कहानी लेखन की अवधारणा स्पष्ट कीजिये।Explain the concept of story writing.
कहानी – कहानी का वह रूप जिसे अंग्रेजी की ‘शॉर्ट स्टोरी‘ की तर्ज पर देखा जाता है, निश्चित रूप से आधुनिक है। लेकिन कहने-सुनने की इस विधा की मौजूदगी प्राचीन काल से ही देखी जा सकती है। संस्कृत में कथासिरत्सागर, पंचतन्त्र जैसे पुराने प्रारूप इसके मौजूद रहे हैं। लोककथाएँ आदिम जमाने से हमारे समाज में मौजूद रही हैं। लेकिन आधुनिक विधा के रूप में कहानी का उद्भव 19वीं शताब्दी में माना जाता है। जब रूस, फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका की पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ छपने लगीं। आरम्भिक कथाकारों में फ्रांस के बालजाक, अमेरिका के वाशिंगटन इविंग, रूस के अलेक्सांद्र पुश्किन, जर्मनी के इ. टी. ए. हॉफमैन का नाम लिया जा सकता है। लेकिन रूसी लेखक गोगोल और अँग्रेजी के लेखक एडगर एलन पो की कहानियों में इस विधा ने आधुनिक शक्ल ग्रहण किया।
हिन्दी में कहानी की विधा को इस रूप में नितान्त 20 वीं शताब्दी की विधा कहा जा सकता है, क्योंकि इसी शताब्दी के आरम्भिक दशकों में कुछ ऐसी कहानियाँ लिखी गयी, जिन्होंने आगे इस विधा के विकसित होने के संकेत दिये। चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की उदात्त प्रेम की कथा ‘उसने कहां था’ ऐसी ही एक कहानी है। लेकिन हिन्दी में कहानी का नाम आते ही जिस लेखक का नाम सबसे पहले ध्यान में आता है वह है प्रेमचन्द। हिन्दी में सचमुच प्रेमचन्द ने कहानी विधा को स्थापित कर दिया। 300 से अधिक कहानियाँ लिखने वाले प्रेमचन्द ने कहानी की विधा को समाज के ताने-बाने को समझने, उसके रिश्ते-नाते, ईर्ष्या-द्वेष, भेदभाव इस सबका चित्रण प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों में किया, जबकि उनके उपन्यासों का फलक व्यापक होता था। प्रेमचन्द की जमीन पर हिन्दी में यथार्थवादी कहानियाँ बड़े पैमाने पर लिखी गयी हैं।
कहानी क्या है?- आमतौर पर कहानी को आकार के कारण उपन्यास का छोटा रूप कहा जाता है। लेकिन कहानी महज इसी रूप में उपन्यास से अलग विधा नहीं होती है। उपन्यास जहाँ विस्तार की विधा है, वहीं कहानी गहनता की विधा है। इसे हम हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक प्रेमचन्द की कहानियों और उपन्यासों के अन्तर से समझ सकते हैं। हिन्दी के शायद वे अकेले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने कहानी और उपन्यास दोनों ही विधा में अपनी अलग-अलग पहचान बनायी। उपन्यास में अगर उन्होंने राजनीतिक आन्दोलन, स्वतन्त्रता आन्दोलन और उस समय विचार के लिए उपस्थित बड़े-बड़े सवालों को उठाया, तो कहानियाँ उनके लिए कुछ चरित्रों को गढ़ने, कुछ घटनाओं को रखने, सामाजिक कुरीतियों को सामने लाने की विधा थी।
कहानी-कला के सिद्धान्त भी आमतौर पर वही माने जाते हैं, जो उपन्यास के होते हैं, इसलिए यहाँ उनकी अलग से चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। कहानी वास्तव में किसी एक विषय, किसी एक पहलू के बारे में बहुत गहराई से सोचने का मौका देता है, किसी एक पहलू के प्रभाव से आकर्षित करता है। उदाहरण के लिए अज्ञेय की कहानी ‘रोज’ या मोहन राकेश की कहानी ‘मिस पाल’ में अकेलेपन को बड़ी शिद्दत से दिखाया गया है। कहानी में छोटी-छोटी घटनाएँ, कुछ चरित्रों की कथा कही जाती है। उदाहरण के लिए धर्मवीर भारती ने ‘गुलकी बन्नो’, ‘बन्द गली का आखिरी मकान’ जैसी अनेक चरित्र-प्रधान कहानियाँ लिखी हैं।
उपन्यास और कहानी में एक अन्तर इस कारण भी है कि कहानी आमतौर पर पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशन के लिए लिखी जाती हैं, जबकि उपन्यास का स्वतन्त्र. प्रकाशन होता है। इसलिए कहानी को अपने छोटे आकार में ही वह प्रभाव पैदा करना होता है जिसके लिए कोई लेखक उपन्यास लिखता है। उपन्यास का प्रभाव पाठकों पर समग्र नहीं होता है। उपन्यास पाठक को टुकड़ों-टुकड़ों में प्रभावित करता है। अगर उदाहरण के लिए प्रेमचन्द्र के उपन्यास ‘गोदान’ को ले लें तो उसकी कथा का प्रभाव हर पाठक के लिए अलग-अलग हो सकता है- कोई गोबर के विद्रोही चरित्र से प्रभावित हो सकता है, तो कोई होरी के संघर्ष से आईडेण्टीफाई कर सकता है, किसी को मेहता-मालती की कहानी में अधिक मजा आ सकता है, और भले इस उपन्यास को ग्रामीण जीवन का महाकाव्य कहा जाता हो, मगर यह भी हो सकता है कि किसी पाठक को उस उपन्यास की शहरी कथा ही अधिक आकर्षित करती हो। लेकिन उन्हीं की कहानियों के उदाहरणं से समझें तो कहानी का एक केन्द्रीय भाव होता है। प्रेमचन्द की एक कहानी है ‘ठाकुर का कुओं’ – कहानी पढ़कर यही प्रभाव मन पर पड़ता है कि ऐसी छुआछूत है समाज में कि पानी तक बँटा हुआ है। इसी तरह, कहानी का एक आवश्यक गुण उसकी समग्रता होती है। उदाहरण के लिए भारत-विभाजन को आधार बनाकर इतने उपन्यास हिन्दी में लिखे गये हैं, लेकिन महीप सिंह की कहानी ‘पानी और पुल’, मोहन राकेश की कहानी ‘मलबे का मालिक’, कृष्णा सोबती ‘की कहानी ‘सिक्का बदल गया’ जैसी कहानियों का प्रभाव जिस समग्रता में विभाजन की भयावहता को सामने रखता है, वह कहानी का एक विशेष रूप भी है।
एक समालोचक ने अच्छी कहानी की सात विशेषताएँ बतायी है- (1) एकमात्र घटना प्रधान, (2) एकमात्र प्रमुख चरित्र, (3) कल्पना, (4) कथावस्तु, (5) कसाव-संक्षिप्तता, 6) गठन, (7) प्रभाव की अन्विति।
इसी तरह कहानी को लेकर कई सिद्धान्त रहे हैं, लेकिन उपन्यास की तरह ही कहानी विधा भी अत्यन्त लचीली विधा रही है। इतनी लचीली कि किसी कथाकार ने रोजनामचा की तरह कहानी लिख दी, जैसे इस्पहानी भाषा के लेखक गाब्रिएल गार्सिया मार्केस ने रोजनामचा की शैली में कहानी लिख दी – ‘क्रॉनिकल ऑफ ए डेथ फोरटोल्ड’। इसी तरह ‘मैं’ शैली में लिखी गयी कहानियाँ अक्सर आत्मकथा का भ्रम देने लगती है, लेकिन यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि कहानी आत्मकथा नहीं होती है। उसी तरह कहानी संस्मरण और रेखाचित्र भी नहीं होती है, यद्यपि इन दोनों ही विधारूपों में कहानियाँ लिखी जाती हैं या कम से कम इस तरह कहानी संस्मरण और रेखाचित्र होने का भ्रम देने लगती हैं। कहने का मतलब यह है कहानी किसी भी विषय पर लिखी जा सकती है और किसी भी शैली में लिखी जा सकती है।
कुल मिलाकर, यह कहा जाता है कि अच्छी कहानी वही होती है जिसमें अनुपात का सनतुलन होता है। अनुपात का सन्तुलन यह है कि यदि कहानीकार कहानी लिखते हुए अपने द्वारा अपनाए गये किसी विचार के प्रभाव में आ जाता है, तो उसके असर में कहानी के वैचारिक निबन्ध हो जाने का खतरा रहता है, उसी प्रकार अगर उसमें संवाद की बहुलता हो जाए तो इस बात का खतरा रहता कि वह नाटक लगने लगे। अगर कहानीकार चरित्र-प्रधान कहानी भी लिखता है, तो उसे इसका ध्यान रखना चाहिए कि वह उस चरित्र में ही इतना न उलझ जाए कि कहानी रेखाचित्र बन जाए। इसी तरह लेखक को इससे भी बचना होता है कि उसकी कहानी संस्मरण का भ्रम न पैदा करे।
इसी तरह, अगर कोई लेखक किसी घटना को आधार बनाकर कहानी लिखता है, तो उसे उस घटना को विश्लेषण में ही इतना नहीं उलझ जाना चाहिए कि वह अखबार की खबर लगने लगे। मान लीजिए आप किसी कस्बे में दो समुदायों के बीच तनाव और अन्ततः उनमें शान्ति स्थापना को लेकर कहानी लिखना चाहते हैं, तो बजाय इसके कि आप इस विस्तार में जाएँ कि दंगे का क्या कारण था, उसमें प्रशासन की भूमिका क्या रही, तो इस कहानी में आप कोई नयी बात नहीं कह रहे होते हैं। क्योंकि हो सकता है कि आपकी कहानी में वह तनाव भले पहली बार घटित हो रहा हो, लेकिन इस तरह की घटनाएँ देश के अलग-अलग हिस्सों में जब- तब घटती रहती हैं और उनके बारे में समाचारपत्रों में खबरें भी छपती रहती हैं। जिनके अकसर इसी तरह की बातें रहती हैं। कहानी को यथार्थ पर आधारित होना तो चाहिए, लेकिन यथार्थ का तात्पर्य घटना का यथातथ्य वर्णन करना नहीं होता है। बहरहाल, लेकिन अगर आप दो समुदायों के बीच तनाव फैलने और उसके थम जाने की घटना पर ही कहानी लिखना चाहते हैं, तो उसे आप दो व्यक्तियों के सम्बन्धों के माध्यम से भी लिख सकते हैं। मान लीजिए कि दो विधर्मी स्त्री- पुरुष आपस में प्रेम करते हैं और इस दंगे में वे फँसे हुए हैं। इस तरह से आप उन प्रेमियों की कहानी लिखते हुए दंगे की भयावहता, उसकी निस्सारता को और भी गहराई से दिखा सकते हैं। इसी तरह की एक कहानी कथाकार अखिलेश की है जिसका शीर्षक है ‘अँधेरा’।
कहानी के बारे में इस्पहानी भाषा के महान रचनाकार बोर्खेज ने लिखा है कि सृष्टि की रचना करने वाले ने सृष्टि के आरम्भ में ही एक कहानी लिख दी थी। हर दौर का लेखक उसे अपने-अपने ढंग से लिखता है। वास्तव में कहानी यथार्थवादी इस अर्थ में भी होती है कि लेखक किसी भी विषय, किसी भी घटना पर लिखते हुए उसे अपने अनुभव से नया बना देता है। उदाहरण के लिए प्रेमी-प्रेमिका का मिलन कोई लेखक खेत में दिखाता है, सलमान रश्दी के उपन्यास में प्रेमी अपनी पर्दानशीं प्रेमिका को एक इंच के छिद्र से देखता है, तो मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ में प्रेमी-प्रेमिका का प्रथम मिलन अस्थायी टट्टी के परदे के आर-पार होता है।
प्रश्न यह उठता है कि कहानी के लिए विषय कहाँ से लाया जाए? किस तरह किसी विषय को कहानी में ढाला जाए? इसका जवाब तो यही हो सकता है कि आप जिन जीवन- स्थितियों में जीते हैं, जिन परिस्थितियों का आप सामना करते हैं, जिस तरह की घटना आपको प्रभावित करती है, कोई व्यक्ति आपको ऐसा लगता है कि उस पर कहानी लिखी जाए। कहानी वही जीवन्त होती है।
कहानी के आवश्यक तत्त्व भी उपन्यास की तरह ही होते हैं। उसमें भी कथावस्तु- कथानक, पात्र-योजना, चरित्र-चित्रण, संवाद आदि का महत्त्व होतां है, लेकिन उपन्यास की तरह कहानी में विस्तार का नहीं संक्षिप्तता का महत्त्व होता है। हालाँकि ऐसी भी कहानियाँ लिखी गयी हैं जो काफी लम्बी होती हैं। महत्त्व कहानी में विषय और दृष्टिकोण का होता है। कहानीकार जितनी स्पष्टता से कहानी के माध्यम से उस दृष्टिकोण को सामने ला पाता है उसी में कहानी की सफलता मानी जाती है।
कथाकार बनने के लिए यह आवश्यक है, कि विश्व कथा-साहित्य के मूर्धन्यों, यथा, गोगोल, चेखव, मोपासां, ओ. हेनरी की कहानियों के अलावा हिन्दी के भी महत्त्वपूर्ण पर्ण कथाकारों की कहानियों का अध्ययन जरूर कर्जा चाहिए। प्रेमचन्द की कहानियाँ समाज के विविध अनुभवों को लेकर हैं, हर कथाकार को उनकी कहानियाँ पढ़नी चाहिए। उसी तरह यशपाल, जैनेन्द्र कुमार, उदय प्रकाश, अरुण-प्रकाश, अखिलेश जैसे कथाकारों की कहानियों का अध्ययन भी करना चाहिए। ये तो महज कुछ नाम हैं। जिन कथाकारों की कहानियों ने कहानी-विधा को समृद्ध किया है, उसे नये-नये रूप दिये हैं उन कथाकारों के अध्ययन से यह पता चलता है कि कहानी का विकास किस तरह हुआ है और आगे उसकी क्या दिशा होने वाली है।
एकांकी लेखन प्रक्रिया पर संक्षिप्त लेख लिखिये।Write a short article on the process of one-act writing.
एक अंक वाले नाटकों को एकांकी कहते हैं। अंग्रेजी के ‘वन ऐक्ट प्ले’ शब्द के लिए हिंदी में ‘एकांकी नाटक’ और ‘एकांकी’ दोनों ही शब्दों का समान रूप से व्यवहार होता है। पश्चिम में एकांकी 20वीं शताब्दी में, विशेषतः प्रथम महायुद्ध के बाद, अत्यन्त प्रचलित और लोकप्रिय हुआ। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में उसका व्यापक प्रचलन इस शताब्दी के चौथे दशक में हुआ। इसका यह अर्थ नहीं कि एकांकी साहित्य की सर्वथा आभिजात्यहीन विधा है। पूर्व और पश्चिम दोनों के नाट्य साहित्य में उसके निकटवर्ती रूप मिलते हैं। संस्कृत नाट्यशास्त्र में नायक के चरित, इतिवृत्त, रस आदि के आधार पर रूपकों और उपरूपकों के जो भेद किए गए उनमें से अनेक को डॉ. कीथ ने एकांकी नाटक कहा है। इस प्रकार ‘दशरूपक’ और ‘साहित्यदर्पण’ में वर्णित व्यायोग, प्रहसन, भाग, वीथी, नाटिका, गोष्ठी, सट्टक, नाटयरासक, प्रकाशिका, उल्लाप्य, काव्य फ्रेंखण, श्रीगदित, विलासिका, प्रकरणिका, हल्लीश आदि रूपकों और उपरूपकों को आधुनिक एकांकी के निकट संबंधी कहना अनुचित न होगा। साहित्यदर्पण में ‘एकांक’ शब्द का प्रयोग भी हुआ है :
भाणः स्याद् धूर्तचरितो नानावस्थांतरात्मकः।
एकांक एक एवात्र निपुणः पण्डितो विटः ॥
ख्यातेतिवृत्तो व्यायोगः स्वल्पस्त्रीजनसंयुतः।
हीनो गर्भविमर्शाभ्यां नरैर्बहुभिराश्रितः ॥
एकांककश्च भवेत्…
पश्चिम के. नाट्यसाहित्य में आधुनिक एकांकी का सबसे प्रारंभिक और अविकसित किन्तु निकटवर्ती रूप ‘इंटरल्यूड’ है। 15 वीं और 16वीं शताब्दियों में प्रचलित सदाचार और नैतिक शिक्षापूर्ण अंग्रेजी मोरैलिटी नाटकों के कोरे उपदेश से पैदा हुई ऊब को दूर करने के लिए प्रहसनपूर्ण अंश भी जोड़ दिए जाते हैं। ऐसे ही खंड इंटरल्यूड कहे जाते थे। क्रमशः ये मोरैलिटी नाटकों से स्वतंत्र हो गए और अंत में उनकी परिणति व्यंग्य-विनोद-प्रधान तीन पात्रों के छोटे नाटकों में हुई।
‘कर्टेन रेज़र’ या पटोन्नायक कहा जाने वाला एकांकी, जिसकी तुलना संस्कृत नाटकों के अर्थोपक्षेपक या प्रेक्षणक से की जा सकती है, पश्चिम में आधुनिक एकांकियों का निकटतम पूर्ववर्ती था। रात्रि में देर से खाना खाने के बाद रंगशालाओं में आने वाले संभ्रांत सामाजिकों के कारण समय से आने वाले साधारण सामाजिकों को बड़ी असुविधा होती थी। रंगशालाओं के मालिकों ने इस बीच साधारण सामाजिकों को मनोरंजन में व्यस्त रखने के लिए द्विपात्रीय प्रहसनपूर्ण संवाद प्रस्तुत करना शुरू किया। इस प्रकार के स्वतंत्र संवाद को ही ‘कर्टेन रेज़र’ कहा जाता था। इसमें कथानक एवं जीवन के यथार्थ और नाटकीय द्वंद्व का अभाव रहता था। बाद में ‘कर्टेन रेज़र’ के स्थान पर यथार्थ जीवन को लेकर सुगठित कथानक और नाटकीय द्वंद्व वाले छोटे नाटक प्रस्तुत किए जाने लगे। इनके विकास का अगला कदम आधुनिक एकांकी था।
एकांकी इतना लोकप्रिय हो उठा कि बड़े नाटकों की रक्षा करने के लिए व्यावसायिक रंगशालाओं ने उसे अपने यहाँ से निकालना शुरू किया। लेकिन उसमें प्रयोग और विकास की संभावनाओं को देखकर पश्चिम के कई देशों में अव्यावसायिक और प्रयोगात्मक रंगमंचीय आंदोलनों ने उसे अपना लिया। लंदन, पेरिस, बर्लिन, डब्लिन, शिकागो, न्यूयार्क आदि ने इस नए ढंग से नाटक और उसके रंगमंच को आगे बढ़ाया। इसके अतिरिक्त एकांकी नाटक को पश्चिम के अनेक महामना सम्मानित लेखकों का बल मिला। ऐसे लेखकों में रूस के चेखव, गोर्की और एकरीनोव, फ्रांस के जिराउदो, सात्र और एनाइल, जर्मनी के टालर और ब्रेख्ट, इटली के पिरैंदेली तथा इंग्लैंड, आयरलैंड और अमरीका के आस्कर वाइल्ड, गाल्सवर्दी, जे.एम.बैरी, लार्ड डनसैनी, सिंज, शिआँ ओ केसी, यूजीन ओ नील, नोएल कावर्ड, टी.एस.इलियट, क्रिस्टोफ़र फ्राई, ग्रहम ग्रीन, मिलर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। रंगमंचीय आन्दोलनों और इन लेखकों के सम्मिलित एवं अदम्य प्रयोगात्मक साहस, और उत्साह के फलस्वरूप आधुनिक एकांकी सर्वथा नई, स्वतन्त्र और सुस्पष्ट विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। उनकी कृतियों के आधार पर एकांकी नाटकों की सामान्य विशेषताओं का अध्ययनं किया जा सकता है।
रचना विधान – सतह पर ही बड़े नाटकों और एकांकियों का आकारगत अंतर स्पष्ट हो जाता है। एकांकी नाटक साधारणतः 20 से लेकर 30 मिनट में प्रदर्शित किए जा सकते हैं, जबकि तीन, चार या पाँच अंकों वाले नाटकों के प्रदर्शन में कई घंटे लगते हैं। लेकिन बड़े नाटकों और एकांकियों का आधारभूत अंतर आकारात्मक न होकर रचनात्मक है। पश्चिम के तीन से लेकर पाँच अंकों वाले नाटकों में दो या दो से अधिक कथानकों को गूँथ दिया जाता था। इस प्रकार उनमें एक प्रधान कथानक और एक या कई उपकथानक होते थे। संस्कृत नाटकों में भी ऐसे उपकथानक होते थे। ऐसे नाटकों में स्थान या दृश्य, काल और घटनाक्रम में अनवरत परिवर्तन स्वाभाविक था। लेकिन एकांकी में यह संभव नहीं। एकांकी किसी एक नाटकीय घटना या मानसिक स्थिति पर आधारित होता है और प्रभाव की एकाग्रता उसका मुख्य लक्ष्य है। इसलिए एकांकी में स्थान, समय और घटना का संकलनत्रय अनिवार्य सा माना गया है। कहानी और गीत की तरह एकांकी की कला घनत्व या एकाग्रता और मितव्ययता की कला है, जिसमें कम से कम उपकरणों के सहारे ज्यादा से ज्यादा प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। एकांकी के कथानक का परिप्रेक्ष्य अत्यंत संकुचित होता है, एक ही मुख्य घटना होती है, एक ही मुख्य चरित्र होता है, एक चरमोत्कर्ष होता है। लंबे भाषणों और विस्तृत व्याख्याओं की जगह उसमें संवादलाघव होता है। बड़े नाटक और एकांकी का गुणात्मक भेद इसी से स्पष्ट हो जाता है कि बड़े नाटक के कलेवर को काट छाँटकर एकांकी की रचना नहीं की जा सकती, जिस तरह एकांकी के कलेवर को खींच तानकर बड़े नाटक की रचना नहीं की जा सकती।
संस्कृत नाट्यशास्त्र के अनुसार बड़े नाटक के कथानक के विकास की पाँच स्थितियाँ मानी गई हैं : आरम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम। पश्चिम के नाट्यशास्त्र में भी इन्हीं से बहुत कुछ मिलती-जुलती स्थितियों का उल्लेख है: आरम्भ या भूमिका, चरित्रों और घटनाओं के घात प्रतिघात या द्वन्द्व से कथानक का चरमोत्कर्ष की ओर आरोह, चरमोत्कर्ष, अवरोह और अंत। पश्चिम के नाटकशास्त्र में द्वंद्व पर बहुत जोर दिया गया है।
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- पाठ्यचर्या नियोजन का आधार |basis of curriculum planning
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- विकास की रणनीतियाँ, प्रक्रिया के चरण|Development strategies, stages of the process
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