हिन्दी और राष्ट्रीय एकता| hindi and national unity
समाज की बुनियाद भाषा है। भाषा के स्थान पर हम किसी समाज की कल्पना भी नहीं ‘कर सकते। किसी स्थान की जलवायु नदी और पर्वत, उसकी सर्दी और गर्मी तथा अन्य मौसमी हालतें सब मिलजुल कर वहाँ के प्राणियों में एक विशेष गुण का विकास करती हैं, जो प्राणियों की शक्ल-सूरत, व्यवहार, विचार और स्वभाव पर अपनी छाप लगा देती है और अपने को व्यक्त करने के लिए एक विशेष भाषा बोली का निर्माण करती है। इस तरह हमारी भाषा का सीधा संबंध हमारी आत्मा से है। या इस प्रकार कह सकते हैं कि भाषा हमारी आत्मा का बाहरी रूप है। उसके एक-एक अक्षर से हमारी आत्मा का प्रकाश है। ज्यों-ज्यों हमारी आत्मा का विकास होता है, हमारी भाषा भी प्रौढ़ और पुष्ट होती जाती है। राजनीतिक, व्यापारिक या धार्मिक संबंध जल्द या देर से कमजोर पड़ सकते हैं और प्रायः टूट जाते हैं, लेकिन भाषा का रिश्ता समय और अन्य बिखरने वाली शक्तियों की परवाह नहीं करता और एक तरह से अमर हो जाता है।
किसी एक राष्ट्र को दृढ़ और मजबूत बनाने के लिए उस देश में सांस्कृतिक एकता का होना नितान्त आवश्यक है और किसी राष्ट्र की भाषा तथा लिपि इस सांस्कृतिक एकता का एक विशेष अंग है। यह निश्चित है कि राष्ट्रीय भाषा के बिना किसी राष्ट्र के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं हो सकती। जब तक भारतवर्ष की कोई राष्ट्रीय भाषा न हो, तब तक वह राष्ट्रीयता का दावा नहीं कर सकता। सम्भव है कि प्राचीनकाल में भारतवर्ष एक राष्ट्र रहा हो, परंतु बौद्धों के पतन के बाद उसकी राष्ट्रीयता का भी अन्त हो गया था। यद्यपि देश में सांस्कृतिक एकता वर्तमान थी तो भी भाषाओं के भेद ने देश को खण्ड-खण्ड करने का काम और भी सुगम कर दिया था। मुसलमानों के शासन-काल में भी जो कुछ हुआ या उसमें भिन्न-भिन्न प्रांतों का एकीकरण तो हो गया था, परंतु उस समय भी देश में राष्ट्रीयता का अस्तित्व नहीं था। भारतवर्ष में राष्ट्रीयता का आरंभ अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ-साथ हुआ और उसी की दृढ़ता के साथ-साथ इसकी वृद्धि भी हुई। अतः राष्ट्र के जीवन के लिए यह बात आवश्यक है कि देश में सांस्कृतिक एकता हो और भाषा की एकता उस सांस्कृतिक एकता का प्रधान स्तम्भ हो।
भारतवर्ष, क्षेत्रफल तथा जनसंख्या की दृष्टि से ही नहीं भाषाओं की दृष्टि से भी एक उपमहाद्वीप है। यहाँ भाषा तथा बोलियों की संख्या सैकड़ों में है। बाइस भाषायें तो इतनी प्रमुख हैं कि भारतीय संविधान में क्षेत्रीय भाषा के रूप में इन्हें स्वीकार कर लिया गया है। किन्तु अनेकता में एकता का स्वर निनंदित होना ही यहाँ की विशेषता है। हिन्दी, जिसे भारतीय संविधान में राजभाषा घोषित कर दिया गया है और जो इस देश की आत्मा को बहुत अंश तक काफी काल से व्यक्त करती आ रही है, अनेकता के बीच एकता के साम्राज्य को स्थापित करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती रही है।
यद्यपि भारतीय संविधान में हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित कर दिया गया है और उसके अनुसार कार्य भी आरंभ हो गया है, किन्तु इतने से ही समस्या का हल संभव नहीं है। संविधान की धारा 343 द्वारा यह घोषित किया गया कि संविधान पारित होने के 15 वर्ष पश्चात् हिन्दी सरकारी कामकाज की भाषा होगी और अंग्रेजी जिन कामों के लिए व्यवहार में आती रही है वह 15 वर्षों तक आती रहेगी। संसद ने सन् 1963 में एक राजभाषा अधिनियम बनाया जिसके अनुसार यह तय किया कि कुछ काम हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में साथ-साथ कियें जायेंगे। संसद के समक्ष जो प्रशासनिक कागजात और रिपोर्ट प्रस्तुत होंगी वे दोनों भाषाओं में होगी। सन् 1965 के पश्चात् तमिलानाडु में हिन्दी को राजभाषा बनाने के बारे में कुछ विरोध और आंदोलन हुआ जिसके परिणामस्वरूप सन् 1967 में संशोधन किया गया और संसद में कुछ संकल्प पारित हुए। इस अधिनियम के अनुसार केंद्रीय सरकार तथा अहिन्दी भाषी राज्यों के बीच पत्र-व्यवहार के लिए अंग्रेजी का प्रयोग तब तक चलता रहेगा जब तक अहिन्दी भाषी राज्य हिन्दी में पत्र-व्यवहार करने का निर्णय स्वयं न करें। अपनी-अपनी मातृभाषा से सभी को स्नेह तथा मोह होता है। सभी अपनी मातृभाषा की उन्नति चाहते हैं। जब अहिन्दी भाषी हिन्दी की उन्नति देखते हैं तब उन्हें प्रतीत-सा होता है कि उनकी मातृभाषा और उनके साथ अन्याय हो रहा है। इसी कारण से जब 26 जनवरी, 1965 को पूर्व निश्चय के अनुसार हिंदी को केवल नाममात्र के लिए ही सही, केंद्र में राजकीय कार्यों में व्यवहार करने के लिए राजभाषा के पद पर आसीन किया गया, देश में एक तूफान सा आ गया। मद्रास और आंध्र प्रदेश में करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति नष्ट कर दी गयी, सैकड़ों व्यक्ति आहत हुए और पचासों हताहत हुये। बंगाल, मैसूर और केरल में भी पर्याप्त विरोध और प्रदर्शन हुये।
हिन्दी के विकास में जितना योगदान उन लोगों का है जो हिन्दी को अपनी मातृभाषा मानते हैं, उतना ही और कहीं-कहीं तो उससे भी अधिक उन लोगों का है जो उन क्षेत्रों में थे जहाँ हिन्दी न तो बोली जाती थी और न ही जिनकी मातृभाषा हिन्दी थी। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘स्वयंभू’ की रामायण को हिन्दी का प्रथम ग्रंथ माना है। यह रामायण ‘पउम चरिउ’ या ‘पदमचरित’ नाम से लिखी गयी और इसके लेखक स्वयंभू कर्नाटक या महाराष्ट्र के रहने वाले यापनीय संप्रदाय के जैन थे। इस प्रकार हिन्दी का प्रथम ग्रंथ दक्षिण भारत के एक जैन कवि के द्वारा लिखा गया। हिन्दी की इसी शैली के एक बहुत बड़े कवि चन्दबरदायी माने जाते हैं। इन्होंने जो शैली प्रतिपादित की, वह चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी तक ‘पृथ्वीराज रासो’ से लेकर ‘बीसलदेव रासो’ और ‘हम्मीररासो’ धर्म की भाषा नहीं रही है अपितु संपूर्ण हिन्दुस्तान की भाषा रही है।
जब हिन्दी गद्य के विकास का प्रश्न आया तो उस समय भी देखते हैं कि हिन्दी गद्य तक चलती रही। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन काल से ही हिन्दी केवल किसी एक क्षेत्र या का प्रारंभ उन लोगों ने किया जो हिन्दी भाषी नहीं थे। बाबा गोरखनाथ हिन्दी के प्रथम गद्य लेखक माने जाते हैं। वे पंजाब के रहने वाले थे और जिस समय हिन्दी की पुस्तकें लिखी जाने लगी तो हिन्दी का विकास उत्तर प्रदेश, बिहार या मध्य प्रदेश में नहीं हुआ बल्कि बंगाल की राजधानी कलकत्ता में हुआ। हुगली और श्रीरामपुर में हिन्दी में बाइबिल छापने के लिए देवनागरी लिपि में मुद्रण प्रारंभ किया चार्ल्स विलिकस और पंचानन कर्मकार ने। यह कार्य अड्डाहरवीं शताब्दी में हुआ। और जब जॉन गिलक्राइस्ट ने 1976 में हिन्दुस्तानी ग्रामर प्रकाशित की तो उसमें देवनागरी में अमीर खुसरो की एक मुकरी प्रकाशित हुई थी।
पत्रकार कला की दृष्टि से तो अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के पत्रकारों ने हिन्दी पत्रकार कला का बहुत विकास किया। कश्मीर के श्री दुर्गा प्रसाद मिश्र तथा श्री छोटू लाल मिश्र ने कलकत्ता से दो बड़े पत्र ‘भारतमित्र’ तथा ‘उचितवक्ता’ निकाले। श्री दुर्गा प्रसाद ने श्री सदानन्द मिश्र और श्री गोविन्द नारायण के सहयोग से ‘सार सुधानिधि’, 1879 में निकाला। ये सब अहिन्दी भाषी थे। कलकत्ता से एक दूसरा पत्र ‘मार्तण्ड’ निकला। इसके सम्पादक मौलवी नसीउद्दीन थे। लाहौर से बंगाली प्रकाशक बाबू नवीन चन्द्र राय हिन्दी और उर्दू में ‘ज्ञान प्रदायिनी पत्रिका’ निकालते थे। इस पत्र के सम्पादक थे कश्मीरी पंडित मुर्कुढराम। कलकत्ते के बंगवासी कार्यालय से ही 1890 में हिन्दी बंगवासी प्रकाशित हुआ। इसके संपादक पं. अमृत लाल चक्रवर्ती थे। हिन्दी पत्रकारों की बाद की पीढ़ी में श्री बाबूराम विष्णु पराड़कर, श्री लक्ष्मण नारायणगर्दे, श्री माधव राय सूने, श्री सिद्धनाथ माधव आगरकर जैसे अनेक प्रतिष्ठित मराठी भाषी प्रमुख हैं। महाराष्ट्र गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब और बंगाल के अनेक लेखक और पत्रकार आज भी हिन्दी के क्षेत्र में प्रमुख हैं।
गोलकुण्डा के बादशाहों और निजाम के दरबार में हिन्दी कविताओं का प्रचलन रहा है और इसके बाद दक्खिनी हिन्दी के गद्य और पद्य का विकास हुआ। महराष्ट्र के नामदेव, ज्ञानेश्वर और तुकाराम ने हिन्दी में कवितायें लिखीं। गुजरात में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दी को आर्य समाज की धार्मिक भाषा ही बना दिया। हिन्दी के दूसरे प्रचारक गुजरात के ही महात्मा गाँधी हुये जिनके नेतृत्व में हिन्दी का प्रचार न केवल दक्षिण भारत में बल्कि समूचे भारत में हुआ। हिन्दी के वर्तमान प्रचारकों में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का नाम नहीं भुलाया जा सकता है। इस समय जो मुख्य हिन्दी लेखक हैं उनमें कितने ही ऐसे हैं जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है परंतु उनके बारे में सोचते हुये यह कभी विचार ही नहीं आता कि वे हिन्दी भाषा-भाषी नहीं हैं।
इस प्रकार हिन्दी देश की एक प्रमुख कड़ी के रूप में विकसित हुई और बढ़ती चली जा रही है। चाहे प्राचीन संतों का योग हो, चाहे सूफी की प्रचार भावना हो, चाहें मुगल और बहमनी बादशाहों ने इसे काव्य की भाषा माना हो, चाहे व्यापारियों, सैनिकों और दूसरे कामकाजियों ने इसे अपने लिए उपयोगी माध्यम चुना हो, सही बात यह है कि हिन्दी इस देश की आत्मा को अभिव्यक्त करने में सफल हुई है। राजनीतिक स्वाधीनता से पहले ही राष्ट्र के मन में इसने अपने लिए आदर- भाव उत्पन्न कर लिया था। चूँकि यह राष्ट्र के विभिन्न वर्गों और तत्वों की भाषा थी, जिनके राजनीतिक विचार, धार्मिक विचार या आर्थिक मत एक-दूसरे से मेल भी न खाते थे, फिर भी हिन्दी सभी के लिए एक ऐसा माध्यम रही, जिसने उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का पूरा-पूरा अवसर दिया।
हिन्दी का साहित्य जो लगभग एक हजार वर्ष से विकसित होता चला आ रहा है, बहुत संभव है। शास्त्रीय संगीत को छोड़ दें तो भी विज्ञान, प्रौद्योगिकी, पत्रकारिता, कला, व्यापार हरेक क्षेत्र में हिन्दी का ज्ञान भण्डार बढ़ा है और उसका साहित्य न केवल देश की बल्कि संसार की अनेक भाषाओं से टक्कर ले सकता है। यह सही है कि इसके बाद भी हिन्दी उस आसन पर नहीं पहुँच सकी है जिसकी कि वह अधिकारी है। अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में हिंदी को मान्यता नहीं है और भारत में कुछ प्रतियोगी परीक्षायें ऐसी हैं जिनका प्रश्न-पत्र केवल अंग्रेजी में ही होता है। हिन्दी को अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने के लिए अभी कुछ समय लगता दिखाई दे रहा है। यह सही है कि आज भी जब संकट का समय होता है, जिस समय निर्णायक दृष्टिकोण अपनाने के लिए जनता के सहयोग की अपेक्षा की जाती है, जिस समय आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान का प्रश्न उठता है, भारत की राष्ट्रीय एकता की प्रतीक के रूप में एक भाषा उठती है- हिन्दीं। भारत के विभिन्न भागों की जनता ने स्वेच्छा से, अपने अंशदान से, हिन्दी को विकसित किया है, उन्नत किया है, पल्लवित किया है और इसलिए हिन्दी आज भी अपनी इस सामर्थ्य के बल पर देश को एक बनाये रखने में सक्षम है।
चूँकि हिन्दी भाषा का साहित्य भारतवर्ष की अन्य सभी भाषाओं से सशक्त है, अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि हम भाषा को भुला दें तथा राष्ट्रीय अखंडता के लिए हिन्दी को बिना किसी विरोध के राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार करें तथा हिन्दी भाषा का ही अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करें। यह बात सत्य है कि अहिन्दी भाषा-भाषी व्यक्तियों के लिए इसमें थोड़ी परेशानी अवश्य होगी फिर भी जिस देश के लिए न जाने कितने ही जवानों ने स्वयं को बलिदान कर दिया उस देश के लिए यदि हमें मातृभाषा के प्रति मोह भंग करना पड़े तथा थोड़ी सी परेशानी उठानी पड़े तो उन जवानों के त्याग की तुलना में हमारा त्याग नगण्य होगा और हमें यह त्याग करना पड़ेगा क्योंकि राष्ट्र की एकता आज हमारे लिए सर्वोपरि है। आज भी अपने देश के विभिन्न भाषा-भाषी एक दूसरे की बात को समझ नहीं पाते हैं एक पंजाबी व्यक्ति असम में जाकर खाने-पीने की वस्तुओं को संकेत से माँगता है। इससे ऐसे व्यक्तियों में राष्ट्रीय चेतना कम मात्रा में और देर से विकसित होती है। अन्य देशों के व्यक्तियों से संबंध जोड़ने की बात छोड़ दीजिए, भारत में ही एक प्रांत के व्यक्ति को दूसरे प्रांत के व्यक्ति से जोड़ने का कार्य अभी अंग्रेजी ही कर रही है, जबकि राष्ट्रभाषा हिन्दी है। अंग्रेजी को प्रयोग में लाते समय हर व्यक्ति को यह ध्यान रहता है कि वह एक विदेशी भाषा बोल रहा है। जब उसके हृदय और मस्तिष्क में यह भावना उपस्थित है तो फिर इसके द्वारा राष्ट्रीय एकता कठिन ही नहीं अपितु असंभव है। अतः हमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित करना होगा क्योंकि उसी के माध्यम से देश में राष्ट्रीय एकता का भावना को बल मिलेगा और हमारी राष्ट्रीय एकता विकसित होगी। भारतेंदु हरिश्चन्द्र के शब्दों में-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिनु निज भाषा के, मिटै न हिय को शुल॥
Important Link
- पाठ्यक्रम का सामाजिक आधार: Impact of Modern Societal Issues
- मनोवैज्ञानिक आधार का योगदान और पाठ्यक्रम में भूमिका|Contribution of psychological basis and role in curriculum
- पाठ्यचर्या नियोजन का आधार |basis of curriculum planning
राष्ट्रीय एकता में कौन सी बाधाएं है(What are the obstacles to national unity) - पाठ्यचर्या प्रारुप के प्रमुख घटकों या चरणों का उल्लेख कीजिए।|Mention the major components or stages of curriculum design.
- अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण किस प्रकार होता है? विवेचना कीजिए।How is a learner’s choice of experiences determined? To discuss.
- विकास की रणनीतियाँ, प्रक्रिया के चरण|Development strategies, stages of the process
Disclaimer: chronobazaar.com is created only for the purpose of education and knowledge. For any queries, disclaimer is requested to kindly contact us. We assure you we will do our best. We do not support piracy. If in any way it violates the law or there is any problem, please mail us on chronobazaar2.0@gmail.com