विकास की रणनीतियाँ, प्रक्रिया के चरण|Development strategies, stages of the process

विकास की रणनीतियाँ, प्रक्रिया के चरण|Development strategies, stages of the process

विकास की रणनीतियाँ, प्रक्रिया के चरण|Development strategies, stages of the process

पाठ्यक्रम विकास पर प्रकाश डालिए।

पाठ्यक्रम का सीधा सम्बन्ध शिक्षा के उद्देश्यों से होता है और पाठ्यक्रम का विभाग का भी उन शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाना है जो वर्तमान बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए जरूरी है। बदलते समय में नए पाठ्यचर्या की आवश्यकता महसूस की जा रही है। पाठ्यचर्या के विकास के बिना हम बालक के जीवन को सरलता और सहजता नहीं प्रदान कर सकते हैं। उद्देश्यों के अनुसार पाठ्यचर्या का विकास किया जाना चाहिए जिससे बालक के साथ- साथ समाज को लाभ प्राप्त हो सके। स्वतन्त्रता के पूर्व हमारे देश में शिक्षा के उद्देश्य सीमित थे परन्तु स्वतन्त्रता के बाद देश में समाज को जागरूक करने हेतु शैक्षिक उद्देश्यों की स्थापना की गई जिसे हम पाठ्यचर्या के माध्यम से समाज एवं बालक तक पहुंचाने का काम कर रहे है। हमें ऐसे पाठ्यचर्या का विकास करना जिससे बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके जिसके द्वारा भविष्य में बालक एक विद्वान व्यक्तियों का निर्माण कर उनमें ज्ञान की सीमाओं का विस्तार कर सके उन शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति तभी की जा सकती जब बालक मानसिक, शारीरिक, चारित्रिक, संवेगात्मक आदि गणों से परिपूर्ण होगा।

वर्तमान समय को देखते हुए नए पाठ्यचर्या की आवश्यकता महसूस की जा रही है। नए पाठ्यचर्या में सामाजिक जीवन को ध्यान में रखकर विकास किया जाना चाहिए इसके लिए हमें अपने पूर्व पाठ्यचर्या का गहन अध्ययन एवं मूल्यांकन करना होगा साथ लोकतांत्रिक देश की आवश्यकताओं, उपयोगिता, मानवीय मूल्यों आदि को आधार मानकर नवीन ज्ञान एवं अनुसंधान का सहारा लेते हुए पाठ्यचर्या का विकास करना होगा, जिससे देश के नौनिहालों के भविष्य को नवीन दिशा दी जा सकती है। पाठ्यचर्या का विकास इस उद्देश्य से किया जाना चाहिए कि बालक का विकास उसकी रुचि एवं परिवर्तनशील वातावरण के अनुकूल हो साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में कहा गया है कि पाठ्यचर्या संविधान में दर्शाए गए मूल्यों को आधार मानकर विकसित किया जाना चाहिए। सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से उपयोगी तत्वों को पाठ्यचर्या में महत्त्व दिया जाना चाहिए।

पाठ्यचर्या विकास की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है। इसमें प्रत्येक पग सावधानी अपेक्षित है। पाठ्यचर्या विकसित करते समय सर्वप्रथम निम्नलिखित पक्षों पर ध्यान देना आवश्यक होगा-

  1. पाठ्यक्रम का विकास किस कक्षा के लिए किया जा रहा है।
  2. जिस कक्षा के लिए पाठ्यक्रम विकसित किया जा रहा है। उसके छात्रों की पूर्व जानकारी का स्तर क्या है।
  3. छात्रों की वर्तमान आवश्यकताओं, रुचि किन क्षेत्रों से सम्बन्धित है। इसमें छात्रों के मनोवैज्ञानिक पक्षों पर भी ध्यान दिया जाता है। जैसे व्यक्तिगत भिन्नता, रुचि, बाल-विकास की अवस्था, परिपक्वता, बुद्धि, सृजनात्मक आदि।
  4. समाज की आकांक्षा तथा वैश्विक परिप्रेक्ष्य पर ध्यान दिया जाता है। दार्शनिक दृष्टिकोण पर विचार मंथन किया जाता है।
  5. पाठ्यक्रम का प्रकार किस कोटि का होगा। जैसे क्रिया प्रधान, हस्त शिल्प प्रधान, विषय प्रधान, व्यवसाय प्रधान आदि
  6. पाठ्यक्रम को ज्ञानात्मक, भावात्मक, क्रियात्मक पक्षों में बांटना तथा उना प्रतिशत निर्धारण करना। इससे सम्बन्धित शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण भी किया जाता है।
  7. पाठ्यक्रम के लिए पाठ्य सहगानी क्रियाओं का चयन करना। का चयन करना।
  8. पाठ्यक्रम हेतु विविध विषय के लिए तथ्यों, प्रसंगों, सिद्धान्तों, विचारकों के मतों
  9. पाठ्यक्रम निर्माण के विविध सिद्धान्त का अनुपाल तथा तत्सम्बन्धी तथ्यों का चयन करना।
  10. पाठ्यक्रम के विषयों में अन्तर्वस्तु के क्रम का निर्धारण करना, प्रायः यह सरल से जटिल की ओर होती है।

पाठ्यक्रम निर्माण में शैक्षिक उद्देश्य का निर्धारण किस प्रकार होता है? विस्तृत विवेचना कीजिए।

विकास की रणनीतियाँ, प्रक्रिया के चरण|Development strategies, stages of the process

पाठ्यक्रम निर्माण के लिए शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण- शैक्षिक कार्यक्रम पाठ्यक्रम के घटकों से संचालित होता है। शिक्षा के उद्देश्यों का मनुष्य के जीवन और समाज के आदर्शों से गहरा सम्बन्ध होता है। इसीलिए शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में इनका सर्वाधिक महत्व होना चाहिए।

डी. के. व्हीलर (D.K. Wheeler) ने अपनी पुस्तक ‘करीक्युलम प्रोसेस (Curriculum Process) में आधुनिकतम स्थिति और दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण के कुछ महत्वपूर्ण मानदण्ड प्रस्तावित किये हैं। व्हीलर द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड के अनुसार शैक्षिक उद्देश्यों को पाँच दृष्टियों से सार्थक होना चाहिए-

1. मानवीय अधिकारों से समन्वय स्थापन (Relationship with Human Rights)- संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवीय अधिकारों के सार्वभौम घोषणा-पत्र की धारा 50 के अन्तर्गत मानव को समाज के सदस्य के रूप में, नागरिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में अनेक अधिकार प्रदान किये गये हैं तथा इन्हें सभी राष्ट्रों के सभी व्यक्तियों के लिए समान मानक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस घोषणा-पत्र का महत्व इसलिए और भी अधिक है क्योंकि विश्व इतिहास में सम्भवतः पहली बार संगठित अन्तर्राष्ट्रीय समाज ने सभी देशों के व्यक्तियों के अधिकारों का सार्वभौमिक दायित्व वहन किया है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी देश में किसी भी व्यक्ति के साथ जो व्यवहार किया जाता है, वह केवल उस समाज एवं सरकार का मामला न होकर, पूरे विश्व समाज का मामला हो गया है।

चूँकि शिक्षा मानव-उत्थान का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। अतः मानव समाज को संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा-पत्र की धारा 55 के अनुसार निम्नांकित बातों की अनिवार्य रूप से वस्था करनी चाहिए-

  1. उच्च जीवन स्तर पूर्ण कार्य, आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति तथा विकास की स्थितियाँ।
  2. अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक स्वास्थ्य एवं अन्य सम्बद्ध समस्याएँ तथा अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक एवं शैक्षिक सहयोग।
  3. सभी के मानवीय अधिकारों तथा मौलिक स्वतन्त्रता के प्रति जाति, धर्म, भाषा एवं लिंग-भेद के बिना सार्वभौमिक समादर।

लोकतान्त्रिक दृष्टि से अनुकूलन- शिक्षा के उद्देश्यों का समाज के आदशों से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए। वर्तमान समय में विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को ही बढ़ावा दिया जा रहा है। इस व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

  1. प्रत्येक व्यक्ति के महत्व और उसकी गरिमा का समादर किया जाता है।
  2. प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं का अधिकतम विकास करने तथा दूसरों के विकास में सहयोगी बनने के समान अवसर प्राप्त होते हैं।
  3. सामान्य जनता द्वारा स्वतन्त्र रूप से व्यक्त की गई सहमति से सरकार का निर्माण होता है तथा सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी होती है।
  4. व्यक्तिगत भिन्नता का समादर किया जाता है तथा उन्हें प्रोत्साहित और विकसित भी किया जाता है।
  5. प्रत्येक व्यक्ति की अपने विवेक, बुद्धि अथवा अन्तरात्मा के अनुसार विचार करने,

बोलने, लिखने-पढ़ने तथा पूजा-अर्चना की स्वतन्त्रता होती है तथा उससे अपेक्षा की जाती है कि वह दूसरों की इसी प्रकार की स्वतन्त्रता में बाधक न बने, बल्कि उसका पोषक बने।

3. सामाजिक सार्थकता (Social Significance)- शैक्षिक उद्देश्य, लोकतान्त्रिक दृष्टि से अनुकूलित होने चाहिए किन्तु इससे ही उनकी सामाजिक सार्थकता सिद्ध नहीं होती है। परम्परागत एवं स्थिर समाज में शिक्षा के उद्देश्य वर्तमान मूल्यों को परिलक्षित करने के साथ-साथ भविष्य के लिए भी वैध हो सकते हैं, किन्तु परिवर्तनशील समाज में पूर्व-निर्धारित शैक्षिक लक्ष्यों का वर्तमान समय में सार्थक होना आवश्यक नहीं होता है। हो सकता है कि शिक्षा व्यवस्था ऐसी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास कर रही हो जो वास्तव में वर्तमान समय में विद्यमान ही नहीं है और कुछ अन्य नवीन आवश्यकताएँ उत्पन्न हो गई हों जिनकी पूर्ति शिक्षा के द्वारा नहीं हो पा रही हो। अतः यह आवश्यक है कि शैक्षिक उद्देश्यों की वर्तमान सार्थकता के साथ-साथ उनमें भावी आवश्यकताओं के पूर्वाभास का भी समावेश किया जाता रहना चाहिए।

पाठ्यक्रम के सतत संशोधन एवं संवर्धन के द्वारा बालकों द्वारा प्राप्त किये जा रहे ज्ञान की समयानुकूलता के बारे में आश्वस्त तो हुआ जा सकता है किन्तु इतना ही पर्याप्त नहीं है। वर्तमान समाज में परिवर्तन की गति इतनी अधिक तीव्र है कि दो पीढ़ियों में तो बहुत अधिक अन्तर आ ही जाता है, एक ही पीढ़ी के विभिन्न चरणों में कई नवीन परिवर्तनों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए वह शिक्षा जो वर्तमान शिक्षक को तैयार करने का साधन थी, अब सम्भवतः उसके द्वारा पढ़ाये जाने वाले बालकों के लिए प्रभावी नहीं हो पा रही है।

(4) वैयक्तिक आवश्यकताएँ (Individual Needs)- वैयक्तिक एवं सामाजिक आवश्यकताएँ बहुत अधिक सीमा तक एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। इनमें मुख्य अन्तर मात्र सुविधा का है। एक विद्वान के अनुसार इन दोनों में प्रायः वही सम्बन्ध है जो किसी पदार्थ के परमाणु तथा उसके प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन में होता है। पाठ्यक्रम आयोजकों को वैयक्तिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में अग्रांकित बिन्दुओं का ध्यान दिया जाना चाहिए-

वैयक्तिक आवश्यकताएँ (Individual Needs)-

1. किसी बालक की प्राथमिक आवश्यकता उसे व्यक्ति के रूप में स्वीकार किये जाने की है। इसका तात्पर्य यह है कि बालक की प्रकृति, व्यक्तित्व, शारीरिक एवं बौद्धिक भेदों को समझते हुए व्यक्तिगत भेदों को स्वीकार किया जाये।

2. मानव में सुरक्षा की भावना स्वाभाविक है तथा सामाजीकरण की प्रक्रिया में इसका बहुत महत्व है। बालकों के कुसमायोजन का एक प्रमुख कारण असुरक्षा की भावना है। बालक अपने माता-पिता तथा अन्य लोगों से स्नेह के सम्बन्ध में आश्वस्त होना चाहता है।

3. बालक में इस भावना का विकास किया जाना चाहिए कि वह जीवन के किसी-न-क्षेत्र में अवश्य सफल हो सकता है।

4. प्रत्येक बालक अपने कार्य की पुष्टि एवं मान्यता चाहता है। शिक्षा द्वारा की गई पुष्टि तथा मान्यता सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। बालक प्रायः अपने वर्ग के सदस्य के रूप में कार्य करना चाहता है। उदाहरणार्थ- वह खेलना चाहता है, प्रतियोगिता करना चाहता है, नेतृत्व करना चाहता है तथा सृजनात्मक कार्य करना चाहता है आदि-आदि। शिक्षालयों को इस कार्य में उन्हें योग प्रदान करना चाहिए।

5. सन्तुलन (Balance) – सन्तुलन से आशय शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण करते समय पूर्व-वर्णित चारों विन्दुओं पर समुचित बल प्रदान करना है अर्थात् किसी एक बिन्दु पर आवश्यकता से अधिक बल नहीं दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, विगत कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि शिक्षा में सूचनात्मक ज्ञान पर बहुत अधिक तथा एकांगी भाव से बल दिया जा रहा है जो कि त्रुटिपूर्ण है। शैक्षिक उद्देश्यों की किसी भी सूची को तभी सन्तोषप्रद कहा जा सकता है जब वह सभी पक्षों की दृष्टि से सन्तुलित हो। अतः पाठ्यक्रम-निर्माताओं को शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में सभी आवश्यक पक्षों को ध्यान में रखते हुए उनमें सन्तुलन, समन्वय तथा तादात्मय बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए।

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