सृजनात्मक लेखन और गीत लेखन|Creative writing and songwriting
कांव्य एवं गद्य के संदर्भ में सृजनात्मक लेखन का अर्थ स्पष्ट कीजिये।
मनुष्य की सहज एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति का रूप गद्य है। कविता और गद्य में बहुत सी बातें समान हैं। दोनों के उपकरण शब्द हैं जो अर्थ परिवर्तन के बिना एक हीं भंडार से लिए जाते है; दोनों के व्याकरण और वाक्य रचना के नियम एक ही हैं (कविता के वाक्यों में कभी-कभी शब्दों का स्थानांतरण, वाक्यरचना के आधारभूत नियमों का खंडन नहीं), दोनों ही लय और चित्रमय उक्ति का सहारा लेते हैं। वर्डस्वर्थ के अनुसार गद्य और पद्य (या कविता) की भाषा में कोई मूलभूत अंतर न तो है और न हो सकता है।
लेकिन इन सारी समानताओं के बावजूद कविता और गद्य अभिव्यक्ति के दो भिन्न रूप हैं। समान उपकरणों के प्रति भी उनके दृष्टिकोणों की असमानता प्रायः स्तर पर उभर आती है। लेकिन उनमें केवल स्तरीय नहीं बल्कि तात्विक या गुणात्मक भेद है, जिसका कारण यह है कि कविता और गद्य जगत् और जीवन के विषय में मनुष्य की मानसिक प्रक्रिया के दो भिन्न रूपों की अभिव्यक्ति हैं। उनके उदय और विकास के इतिहास में इसके प्रमाण मौजूद है।
अपनी पुस्तक इल्यूजन ऐंड रिएलिटी में कॉडवेल ने कविता की उत्पत्ति, सामाजिक उपादेयता और तकनीक का विस्तृत विवेचन करते हुए लिखा है कि साहित्य के सबसे प्रारंभिक रूप में कविता मनुष्य की साधारण भाषा का उन्मेषीकरण थी। उस काल कवितां केवल रागात्मक न होकर इतिहास, धर्म, दर्शन, तंत्र, मंत्र, ज्योतिषि, नीति और भैषज संबंधी ज्ञान का भी वहन करती थी। उसे उन्मेष प्रदान करने के लिए संगीत, छंद, तुक, मात्रा या स्वराघात, अनुप्रास, पुनरावृत्ति, रूपक इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। कालांतर में सभ्यता के विकास, समाज के वर्गीकरण, श्रमविभाजन और उद्बद्ध साहित्यिक चेतना के कारण पहले की उन्मेषपूर्ण भाषा भी *विभक्त हो गई- कविता ने अपने को रागों की उन्मेषपूर्ण भाषा के रूप में सीमित कर लिया और विज्ञान, दर्शन, इतिहास, धर्मशास्त्र, नीति, कथा और नाटक ने साधारण व्यवहार, अर्थात् कथ्य की भाषा को अपनाया। आवश्यकतानुसार प्रत्येक शाखा ने अपनी विशिष्ट शैली की विधि का विकास किया, उनमें आदान प्रदान हुआ और उनसे स्वयं साधारण व्यवहार की भाषा भी प्रभावित हुई। मनुष्य का मानसिक जगत् अपने को भाषा के दो विशिष्ट रूपों-कविता और गद्य-में प्रतिबिंबित करने लगा।
कविता और गद्य के उद्देश्यों में भेद और भाषा के उपकरण शब्दों के प्रति उनके दृष्टिकोण में भेद का गहरा संबंध है। कविता की उत्पत्ति मनुष्य के सामूहिक श्रम के साथ हुई। शब्द अनिवार्यतः संगीत और प्रायः नृत्त्य के सहारे पूरे समूह के आवेगों को एक बिंदु पर संगठित कर कार्य संपन्न करने की प्रेरणा देते थे। फसल सामने नहीं थी, बीज बोना था। शब्दों का कार्य था लहलहाती फसल का मायावी चित्र उपस्थित करं पूरे समूहं को बीज बोने के लिए प्रेरित करना। कॉडवेल के अनुसार इस मायावी सृष्टि के द्वारा शब्द शक्ति बन जाते थे। कविता सामूहिक भावों और आंकाक्षाओं का प्रतिबिंब थी और उन्हें उद्बद्ध और संगठित करने का अस्त्र थी। इसलिए कविता का सूक्ष्म कथ्य-उसके तथ्यों की वस्तु-नहीं, बल्कि समाज में उसकी गद्यात्मक भूमिका-उसके सामूहिक भावों की वस्तु-कविता का सत्य है।
सामाजिक जीवन में शब्द वस्तुनिष्ठ जगत् के शुष्क प्रतीक मात्र नहीं रह जाते बल्कि उनके साथ जीवन के अनुभव से उत्पन्न सरल से जटिल होते हुए भावात्मक संदर्भ जुड़ जाते हैं। कविता शब्दों के शुद्ध प्रतीकात्मक अर्थ की अपेक्षा नहीं कर सकती, लेकिन उसका मुख्य उद्देश्य शब्दों के भावात्मक संदर्भों को अर्थपूर्ण संगठन है। कविता शब्दों की नई सृष्टि है। हर्बर्ट रीड के शब्दों में कविता में चिंतन के दौरान शब्द बार-बार नया जन्म लेते हैं। अनेक भाषाओं में कवि के लिये प्रयुक्त शब्द का अर्थ स्रष्टा है।
गद्य शब्दों के भावात्मक संदर्भों के स्थान पर उनके वस्तुनिष्ठ प्रतीकात्मक अर्थ को ग्रहण करता है। गद्य में शब्दों के इस प्रकार के प्रयोग को ध्यान में रखकर हर्बर्ट रीड ने गद्य को निर्माणात्मक अभिव्यक्ति कहा है, ऐसी अभिव्यक्ति जिसमें शब्द निर्माता के चारों ओर प्रयोग के लिए ईंट गारे की तरह बने बनाए तैयार करते हैं।
स्पष्ट है कि शब्द के वस्तुनिष्ठ अर्थ और उसके भावात्मक संदर्भ को पूर्णतया विभक्त करना संभव है। यही कारण है कि कविता सर्वथा कथ्यशून्य नहीं हो सकती और गद्य सर्वथा भावशून्य नहीं हो सकता। कविता और गद्य की तकनीकों में पास्परिक आदान प्रदान स्वाभाविक है। किंतु जहाँ उनके विशिष्ट धर्मों का बोध नहीं होता, वहाँ हमें कविता के स्थान पर फूहड़ गद्य और पद्य के स्थान पर फूहड़ कविता के दर्शन होते हैं।
वस्तुनिष्ठ सत्य की भाषा कहने का अर्थ यह नहीं कि गद्य कविता से हेय है, या उसका सामाजिक प्रयोजन कविता से कम है, या वह भाषा की कलाशून्य अभिव्यक्ति है। वास्तव में बहुत से ऐसे कार्य जो कविता की शक्ति के बाहर है, गद्य द्वारा संपन्न होते हैं। बहुत पहले यह अनुभव किया गया कि कविता की छंदमय भाषा में विचारों का तर्कमय विकास संभव नहीं। कविता से कम विकसित अवस्था में भी गद्य की विशष्ट शक्ति को पहचानकर अरस्तु ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ रेटॉरिक में उसे प्रतीति परसुएशन, दूसरों को अपने विचारों से प्रभावित करने की भाषा कहा था, जिसके मुख्य तत्त्व हैं- विचारों का तर्कसंगत क्रम, वर्णन की सजीवता, कल्पना, चित्रयोजना, सहजता, लय, व्यक्तिवैचित्र्य, उक्ति-सौंदर्य, ओज, संयम। इनमें से प्रत्येक बिंदु पर कविता और गद्य की सीमाएँ मिलती हुई जान पड़ती हैं, किंतु दोनों में इनके प्रयोग की अलग-अलग रीतियाँ हैं।
उदाहरणार्थ, उनके दो तत्व, लय और चित्रयोजना, लिए जा सकते हैं जिनकी बहुत चर्चा होती है। गद्य की लय में कविता की लय से अधिक लोच या विविधता होती है क्योंकि गद्य में लय वाक्यरचना की नहीं बल्कि विचारों की इकाई होती है। कविता में प्रायः लय को वाक्यरचना की इकाई बनाकर पुनरावृत्ति से प्रभाव को तीव्रता दी जाती है। कविता से कहीं ज्यादा गद्य में लय अनुभूति की वाणी है। प्रायः लय के माध्यम से ही गद्यकार के व्यक्तित्व का उद्घाटन होता है।
कविता के प्राण चित्रयोजना में बसते हैं, जबकि गद्य में उसका प्रयोग अत्यंत संयम के साथ विचार को आलोकित करने के लिये ही किया जाता है। अंग्रेजी गद्य के महान. शैलीकर स्विफ्ट के विषय में डॉ. जान्सन ने कहा था यह दुष्ट कभी एक रूपक का भी खतरा मोल नहीं लेता। मुख्य वस्तु यह है कि गद्य में भाषा की सारी क्षमताएँ विचार की अचूक अभिव्यक्ति के अधीन रहती हैं। कविता में भाषा को अलंकृत करने की स्वतंत्रता अक्सर शब्दों के प्रयोग और वाक्यरचना के प्रति असावधान रहने की प्रवृत्ति का कारण है। विशेषणों का जितना दुरुपयोग कविता में संभव है उतना गद्य में नहीं। कविता में संगीत को अक्सर सस्ती भावुकता का आवरण बना दिया जाता है। गद्य. में कथ्य का महत्त्व उस पर अंकुश का काम करता है। इसलिये गद्य का अनुशासन भाषा के रचनासौंदर्य के बोध का उत्तम साधन है। टी. एस. इलियट के शब्दों में अच्छे गद्य के गुणों को होना अच्छी कविता की पहली और कम से कम आवश्यकता है।
गद्य का प्रारंभ इतिहास, विज्ञान, सौंदर्यशास्त्र इत्यादि की भाषा के रूप में हुआ। बाद में वह उपयोग से कला की ओर प्रवृत्त हुआ। रूपों के विकास के आधार पर उसकी तीन स्थूल कोटियाँ बनी हैं- वर्णनात्मक, जिसमें कथा, इतिहास, जीवनी, यात्रा इत्यादि आते हैं। विवेचनात्मक, जिसमें विज्ञान, सौंदर्यशास्त्र, आलोचना, दर्शन, धर्म और नीतिशास्त्र, विधि, राजनीति इत्यादि आते हैं, एवं भावात्मक, जिसमें ऊपर के अनेक विषयों के अतिरिक्त आत्मपरक निबंध और नाटक आते हैं। विषयों के अनुसार गद्य में प्रवाह, स्पष्टता, चित्रमयता, लय, व्यक्तिगत अनुभूति, अलंकरण इत्यादि की मात्राओं में हेर-फेर का होना आवश्यक हैं, किंतु गद्य की कोटियों के बीच दीवारें नहीं खड़ी की जा सकती। लेखक की रूचि और प्नयोजन के अनुसार वे एक दूसरे में अंतःप्रविष्ट होती रहती है।
आधुनिक युग में उपन्यास गद्य की विशेष प्रयोगशाला बन गया है। कविता रह रहकर काफी दिनों तक शब्दों के पथ्य पर रहती है, गद्य में नए पुराने, सूखे चिकने सभी प्रकार के शब्दों को पचाने की अद्भुत शक्ति होती है। बोनामी डाब्री (Bonamy Dobree) के अनुसारं सारा अच्छा जीवित गद्य प्रयोगात्मक होता है। उपन्यास गद्य की इस क्षमता का पूरा उपयोग कर सकता है। ऐसे प्रयोग इंग्लैंड की अपेक्षा अमरीका में अधिक हुए हैं और विंढम लिविस, हेमिंग्वे, स्टीन, फाकनर, ऐंडर्सन इत्यादि ने अपने प्रयोगों के द्वारा अंग्रेजी गद्य को नया रक्त दिया है। गद्य में तेजी से केंचुल बदलने की शक्ति का अनुमान हिंदी गद्य के तेज विकास से भी किया जा सकता है, हालाँकि उसका इतिहास बहुत पुराना नहीं। भविष्य में गद्य के विकास की और संकेत करते हुए एक अंग्रेज आलोचक मिडिलटन मरी ने लिखा है गद्य की विस्तार सीमा अनंत है और शायद कविता की उपेक्षा उसकी संभावनाओं की कम खोज हुई है।
सृजनात्मक लेखन का अर्थ स्पष्ट करते हुये उसके स्वरूप का वर्णन कीजिये।
अथवा रचनात्मक लेखन क्या है? इसके विविध आयामों का वर्णन कीजिये।
रचनात्मक लेखन क्या हैं/परिभाषा- किसी व्यक्ति द्वारा अपने ज्ञान के आधार पर और बिना किसी दूसरे की सहायता के किसी भी प्रकार का किया गया नया वर्णन जो कि काफी अलग हो और जिसकी रचना भी पहली बार हुई हो, रचनात्मक लेख कहलाता है और इसे, इस कार्य को करने कि विधि को रचनात्मक लेखन कहां जाता है।
रचनात्मक लेखन का अर्थ- रचनात्मक लेखन का सीधा सा अर्थ है अपने ज्ञान के आधार पर किसी भी नयी चीज की रचना करना। निबंध के तौर पर रचना करने पर उसके अंदर विषय से सम्बन्धित पूरी जानकारी को शामिल किया जाना चाहिए। जिसमें उस विषय से संबंधित लाभ हानि, अच्छाई बुराई, कमी सुधार पर बात की जाती हो।
यदि व्यंगात्मक रचना की जा रही है तो लगना चाहिए कि यह किसी पर कोई व्यंग कसा जा रहा हैं।
रचनात्मक लेखन का स्वरूप- रचनात्मकता सबसे पहले आत्माभिव्यक्ति है। इस अभिव्यक्ति के माध्यम कई हो सकते हैं। कोई शब्दों में, कोई रंगों और रेखाओं में, तो कोई शरीर की भाषा में अपनी बात अभिव्यक्त करने में सहजता और सुविधा अनुभव करता है। अनुकूल परिस्थितियाँ, उचित वातावरण, निरन्तर अभ्यास और लेखन की अनिवार्यता की अनुभूति – रचनात्मक लेखन के आधार हैं। इनके माध्यम से काई व्यक्ति अच्छा लेखक बन कर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ सकता है।
जीवन अनुभवों का सबसे बड़ा भण्डार और अनुभव सबसे बड़ा गुरु है। जीवन में पाये अपने किसी अनुभव की छुअन हमारे भीतर सौन्दर्य की कौंध उत्पन्न करती है जिससे प्रेरित होकर हम अभिव्यक्ति के लिए बेचैन हो उठते हैं। जब-जब विचारों की कौंध होती है-छोटा-
बड़ा मानव उसे अभिव्यक्ति करने के लिए व्याकुल हो उठता है। उस विचार या अनुभव को मौखिक या लिखित अभिव्यक्ति देता है तो रचना बनती है। तब शब्दों के मोती बुलकने लगते हैं- उनकी लड़ियाँ अपने आप बनने लगती हैं। जब उसे वह कागज़ पर लिख डालता है तो वह रचना दीर्घ आयु पाकर चिरंजीवी हो जाती है।
कला और काव्य की रचना ‘सुन्दर’ की सृष्टि के लिए होती है। क्रिस्टोफर, कॉडवैल के अनुसार, “जो असुन्दर है, उससे भिन्न जो कुछ है उसे सुन्दर कहा जा सकता है।” (Beauty then is defined by all that is not beauty) वस्तुतः ‘सुन्दर’ अभवात्मक गुण नहीं है। सुन्दर-असुन्दर के निर्धारण में हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक संस्कार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं किन्तु कलाओं में इसी आधार पर श्लील-अश्लील का निर्धारण भी कई बार कठिनाइयाँ उत्पन्त करता है। वास्तव में सौन्दर्य वह गुण या तत्त्व है जिससे हम वस्तु के सच्चे स्वरूप को पहचान सकते हैं और जो हमारी चेतनां को सत्, चित् और आनन्द से पूर्ण करता है। जो हमारी चेतना के अनुकूल और उपयोगी है- उसे सुन्दर माना जा सकता है। जो अनुपयोगी और कष्टदायी है वह असुन्दर है। कलाकार की ‘सुन्दर’ की धारणा अपनी समझ और जगत में आनेवाले परिवर्तनों के साथ निरन्तर बदलती रहती है। रचना इसी सुन्दर की सृष्टि के लिए होती है। कलाकार स्थूल और भौतिक इच्छाओं से सूक्ष्म मानसिक और आत्मिक आनन्द के लिए इस सौन्दर्यमयी सृष्टि की ओर आकर्षित होती है। कलाकार हमारी आत्मा का शिल्पी है। उसे तराश कर नया रूप और आकार देता है। इसीलिए कलाओं को ललित कला और उपयोगी कला के तराजू में तोलकर एक को श्रेष्ठ और दूसरे को तुच्छ नहीं समझा जाना चाहिए।
कला सौन्दर्यानुभूति है। किन्तु रचना का जनम हमेशा ‘सुन्दर’ की ‘अनुभूति’ के ‘क्षण’ विशेष में ही हो अथवा ‘कौंध’ का क्षण प्रवाहित होकर रचना का रूप तत्काल ले – अनिवार्य नहीं। अनुभूति के ये क्षण कभी-कभी इतने प्रबल भी हो सकते हैं- पर सदा ऐसा नहीं होता। सभी रचनाएँ ‘मानसिक द्रवण’ के क्षण अथवा ‘सौन्दर्य की कौंध के क्षण’ विशेष में नहीं लिखी जातीं।
न ही सौन्दर्य की यह अनुभूति निरन्तर अथवा दीर्घ समय तक सदा बनी रहती है। यह भी सम्भव नहीं कि जब तक ‘रचना’ न हो रचनाकार का मानस उस कौंध से चौंधियाता रहे और न ही कागज़-कलम हाथ में लेते ही रचना बनने लगती है। कई बार ऐसा भी होता है कि कोई अतीतभावी अनुभ्व जाग उठता है और कचोटने लगता है, तब उसे अभिव्यक्त करना ज़रूरी लगे। ‘अभिव्यक्ति कीं अनिवार्यता’ या ‘जरूरत’ जब साँस लेने की तरह ज़रूरी लगे – तभी श्रेष्ठ रचना सम्भव है।
यही रचनाकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है। रचना में (1) ‘अनुभव’ की प्रमुख भूमिका रहती है। अनुभव के अभाव में परिपक्व रचना करना सम्भव नहीं। रचनाकार ये अनुभव जीवन से ही बटोरता है। दिन-प्रति-दिन के अनुभव हों अथवा जातीय या राष्ट्रीय अनुभव-रचना को हृदयस्पर्शी बनाते हैं। उनकी सरसता या पनीलापन (तरलता) हमें छू जाता है। लेखन के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण स्पृहणीय है। हमारे ‘अनुभव के फूल’ किसी के लिए काँटे न बनें ध्यान रखना चाहिए।
रचनात्मक लेखन का महत्व- अगर रचनात्मक लेखन को लेकर उसके महत्व पर बात की जाएं तो इसके भी महत्वपूर्ण उपयोग है।
जैसे- आप जो फिल्म देखते है क्या वो ऐसे ही बन गई है क्या उसकी कहानी को ऐसे ही कहीं से उठा लिया गया है। किसी ने कभी तो उसकी रचना की होगी। जो कि उसकी खुद की कल्पना शक्ति से कि होगी या उसने अपने reality में देखते हुए उस कहानी को लिखा होगा।
ऐसे कई प्रकार की किताबें दिन-प्रतिदिन पढ़ते रहते हो अलग-अलग कई लेखकों ने लिखी है। आखिर यह पुस्तकें ऐसे ही तो तैयार नहीं हुई होगी, किसी ने तो उनकी रचना की होगी और यहीं रचनात्मक लेख है।
रचनात्मक लेखन का उदाहरण
शिक्षा का महत्व – शिक्षा ! आखिर हर कोई इसकी महत्वबता को जानता है। अगर इंसान पढ़ा लिखा या शिक्षित नहीं है तो उसके समझ में लगभग कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिक्षा हमारे जीवन के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण बन गई है जितना हमारे लिए खाना पीना।
एक शिक्षित व्यक्ति अपने जीवन में कुछ भी कर सकता है। उस. कहीं कोई परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता है।
अगर शिक्षा के महत्व की बात करें तो अभी भी यानी कि 21 वीं शताब्दी में भी कई ऐसी जगह है जहां सही प्रकार से इसकी पहुंच भी नहीं है। यदि किसी न किसी प्रकार से वहां शिक्षा की व्यवस्था है तो वहां के लोगों को इसकी जानकारी नहीं है।
उचित ज्ञान व शिक्षा का महत्व न पता होने के कारण आज भी कई बच्चे शिक्षा से वंचित है जो कि हमारे लिए एक शर्मिंदगी है।
बच्चों तक शिक्षा न पहुंच पाने का कारण है लोगों में जागरूकता न होना। ग्रामीण क्षेत्रों में इस बात पर विश्वास किया जाता है कि उनका बच्चा जितनी जल्दी किसी काम को सीख जाएगा उसके लिए उतना ही अच्छा होगा और यही कारण जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है उसके काम की तरफ धकेल दिया जाता है। इसका मुख्य कारण यही है कि उनके माता-पिता को शिक्षा के महत्व की जानकारी न होना।
ऐसा नहीं है कि इसके प्रचार-प्रसार के लिए कोई प्रयत्न न किया गया हो। सरकार द्वारा कई प्रकार से जानकारी दी जाती है। कई प्रकार के अभियानों को अंजाम दिया गया है जैसे सर्व शिक्षा अभियान, स्कूल चलें हम, पढ़ेगा इंडिया बढ़ेगा इंडिया, देश की बेटियों के लिए special बेटी पढ़ाओं बेटी बचाओ, इत्यादि।
कई प्रकार से इन अभियानों को चलाया जा रहा है लोगों को जागरूक किया जा रहा लेकिन हमें भी इसके प्रति जागरूक होने की आवश्यकता है। है
क्योंकि जैसे कोई कानून तो बना दिया जाता है लेकिन उसका पालन करना भी आवश्यक है उसी प्रकार सरकार द्वारा तो अभियान चलाएं जाएंगे ही लेकिन हमें भी उनके प्रति जागरूक होने की आवश्यकता है।
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