साहित्य में नैतिक मूल्य|moral values in literature
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि “साहित्य समाज का दर्पण होता है।” उनकी यह बात साहित्य की सार्थकता को सिद्ध करती है। शायद इसीलिए समाज में मूल्यों की जो स्थितियाँ हैं, वही हम साहित्य में देख पाते हैं। वस्तुतः साहित्य का वास्तविक उद्देश्य ही मानव जीवन के विशिष्ट पहलुओं को प्रकाशित करना है। एक अच्छे साहित्यकार की यह अभिलाषा भी रहती है कि वह अपनी रचनाओं में उन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक मूल्यों आदि को समाहित करे जिससे मानव समुदाय का कल्याण हो सके। यदि हम केवल साहित्य और नैतिक मूल्य की बात करें तो हमें यह मानना पड़ेगा कि नैतिक मूल्य विहीन साहित्य प्राणहीन साहित्य के समान होता है। इसलिए साहित्य और नैतिक मूल्यों का अटूट रिश्ता है।
भारतीय परंपरा में नैतिक मूल्यों का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। प्राचीन काल से ही यहाँ नैतिक मूल्यों वालों साहित्य का प्रणयन किया जाता रहा है। वेदों, उपनिषदों और गीता के ‘सत्यं वद् धर्म चर’ से लेकर वाल्मीकि, वेदव्यास, मनु, कौटिल्य, कबीर, रहीम, नानक, तुलसी आदि कवियों की साहित्यिक कृतियों में उच्चतम नैतिक मूल्यों को समाहित किया गया है। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में उचित-अनुचित का ज्ञान, सत्य-असत्य का ज्ञान, आज्ञा पालन, ईमानदारी, सत्यवादिता, दयालुता, निष्पक्षता, विनम्रता, आत्मनियंत्रण, विवेक, सत्य, अहिंसा आदि अनेक नैतिक मूल्यों को सम्मिलित किया है। ये ऐसे शाश्वत नैतिक मूल्य है, जो मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए प्रेरित करते रहेंगे तथा समाज का हितवर्धन करते रहेंगे।
प्राचीन वैदिक साहित्य से शुरू हुई नैतिक मूल्यों की श्रृंखला वर्तमान तथा भविष्य में भी ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ की कल्याणकारक नीति, नियमों, आदर्शों तथा संस्कारों का उद्घोष करती रहेगी। यह बात बात वेदों दों में समाहित नैतिक मूल्यों यथा-सत्यचरण, सत्कर्म, विवेक, समत्व भावना, दान-धर्म, दया, परोपकार, सत्कार आदि से स्पष्ट हो जाती है। वैदिक मंत्रों में हमारे ऋषियों ने ईश्वर से प्रार्थना की है कि-
“असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतंगमय।”
अर्थात् हे ईश्वर ! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो,
अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। इसी प्रकार काव्यशास्त्र में साहित्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ‘साहित्यस्य भावः इति साहित्यम्।’ इसके अनुसार, साहित्य में हित की भावना का होना अनिवार्य है। वास्तव में नैतिक मूल्य जीवन के समस्त गुणों, ऐश्वयों, समृद्धियों और वैभवों की आधारशिला है।
सामान्यतया साहित्य में वर्णित नैतिक मूल्य कल्पना-जन्य नहीं होते बल्कि स्वयं साहित्यकार को अनुभूत सत्य होते हैं, जिन्हें वह अपनी लेखनी से साहित्य का रूप देता है। कालांतर में ऐसे साहित्य शिक्षित समाज द्वारा अवलोकन किया जाता है और उस साहित्य में वर्णित नैतिक मूल्यों को समाज द्वारा अपने सर्वांगीण विकास हेतु आत्मसात किया जाता है। । यह साहित्य ही है, जो मनुष्य के अंदर प्रेम, करुणा, दया, परोपकार आदि मूल्यों को जागृत करता है तथा सद्कर्मों को करने की प्रेरणा देता है। जैसा कि उल्लिखित है कि एक बार महर्षि बाल्मीकि प्रेमालाप में लीन एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे कि तभी एक बहेलिए ने कामरत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। पक्षी के विलाप को सुनकर महर्षि वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और वह द्रवित होकर बोल उठे-
“मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्।।”
अर्थात् अरे बहेलिए ! तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हो पाएगी। इस घटना के पश्चात् महर्षि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ ‘की रचना की। इस महाकाव्य में सत्य, मर्यादा, प्रेम, भातृत्व, मित्रत्व, सेवा, धर्म, करूणा, दया, परोपकार आदि नैतिक मूल्यों का अद्भुत संयोजन देखने को मिलता है।
रामायण महाकाव्य में वर्णित कुछ नैतिक मूल्यों को हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं। सत्य एक शाश्वत मूल्य है, जिसे अनादि काल से स्वीकार किया जाता रहा है और साहित्य जगत में इसे उच्चतम स्थान प्राप्त है। हम देखते हैं कि दशरथं का राम के प्रति सत्य प्रेम असीमित है किंतु राम से वियोग होने पर वह अपने प्राणों का त्याग कर सत्य का पालन करते हैं। यदि दशरथ अपने प्राणों का मोह करते तो उन्हें असत्य भाषण का महापाप भोगना पड़ता। वचन पालन को भारतीय संस्कृति का प्राणतत्व माना जाता है। सदियों से इस धरती पर वचन पालन को जीवन से भी अधिक महत्व दिया गया है। “रघुकल रीति सदा चलि आई। प्राण जाय पर वचन न जाईए।।”
महर्षि वाल्मीकि का कथन है कि जो श्रेष्ठ पुरुष होते हैं, वे दूसरे पापाचारी प्राणियों के पाप ग्रहण नहीं करते और न ही उन्हें अपराधी मानकर इनसे बदला लेने की सोचते हैं। नैतिकता की सदा रक्षा करनी चाहिए क्योंकि नैतिकता ही सबसे बड़ा धर्म है। नैतिकता से मनुष्य के साथ- साथ राष्ट्र का भी उत्थान होता है, लेकिन यदि कोई मनुष्य या समाज नैतिकता से विमुख हो जाता है, तो उसका सर्वनाश निश्चित है। जैसा कि हम देखते हैं रावण प्रकाण्ड विद्वान था, लेकिन सीता का हरण करके उसने अनैतिक कृत्य किया और इस कृत्य की सजा उसे अपने कुटुम्ब व साम्राज्य के विनाश के रूप में मिली। इसी प्रकार एक प्रसंग रामचरितमानस में आता है, जो भगवान राम द्वारा बालि के वध के प्रसंग में है-
“धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई।
मारेहु मोहि ब्याध की नाई।
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा।
अवगुन कवन नाथ मोहि मारा।
अनुज वधू भगिनी सुत नारी।
सुनु सठ कन्या समएचारी ।।
इन्हहि कुटुष्टि बिलोकई जोई।
ताहि बधं कछु पाप न होई।”
भक्तिकालीन प्रमुख सूफी संत कबीर के दोहों में तत्कालीन समाज के अनैतिक मूल्यों व कुरीतियों पर करारा प्रहार देखने को मिलता है। सत्य विषयक अपनी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में सत्य के मार्ग पर चलने से बड़ी कोई तपस्या नहीं हैं और न ही झूठ बोलने से बड़ा कोई पाप है- ”
साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदै साँच है ताके हिरदै आप ।।
इसी प्रकार हम देखते हैं कि युद्ध और गाँधी जैसे महात्माओं का तो पूरा चरित्र ही सत्य और अहिंसा पर आधारित है। गाँधी जी का सत्य और अहिंसा का सिद्धांत वैदिक साहित्य की उस परंपरा का पोषक दिखता है, जिसमें कहा गया है कि-
“अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा परमो गतिः।”
इसी प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संस्कृति त्यागनिष्ठ रही है। जैसा कि महाभारत में उल्लेख आता है कि राजा शिवि ने एक कपोत की रक्षा के लिए अपने शरीर को काटकर बाज को माँस दिया था। त्याग ने ही महात्मा बुद्ध को भगवान, गाँधी जी को महात्मा और अरविंद को महर्षि की पदवी दिलाई।
कहा जाता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इस संदर्भ में वर्तमान जीवनशैली, आचार- विचार, रहन-सहन आदि में भी परिवर्तन हो रहा है। अतः इस परिवर्तन से भला साहित्य और मूल्य कैसे अछूते रह सकते हैं। मूल्यों का क्षरण होने के कारण ही आज समाज में अनैतिक कृत्य ‘करने वालों का बोलबाला हो गया है। नैतिक मूल्यों को ताक पर रखकर आज मनुष्य भौतिकता की अंतहीन दौड़ में शामिल हो गया है। वह अपने लिए नित-नवीन मूल्यों का सृजन कर रहा है। आधुनिक साहित्यकारों ने इस संदर्भ कई उल्लेखनीय रचनाएँ की हैं। जैसे-जयशंकर प्रसाद ने अपनी कहानियों ‘आकाशदीप’, ‘ममता’, ‘पुकार’ आदि में रिश्तों की उलझनों को बखूबी दर्शाया है। मन्नू भंडारी ने अपनी कहानियों में टूटते पारिवारिक मूल्य और नए मूल्यों में हो रहे संघर्ष का वर्णन किया है। इसी प्रकार राजेंद्र यादव ने अपने उपन्यासों- ‘उखड़े हुए लोग’, ‘शह और मात’, ‘सारा आकाश’, ‘कुलटा’ आदि में स्त्री-पुरुष के बनते-बिगड़ते संबंधों, प्राचीन रूढ़ियों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण, परंपरागत मूल्यों का हास तथा मानव मूल्यों की स्थापना का प्रयत्न किया है। कृष्णा सोबती के उपन्यासों-‘डार से बिछुड़ी’, ‘मित्रों मरजानी’, ‘सूरजमुखी अँधेरे के’ आदि में पुरातन मूल्यों को नकारती हुई औरतों का चित्रण किया गया है।
डॉ. धर्मवीर भारती ने वर्तमान नवीन मूल्यों में मानव स्वतंत्रता की चरम सत्ता मानते हुए मूल्यों में परिवर्तनशीलता को रेखांकित किया है। इसी प्रकार डॉ. गोविन्द चंद्र पाण्डेय ने मूल्यों की उपयोगिता आदर्श और नीति के आधार पर समझने का प्रयत्न किया है, तो डॉ. रमेश कुंतल मेघ ने कबीलाई मूल्यों के साथ मार्क्सवादी चिंतन को ग्रहण कर सौंदर्याबोधात्मक मूल्यों को श्रेष्ठ माना है। इसी प्रकार, शिवानी की ‘स्वयंसिद्धा’, मेहरुन्निशा परवेज की ‘गिरवी रखी धूप’ और चित्रा मुद्गल की ‘अग्निरेखा’ आदि अनेक कृतियों में सामाजिक मूल्यों के विघटन को देखा जा सकता है।
नैतिक मूल्यों पर आधारित फिल्मों का निर्माण भारतीय सिनेमा की खास पहचान रही है। यहाँ फिल्मों के माध्यम से तत्कालीन समाज का अच्छा चित्रण किया जाता है और इन फिल्मों से भी हम मूल्यों की समझ विकसित कर सकते हैं।
तथापि उपर्युक्त परिवर्तनों के बावजूद हम शाश्वत नैतिक मूल्यों की ग्राह्यता से प्रभावित होकर अपने मूल्यों को खोते जा रहे हो तथा रचनाएँ भी उसी प्रकार की रची जा रही हों लेकिन हमारे प्राचीन नैतिक मूल्य हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे। अब यह बात अलग है कि हम उनको कितना आत्मसात करते हैं। ‘नमक का दरोगा’ नामक बहुचर्चित कहानी में मुंशी प्रेमचंद ने धन के ऊपर धर्म की जीत का चित्रण किया है। उन्होंने धन और धर्म को क्रमशः असवृत्ति और सवृत्ति, बुराई और अच्छाई, असत्य और सत्य कहा है। तात्पर्य यह है कि नैतिक मूल्यों वाले साहित्य व्यक्ति को चारित्रिक ऊँचाई प्रदान करते हैं।
निष्कर्षतः हम यह कह सकते हैं कि साहित्य का वास्तविक आधार आज भी मानव- मूल्य ही है। वस्तुतः मानव संस्कृति, सभ्यता एवं व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। अतः साहित्य और नैतिक मूल्यों में शाश्वत संबंध है। जैसा कि डॉ. जगदीश चंद्र गुप्त लिखते हैं कि “नैतिक मूल्यों की स्थापना साहित्यकार से इस बात की अपेक्षा रखती है कि वह साहित्यिक मूल्यों को भी उतना ही समादर प्रदान करे, जितना कि नैतिक मूल्यों को, क्योंकि तत्वतः दोनों एक ही हैं।”
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