सीखने की विधियाँ एवं प्रभावित करने वाले कारक | Learning methods and influencing factors

सीखने की विधियाँ एवं प्रभावित करने वाले कारक | Learning methods and influencing factors

सीखने की विधियाँ एवं प्रभावित करने वाले कारक | Learning methods and influencing factors

किसी नयी क्रिया या नये पाठ को सीखने के लिए विभिन्न नियमों या विधियों का प्रयोग किया जा सकता है। हम इनमें से केवल उन विधियों का वर्णन कर रहे हैं, जिनको मनोवैज्ञानिक प्रयोगों’ के आधार पर अधिक उपयोगी और प्रभावशाली पाया गया है। ये नियम/विधियाँ इस प्रकार हैं-
1. करके सीखना – डॉ० मेस का कथन है- “स्मृति का स्थान मस्तिष्क में नहीं, वरन् शरीर के अवयवों में है। यही कारण है कि हम करके सीखते हैं।”

बालक जिस कार्य को स्वयं करते हैं, उसे वे जल्दी सीखते हैं। कारण यह है कि उसे करने • में वे उसके उद्देश्य का निर्माण करते हैं, उसको करने की योजना बनाते हैं और योजना को पूर्ण करते हैं। फिर, वे देखते हैं कि उनके प्रयास सफल हुए हैं या नहीं। यदि नहीं, तो वे अपनी गल्तियों को मालूम करके, उनमें सुधार करने का प्रयत्न करते हैं।

  1. निरीक्षण करके सीखना – योकम एवं सिम्पसन ने लिखा है- “निरीक्षण सूचना प्राप्त करने, आधार सामग्री एकत्र करने और वस्तुओं तथा घटनाओं के बारे में सही विचार प्राप्त करने का साधन है।” बालक जिस वस्तु का निरीक्षण करते हैं, उसके बारे में वे जल्दी और स्थायी रूप से सीखते हैं। इसका कारण यह है कि निरीक्षण करते समय वे उस वस्तु को छूते हैं, या प्रयोग करते हैं, या उसके बारे में बातचीत करते हैं। इस प्रकार, वे अपनी एक से अधिक इन्द्रियों का प्रयोग करते हैं। फलस्वरूप, उनके स्मृति-पटल पर उस वस्तु का स्पष्ट चित्र अंकित हो जाता है।
  2. परीक्षण करके सीखना- नयी बातों की खोज करना, एक प्रकार का सीखना है। बालक इस खोज को परीक्षण द्वारा कर सकता है। परीक्षण के बाद वह किसी निष्कर्ष पह पहुँचता है। इस प्रकार, वह जिन बातों को सीखता है, वे उसके ज्ञान का अंग हो जाती हैं, उदाहरणार्थ वह इस बात का परीक्षण कर सकता है कि गर्मी का कठोर और तरल पदार्थों पर क्या प्रभाव पड़ता है। वह इस बात को पुस्तक में पढ़कर भी सीख सकता है। पर यह सीखना उतना महत्वपूर्ण नहीं होता है, जितना कि स्वयं परीक्षण करके सीखना।
  3. सामूहिक विधियों द्वारा सीखना – सीखने का कार्य व्यक्तिगत और सामूहिक विधियों द्वारा होता है। इन दोनों में सामूहिक विधियों को अधिक उपयोगी और प्रभावशाली माना जाता है। इनके सम्बन्ध में कोलसनिक की धारणा इस प्रकार है- “बालक को प्रेरणा प्रदान करने, उसे शैक्षिक लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता देने, उसके मानसिक स्वास्थ्य को उत्तम बनाने, उसके सामाजिक समायोजन को अनुप्राणित करने, उसके व्यवहार में सुधार करने और उसमें आत्मनिर्भरता तथा सहयोग की भावनाओं का विकास करने के लिए व्यक्तिगत विधियों की तुलना में सामूहिक विधियाँ कहीं अधिक प्रभावशाली है।” मुख्य सामूहिक विधियाँ निम्नांकित है-

(1) वाद-विवाद विधि-इस विधि में प्रत्येक छात्र को अपने विचार व्यक्त करने और प्रश्न पूछने का अवसर दिया जाता है।

(2) वर्कशॉप विधि – इस विधि में विभिन्न विषयों पर सभाओं का आयोजन किया जाता है और इन विषयों के हर पहलू का छात्रों द्वारा अध्ययन किया जाता है।

(3) सम्मेलन व विचार – गोष्ठी विधियाँ- इन विधियों से किसी विशेष विषय पर छात्रों द्वारा विचार-विनमय किया जाता है।

(4) प्रोजेक्ट, डाल्टन व बेसिक विधियाँ – इन आधुनिक विधियों में व्यक्तिगत और सामूहिक-दोनों प्रकार के प्रेरकों का स्थान होता है। प्रत्येक छात्र अपनी व्यक्तिगत रुचि, ज्ञान और क्षमता के अनुसार स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है, जिससे उसका सीखने का कार्य सरल हो जाता है। इसके अतिरिक्त, सामूहिक रूप से कार्य करने के कारण उसमें स्पर्द्धा, सहयोग और सहानुभूति का विकास होता है।

  1. सीखने का समय व थकान – सीखने का समय सीखने की क्रिया को प्रभावित. करता है, उदाहरणार्थ, जब छात्र विद्यालय आते हैं, तब उनमें स्फूर्ति होती है। अतः उनको सीखने में सुगमता होती है। जैसे-जैसे शिक्षण के घण्टे बीतते जाते हैं, वैसे-वैसे उनकी स्फूर्ति में शिथिलता आती जाती है और ‘वे थकान का अनुभव करने लगते हैं। परिणामतः उनकी सीखने की क्रिया मन्द हो जाती है।
  2. सीखने की इच्छा-यदि छात्रों में किसी बात को सीखने की इच्छा होती है, तो वे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसे सीख लेते हैं। अतः अध्यापक का यह प्रमुख कर्तव्य है कि वह छात्रों की इच्छा-शक्ति को दृढ़ बनाये। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे उनकी रुचि और जिज्ञासा को जाग्रत करना चाहिए।
  3. प्रेरणा-सीखने की प्रक्रिया में प्रेरकों का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रेरक, बालकों को नयी बातें सीखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। अतः अध्यापक चाहता है कि उसके छात्र नये पाठ को सीखें, तो प्रशंसा, प्रोत्साहन, प्रतिद्वन्द्विता आदि विधियों का प्रयोग करके उनको प्रेरित करें। स्टीफेन्स के विचारानुसार- “शिक्षक के पास जितने भी साधन उपलब्ध हैं, उनमें प्रेरणा सम्भवतः सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।”

  1. अध्यापक व सीखने की प्रक्रिया- सीखने की प्रक्रिया में पथ-प्रदर्शक के रूप में शिक्षक का स्थान अति महत्वपूर्ण है। उसके कार्यों और विचारों, व्यवहार या व्यक्तित्व, ज्ञान और शिक्षण-विधि का छात्रों के सीखने पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। इन बातों में शिक्षक का स्तर जितना ऊँचा होता है, सीखने की प्रक्रिया उतनी ही तीव्र और सरल होती है।
  2. सीखने का उचित वातावरण- सीखने की क्रिया पर न केवल कक्षा के अन्दर के, वरन् बाहर के वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। कक्षा के बाहर का वातावरण शान्त होना चाहिए। निरन्तर शोर गुल से छात्रों का ध्यान सीखने की क्रिया से हट जाता है। यदि कक्षा के अन्दर छात्रों को बैठाने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, और यदि उसमें वायु और प्रकाश की कमी है, तो छात्र थोड़ी ही देर में थकान का अनुभव करने लगते हैं। परिणामतः उनकी सीखने में रुचि समाप्त हो जाती है। कक्षा का मनोवैज्ञानिक वातावरण भी सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। यदि छात्रों में एक-दूसरे के प्रति सहयोग और सहानुभूति की भावना है, तो सीखने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहयोग मिलता है।

इन कारणों या दशाओं के वर्णन से यह स्पष्ट है कि सीखना तभी प्रभावशाली हो सकता है जबकि ये दशाएँ अनुकूल हों। अनुकूल होने की परिस्थितियों में सीखने की क्रिया सबल एवं प्रभावयुक्त हो जाती है।

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  1. विषय – सामग्री का स्वरूप – सीखने की क्रिया पर सीखी जाने वाली विषय-सामग्री का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। कठिन और अर्थहीन सामग्री की अपेक्षा सरल और अर्थपूर्ण सामग्री अधिक शीघ्रता और सरलता से सीख ली जाती है। इसी प्रकार, अनियोजित सामग्री की तुलना में “सरल से कठिन की ओर सिद्धान्त पर नियोजित सामग्री सीखने की क्रिया को सरलता प्रदान करती है।
  2. बालकों का शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य – जो छात्र, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होते हैं, वे सीखने में रुचि लेते हैं और शीघ्र सीखते हैं। इसके विपरीत, शारीरिक या मानसिक रोगों से पीड़ित छात्र सीखने में किसी प्रकार की रुचि नहीं लेते हैं। फलतः वे किसी बात को बहुत देर में और कम सीख पाते हैं
  3. परिपक्वता – शारीरिक और मानसिक परिपक्वता वाले छात्र नये पाठ को सीखने के लिए सदैव तत्पर और उत्सुक रहते हैं। अतः वे सीखने में किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं करते हैं। यदि छात्रों में शारीरिक और मानसिक परिपक्वता नहीं होती है, तो सीखने में उनके समय और शक्ति का नाश होता है। कोलसनिक के अनुसार “परिपक्वता और सीखना पृथक् प्रक्रियाएँ नहीं हैं, वरन् एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप में सम्बद्ध और एक-दूसरे पर निर्भर है।”

  1. सीखने का समय व थकान – सीखने का समय सीखने की क्रिया को प्रभावित. करता है, उदाहरणार्थ, जब छात्र विद्यालय आते हैं, तब उनमें स्फूर्ति होती है। अतः उनको सीखने में सुगमता होती है। जैसे-जैसे शिक्षण के घण्टे बीतते जाते हैं, वैसे-वैसे उनकी स्फूर्ति में शिथिलता आती जाती है और ‘वे थकान का अनुभव करने लगते हैं। परिणामतः उनकी सीखने की क्रिया मन्द हो जाती है।
  2. सीखने की इच्छा-यदि छात्रों में किसी बात को सीखने की इच्छा होती है, तो वे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसे सीख लेते हैं। अतः अध्यापक का यह प्रमुख कर्तव्य है कि वह छात्रों की इच्छा-शक्ति को दृढ़ बनाये। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे उनकी रुचि और जिज्ञासा को जाग्रत करना चाहिए।
  3. प्रेरणा-सीखने की प्रक्रिया में प्रेरकों का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रेरक, बालकों को नयी बातें सीखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। अतः अध्यापक चाहता है कि उसके छात्र नये पाठ को सीखें, तो प्रशंसा, प्रोत्साहन, प्रतिद्वन्द्विता आदि विधियों का प्रयोग करके उनको प्रेरित करें। स्टीफेन्स के विचारानुसार- “शिक्षक के पास जितने भी साधन उपलब्ध हैं, उनमें प्रेरणा सम्भवतः सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।”

  1. अध्यापक व सीखने की प्रक्रिया- सीखने की प्रक्रिया में पथ-प्रदर्शक के रूप में शिक्षक का स्थान अति महत्वपूर्ण है। उसके कार्यों और विचारों, व्यवहार या व्यक्तित्व, ज्ञान और शिक्षण-विधि का छात्रों के सीखने पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। इन बातों में शिक्षक का स्तर जितना ऊँचा होता है, सीखने की प्रक्रिया उतनी ही तीव्र और सरल होती है।
  2. सीखने का उचित वातावरण- सीखने की क्रिया पर न केवल कक्षा के अन्दर के, वरन् बाहर के वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। कक्षा के बाहर का वातावरण शान्त होना चाहिए। निरन्तर शोर गुल से छात्रों का ध्यान सीखने की क्रिया से हट जाता है। यदि कक्षा के अन्दर छात्रों को बैठाने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, और यदि उसमें वायु और प्रकाश की कमी है, तो छात्र थोड़ी ही देर में थकान का अनुभव करने लगते हैं। परिणामतः उनकी सीखने में रुचि समाप्त हो जाती है। कक्षा का मनोवैज्ञानिक वातावरण भी सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। यदि छात्रों में एक-दूसरे के प्रति सहयोग और सहानुभूति की भावना है, तो सीखने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहयोग मिलता है।

इन कारणों या दशाओं के वर्णन से यह स्पष्ट है कि सीखना तभी प्रभावशाली हो सकता है जबकि ये दशाएँ अनुकूल हों। अनुकूल होने की परिस्थितियों में सीखने की क्रिया सबल एवं प्रभावयुक्त हो जाती है।

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  1. मिश्रित विधि द्वारा सीखना- सीखने की दो महत्वपूर्ण विधियाँ है- पूर्ण विधि और आंशिक विधि । पहली विधि में छात्रों को पहले पाठ्य-विषय का पूर्ण ज्ञान दिया जाता है और फिर उसके विभिन्न अंगों में सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। दूसरी विधि में पाठ्य-विषय को खण्डों में बाँट दिया जाता है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार इन दोनों विधियों को मिलाकर सीखने मिश्रित विधि का प्रयोग किया जाता है।

6. सीखने की स्थिति का संगठन – सीखने के कार्य को सरल और सफल बनाने के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है- सीखने की स्थिति का संगठन। यह तभी सम्भव हो सकता है, जब विद्यालय का निर्माण इस प्रकार किया जाये कि उसमें सीखने की सभी क्रियाएँ उपलब्ध हों और सीखने की सभी विधियों का प्रयोग किया जाये।

सीखने की ये सभी विधियाँ व्यक्ति के मनोविज्ञान पर आधारित हैं। इन विधियों के प्रयोग से अधिगम तथा शिक्षण, दोनों ही प्रभावशाली हो जाते हैं।

सीखने को प्रभावित करने वाले कारक या दशाएँ ऐसे अनेक कारक या दशाएँ हैं, जो सीखने की प्रक्रिया में सहायक या बाधक सिद्ध होती हैं। इनका उल्लेख करते हुए सिम्पसन ने लिखा है- “अन्य दशाओं के साथ-साथ सीखने की कुछ दशाएँ है- उत्तम स्वास्थ्य, रहने की अच्छी आदतें, शारीरिक दोषों से मुक्ति, अध्ययन की अच्छी आदतें, संवेगात्मक सन्तुलन, मानसिक योग्यता, कार्य-सम्बन्धी परिपक्वता, वांछनीय दृष्टिकोण और रुचियां, उत्तम सामाजिक अनुकूलन, रूढ़िबद्धता और अन्धविश्वास से मुक्ति।” हम इनमें से कुछ महत्वपूर्ण कारकों पर प्रकाश डाल रहे हैं, यथा-

  1. विषय – सामग्री का स्वरूप – सीखने की क्रिया पर सीखी जाने वाली विषय-सामग्री का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। कठिन और अर्थहीन सामग्री की अपेक्षा सरल और अर्थपूर्ण सामग्री अधिक शीघ्रता और सरलता से सीख ली जाती है। इसी प्रकार, अनियोजित सामग्री की तुलना में “सरल से कठिन की ओर सिद्धान्त पर नियोजित सामग्री सीखने की क्रिया को सरलता प्रदान करती है।
  2. बालकों का शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य – जो छात्र, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होते हैं, वे सीखने में रुचि लेते हैं और शीघ्र सीखते हैं। इसके विपरीत, शारीरिक या मानसिक रोगों से पीड़ित छात्र सीखने में किसी प्रकार की रुचि नहीं लेते हैं। फलतः वे किसी बात को बहुत देर में और कम सीख पाते हैं
  3. परिपक्वता – शारीरिक और मानसिक परिपक्वता वाले छात्र नये पाठ को सीखने के लिए सदैव तत्पर और उत्सुक रहते हैं। अतः वे सीखने में किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव नहीं करते हैं। यदि छात्रों में शारीरिक और मानसिक परिपक्वता नहीं होती है, तो सीखने में उनके समय और शक्ति का नाश होता है। कोलसनिक के अनुसार “परिपक्वता और सीखना पृथक् प्रक्रियाएँ नहीं हैं, वरन् एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप में सम्बद्ध और एक-दूसरे पर निर्भर है।”

  1. सीखने का समय व थकान – सीखने का समय सीखने की क्रिया को प्रभावित. करता है, उदाहरणार्थ, जब छात्र विद्यालय आते हैं, तब उनमें स्फूर्ति होती है। अतः उनको सीखने में सुगमता होती है। जैसे-जैसे शिक्षण के घण्टे बीतते जाते हैं, वैसे-वैसे उनकी स्फूर्ति में शिथिलता आती जाती है और ‘वे थकान का अनुभव करने लगते हैं। परिणामतः उनकी सीखने की क्रिया मन्द हो जाती है।
  2. सीखने की इच्छा-यदि छात्रों में किसी बात को सीखने की इच्छा होती है, तो वे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसे सीख लेते हैं। अतः अध्यापक का यह प्रमुख कर्तव्य है कि वह छात्रों की इच्छा-शक्ति को दृढ़ बनाये। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे उनकी रुचि और जिज्ञासा को जाग्रत करना चाहिए।
  3. प्रेरणा-सीखने की प्रक्रिया में प्रेरकों का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रेरक, बालकों को नयी बातें सीखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। अतः अध्यापक चाहता है कि उसके छात्र नये पाठ को सीखें, तो प्रशंसा, प्रोत्साहन, प्रतिद्वन्द्विता आदि विधियों का प्रयोग करके उनको प्रेरित करें। स्टीफेन्स के विचारानुसार- “शिक्षक के पास जितने भी साधन उपलब्ध हैं, उनमें प्रेरणा सम्भवतः सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।”

  1. अध्यापक व सीखने की प्रक्रिया- सीखने की प्रक्रिया में पथ-प्रदर्शक के रूप में शिक्षक का स्थान अति महत्वपूर्ण है। उसके कार्यों और विचारों, व्यवहार या व्यक्तित्व, ज्ञान और शिक्षण-विधि का छात्रों के सीखने पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। इन बातों में शिक्षक का स्तर जितना ऊँचा होता है, सीखने की प्रक्रिया उतनी ही तीव्र और सरल होती है।
  2. सीखने का उचित वातावरण- सीखने की क्रिया पर न केवल कक्षा के अन्दर के, वरन् बाहर के वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। कक्षा के बाहर का वातावरण शान्त होना चाहिए। निरन्तर शोर गुल से छात्रों का ध्यान सीखने की क्रिया से हट जाता है। यदि कक्षा के अन्दर छात्रों को बैठाने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, और यदि उसमें वायु और प्रकाश की कमी है, तो छात्र थोड़ी ही देर में थकान का अनुभव करने लगते हैं। परिणामतः उनकी सीखने में रुचि समाप्त हो जाती है। कक्षा का मनोवैज्ञानिक वातावरण भी सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। यदि छात्रों में एक-दूसरे के प्रति सहयोग और सहानुभूति की भावना है, तो सीखने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहयोग मिलता है।

इन कारणों या दशाओं के वर्णन से यह स्पष्ट है कि सीखना तभी प्रभावशाली हो सकता है जबकि ये दशाएँ अनुकूल हों। अनुकूल होने की परिस्थितियों में सीखने की क्रिया सबल एवं प्रभावयुक्त हो जाती है।

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