शैक्षिक अवसरों की समानता | Equality of educational opportunities in Hindi

शैक्षिक अवसरों की समानता (equality of educational opportunities)

शिक्षा आयोग ने शैक्षिक अवसरों की समानता के अर्थ और महत्व को इस प्रकार स्पष्ट किया है- “शिक्षा का एक महत्वपूर्ण सामाजिक उद्देश्य है-अवसरों की समानता प्रदान करना जिससे कि पिछड़े तथा दलित वर्ग और व्यक्ति शिक्षा के द्वारा अपनी स्थिति को सुधार सकें। जो भी समाज, सामाजिक न्याय को अपने आदर्श के रूप में स्वीकार करता है और सामान्य व्यक्ति की दशा सुधारेने तथा सम्पूर्ण शिक्षा प्राप्त करने योग्य व्यक्तियों को शिक्षा देने को उत्सुक है, उसे यह व्यवस्था करनी ही होगी कि जनता के सब वर्गों, अवसरों की अधिक-से-अधिक समानता प्राप्त होती जाये। एक समतामूलक तथा मानवतामूलक समाज, जिसमें दुर्बलों का शोषण कम से कम हो, के निर्माण करने का यही एक सुनिश्चित साधन है।”

भारतीय संविधान सामाजिक समानता पर बल देता है। साथ-ही-साथ वह राज्य द्वारा पोषित राज्यकोष से सहायता पाने वाली, किसी शिक्षण संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को सम्प्रदाय, वंश, जाति, भाषा, लिंग के आधार पर वंचित नहीं करता है। इस प्रकार हमारा संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को शिक्षा प्राप्त करने का समान अवसर तथा अधिकार प्रदान करता है। भारतवर्ष में शैक्षिक अवसरों की समानता के पक्ष में निम्न बातें कही जा सकती हैं-

(1) एकीकृत समाज का निर्माण करने के लिए- वर्तमान समय में साम्प्रदायिक और जातीय संघषों ने देश की एकता और सांमाजिक प्रगति-दोनों के लिए खतरा पैदा कर दिया है लोगों की निष्ठा देश के प्रति, सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रति नहीं है। इसलिए उनमें स्थानीय, प्रादेशिक, भाषायी तथा अपने राज्य के प्रति आसक्ति में वृद्धि हुई है। इस कारण लोगों के मन के सामने सम्पूर्ण भारतभूमि का चित्र नहीं आता। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए एकीकृत समाज के निर्माण में शिक्षा अवसरों की समानता की महत्वपूर्ण भूमिका है।

(2) लोकतन्त्र और स्वतन्त्रता को सुरक्षित करने के लिए- अनेकों कठिनाइयों के होते हुए भी भारतीय लोकतन्त्र ने अपनी क्षमताओं का अच्छा प्रदर्शन किया है, परन्तु लोकतन्त्र को एक शासन तथा जीवन-शैली के रूप, सुदृढ़ बनाने के लिए प्रत्येक नागरिक को शिक्षित बनाना नितान्त आवश्यक है। इसलिए शिक्षा के अवसरों की समानता लाना अनिवार्य है। शिक्षित नागरिक ही स्वतन्त्रता की रक्षा भली-भाँति कर सकते हैं।

(3) समतामूलक और मानवतायुक्त समाज की स्थापना के लिए-सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय प्रदान करने के लिए समतामूलक समाज की स्थापना अति आवश्यक है। इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था को स्थिर रखने के लिए शिक्षा के अवसरों की समानता होना नितान्त रूप से आवश्यक है। शिक्षा परिवर्तन का सशक्त साधन है, जो सुनिश्चित करेगा कि लोग जाति, सम्प्रदाय, लिंग, भाषा, आर्थिक पिछड़ेपन आदि के कारण से वंचित न रह जायें।

(4) सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि करने के लिए-भारतीय समाज को हम परम्परावादी और रुढ़िवादी समाज कह सकते हैं। इसलिए उन्मुक्त समाज के समान गतिशीलता की सम्भावनाएँ कम पायी जाती हैं। समाज को गतिशील बनाने के लिए यह आवश्यक है कि इसकी सारी विषमताओं को कम किया जाए। शिक्षा अवसरों की समानता से समाज शिक्षित होगा और उसका ध्यान सामाजिक विषमताओं की ओर जायेगा।

(5) व्यक्तियों में निहित प्रतिभा और योग्यता की पहचान के लिए- वर्तमान काल में राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शिक्षित और योग्यतायुक्त के अभाव को महसूस किया जा रहा है। ह्वाइटहैंड ने एक स्थान पर चेतावनी देते हुए कहा है-

“जो जाति या समाज अपनी प्रतिभाओं को नहीं पहचानते, उनके विनाश अवश्यम्भावी है।”

सामान्य बुद्धि के लोग समाज में बराबर बँटे होते हैं। इनमें से प्रतिभाओं को खोजना और पहचानना होता है। खोज और पहचान का यह कार्य शिक्षा के अवसरों की समानता से सम्पत्र हो सकता है।

(6) राष्ट्रीय विकास के लिए-यदि हम भारत राष्ट्र को प्रगति के पथ पर अग्रसर करना चाहते हैं, तो अधिक-से-अधिक व्यक्तियों को शिक्षा की सुविधा देना आवश्यक है। शिक्षा आयोग ने एक स्थान पर कहा है-

“हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों से निकलने वाले विद्यार्थियों की योग्यता और संख्या पर ही राष्ट्रीय पुनर्निमाण के उस महत्वपूर्ण कार्य की सफलता निर्भर करती है जिसका प्रमुख प्रयोजन हमारे रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाना है।”

इस दृष्टि से शिक्षा अवसरों की समानता अति आवश्यक है।

भारत में शैक्षिक अवसरों की विषमताओं के कारण

यद्यपि भारतीय संविधान में शिक्षा-अवसरों की समानता प्रतिपादित की गई है, परन्तु कई कठिनाइयों या कारणों से इस दिशा में पूरी सफलता नहीं मिल पायी है। इन कारणों अथवा कठिनाइयों का उल्लेख निम्नांकित प्रकार से किया जा सकता है-

(1) पारिवारिक परिवेशों के भिन्न-भिन्न होने के कारण भारी विषमताएँ उत्पन्न होती हैं। ग्रामों के परिवार या नगरों की गन्दी बस्तियों में निवास करने वाले तथा अशिक्षित माता-पिता की सन्तानों को शिक्षा प्राप्त करने का वह अवसर नहीं प्राप्त होता, जो उच्च शिक्षा प्राप्त माता-पिता के साथ रहने वाली सन्तानों को मिलता है।

(2) जिन स्थानों पर प्राथमिक, माध्यमिक या महाविद्यालय की शिक्षा देने वाली संस्थाएँ नहीं हैं, वहाँ के बालकों को वैसा अवसर नहीं प्राप्त हो पाता जैसा कि उन सब बालकों को प्राप्त होता है, जिनके निवास स्थानों के निकट ये संस्थाएँ होती हैं।

(3) भारतवर्ष में जनसंख्या का अधिकांश भाग निर्धन है और अपेक्षाकृत अल्पांश ही धनवान हैं। शिक्षा संस्थाओं के निकट में रहते हुए भी निर्धन परिवारों के बालकों को यह अवसर नहीं प्राप्त होता, जो सम्पन्न परिवारों के बालकों को मिल सकता है।

(4) शिक्षा का एक विषम कारण यह भी है कि विद्यालयों और महाविद्यालयों के अपने अलग-अलग शिक्षा-स्तर होते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि अंकों के आधार पर जब ग्रामीण क्षेत्र के किशोर और किशोरियाँ नगरों के विद्यालयों या महाविद्यालयों में प्रवेश पा जाते हैं, तो उन्हें बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

(5) वर्तमान काल में देश के विभिन्न भागों में शिक्षा के विकास के सम्बन्ध में भारी अन्तर पाया जाता है। एक राज्य और दूसरे राज्य के शिक्षा-विकास में बहुत फर्क होता है। उसी प्रकार किसी राज्य के एक जनपद (जिले) और दूसरे जनपद का शिक्षा-विकास एक जैसा नहीं होता।

(6) समाज के उन्नत वर्गों और पिछड़े वर्गों-अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के मध्य शिक्षा-विकास में बहुत अन्तर पाया जाता है।

(7) शिक्षा सम्बन्धी विभिन्न क्षेत्रों में तथा स्तरों पर कन्याओं और लड़कों की शिक्षा में भारी अन्तर पाया जाता है।

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