टी. वी. और सृजनात्मक लेखन पर संक्षिप्त लेख लिखिये।

टी. वी. और सृजनात्मक लेखन पर संक्षिप्त लेख लिखिये।Write a short article on TV and creative writing.

टेलीविजन-लेखन- रेडियो के मुकाबले टेलीविजन संचार का अपेक्षाकृत नया माध्यम है। इसकी प्रकृति भी रेडियो से भिन्न प्रकार की है और विस्तृत भी। रेडियो संचार का ऐसा माध्यम है जो केवल सुनायी देता है, जबकि टेलीविजन दिखायी भी देता है। इसलिए यह दृश्य-श्रव्य माध्यम कहलाता है। यह एक ऐसा दृश्य श्रव्य माध्यम है जो सपनों में नहीं वास्तविकता में जीता है। इसी कारण अत्यन्त कम समय में टेलीविजन ने घर-घर अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। 1977 तक भारतीय घरों में केवल पौने सात लाख टेलीविजन सेट था, आज छोटे-बड़े कुल मिलाकर दस करोड़ से भी ज्यादा टी. वी. सेट भारतीय घरों की जरूरत बनकर मौजूद हैं।

टेलीविजन पर कथात्मक, गैर-कथात्मक कार्यक्रम तो प्रसारित किए ही जाते हैं, आजकल समाचारों की लोकप्रियता भी बढ़ती जा रही है, पहले दूरदर्शन पर और बाद में केबल के माध्यम से निजी चैनलों की आमद के बावजूद समाचारों की उपस्थिति दिन भर के प्रोग्रामिंग में संक्षिप्त होती थी। आज सभी भारतीय भाषाओं को मिला लें तो दो दर्जन से भी अधिक समाचार चैनल भारतीय आकाश पर छाए हुए हैं और निकट भविष्य में इनमें काफी इजाफा होने की गुंजाइश भी बतायी जाती है। इसलिए समाचार-लेखन का काम भी बढ़ा है।

सिनेमा से टेलीविजन इस मायने में भिन्न माना जाता है कि उसमें तकनीकी-चमत्कार दिखाने का स्कोप उतना नहीं होता है। कुल मिलाकर, यह माध्यम शब्द-प्रधान ही होता है। इसमें इतनी सुविधा और होती है कि इसमें आप बोलने वाले को दिखा भी सकते हैं। इसी कारण इस माध्यम से लेखक का महत्त्व काफी अधिक माना जाता है। टेलीविजन माध्यम में लेखक के महत्त्व को लेकर मनोहर श्याम जोशी ने लिखा है, ‘टेलीविजन का माध्यम फिल्म के माध्यम की अपेक्षा बहुत अधिक शब्द-प्रधान है। इस माध्यम में दिग्दर्शक, कैमरामैन, समपादक, साउण्ड रिकार्डिस्ट वगैरह के लिए करने को कुछ खास नहीं होता है। दर्शकों को बाँधे रखने का सारा दारोमदार लेखक के कलम के कमाल पर ही है। भारतीय टेलीविजन में भले ही अब तक फिल्मों की तरह निर्माता और दिग्दर्शक को ही महत्त्व दिया जा रहा हो, पश्चिमी में धारावाहिक लेखन के क्षेत्र में लेखक की भूमिका ही केन्द्रीय मानी जाती है। वहाँ धारावाहिकों के निर्माता अक्सर खुद लेखक ही होते हैं।’ मनोहर श्याम जोशी को भारतीय टेलीविजन में धारावाहिकों के जन्मदाता के तौर पर देखा जाता है। उनके इस वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि टेलीविजन माध्यम में कहानी और उसके लेखक का कितना महत्त्व होता है।

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टेलीविजन माध्यम से बतौर लेखक जुड़ने से पहले यह आवश्यक है कि यह जान लिया जाए कि टेलीविजन के लिए किस-किस प्रकार का लेखन सम्भव है, टेलीविजन पर जो कथा दिखाई जाती है उसको पटकथा कहते हैं। टेलीविजन की पटकथा को मोटे तोर पर दो भागों. में बाँटा जा सकता है- (1) कथात्मक और (2) गैर-कथात्मक। इसके अलावा, समाचार चैनलों की ‘लोकप्रियता ने समाचार लेखन की सम्भावना का भी विचार किया है। लेकिन यह तो मोटे तौर पर किया गया विभाजन है।

टेलीविजन के लिए कथात्मक लेखन का मतलब साफ़ है। विभिन्न टेलीविजन चैनलों पर धारावाहिकों का नियमित प्रसारण होता है। दूरदर्शन के दौर में वे 13, 26, 52 या 104 एपिसोड की कथा वाले होते थे। आजकल वे अनन्त कड़ियों या एपिसोड तक प्रसारित होने वाले सोप ऑपेरा में तब्दील हो चुके हैं। अब यह बात अलग है कि वे धारावाहिक कैम्पस की घटनाओं को लेकर हो सकते हैं, पौराणिक कथाओं को लेकर हो सकते हैं, कॉमेडी हो सकती है, इतिहास के किसी कालखण्ड पर आधारित कोई कथा हो सकती है। धारावाहिक के विषय अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन उनके लिए आवश्यकता कथा की होती है।

दूरदर्शन पर धारावाहिकों के आरम्भिक दौर में साहित्यिक कृतियों को आधार बनाकर बनाये गये कुछ प्रमुख धारावाहिक इस प्रकार हैं- ताराशंकर बद्योपाध्याय के उपन्यास ‘गणदेवता’ पर आधारित धारावाहिक, शरतचन्द्र के उपन्यासों ‘श्रीकान्त’ और ‘चरित्रहीन’ की कथा पर बने धारावाहिक। इसी तरह, हिन्दी के भी कुछ प्रमुख उपन्यासों की कथा को आधार बनाकर उस दौर में अनेक धारावाहिक बने। उन उपन्यासों में कुछ नाम इस प्रकार हैं-कब तक पुकारू (रांगेय राघव), रागदरबारी (श्रीलाल शुक्ल), मैला आँचल (फणीश्वरनाथ रेणु), पचपन खम्भे लाल दीवारें (उषा प्रियंवदा), तमस (भीष्म साहनी) आदि।

बाद में जब निजी चैनलों का दौर आया और बाजार द्वारा प्रयोजित धारावाहिकों का दौर शुरू हुआ तो अलग-अलग विषयों, कहानियों के स्थान पर फार्मूला लेखन का दौर शुरू, हुआ। पहले ‘स्वाभिमान’ मार्का बड़े घरानों के अवैध सम्बन्धों की दास्तान दिखाने का दौर चला। आजकल ‘सास-बहू’ मार्का फॉर्मूलों का दौर चल रहा है। टी. वी. अब पूरी तरह से एक व्यावसायिक माध्यम में तब्दील हो चुका है। इसमें एक सफल लेखक बनने के लिए यह आवश्यक माना जाता है कि वह अलग-अलग प्रकार की कथानक रूढ़ियों या व्यावसायिक कथा- फॉर्मूलों को देख-परख ले, उसकी बारीकियों को समझ लेः।

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टेलीविजन माध्यम के लिए कथात्मक लेखन फिल्म-लेखन से भिन्न होता है- इस सम्बन्ध में ‘हमलोग’, ‘बुनियाद’ जैसी टी. वी. के आरम्भिक धारावाहिकों के लेखक और प्रसिद्ध साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी के विचार जानने उपयोगी हैं। वह कहते हैं- ‘फिल्म और टेलीविजन की पटकथा में एक बड़ा अन्तर इस वजह से पैदा हो जाता है कि टेलीविजन का परदा बहुत छोटा होता है, टेलीविजन कार्यक्रम किसी बन्द अँधेरे कमरे में नहीं रोशनी में देखा जाता है। और उसे देखने वाले अपने घर में बैठे हुए टीवी देखने के अलावा और भी छोटे-बड़े काम अक्सर कर रहे होते हैं। परदा छोटा होने की वजह से दूसरी से लिए गये शॉट अक्सर टेलीविजन में नजर नहीं आते और आते भी हैं तो खास प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं। इसलिए टेलीविजन में पास से लिए गये शॉट खासकर क्लोज-अप का विशेष महत्त्व होता है। जबकि फिल्म में हर तरह की दूरी से यानी लांग-शॉट मिड शॉट-क्लोज अप इत्यादि रखा जा सकते हैं। सिनेमा में बिम्बों का विशेष महत्व होता है। टेलीविजन चूँकि एकग्रता से नहीं देखा जाता इसलिए उसमें मूक शॉटों और बिम्बों का उतना महत्त्व नहीं रह जाता जितना कि फिल्मों में होता है। टेलीविजन के लिए संवादों की अधिक जरूरत होती है और ये संवाद भी जितने अधिक नाटकीय हो उतना अच्छा। गोया टेलीविजन में ध्यान खींचने की कोशिश करनी पड़ती है जबकि फिल्म में यह मानकर चला जाता है कि अँधेरे हॉल में दर्शक का ध्यान परदे से हटेगा नहीं।

मनोहर श्याम जोशी के इस उद्धरण से साफ़ है कि टेलीविजन माध्यम किस प्रकार फिल्म-माध्यम से सीमित होता है। लेकिन इसी सीमा के कारण टीवी में पटकथाकारों की संभावना बढ़ जाती है। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध लेखक कमलेश्वर के विचार जानते हैं- फिल्म और टेलीविजन-माध्यम में लेखन के फर्क को बताते हुए कमलेश्वर लिखते हैं, ‘वैसे तो दोनों ही एक तरह की टेक्निकल राइटिंग है। पर दोनों में बुनियादी फर्क है। टेलीविजन में रचनात्मकता के लिए काफी जगह होती है, जो फिल्मों में नहीं होती। पौने तीन घंटे की फिल्म की पटकथा 85-90 दृश्यों की लिखी जाती है। लेकिन उसमें इतनी गतिशीलता होती है कि आपके पास सोचने का वक्त नहीं होता। लेकिन टीवी में कथा के विस्तार में जाने का, दर्शकों के सोचने के लिए कोई गहरा क्षण पैदा करने का स्पेस रहता है। टेलीविजन में धारावाहिक-लेखन में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें साहित्य से बहुत अधिक आप जुड़े रह सकते हैं। बल्कि साहित्य ही इसका मूल आधार भी बन जाता है, जो फिल्मों में सम्भव नहीं है। एक फिल्म के 85-90. दृश्यों में से अधिक से अधिक दो दृश्य आप अपनी मर्जी से लिख सकते हैं। वह भी शूटिंग के बाद एडिटिंग टेबल पर उसका क्या हश्र होगा, पता नहीं? टेलीविजन में कथा-
विस्तार में लेखक का महत्त्व रहता है। इसका एक कारण तो यह है कि टेलीविजन माध्यम में वक्त नहीं रहता है। इसका एक कारण तो यह है कि टेलीविजन माध्यम में वक्त नहीं रहता है। ऐसे में अगर लेखक तत्परता से अपना काम करता रहता है, तो उसकी पटकथा चल जाती है।

टेलीविजन की पटकथा के मुख्य पहलू – आइए इस सम्बन्ध में मनोहर श्याम जोशी के विचार जानते हैं- ‘फिल्म और टेलीविजन धारावाहिक में कथा-निरूपण के स्तर में भी अन्तर होता है। फिल्म की कहानी नायिका अथवा नायक प्रधान होती है। इस प्रधान नायक या नायिका का कोई एक लक्ष्य होता है। उस लक्ष्य की प्राप्ति में कई बाधाएँ होती हैं, जिनसे जूझकर वह अपने लक्ष्य तक पहुँच पाता है। कहानी का आदि, मध्य और अन्त होता है। दूसरी ओर टीवी धारावाहिक की कहानी में कई-कई नायक-नायिकाएँ होती हैं, वह एक निश्चित अवधि में ही पूरी दिखा देने के लिए अथवा पात्रों की जिन्दगी का एक निश्चित कालक्रम ही दर्शाने के लिए नहीं लिखी जाती। उसका कोई सुनिश्चित अन्त नहीं होता। फिल्म में उपकथाएँ कम से कम रखी जाती हैं और उन्हें मूलकथा से खबसूरती से पिरोया जाता है। टेलीविजन धारावाहिक में एक दूसरे से जुड़ती-बिछुड़ती कई-कई कथाधाराएँ होती है। जिनमें से कभी किसी को प्रमुख कथा का दर्जा मिल जाता है कभी किसी को। दूसरे शब्दों में टेलीविजन के लिए हर कथा महत्त्वपूर्ण होती है और कभी किसी को महत्त्व मिल जाता है कभी किसी को|

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एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि फिल्म के लिए कोई छोटी सी कहानी चाहिए। एक कहानी में भी भीतर-बाहरी वातावरण को दिखाने की गुंजाइश अधिक चाहिए, संवाद कम। लेकिन धारावाहिक में बड़ी, लम्बी और जटिल कहानी चाहिए। ऐसे संवादों की भरमार जिनसे चरित्र-चित्रण होना ही आवश्यक सूचनाएँ मिलती हों और हर दृश्य में नाटक और कुतूहल पैदा होता हो। टेलीविजन धारावाहिक इस मायने में उपन्यास और मंच के नाटक और फिल्म के विधाओं को मिलाकर बनायी गयी शैली है जिसमें फिल्म का अंश सबसे कम है।

रेडियो – टीवी और नाट्य लेखन पर टिप्पणी लिखिये।

धारावाहिक-लेखन के मूल तत्त्व – हर धारावाहिक की एक कहानी होती है, चाहे वह कॉमेडी हो या सोप-ऑपेरा या थ्रिलर। हर कहानी में कुछ घटनाएँ होती हैं और उन घटनाओं में ड्रामा नहीं होता है वह कहानी दृश्य-माध्यम में किसी काम को नहीं। यानी आपकी कहानी में कई पात्र होने चाहिए और उनकी परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया से कहानी में ड्रामा पैदा हो तब देखने में मजा आता है। साहित्यिक कहानी के लिए ऐसा आवश्यक नहीं है क्योंकि वे पढ़ने के उद्देश्य से लिखी गयी होती हैं। अगर आप किसी कहानी को आधार बनाकर दृश्य-माध्यम के लिए लिखना चाहते हैं तो ऐसी कहानियों का चयन करें जो घटना प्रधान हो तभी उसके व्यावसायिक रूप से सफल होने की कोई आशा की जा सकती है। इसी प्रकार हर कहानी का एक आइडिया या ‘विचार’ होता है।

विचार (Idea) : टेलीविजन या फिल्म के लिए आपने अगर कुछ लिखा है तो उसका कोई मूल विचार होना चाहिए। जिसमें जब आप निर्माता से मिलें तो उसे एक मिनट में सुना सकें क्योंकि निर्माता के पास. इतना समय नहीं होता कि वह हर लेखक की पूरी कहानी सुने। इसलिए आप उसे आइडिया बताते हैं और अगर उसे वह आइडिया पसन्द आता है तो वह आपकी कहानी सुनने में दिलचस्पी दिखाएगा अन्यथा आप से यह कह देगा कि आपका यह आइडिया मेरे किसी काम का नहीं है। जैसे- भारतीय टेलीविजन के पहले धारावाहिक ‘हमलोग’ का मूल विचार सिर्फ इतना था ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’। इसी प्रकार ‘बुनियाद’ का मूल विचार था भारत-विभाजन के बाद भारत आये शरणार्थियों के अतीत यानी बुनियाद की खोज। वास्तव में, एक निर्माता आपके उस विचार या ‘आइडिया’ में बहुत सारी चीजों को देखता है- सबसे पहले उसका नयापन। उदाहरण के लिए जुड़वां भाइयों को लेकर एक सफल फिल्म बनी थी ‘राम और श्याम’। प्रसिद्ध लेखक जोड़ी सलीम-जावेद को यह विचार आया कि क्यों न दो जुड़वां बहनों को आधार बनाकर एक फिल्म की कहानी लिखी जाए। निर्माता को यह विचार पसन्द आया और इस तरह पैदा हुई सत्तर के दशक के आरम्भिक वर्षों की एक सफल फिल्म ‘सीता और गीता’। उसके अलावा निर्माता यह भी देखता है कि उस ‘आइडिया’ बनी फिल्म या धारावाहिक के बाजार में बिकने की क्या सम्भावना है ? उदाहरण के लिए, आजकल विभिन्न * चैनलों पर ‘कैम्पस’ यानी विश्वविद्यालय जीवन को आधार बनाकर लिखे गये कई धारावाहिकों का प्रसारण हो रहा है। ऐसे में किसी को यह विचार आया कि क्यों न कैम्पस के बाद के जीवन को- आधार बनाकर धारावाहिक बनाए। कैम्पस से तुरन्त-तुरन्त निकले कई दोस्तों के जीवन- संघर्षों को आधार बनाकर जन्म हुआ ‘सोनी टी. वी.’ पर दिखाये धारावाहिक ‘चैलेंज’ का।

इसलिए यह आवश्यक है कि बतौर लेखक आप इस बात का ध्यान रखें कि आपके आइडिया में थोड़ा न यापन हो और बाजार की शर्तों के मुताबिक भी हो। इसे इस तरह समझें कि अगर बाजार की माँग ‘मुझे चाँद चाहिए’ की है, तो उसके सामने प्रेमचन्द का उपन्यास ‘गोदान’ परोसने की कोशिश न करें। भले ही वह कितना ही महान उपन्यास क्यों न हो ? कई बार ऐसा होता है कि निर्माता कोई विचार देता है और कहता है कि आप एक ऐसी कहानी लिखिए जिसमें दिल्ली के एक हिन्दू और एक मुस्लिम परिवार के माध्यम से 1942 से 1997 तक की घटनाओं को दिखाया जा सके। यही विचार है ‘स्टार प्लस’ पर दिखाये जा रहे धारावाहिक ‘गाथा’ का। लेकिन इस इन्तजार में नहीं रहना चाहिए कि निर्माता आपको आइडिया देगा। निर्माता अपनी तरफ से तो किसी सफल लेखक से ही कहानी लिखवाना चाहता है। इसलिए नये लेखकों को हमेशा ऐसे विचारों को खोज में लगे रहना चाहिए जो कि उस माध्यम के उस समय के प्रचलन के मुताबिक भी हो और उसमें थोड़ा नयापन भी हो।

अब सवाल यह उठता है कि विचार कहाँ से मिलें? तो साहब विचार तो आपके आसपास ही होते हैं। आप जो पढ़ते हैं, जो देखते हैं, जो सुनते हैं आपको कहानियाँ उसी से पैदा होती हैं। यानी आपके अनुभव ही आपके कहानी को घटनात्मक बनाते हैं। मान लीजिए आपने पिछले दिनों दिल्ली में हुए दो सनसनीखेज हत्याकाण्ड – नैना साहनी हत्याकाण्ड और प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकाण्ड के बारे में पढ़ा हो, जिनमें से एक में दिल्ली के कुछ बड़े राजनेता और दूसरे में उच्च पुलिस अधिकारी का पुत्र शामिल थे। इसी तरह जैसिका लाल हत्याकांड में भी एक नेता-पुत्र सम्मिलित थे। इससे आपको यह विचार आ सकता है कि क्यों न ऐसा धारावाहिक लिखा जाए जो कि सच्ची घटनाओं पर आधारित हो और बड़े लोगों द्वारा किए गये अपराधों की पृष्ठभूमि हो। ऐसे धारावाहिक की शुरुआत प्रसिद्ध बैडमिण्टन खिलाड़ी सैयद मोदी के हत्याकाण्ड की कहानी से की जा सकती है। हो गया एक बिकाऊ आइडिया तैयार, सत्य अपराध-कथाओं पर आधारित ‘थ्रिलर’ का। आजकल एक ऐसा धारावाहिक ‘सोनी टी. वी.’ पर आ भी रहा है ‘भँवर’ नाम से।’

टी. वी. और सृजनात्मक लेखन पर संक्षिप्त लेख लिखिये।

इसी प्रकार, पिछले दिनों इस देश के दो मुख्यमन्त्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गये तथा एक केन्द्रीय मंत्री को हत्या के आरोप में उम्रकैद हुई। अब इससे यह आइडिया आ सकता है कि क्यों न राजनेताओं के भ्रष्टाचार को आधार बनाकर एक धारावाहिक की कथा लिखी जाए। फिरं यहाँ पर एक बात का ध्यान और भी रखना चाहिए कि चूँकि किसी मंत्री का गेटअप, उनकी, वाक्पटुता कहानी में जयादा नाटकीयता पैदा कर सकती है, इसलिए अगर आप कहानी का ताना-बाना उनके चरित्र के इर्द-गिर्द बुनें तो उसके सफल होने की सम्भावना अधिक रहेगी। उसी प्रकार अगर, आपने बॉम्बे डाइंग ग्रुप और रिलायंस उद्योग समूह की व्यावसायिक भिड़न्त की कहानियों का ध्यानर्पूक अध्ययन किया है, तो आप इस विचार को आधार बनाकर कहानी लिख सकते हैं, जिसमें दो औद्योगिक घरानों की लड़ाई की पृष्ठभूमि हो।

लेकिन इस तरह के विचारों का आधार बनाकर काल्पनिक कहानी नहीं गढ़नी चाहिए, बल्कि उस आइडिया को आधार बनाकर रिसर्च करना चाहिए। अगर आपने अच्छी तरह रिसर्च किया है तो आपकी कहानी में यथार्थ का तत्त्व आता है। उदाहरण के लिए धारावाहिक ‘बुनियाद’ के रिसर्च के दौरान पुष्पेश पन्त ने छोटी-छोटी बातों का भी ध्यान रखा था। मसलन, यहाँ तक कि लाहौर की जिस समय की कहानी दिखायी जा रही है, उस समय वहाँ कौन-कौन से सिनेमा हॉल में क्या-क्या फिल्में चल रही थीं या कौन-कौन से गीत लाहौर में उन दिनों लोग गुनगुनाया करते थे ? तो इसी तरह अगर आप ‘नैना साहनी’ की कहानी को आधार बनकर कुछ लिखना चाहते हैं तो थोड़ा रिसर्च इसका करें कि उसकी हत्या के पीछे क्या कारण थे ? उसकी आकांक्षाएँ क्या थीं? उसके जीवन में कौन-कौन लोग थे ? परिवार के साथ उसंके सम्बन्ध कैसे थे ? आदि-आदि। इसी तरह, अगर किसी मंत्री के भ्रष्टाचार की कहानी आप लिखना चाहते हैं तो रिसर्च करके उनकी अदाएँ, उनके तकिया कलाम, उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि आदि सबकी जानकारी आपको इकट्ठा कर लेनी चाहिए। इस तरह से रिसर्च का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि आपकी कहानी में एक प्रकार की प्रामाणिकता आती है और घटनाएँ यथार्थ प्रतीत होती हैं। इस तरह के यथार्थ से दर्शक जुड़ते हैं।

आइडिया- एक पंक्ति का भी हो सकता है और एक क पृष्ठ का भी। लेकिन आपको करना यह चाहिए कि आप लगभग एक पृष्ठ में अपने विचार को लिख डालें। जिसमें आपकी कहानी का विचार तो हो ही, उसके साथ ही उस विचार की पृष्ठभूमि, उसकी मौलिकता, किस प्रकार के दर्शक-वर्ग को आकर्षित करेगा वह विचार, उसमें मनोरंजन के तत्त्व क्या-क्या है ? आदि बातों का भी स्पष्टता से उल्लेख होना चाहिए। इसको इण्डस्ट्री की भाषा में ‘कॉन्सेप्ट नोट” कहते हैं और जब किसी चैनल को निर्माता अपना धारावाहिक बेचने जाता है तो वहाँ यानी चैनल के अधिकारी उसी ‘कॉन्सेप्ट नोट’ को पढ़कर धारावाहिक के बारे में पहली राय बनाते हैं। इसलिए इस ‘कॉन्सेप्ट नोट’ की बड़ी महिमा है और इस इण्डस्ट्री में कई लोग ऐसे होते हैं जिनकी ख्याति बहुत बढ़िया ‘कॉन्सेप्ट नोट’ लिखने वाले के रूप में होती है। इसलिए एक • लेखक के दिमाग में अपनी कहानी का विचार एकदम स्पष्ट होना चाहिए। अगर आप ही को अपनी कहानी की स्पष्ट समझ नहीं है तो आप दूसरों को कैसे समझा पाएँगे। हॉलीवुड की फिल्म इण्डस्ट्री में तो एक मुहावरा ही चलता है ‘वन मिनट स्टोरी’ यानी एक मिनट की कहानी। वहाँ आइडिया या विचार के लिए यह मुहावरा चलता है।

ट्रीटमेण्ट : आपके दिमाग में आइडिया आया। आपने उस आइडिया के अनुरूप कहानी भी लिख ली। लेकिन फिल्म या टेलीविजन जैसे दृश्य-माध्यमों के लिए इस तरह लिखी गयी कहानियाँ महत्त्वपूर्ण नहीं मानी जातीं। क्योंकि हर कहानी तो एक जैसी ही होती है। दृश्य-माध्यम के लिए महत्त्वपूर्ण होता है ट्रीटमेण्ट यानी दृश्यानुसार कथा। इसे हॉलीवुड की भाषा में ‘स्टेप-बाई-स्टेप ट्रीटमेण्ट’ भी कहा जाता है। इसमें कहानी उस तरह लिखी जाती है, जिस तरह उसे दिखाया जाना होता है। निर्देशक उसी ट्रीटमेण्ट के आधार पर फिल्म के दृश्यों की कल्पना करता है।

टेलीविजन के लिए लिखते समय दृश्यानुसार कथा के अतिरिक्त एक और चीज लिखनी पड़ती है। वह होती प्रस्तावित धारावाहिक की एपिसोड के आधार पर कथा। यानि हर एपिसोड़, जितने भी ऐपिसोड, की आपकी कहानी हो, उसकी रूपरेखा एक साथ माँगते तो कॉन्सेप्ट नोट, ट्रीटमेण्ट नोट के बाद यह तीसरी महत्त्वपूर्ण बात होती है, जिसका ध्यान एक धारावाहिक लेखक को रखना चाहिए।

मान लीजिए आपका आइडिया यह है कि ‘पति, पत्नी और वो’ की एक कहानी लिखी जाए। आपने एक कहानी लिखी जिसमें सदन, बिन्दिया पति-पत्नी हैं और अनूप बिन्दिया – का पूर्व-प्रेमी है। अब इस कहानी की शुरुआत आप यों कर सकते हैं कि सदन एक दिन शराब पीकर कार चला रहा होता है और उसकी कार दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है। उसे एक अस्पताल में भर्ती कराया जाता है। जहाँ अनूप, जो कि डॉक्टर होता है, उसका इलाज करता है और वह ठीक हो जाता है। इस दौरान बिन्दिया और अनूप के बीच पुराने सम्बन्धों के सूत्र जुड़ने लगते हैं। इस दौरान हम यह देखते हैं कि सदन थोड़ा शक्की स्वभाव का है और यह भी कि उसके सम्बन्ध अपनी पत्नी बिन्दिया से तनावपूर्ण हैं। अनूप जो कि बहुत ही अच्छे स्वभाव का है एक बार पुनः बिन्दिया के जीवन में जगह बनाने लगता है।

हम यह भी दिखा सकते हैं कि सदन को बहुत गहरा जख्म आ गया है और अस्पताल से घर चले जाने के बाद भी अनूप बतौर डॉक्टर उसके घर आता रहता है और बिन्दिया के साथ उसके सम्बन्ध दुबारा हो जाते हैं। इस बात को लेकर घर में तनाव बढ़ता जा रहा है। आस-पड़ोस शहर में अफवाहों का बाजार गर्म हो गया है। कहानी में इस तनाव के बाद अब सिर्फ इस कहानी का क्लाइमेक्स या चरमोत्कर्ष बचता है।

इसके चरमोत्कर्ष में हम यह दिखा सकते हैं कि बिन्दिया के घर में तनाव बढ़ा चुका है। बाहर भी चर्चाओं का बाजार गर्म है। ऐसे में एक दिन बिन्दिया के वर्तमान जीवन के यथार्थ को समझकर अनूप उसकी ज़िन्दगी से दूर चले जाने का फैसला करता है और उस शहर से अपना तबादला करवा लेता है। या हम दिखा सकते हैं कि हमारे ऊपर यह राज खुलता है कि अनूप भी विवाहित हो और इस सारे घटनाक्रम के दौरान उसकी पत्नी, जोकि अपने नैहर में है, के माँ बनने की खबर अनूप को आती है। अनूप यह सूचना जाकर बिन्दियों को देता है। फिर दोनों एक-दूसरे की विपरीत दिशाओं में चल पड़ते हैं। अपने-अपने यथार्थ में लौट जाते हैं। या फिर हम यह भी दिखा सकते हैं कि अब तक बुरा दिखाया जा रहे सदन का हृदय-परिवर्तन होता है और वह स्वयं बीच से हटकर दोनों प्रेमियों के पुनर्मिलन का रास्ता साफ कर लेता है।

कुल मिलाकर यह कि ट्रीटमेण्ट’ में एक प्रकार से पात्रों, कहानी की घटनाओं, उसके संवादों सबकी झलक देनी पड़ती है। ट्रीटमेण्ट से ही निर्माता-निर्देशक यह समझ लेते हैं कि आपकी कहानी में कितना दम है और आपके लेखक रूप में उनकी पहचान भी होती है। इसलिए ट्रीटमेण्ट नोट का दमदार होना आवश्यक है। इसी में आपके पात्रों को शरीर मिलता है। इसलिए आप संक्षेप में अपने पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का भी उल्लेख करते चलें। मसलन यह कि कोई शराबी है, तो कोई भगवान की पूजा करता है तो किसी को बाजारू उपन्यास पढ़ने का शौक है तो कोई मानसिक रूप से विकलांग है। इसके साथ-ही-साथ आपको अपने प्रमुख पात्रों के संवादों की झलक भी देते हुए चलना चाहिए। अगर किसी पात्र का कोई तकिया कलाम है, किसी को बात-बात में शेर सुनाने का शौक है तो कोई बात-बात में जोक सुनाता रहता है। यानी कहानी के सारे अंगों की एक झलक आपके ट्रीटमेण्ट नोट में होनी चाहिए। लेकिन साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि यह ट्रीटमेण्ट नोट बहुत बड़ा नहीं है। आमतौर पर 10-15 पेजों का ट्रीटमेण्ट नोट आदर्श माना जाता है। इसलिए ट्रीटमेण्ट नोट लिखने में लेखक की असली परीक्षा होती है।

ट्रीटमेण्ट नोट के साथ एपिसोड के आधार पर कहानी का विभाजन भी ट्रीटमेण्ट का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है। इसे हॉलीवुड की भाषा में ‘वन लाइनर’ कहा जाता है। ‘वन लाइनर’ यानी एक पंक्ति में दृश्य की कहानी कहना। दृश्य के स्थान, काल, उस दृश्य में उपस्थित पात्र और उनके संवादों की झलक एक पंक्ति में लिखना। इसी प्रकार 13, 26 या 52 एपिसोड की कहानी के दृश्यों का ‘वन लाइनर’ तैयार कर लेना चाहिए। हर चैनल धारावाहिक का कॉन्सेप्ट नोट, ट्रीटमेण्ट नोट के साथ प्रस्तावित 13, 26 या 52 एपिसोड की ‘वन लाइनर’ के आधार पर विभाजित पटकथा भी माँगते हैं और इसे तैयार करना भी लेखक की जिम्मेदारी होती है। वैसा भी ‘वन लाइनर’ तैयार कर लेने के बाद सम्पूर्ण पटकथा लिखने में पटकथाकार को सुविधा होती है। इस ‘वन लाइनर’ में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हर एपिसोड में एक समान नाटकीयता हो। इस प्रकार के नाटकीय धारावाहिक टेलीविजन के लिए सबसे बिकाऊ माने जाते हैं।

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