गद्य की विधा एवं सृजनात्मकता|Genre and creativity of prose

गद्य की विधा एवं सृजनात्मकता|Genre and creativity of prose

आधुनिक काल के हिंदी साहित्य का विकास पद्य के साथ-साथ गद्य विधाओं के रूप में भी हुआ। इससे पूर्ववर्ती कालों में साहित्य केवल पद्य में भी उपलब्ध होता है, इसलिए हिंदी गद्य का विकास आधुनिक काल की प्रमुख उपलब्धि कही जा सकती है। इस कॉल में गद्य की प्रचुरता को ध्यान में रखकर ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ‘गद्यकाल’ की संज्ञा से विभूषित किया था।

भाव एवं विचार को व्यक्त करने के लिए क्रमशः पद्य एवं गद्य का सहारा लिया जाता है। जैसे-जैसे संस्कृति, सभ्यता और विज्ञान का विकास हुआ, वैसे-वैसे विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए गद्य की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। खड़ीबोली गद्य के विकास के लिए भी यही कारण उत्तरदायी रहे हैं। हिंदी गद्य की विकास यात्रा का उल्लेख करने से पहले हमें ब्रजभाषा गद्य एवं राजस्थानी गद्य साहित्य पर भी दृष्टिपात कर लेना चाहिए। राजस्थनी गद्य में जैन साधुओं ने धर्मशास्त्र, वैद्यक, नीति के कुछ ग्रंथ लिखे हैं। ब्रजभाषा गद्य की उल्लेखनीय कृतियों में सोलहवीं शती के उत्तरार्द्ध में लिखित विठ्ठलनाथ कृत ‘श्रृंगार रस मंडन’ तथा सत्रहवीं शती का वार्ता-साहित्य ‘दो सौ बावन वैषणवन की वार्ता’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ का नाम लिया जा सकता है। इनके अलावा नाभादास कृत ‘अष्टयाम’ में प्रभु राम की दिनचर्या का वर्णन ब्रजभाषा गद्य में किया गया है। ज्ञान मंजरी, नासिकेतोपाख्यान, बैताल पच्चीसी का अनुशीलन भी ब्रजभाषा गद्य का स्वरूप समझने में सहायक है।

खड़ीबोली गद्य की सर्वप्रथम महत्वपूर्ण रचना ‘चंद छंद वरनन की महिमा’ है, जिसकी रचना अकबर के दरबारी कवि गंग द्वारा की गयी थी। इसका रचनाकाल सन् 1570 माना गया है। सन् 1761 में रामप्रसाद निरंजनी ने ‘भाषा-योग वासिष्ठ’ की रचना की। इस पुस्तक के विभिन्न संस्करणों में भाषा का अन्तर दिखायी पड़ता है। निरंजनी जी का कार्य पटियाला दरबार में सेवा करते हुए महारानी जी को कथा बाँचकर सुनाना था। इस ग्रंथ की भाषा का एक नमूना प्रस्तुत है- “प्रथम परब्रह्म परमात्मा को नमस्कार है, जिससे सब भासते हैं और जिसमें सब लीन और स्थित होते हैं।” 1766 ई. में दौलतराम जैन ने ‘पद्मपुराण वचनिका’ में रामकथा-का खड़ीबोली में वर्णन किया। इसकी भाषा का स्वरूप इस प्रकार है- “कैसे हैं श्रीराम, लक्ष्मीकर आलिंगित है जिनका हृदय और प्रफुलित है मुख रूपी कमल जिनका महापुण्याधिकारी है, महापुण्यवान है, गुणन के मंदिर हैं, उदार है चरित्र जिनका।”

गद्य की विधा एवं सृजनात्मकता|Genre and creativity of prose

संक्षेप में 1800 ई. से पूर्व हिंदी गद्य का कोई व्यवस्थित रूप हमारे सामने नहीं था। अंग्रेजों ने 1800 ई. में कैलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में ‘फोर्ट विलियम कॉलेज’ की स्थापना की, जिसने हिंदी के भावी स्वरूप के विषय में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। जॉन गिलक्राइस्ट हिंदुस्तानी के अध्यापक नियुक्त किये गये जो अरबी-फारसी शब्दों में लदी हुई ‘भाषा के समर्थक थे। सन् 1824 में जब विलियम प्राइस की नियुक्ति हिंदुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में इस कॉलेज में हुई, तब उन्होंने उर्दू के स्थान पर हिंदी को महत्व प्रदान किया और ईसाई मिशनरियों ने भी धर्म-प्रचार के लिए हिंदी में पुस्तकें तैयार कीं।

जॉन गिलक्राइस्ट के समय में ही फोर्ट विलियम कॉलेज में लल्लूलाल और सदल मिश्र भाषा मुंशी थे। जॉन गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य-पुस्तकें तैयार कराने की व्यवस्थ करने के लिए उर्दू और हिंदी हेतु अलग-अलग प्रबंध किया। लल्लूलाल जी ने खड़ीबोली गद्य में ‘प्रेम सागर’ और सदल मिश्र ने ‘नासिकेतोपाध्यान’ लिखा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल में खड़ीबोली गद्य के प्रसार के लिए जिन चार महानुभावों को श्रेय दिया है, उनके बारे में लिखा है- “खड़ीबोली गद्य को एक साथ आगे बढ़ाने वाले चार महानुभाव हुए हैं- मुंशी सदासुखलाल, सैय्यद इंशा अल्ला खाँ, लल्लूलाल और सदल मिश्र। ये चारों लेखक संवत् 1860 (सन् 1803) के आसपास हुए।”

गद्य की विधा एवं सृजनात्मकता|Genre and creativity of prose

मुंशी सदासुखलाल ने हिंदी गद्य में संस्कृत शब्दों का पुट बराबर बनाये रखा और खड़ीबोली का वह रूप लिखा जो कथावाचकों तथा पंडितों की भाषा का था। उन्होंने हिंदुओं की शिष्ट बोलचाल की भाषा ग्रहण की और उर्दू के प्रभाव से अछूते रहे। उनकी भाषा का एक नमूना ‘द्रष्टव्य है- “यद्यपि ऐसे विचार से हमें लोग नास्तिक कहेंगे, हमें इस बात का डर नहीं। जो बात सत्य हो उसे कहना चाहिए; कोई बुरा माने कि भला माने। विद्या इस हेतु पढ़ते हैं, कि तात्पर्य इसका (जो) सतोवृत्ति है वह प्राप्त हो और उससे निज स्वरूप में लय हूजिए।”

इंशाअल्ला खाँ उर्दू के प्रसिद्ध शायर थे। इन्होंने ‘रानी केतकी की कहानी’ की रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखा- “कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवी छोड़ और किसी बोली का पुट न मिले।…… बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो।……. हिंदवीपन भी न निकले और भाखापन भी न हो।” स्पष्टतः वे अपनी भाषा को तीन प्रकार के शब्दों से मुक्त रखना चाहते थे-बाहर की बोली अर्थात अरबी-फारसी से, गँवारी अर्थात् ब्रजभाषा और अवधी से तथा भाषापन अर्थात् संस्कृत शब्दों से। इनकी भाषा मुहावरेदार, चटपटी तथा चलती हुई है। यथा- “इस बात पर पानी डाल दो नहीं तो पछताओगी और अपना किया पाओगी। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती तो मेरे मुँह से जीते जी न निकलती, पर यह बात मेरे पट नहीं पच सकती।”

हिंदी गद्य के उन्नायकों में लल्लूलाल जी का नाम भी महत्वपूर्ण है। वे आगरा के रहने वाले थे। उन्होंने फोर्ट विलियम कॉलेज. में नौकरी करते हुए जॉन गिलक्राइस्ट के आदेश पर ‘प्रेमसागर’ की रचना भागवत के दशम स्कंध को आधार बनाकर की। उनकी भाषा ब्रजरंजित खड़ीबोली है जिसे अनुप्रास से सजाने का प्रयास भी किया गया है। कथावार्ता की शैली में रचित प्रेमसागर की भाषा का एक उदाहरण द्रष्टव्य है- “इतना कह महादेव जी गिरिजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय, नीर में न्हाय न्हिलाय, अति लाड़-प्यार से लगे पार्वती जी को वस्त्र आभूषण पहिराने।” लल्लूलाल जी की रचनाओं में सिंहासन बत्तीसी, बैताल पच्चीसी, शकुन्तला नाटक और प्रेमसागर महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने उर्दू, खड़ीबोली और ब्रजभाषा तीनों में गद्य की पुस्तकें लिखीं।

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सदल मिश्र की ‘नासिकेतोपाख्यान’ रचना लल्लूलाल के प्रेमसागर की समकालीन है। इसकी भाषा पर ब्रज और भोजपुरी का प्रभाव है। यद्यपि इन्होंने व्यवहारोपयोगी भाषा लिखने का प्रयास किया है तथापि इस रचना में संस्कृत शब्दों का पर्याप्त प्रभाव है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन चारों लेखकों के संबंध में टिप्पणी करते हुए लिखा है- “गद्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले उपर्युक्त चारों लेखकों में से आधुनिक हिंदी का पूरा-पूरा आभास मुंशी सदासुखलाल और सदल मिश्र की भाषा में ही मिलता है। व्यवहारोपयोगी इन्हीं की भाषा ठहरती है।”

ईसाई मिशनरियों ने धर्म प्रसार के लिए बाईबिल का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया। – पादरी कैरे ने यह कार्य किया और हिंदी के संबंध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा- “हम हिंदुस्तान की उस बोली को हिंदुई या हिंदी समझते हैं, जो गुख्यतः संस्कृत से बनी है और जो मुसलमानों के आने के पूर्व संपूर्ण हिंदुस्तान में बोली जाती थी।”

अंग्रेजी ढंग के स्कूल-कॉलेजों की स्थापना से भी हिंदी के विकास में योगदान मिला। तमाम पुस्तकों को विद्यार्थियों के लिए हिंदी में भी लिखा गया। ईसाइयों के धर्म प्रचार से हिंदू धर्म की रक्षा का विचार कई धर्मप्रेमी देशभक्तों में उत्पन्न हुआ। अनेक समाचार-पत्र भी निकलने लगे। इनमें से कुछ के नाम हैं-बंगदूत, उदंत मार्तंड, बनारस, अखबार, सुधाकर, समाचार सुधा वर्षण, बुद्धि प्रकाश, तत्त्वबोधिनी पत्रिका, सत्यदीप, लोकमित्र आदि। इनमें से ‘बुद्धि प्रकाश’ की भाषा का एक उद्धरण प्रस्तुत है-“स्त्रियों में संतोष और नम्रता और प्रीत यह सब गुण कर्ता ने उत्पन्न किये हैं, केवल विद्या की न्यूनता है, जो यह भी हो तो स्त्रियाँ अपने सारे ऋण से चुकं सकती हैं और लड़कों को सिखाना-पढ़ाना जैसा उनसे बन सकता है, वैसा दूसरों से नहीं।”

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राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिंद’ एवं राजा लक्ष्मणसिंह का योगदान भी हिंदी गद्य के विकास में उल्लेखनीय है। राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद की भाषा में अरबी-फारसी तथा उर्दू के शब्द अधिक रहते थे, जबकि राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा में संस्कृत शब्द अधिक मिलते थे। संक्षेप में भारतेंदु जी से पूर्व हिंदी गद्य का कोई निश्चित स्वरूप विकसित नहीं हो पाया था। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने ही हिंदी गद्य को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने बिना यह विचार किये हुए कि यह शब्द उर्दू का है या संस्कृत का, अपनी भाषा में इस आधार पर प्रयोग किया कि वह जनसामान्य के द्वारा व्यवहृत है। कालांतर में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने व्याकरणिक अशुद्धियों का निराकरण करते हुए हिंदी को परिमार्जित और परिष्कृत करने का प्रयास किया। विराम चिह्नों के सम्यक् प्रयोग से भी उन्होंने लोगों को परिचित कराया और इस प्रकार हिंदी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं अन्य अनेक विद्वानों ने हिंदी गद्य को वर्तमान अवस्था तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। आधुनिक काल के हिंदी गद्य का अध्ययन इन्हें विभिन्न गुणों – भारतेंदु युग, द्विवेदी

युग, छायावादी युग और छायावादोत्तर युग में विभाजित कर किया जा सकता है।

कहानी लेखन और सृजनात्मकता पर टिप्पणी लिखिये।Write a comment on story writing and creativity.

जीवन के किसी एक घटना के रोचक वर्णन को कहानी कहते हैं। कहानी सुनने, पढ़ने और लिखने की एक लंबी परंपरा हर देश में रही है, क्योंकि यह सबके लिए मनोरंजक होती है। बच्चों को कहानी सुनने का बहुत चाव होता है और हम दादी और नानी की कहानियां सुनकर बड़े हुए है। कहानियों का उद्देश्य मनोरंजन होता है पर वो हमे कुछ शिक्षा भी देती है। कहानी लेखन के लिए हम या तो ढांचे के आधार पर, चित्र के आधार पर और रूपरेखा के आधार पर कहानी लिख सकते है। कई बार स्कूल और कॉलेज प्रतियोगिता में कुछ विषय पर भी कहानी लेखन होता है।

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कहानी लेखन क्या है?- जीवन की किसी एक घटना के रोचक वर्णन को ‘कहानी’ कहते हैं। कहानी सुनने, पढ़ने और लिखने का चलन सदियों से मानव जीवन का हिस्सा है और यह मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान भी प्रदान करता है। आज हर उम्र का व्यक्ति कहानी सुनना या पढ़ना चाहता है यही कारण है कि कहानी का महत्त्व दिन-दिन बढ़ता जा रहा है। बच्चे शुरू से कहानी प्रिय होते है। बच्चों का स्वभाव कहानियाँ सुनने और सुनाने का होता है। इसलिए बड़े चाव से बच्चे अच्छी कहानियाँ पढ़ते हैं। बालक कहानी लिख भी सकते हैं। कहानी छोटे और सरल वाक्यों में लिखी जाती है।

कहानी कैसे लिखें?- चाहे आप ढांचे के आधार पर कहानी लिख रहे हैं या फिर चित्र और किसी विषय पर, ये ज़रूरी है कि ढाँचे/चित्र/विषय के बारे में अच्छे से सोचा जाए। उसके बाद अपनी कहानी को दिलचस्प तरीके से लिखना भी ज़रूरी है और अगर वो लघु कथा है तो उसे छोटा ही रखा है। एक कहानी में ये सब बातों का ध्यान रखना चाहिए:

* कहानी का आरंभ आकर्षक ढंग से हो

* संवाद छोटे हो

* कहानी का क्रमिक विकास हो

* उसका अंत स्वाभाविक हो

* कहानी का शीर्षक मूल कहानी का शीर्षक हो

* भाषा सरल और सुबोध हो

इसके अलावा, कुछ और बातें है जो आपकी कहानी लेखन में मदद करेगीः

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1. कहानी में विभिन्न घटनाओं और प्रसंगों को संतुलित विस्तार देना चाहिए। किसी प्रसंग की ना बहुत अधिक संस्कृत लेना चाहिए, ना आवश्य रूप से बहुत अधिक बढ़ाना चाहिए।

2. कहानी का आरंभ आकर्षक होना चाहिए ताकि कहानी पढ़ने वाले का मन उसे पढ़ने में लगा रहे।

3. कहानी की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा प्रभावशाली होनी चाहिए। उसमें बहुत अधिक कठिन शब्द तथा लंबे वाक्य नहीं होने चाहिए।

4. कहानी के उपयुक्त एवं आकर्षक शिक्षा देना चाहिए।

5. कहानी को प्रभावशाली और रोचक बनाने के लिए मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग भी किया जा सकता है।

6. कहानी हमेशा भूतकाल में ही लिखी जानी चाहिए।

7. कहानी का अंत सहज ढंग से होना चाहिए।

8. अंत में कहानी से मिलने वाली सीख स्पष्ट होनी चाहिए।

कहानी लिखते समय किन-किन बातों का ध्यान रखें- कहानी लिखते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए, जैसे-

* कहानी का आंरभ आकर्षक होना चाहिए।

* कहानी की भाषा सरल, सरस और मुहावरेदार होना चाहिए।

* कहानी की घटनाएँ ठीक क्रम से लिखी जानी चाहिए।

कहानी लेखन फॉर्मेट- कहानी लेखन का फॉर्मेट नीचे दिया गया है-

* शुरुआत : अपनी कहानी को एक आकर्षक शुरुआत के साथ किक स्टार्ट करें जो आपके पाठकों को तुरंत दूर कर देती है!

* चरित्र परिचय : मुख्य पात्रों के साथ अपने पाठकों को परिचित करें, कहानी में उनका हिस्सा और उन्हें आपका कहानी पहले के टुकड़ों को फिट करने में मदद करें!

* प्लॉट : यह तब होता है जब असली नाटक शुरू होता है, क्योंकि मुख्य साजिश सुर्खियों में आती है। कहानी को उजागर करें और अपने पात्रों को प्रतिक्रिया दें, विकसित करें और मुख्य संघर्ष की ओर पहुंचें।

* क्लाइमेक्स / एंडिंग / निष्कर्ष : चाहे आप एक खुशहाल या एक खुले अंत के लिए जाएं, सुनिश्चित करें कि कम से कम कुछ मुद्दे यदि उनमें सभी अंत तक हल नहीं होते हैं और अप पाठकों पर एक लंबे समय तक चलने वाली छाप छोड़ते हैं!

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