पाठ्यचर्या प्रारुप के प्रमुख घटकों या चरणों का उल्लेख कीजिए।|Mention the major components or stages of curriculum design.

पाठ्यचर्या प्रारुप के प्रमुख घटकों या चरणों का उल्लेख कीजिए।

पाठ्यचर्या प्रारुप के पाँच प्रमुख तत्व या घटक हैं-

  1. शिक्षार्थी एवं समाज के विषय में मान्यताओं का एक संरचनात्मक ढाँचा- कोई भी पाठ्यचर्या समाज एवं उसमें रहने वाले व्यक्तित्यों से सम्बन्धित मान्यताओं के नाथ प्रारम्भ होता है। पाठ्यचर्या निर्माणकताओं का पहला कार्य शिक्षार्थी की योग्यता, आवश्यकता, रुचि, अभिप्रेरणा एवं किसी सामाजिक एवं सांस्कृतिक विषयवस्तु को सीखने की क्षमता का निर्धारणकरना होता है। उपर्युक्त तथ्यों के सन्दर्भ में विभिन्न विषयों जैसे कि मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र आदि में अनेक शोधकार्य हुए हैं। उपर्युक्त शोध कार्यों के प्रमुख रूप से शिक्षार्थी क्या आत्मसात कर सकता है? किस परिस्थिति में कर सकता है? और उसके परिणाम क्या होंगे? आदि प्रश्नों के उत्तर देने के प्रयास किए गए हैं। इनसे हमें पाठ्यचर्या प्रारुप के तत्व की जानकारी मिलती है।
  2. लक्ष्य एवं उद्देश्य – पाठ्यचर्या प्रारूप का दूसरा प्रमुख तत्व पाठ्यचर्या के लक्ष्य एवं उद्देश्य होते हैं। चूंकि पाठ्यचर्या के उद्देश्य विषय-वस्तु एवं मूल्यांकन प्रक्रिया का चयन के आधार पर होते हैं, अतः ये सुपरिभाषित एवं सुव्यवस्थित होने चाहिए। पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों के बजाय, शिक्षाचीं की रुचि, आवश्यकता, आदि को ध्यान में रखकर नवीन उद्देश्यों का निर्माण होना चाहिए। इन उद्देश्यों के निर्धारण में ज्ञान, कौशल, मूल्य, अभिक्षमता एवं आदतों का विकास जो कि शिक्षण प्रकिया के वांछित परिणाम को प्रभावित करते हैं, को भी ध्यान में रखना चाहिए। उद्देश्य एवं लक्ष्य शिक्षक के लिए शिक्षण अधिगम के क्षेत्र को भी चित्रांकित करते हैं। उद्देश्य एवं लक्ष्य, समाज एवं अधिगमकर्ता के दार्शनिक मान्यताओं को प्रतिबिंबित करते हैं। ये वैश्विक या विशिष्ट भी हो सकते हैं। ये अधिगमकर्ता में किसी विशिष्ट व्यवहार को विकसित करने वाले हो सकते हैं या व्यवहार के सामान्य प्रारुप को विकसित करने वाले। ये गतिशील होते हैं, अर्थात् समाज में परिवर्तन के साथ ये भी परिवर्तित हो जाते हैं। इन दोनों प्रकार के परिवर्तनों अर्थात सामाजिक परिवर्तन तथा उद्देश्य एवं लक्ष्य में परिवर्तन के बीच सामंजस्य एक अच्छे पाठ्यचर्या प्रारुप की आवश्यक शर्त है लेकिन आज समस्त विश्व में इस प्रकार के सामंजस्य का अभाव है।

(3) विषय-वस्तु कला, चयन उसका क्षेत्र विस्तार एवं उसका क्रम विषयवस्तु को चयनित कर, शिक्षक एवं शिक्षार्थी के प्रयोग के लिए, एक क्रम में व्यवस्थित किया जाता है। विषयवस्तु या पाठ्यवस्तु को निम्नलिखित तीन रूपों में समझा जा सकता है-

(अ) एक वर्षोंय पाठ्यचर्या के लिए विषयों की सूची।

(ब) एक अनुशासन (जैसे विज्ञान, गणित आदि), तथा

(स) एक विशिष्ट विषय (जैसे- जीव विज्ञान, भौतिकी आदि) विषयवस्तु के चयन में तीन मुख्य तत्वों को ध्यान में रखा जाता है-

(अ) ज्ञान

(ब) प्रक्रिया/कौशल, तथा

(स) प्रभाव

विषयवस्तु के चयन के लिए निष्कर्ष-

1. प्रासंगिकता- विषयवस्तु वर्तमान समय के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं तकनीकि आवश्यकताओं के अनुकूल होना चाहिए।

2. संतुलन- शिक्षा के दोनों ध्रुवों अर्थात् क्या स्थायी है? और क्या परिवर्तनशील है? को समझकर उनके मध्य संतुलन स्थापित करना चाहिए।

3. विषयवस्तु की वैधता- विषयवस्तु को वास्तविक रूप में उन्हीं अधिगम अनुभवों को प्रदान करने वाला होना चाहिए जिनके लिए उन्हें चयनित किया गया है।

4. शिक्षार्थी केन्द्रित – विषयवस्तु का चयन शिक्षार्थी के विकास की अवस्था के अनुकूल होनी चाहिए।

5. सहजता- विषयवस्तु समय, मानवीय, भौतिक एवं वित्तीय संसाधनों की दृष्टि से सहज होना चाहिए।

(4) क्रियान्वयन की दशाएँ- पाठ्यचर्या प्रारुप के एक तत्व के रूप में क्रियान्वयन की दशाओं का आशय विषय-वस्तु को शिक्षार्थियों तक पहुँचाने की विभिन्न विधियों से है। ये पाठ्यचर्या प्रारुप का एक मुख्य तत्व है क्योंकि यह शिक्षार्थी के परिणाम को निर्धारित करता है। यह शिक्षार्थी के अभिरुचि एवं विषयवस्तु पर उसके स्वामित्व को प्रभावित करता है साथ ही साथ शिक्षक के व्यवहार को भी प्रभावित करता है। पहले, क्रियान्वयन की दशाएँ शिक्षक- केन्द्रित हो हा या विद्यार्थी केन्द्रित, इस बातपर बहुत ध्यान दिया जाता था लेकिन कालांतर में विषयवस्तु के विद्युतीय प्रस्तुतीकरण, जैसे कि स्मार्टबोर्ड, पॉवरप्वायंट प्रस्तुतीकरण आदि के विकास के कारण शिक्षक की भूमिका में बदलाव आया है। पुनः क्रियान्वयन की दशाओं को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दो भागों में बांटा जा सकता है। ये बंटवारा पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में शिक्षक एवं शिक्षार्थी की भागीदारी की मात्रा के आधार पर किया जाता है। पाठ्यचर्या प्रारुप के विभिन्न तत्वों में से जिस तत्त्व पर सबसे ज्यादा शोध कार्य किया जाता है, वो क्रियान्वयन की दशाएँ हैं।

पाठ्यचर्या प्रारुप के प्रमुख घटकों या चरणों का उल्लेख कीजिए।

(5) मूल्यांकन- पाठ्यचर्या प्रारुप के तत्व के रूप में मूल्यांकन के कई आयाम होते हैं। समेमित रूप में मूल्यांकन शिक्षार्थी को उसके निष्पादन के विषय में बताता है तथा विषयवस्तु को अगले चरण की ओर निर्देशित करता है। इस प्रकार मूल्यांकन विषयवस्तु के क्रम एवं पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन को निर्देशित करता है। इस प्रकार मूल्यांकन विषयवस्तु के क्रम एवं पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन को निर्देशित करते हैं। मूल्यांकन का दूसरा आयाम शिक्षार्थी के अधिगम के सम्बन्ध में वो सूचना प्राप्त करना है जो विद्यार्थी को चयनित एवं निरस्त, उतीर्ण एवं अनुतीर्ण करने में सहयोग प्रदान करते हैं तथा इस सन्दर्भ में कि विद्यालय राष्ट्रीय नीति का कितने अच्छे तरीके से अनुपालन कर रहे हैं, आँकड़े एकत्रित करना या प्रदान करना है (वॉकर, 1976)। इस प्रकार मूल्यांकन शिक्षार्थी एवं शिक्षक के लिए पृष्ठपोषण का कार्य करता है। (ऐश, 1974)

पाठ्यक्रम सहयोगी सामग्री की भूमिका का वर्णन कीजिए।

पाठ्यक्रम सहयोगी सामग्री की भूमिका (Role of Curriculum Support Materials)- पाठ्यक्रम-निर्माण के उपरान्त शिक्षाविदों के सम्मुख जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न होता है, वह यह है कि निर्धारित पाठ्यक्रम को शिक्षार्थियों तक कैसे पहुँचाया जाए तथा उनके लिए इसे कैसे ग्राह्य बनाया जाए। इसका उत्तर शिक्षार्थियों के लिए उपयुक्त अनुदेशनात्मक सामग्री के निर्माण एवं प्रयोग के रूप में उभर कर आता है। अतः शिक्षा-प्रक्रिया में पाठ्यक्रम विकास के बाद अनुदेशनात्मक सामग्री का निर्माण एवं प्रयोग दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है। अनुदेशनात्मक सामग्री के अभाव में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया सफल नहीं हो सकती है।

प्राचीन समय में अनुदेशनात्मक सामग्री के रूप में केवल कण्ठस्थ ज्ञान का ही उपयोग किया किया जाता था, किन्तु मानव ज्ञान के बढ़ते विशाल भण्डार तथा इसकी जटिलता के परिणामस्वरूप केवल मौखिक शिक्षण अब अपूर्ण सिद्ध हो गया है। शिक्षण अधिगम की सफलता के लिए अब परम्परागत अनुदेशनात्मक सामग्री के साथ-साथ अन्य कई प्रकार की सामग्रियों का प्रयोग किया जा रहा है। वर्तमान समय में प्रचलित अनुदेशनात्मक सामग्री के विभिन्न रूप निम्न प्रकार हैं-

पाठ्य-पुस्तकें (Text-Books)- अनुदेशनात्मक सामग्री के रूप में सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली सामग्री पाठ्य-पुस्तकें ही हैं। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में पाठ्य-पुस्तकों का महत्व सर्वविदित है। पाठ्यक्रम की वास्तविक रूपरेखा को पाठ्य-पुस्तकों द्वारा ही विस्तार मिलता है जिससे वह शिक्षक एवं छात्र दोनों के लिए सुगम हो पाता है। सीखने के अनुभवों में पाठ्य- पुस्तकों का महत्वपूर्ण स्थान है। पुस्तकों के माध्यम से अतीत के ज्ञान तथा अनुभवों को संचित किया जाता है जिससे आने वाली पीढ़ी उसका उपयोग करके लाभान्वित हो सके। पाठ्य-पुस्तक में किसी विषय-विशेष का संगठित ज्ञान एक स्थान पर रखा जाता है। इस प्रकार अच्छी पाठ्य- पुस्तकें शिक्षण-प्रक्रिया में निर्देशन का कार्य करती हैं। अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों के लिए यह महत्वपूण साधन है।

पाठ्य-पुस्तकों का महत्व (Importance of Text-Books)- पाठ्य-पुस्तक के महत्व को स्पष्ट करते हुए क्रॉनबैंक (Cronback) ने कहा है कि “अमेरिका में आज के शैक्षिक चित्र का केन्द्र-बिन्दु पाठ्य-पुस्तक है। इसका विद्यालय में महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अतीत में भी अधिक महत्व था तथा आज भी है। इसको जनसामान्य की भी लोकप्रियता प्राप्त होती है, क्योंकि पाठ्य-पुस्तक विद्यालय या कक्षा में छात्रों तथा शिक्षकों के लिए विशेष रूप से तैयार की जाती है जो किसी एक विषय या सम्बन्धित विषयों की पाठ्य-वस्तु का प्रस्तुतीकरण करती है।” पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्व को निम्नांकित कारणों से स्वीकार किया जाता है-

1. पाठ्य-पुस्तक में निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार विषय का संगठित ज्ञान एक स्थान पर मिल जाता है।

2. पाठ्य-पुस्तकें शिक्षकों एवं छात्रों के लिए मार्गदर्शक का कार्य करती हैं।

3. पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा छात्रों एवं शिक्षकों को यह जानकारी मिलती है कि किसी कक्षा-स्तर के लिए कितनी विषय-वस्तु का अध्ययन-अध्यापन करना है।

4. इनके द्वारा छात्रों एवं शिक्षकों के समय की बचत होती है।

5. छात्रों का मानसिक स्तर इतना ऊँचा नहीं होता है कि वे विद्यालय में पढ़ायी गई विषय-वस्तु को एक ही बार में आत्मसात् कर सकें। उन्हें विषय-वस्तु को कई बार पढ़ना तथा दुहराना पड़ता है। अतः पाठ्-पुस्तक की आवश्यकता होती है।

पाठ्यक्रम संदर्शिका या गाइड (Curriculum Guides)- पाठ्यक्रम-संदर्शिका, पाठ्चर्या (Course of Study) का ही आधुनिक एवं विस्तृत रूप है। सामान्यतया पाठ्यचर्या अध्ययन-अध्यापन विषयों एवं प्रकरणों तथा सामान्य उद्देश्यों की एक सूची मात्र बनकर रह जाता है तथा इससे अध्ययन-अध्यापन के सम्बन्ध में कोई विशेष सुझाव नहीं मिल पाता है। इस प्रकार शिक्षक-शिक्षार्थी क्रियाओं, शिक्षक सहायक सामग्री तथा उपयुक्त अधिगम-अनुभवों, आदि के बारे में पाठ्यचर्या कोई सुझाव नहीं प्रस्तुत करता है। पाठ्यक्रम संदर्शिका इन्हीं कमियों को दूर करने का प्रयास करती है। इसमें सूचनात्मक ज्ञान के साथ-साथ शिक्षकों के लिए आवश्यक विस्तृत निर्देश भी सम्मिलित किये जाते हैं। इसलिए पाठ्‌यक्रम संदर्शिका, पाठ्यचर्या एवं शिक्षक संदर्शिका (Teacher’s Guide) का मिला-जुला रूप होती है।

पाठ्यक्रम सहयोगी सामग्री की भूमिका का वर्णन कीजिए।

पाठ्यक्रम-संदर्शिकाओं का महत्य (Importance of Curriculum Guides)- पाठ्‌यक्रम संदर्शिकाओं को निम्नलिखित कारणों से महत्व प्रदान किया जाता है-

(1) इनसे समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक विशिष्ट व्यवस्था का निर्देश प्राप्त होता है- अनेक महत्वपूर्ण सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षक विषय- वस्तु, शिक्षण-विधि, शिक्षण-सहायक सामग्री, आदि के बारे में उचित निर्णय लेने में दुविधा अथवा असमंजस की स्थिति में रहता है। अतः इसके लिए उसे विशेष निर्देश की आवश्यकता होती है। पाठ्‌क्रम संदर्शिका इस आवश्यकता की पूर्ति में सहायक होती है।

(2) रचनात्मक नेतृत्व के विकास का माध्यम- पाठ्यक्रम संदर्शिकाएँ पाठ्यक्रम के क्षेत्र में रचनात्मक नेतृत्व विकसित करने का माध्यम बनती हैं। वास्तव में पाठ्‌यक्रम संदर्शिकाओं के निर्माण का कार्य तकनीकिी प्रकृति का है। इनमें स्कूल बातों के स्थान पर विद्यालयी कार्यक्रमों के विभिन्न पक्षों के सम्बन्ध में निश्चित एवं स्पष्ट व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं। इसलिए इनका निर्माण करने के लिए विशिष्ट ज्ञान एवं कौशल की आवश्यकता होती है। इस प्रकार पाठ्यक्रम विशेषज्ञ तैयार करने का माध्यम होती है।

(3) सन्दर्भ इकाइयों के निर्माण में सहायक- आधुनिक समय में शिक्षण कार्य नियोजित ढंग से करने पर विशेष बल दिया जा रहा है। इसके लिए शिक्षक, शिक्षण इकाइयों का निर्माण करता है। इस कार्य हेतु शिक्षक को निर्देशन एवं मार्गदर्शन की आवश्यकता होती हैं। सन्दर्भ इकाइयों का निर्माण इसी इसी उद्देश्य से किया जाता है।

(4) शिक्षकों के लिए सहायक- पाठ्यक्रम संगठन के अनेक नवीन प्रतिमान विकसित हो जाने के कारण उचित निर्देशन के अभाव में शिक्षकों को अपना कार्य सम्पत्र करना बहुत कठिन होता जा रहा है। अनेक बार तो उसे कार्य प्रारम्भ करने में भी असुविधा होती है। पाठ्यक्रम संदर्शिका उसे पाठ्यक्रम प्रतिमान को समझने तथा उसके अनुरूप कार्य करने में सहायक सिद्ध होती है।

सन्दर्भ इकाई एवं शिक्षण इकाई (Reference Unit and Teaching Unit)- वर्तमान समय में नियोजित शिक्षण पर अधिक बल दिया जाता है। नियोजित अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में पाठ्यक्रम-संदर्शिकाओं के उपरान्त सन्दर्भ इकाइयों एवं शिक्षण इकाइयों के निर्माण की आवश्यकता अनुभव की जाती है। सन्दर्भ इकाई का निर्माण, शिक्षण द्वारा शिक्षण-इकाई के निर्माण के सहायतार्थ किया जाता है। अतः सन्दर्भ इकाई को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है- “सन्दर्भ इकाई उन सम्भावित समस्याओं, क्रियाओं तथा सामग्री का समूह होती है, जिनका प्रयोग विषयों के अनुरूप शिक्षण कार्य करने के लिए शिक्षण इकाइयों का निर्माण करने में शिक्षकों की सहायता के लिए किया जाता है।”

संदर्भ इकाइयों का महत्व (Importance of Reference Units)- सन्दर्भ इकाइयों को निर्मित करने के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-

1. सन्दर्भ इकाइयाँ सम्बन्धित विषय के अध्ययन-अध्यापन की आवश्यकता, महत्व, आधारभूत संप्रत्ययों, दृष्टिकोणों, समस्याओं एवं अपेक्षित उद्देश्यों को स्पष्ट करती हैं।

2. शिक्षण-इकाइयों के निर्माण में ये निर्देशन प्रदान करती हैं।

3. अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ये उपयुक्त अधिगम-अनुभवों, क्रियाओं एवं शिक्षण सामग्री के बारे में उपयोगी सुझाव देती हैं।

4. इनसे शिक्षकों को उपयोगी सन्दर्भ सामग्री का ज्ञान प्राप्त होता है।

5. ये परिणामों के मूल्यांकन के लिए भी सुझाव देती हैं।

6. शिक्षकों एवं शिक्षाविदों द्वारा शिक्षकों के लिए तैयार किये जाने के कारण तथा इनमें अधिक-से-अधिक अनुभूत सूचनात्मक ज्ञान एवं सामग्री का समावेश होने के परिणामस्वरूप ये शिक्षण-इकाइयों के लिए व्यावहारिक ज्ञान-कोष का कार्य करती है।

(IV) समृद्ध सामग्री सहायक पुस्तकें पत्रिकाएं एवं समाचार-पत्र (Enrichment Material-Supplementary Books, Journals and News Papers)-

सामान्यतः कक्षा-शिक्षण के दौरान शिक्षक निर्धारित पाठ्यक्रम पर आधारित पाठ्य-पुस्तकों के अध्ययन-अध्यापन तक ही सीमित रहता है। किन्तु प्राप्त ज्ञान एवं अनुभव को प्रभावी एवं अद्यतन चनाने के लिए छात्रों को उसमें वृद्धि करके और अधिक समृद्ध बनाना होता है। इसके लिए ज्ञानात्मक समृद्धि सामग्री महत्वपूर्ण योगदान करती है। इसीलिए विद्यालयों के पुस्तकालयों एवं वाचनालयों में सहायक पाठ्य पुस्तकों, सन्दर्भ पुस्तकों, पत्रिकाओं तथा समाचार-पत्रों आदि की व्यवस्था होती है। छात्रों को इस प्रकार की सामग्री का उपयोग करके अपने ज्ञान में वृद्धि करते रहना चाहिए। ज्ञानात्मक समृद्धि के उपयोग के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-

1. पाठ्य-पुस्तकें अतीत की घटनाओं, अनुभवों एवं तथ्यों तक ही सीमित होती हैं, अतः उनसे तात्कालिक घटनाओं एवं समस्याओं का ज्ञान नहीं हो पाता है। पत्र-पत्रिकाएँ एवं अन्य सहायक पुस्तकों का अध्ययन इस कमी की पूर्ति करता है।

2. सहायक पुस्तकों के अध्ययन से छात्रों के ज्ञान में वृद्धि होती है।

3. पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन छात्रों की जानकारी को आधुनिकतम रखता है।

4. पाठ्य-पुस्तकों की विषय-वस्तु परीक्षा केन्द्रित होने के कारण संकुचित एवं नियन्त्रित होती है। अतः विषय के प्रति व्यापक दृष्टिकोण के लिए सहायक पुस्तकों एवं सन्दर्भ पुस्तकों का अध्ययन लाभप्रद होता है।

5. पाठ्य-पुस्तकों के अध्ययन के उपरान्त सहायक पुस्तकों का अध्ययन छात्रों के ज्ञान को समृद्ध करता है तथा विषय के प्रति और अधिक रुचि विकसित होती है।

6. सहायक पुस्तकों एवं सन्दर्भ पुस्तकों के अध्ययन से पाठ्य-पुस्तकों में दिये गये तथ्यों की जाँच भी हो जाती है।

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