इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सृजनात्मकता |Electronic media and creativity
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के लिए लेखन- इलेक्ट्रानिक माध्यम कहते ही हमारे जेहन में रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा जैसे माध्यमों की तस्वीर उभर आती है। आधुनिक संचार- पद्धतियों के विकास ने दृश्य-श्रव्य माध्यमों को अभिव्यक्ति का केन्द्रीय माध्यम बना दिया है। तरह-तरह की सैद्धान्तिक आपत्तियों, बाजार पूँजी के प्रभावों, अपसंस्कृति आदि के खतरों के बावजूद टेलीविजन, रेडियो आदि दृश्य-श्रव्य माध्यमों की जगह तेजी से बनती जा रही है। आज देश में टेलीविजन के करीब सौ चैनल हैं, जिनके भविष्य में और बढ़ते जाने की सम्भावना है। घर-घर छोटे परदे ने अपनी स्थायी उपस्थिति बना ली है।
इसी तरह, अगर टेलीविजन के आने के बाद यह लगने लगा था कि रेडियो का दौर अब बीत गया है, तो यह बात सच नहीं होगी। एफ. एम. प्रसारण के रूप में रेडियो ने अपना पुनराविष्कार किया है। दिल्ली-मुम्बई जैसे शहरों में तो लगभग दर्जन भर एफ. एम. स्टेशन कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं। आने वाले समय में देश भर में 300 एफ. एम. स्टेशन और प्रसारित होने लगेंगे। एफ एम ट्रांसमीटर के लिए अब रेडियो सेट का चलन पुराना पड़ता जा रहा है। एफ. एम. की लोकप्रियता का आलम यह है कि वह आपकी गाड़ी में आपके साथ होता है, यहाँ तक कि छोटे-छोटे पेन जैसे उपकरणों में भी एफ. एम. का स्टीरियो प्रसारण सुना जा सकता है। मोबाइल फोन में भी एफ. एम. रेडियो का होना नया चलन है। एफ. एम. आजकल युवाओं के फैशन का हिस्सा बन चुका है।
केवल एफ. एम. ही नहीं रेडियो की दुनिया में सैटेलाइट रेडियो की भी आमद हो चुकी है। बंगलोर आधारित ‘वर्ल्डस्पेस’ नामक कम्पनी ने एक ऐसा रेडियो प्रसारण आरम्भ किया है जिसके कुल 40 अलग रेडियो स्टेशन हैं और संगीत की विधाओं के हिसाब से उनका निर्धारण किया गया है। यानी उस पर पुराने हिन्दी फिल्मी गानों का अलग स्टेशन है और नये फिल्मी गानों का अलग। उसी तरह कर्नाटक संगीत का अलग स्टेशन है और हिन्दुस्तानी सुगम् संगीत का अलग। 2001 में शुरू हुए ‘वर्ल्डस्पेस’ के इस प्रसारण ने महानगरों में रहने वाली नयी पीढ़ी में अपनी अच्छी पैठ बना ली है।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इन माध्यमों पर तरह-तरह के दबाव न हों। बाजार की शक्तियों का दबाव स्पष्ट रूप से दृश्य-श्रव्य माध्यमों पर दिखायी देता है। रेडियो हो या टी. वी. उसके अधिकतर कार्यक्रम प्रायोजित होते हैं। इन माध्यमों में लेखन के अवसर बढ़े हैं तो उन पर बाजार का दबाव भी रहता है। कविता-कहानी लेखक अपनी स्वतन्त्रता से लिखता है। वह किस विधा में लिखता है, क्या लिखता है – यह पूरी तरह लिखने वाले के अपने वश में होता है।
वह, अपनी रचना का स्वामी होता है, उसका ‘ऑथर’ होता है। लेकिन रेडियो, टी. वी. तकनीक-आधारित माध्यम हैं और इसके लिए लिखते हुए उन तकनीक की सीमाओं का. हमेशा ध्यान रखना पड़ता है।
रेडियो और सृजनात्मक लेखन पर संक्षिप्त लेख लिखिये।
रेडियो के लिए लेखन- रेडियो पर नाटक, वार्ता, रूपक आदि का नियमित प्रसारण रेडियो के अलग-अलग केन्द्रों से होता है। रेडियो श्रव्य माध्यम है यानी इस माध्यम को केवल सुना जा सकता है। इसमें लेखक का काम शब्दों से समय को भरना होता है। इसलिए सबसे पहले आपको यह पता होना चाहिए कि समय को रेडियो पर शब्दों से किस तरह भरा जाता है। इसका तरीका यह है कि अगर आप बोलकर देखें तो सामान्य बातचीत में एक आदमी एक सेकण्ड में सामान्य रूप से दो शब्द बोलता है। इस तरह अगर आपको रेडियो के किसी कार्यक्रम के लिए एक मिनट की पटकथा लिखती है, तो मोटे तौर पर आपको 120 शब्द लिखने होंगे। रेडियो में शब्द सीमा का ध्यान रखना बड़ा आवश्यक होता है। रेडियो के लिए जो भी पटकथा लिखें उसमें शब्द सीमा की इस तकनीक की जानकारी आपके लेखन में चुस्ती ला देती है।
शब्दों की इस सीमा के कारण रेडियो के लिए लिखते हुए आपको कई चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। आप अगर प्रिण्ट मीडिया के लिए किसी विषय पर लिखते हैं तो आप उसमें बड़ी आसानी से विश्लेषण कर सकते हैं, लेकिन रेडियो के लिए लिखते हुए आपको मुख्य-मुख्य मुद्दों पर इस तरह से जोड़ देना पड़ता है कि सुनने वालों को बात समझ में आ जाए।
गागर में सागर भरने का मुहावरा रेडियो के सन्दर्भ में सार्थक प्रतीत होता है। स्पष्टता तो किसी भी प्रकार के लेखन की पहली शर्त होती है, लेकिन रेडियो के लिए लिखते हुए आपको अपनी बात बहुत स्पष्टतपूर्वक लिखनी पड़ती है, क्योंकि आप जो भी लिखते हैं वह श्रोताओं को केवल सुनायी देता है।
रेडियो चूंकि बोलने और सुनने का माध्यम है। इसलिए आप चाहे रेडियो के लिए कोई सूचनांपरक कार्यक्रम लिख रहे हों या कोई रूपक या नाटक आप इस बात का जरूर ध्यान रखें कि आप शब्दों का चुनाव इस तरह करें कि उसे बोलने में असुविधा न हो। किन्तु, परन्तु, यद्यपि जैसे प्रयोगों से बचना चाहिए, क्योंकि इस तरह के शब्दों का उच्चारण हर व्यक्ति नहीं कर सकता है। हो सकता है कि आप जिस शब्द को लिख रहे हों उसका उच्चारण आप स्वयं कर लेते हैं, लेकिन रेडियो पर बोलने वाले व्यक्ति का उच्चारण आप नहीं जानते। इसके अतिरिक्त रेडियो बोलने का माध्यम है, अगर इस पर कर्णप्रिय शब्द नहीं सुनायी देंगे तो लोग रेडियो नहीं सुनेंगे। याद रखिए कर्णप्रिय केवल संगीत ही नहीं होता। आपका बोलना भी कर्णप्रिय हो सकता है।
अगर आप रेडियो नाटक लिख रहे हैं तो संवादों में इसका ध्यान रखना चाहिए कि एक-एक शब्द न सिर्फ सुनायी दे, उसका असर भी हो। याद रखिए धर्मवीर भारती का प्रसिद्ध नाटक ‘अन्धायुग’ रेडियो के लिए ही मूल रूप से लिख गया था। इसी तरह का ध्यान रेडियो के लिए किसी भी और तरह के कार्यक्रम लिखते हुए रखा जाना चाहिए। आपके शब्दों में ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि रेडियो पर शब्द केवल खनकदार सुनायी ही न दें, आपको शब्दों के माध्यम से किसी घटना, किसी स्थल को दिखाना भी आना चाहिए।
कल्पना कीजिए की आप रेडियो पर पर्यटन-आधारित किसी कार्यक्रम में नैनीताल के पर्यटन के विषय में लिख रहें हैं, तो आपको केवल सूचनात्मक ही नहीं रहना चाहिए। दृश्य- श्रव्यं माध्यम के विषय में भले यह कहा जाता हो कि उसके लिए लेखन तकनीक आधारित होता है, उसमें लेखक के लिए स्पेस नहीं होता है। आप बताएँगे कि अभी हाल ही में सुपरहिट फिल्म ‘कोई मिल गया’ की शूटिंग भी झीलों के इसी शहर में हुई थी। इससे आपकी पटकथा में रोचकता पैदा होती है। याद रखिए बतरस भी एक रस होता ह। जब इस तरह से आप रोचक शैली में किसी रेडियो कार्यक्रम की पटकथा लिखते हैं तो सुनने बाले उससे जुड़ जाते हैं।
याद रखने की बात है कि बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में या कह लीजिए कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक रेडियो प्रिण्ट के अलावा सूचना प्रदान करने का सबसे बड़ा माध्यम था। सबसे शक्तिशाली भी। देश की आजादी की पहली घोषणा लोगों ने रेडियो के माध्यम से ही सुनी थी और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या की खबर भी इसी के माध्यम से दुनिया भर में फैली थी। उस खबर ने देश के जनमानस पर किस तरह असर डाला था, रेडियो का प्रभाव उस समय किस तरह का था- इसका बड़ा ही अच्छा वर्णन फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मैला आँचल’ में आया है। लेकिन आज जल्दी से जल्दी सूचना प्रदान करने वाले माध्यमों के रूप में टीवी और इण्टरनेट ने भी अपनी जगह बना ली है। ऐसे में रेडियो ने भी बदलते समय की नब्ज को पहचाना है। उसके कार्यक्रमों का स्वरूप भी इस दबाव के कारण बदले रहा है। पहले केवल राष्ट्रीय स्तर पर आकाशवाणी थी, आज छोटे-छोटे शहरों तक में निजी एफ. एम. प्रसारण का जाल फैलाने की तैयारी चल रही है। आज अगर रेडियो की प्राथमिकताएँ बदली हैं, तो रेडियो- लेखकों को भी उसके लिए तैयार हो जाने की आवश्यकता है।
रेडियो की जो सबसे बड़ी शक्ति है वह भारत जैसे देश में और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। रेडियो की वह शक्ति है कि यह एक ऐसा माध्यम है जो पढ़े-लिखे और अनपढ़ वर्ग में समान रूप से संचार कर सकता है। इसलिए भी रेडियो में भाषा का सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है। – रेडियो भाषा का चमत्कार दिखाने का माध्यम नहीं है। इस माध्यम से इस बात का परीक्षण नहीं होता कि किसी लेखक की भाषा किस प्रकार की है। वह उच्चकोटि की है या नहीं। इस माध्यम में भाषा की इस शक्ति की परीक्षा जरूर हो जाती है कि वह किस तरह समाज के अलग-अलग वर्गों से एक समान भाव से संवाद स्थापित कर सकती है। ध्यान रखिए कि अगर कोई व्यक्ति अपने बन्द ए. सी. कार में रेडियो का आनन्द ले रहा होता है, तो एक रिक्शा वाला भी अपने रिक्शे के हैण्डल के साथ लगी डोलची में रेडियो रखकर दुनिया से अपने तार जोड़े रखता है। इसलिए आपके लिखने के अन्दाज में वह किस्सागोई होनी चाहिए जिससे सुनने वाला उसे सुनने को विवश हो जाए।
यह तो हुई रेडियो के लिए लिखने वालों के लिए कुछ सामान्य बातें। लेकिन आजकल एफ. एम. प्रसारण से रेडियो की यह पारम्परिक तस्वीर बदल रही है। भारत में रेडियो प्रसारण के 75 साल हो गये हैं। लेकिन अचानक एफ. एम. प्रसारण को सुनने पर यह लगता है जैसे वह युवा हो रहा है। आज युवाओं के सुख-दुख का साथी बनता जा रहा है एफ. एम.। उसके कार्यक्रमों का झुकाव कैम्पस यानी कॉलेजों- विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने वाले युवाओं की तरफ हो रहा है। उसकी भाषा बदल रही है। आज रेडियो में भी भाषा का यही हिंलशीकरण हो रहा है तो कहीं उसका स्थानीयकरण हो रहा है। मोबाइल फोन में मिलने वाली ‘शॉर्ट मैसेज सर्विस’ की सुविधा ने भाषा की रचनात्मकता के इतने आयाम प्रस्तुत किए हैं कि उसका असर एफ. एम, प्रसारणों पर भी दिखने लगा है।
इसलिए आज के दौर में बतौर लेखक रेडियो से जुड़ने की चुनौतियाँ पहले से काफी बढ़ गयी हैं। जिस तरह से सीधी, सपाट भाषा साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती है। उसी तरह आजकल रेडियो की भाषा में भी उसी जीवन्तता पर जोर दिया जाने लगा है। लिखने की भाषा औपचारिक शैली में लिखी जाती है, जबकि बोलचाल की शैली अनौपचारिक मानी जाती है। बोलचाल की भाषा में मुहावरों का प्रयोग होता है, लोग बातचीत में इधर-उधर के हवाले देते हैं। आज रेडियो में इस तरह की अनौपचारिक शैली में प्रस्तुत करने का चलन बढ़ रहा है और होना भी चाहिए। आज रेडियो ज्ञान प्रदान करने वाला या सूचना प्रदान करने वाला माध्यम भर नहीं है। आज रेडियो घर से ज्यादा घर के बाहर आपके अकेलेपन का साथी बन गया है। वह सफर में आपके साथ होता है, आपके काम करने के स्थान पर आपके साथ होता है। वह आपके मोबाइल फोन का हिस्सा बनकर हर जगह, हर समय आपके साथ मौजूद होता है।
इसीलिए ऊपर कहा गया कि आज रेडियो माध्यम के लिए लिखना अधिक चुनौतिपूर्ण हो गया है। पहले के दौर में रेडियो पर ज्ञानपरक, सूचनापरक कार्यक्रमों की अधिकता होती थी। मनोरंजन के लिए विविध भारती होता था। आज 24 घण्टे मनोरंजक कार्यक्रम प्रसारित करने वाले एफ.एम. स्टेशनों को देश भर में बाढ़ आने वाली है। इसलिए इस नये दौर में बतौर लेखक रेडियो से जुड़ने के लिए यह आवश्यक है कि आपको आज के युवाओं की बतकही का अन्दाज, उनकी रुचियों आदि का पता होना चाहिए और सबसे बढ़कर छोटे- छोटे वाक्य लिखने चाहिए।
Important Link
- पाठ्यक्रम का सामाजिक आधार: Impact of Modern Societal Issues
- मनोवैज्ञानिक आधार का योगदान और पाठ्यक्रम में भूमिका|Contribution of psychological basis and role in curriculum
- पाठ्यचर्या नियोजन का आधार |basis of curriculum planning
राष्ट्रीय एकता में कौन सी बाधाएं है(What are the obstacles to national unity) - पाठ्यचर्या प्रारुप के प्रमुख घटकों या चरणों का उल्लेख कीजिए।|Mention the major components or stages of curriculum design.
- अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण किस प्रकार होता है? विवेचना कीजिए।How is a learner’s choice of experiences determined? To discuss.
- विकास की रणनीतियाँ, प्रक्रिया के चरण|Development strategies, stages of the process
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