारी कामकाज में भी हिंदी का प्रयोग शुरू हुआ है। इलेक्ट्रानिक्स मीडिया में भी हिंदी ने अपनी जगह बनाई है।

वह जमाना गया आज हिंदी को स्वयं अपनी जगह बनानी होगी। हिंदी भाषी क्षेत्र इतना विशाल है कि वाणिज्य व्यापार क्षेत्र की देशी विदेशी हस्तियों के लिए उसकी उपेक्षा करना मुश्किल है। हिंदी भाषी लोगों को हिंदी को नव-निर्माण की भाषा बनाना होगा। हिंदी के उत्थान के लिए सरकार की नहीं वरन् जनता के दिल को जीतने की जरूरत है। आने वाली नई शताब्दी के संदर्भ में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की इस उक्ति को सत्य होने की उम्मीद की जा सकती है-“जिस हिंदी भाषा के खेत में ऐसी सुनहरी फसल फली है, वह भाषा कुछ दिन भले ही यों ही पड़ी रहे परंतु उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती, वहाँ फिर खेती के सुदिन आयेंगे और पौष मास में नवान्न उत्सव होगा।”

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