मेरी प्रिय पुस्तक : रामचरितमानस|My favorite book: Ramcharitmanas

मेरी प्रिय पुस्तक : रामचरितमानस|My favorite book: Ramcharitmanas

मेरी प्रिय पुस्तक : रामचरितमानस|My favorite book: Ramcharitmanas

किसी भी देश की सभ्यता और संस्कृति के संरक्षण एवं उसके प्रचार-प्रसार में पुस्तकें अहम भूमिका निभाती है। पुस्तकें ज्ञान का संरक्षण भी करती हैं। यदि हम प्राचीन इतिहास के बारे में जानना चाहते हैं, तो इसका अच्छा स्रोत भी पुस्तकें ही है। उदाहरण के तौर पर, वैदिक साहित्य से हमें उस काल के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक पहलुओं की जानकारी मिलती है। पुस्तकें इतिहास के अतिरिक्त विज्ञान के संरक्षण एवं प्रसार में भी सहायक होती हैं। विश्व की हर सभ्यता के विकास में पुस्तकों का प्रमुख योगदान रहा है।

पुस्तकें शिक्षा का प्रमुख साधन तो हैं ही, इसके साथ ही इनसे अच्छा मनोरंजन भी होता है। पुस्तकों के माध्यम से लोगों में सवृत्तियों के साथ-साथ सृजनात्मकता का विकास भी किया जा सकता है। पुस्तकों की इन्हीं विशेषताओं के कारण इनसे मेरा विशेष लगाव रहा है। पुस्तकों ने हमेशा अच्छे मित्रों के रूप में मेरा साथ दिया है। मुझे अब तक कई पुस्तकों को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इनमें से कई पुस्तकें मुझे प्रिय भी हैं, किन्तु सभी पुस्तकों में ‘रामचरितमानस’ मेरी सर्वाधिक प्रिय पुस्तक है। इसे हिन्दू परिवारों में धर्म-ग्रन्थ का दर्जा प्राप्त है।

जॉर्ज ग्रियर्सन ने कहा है- “ईसाइयों में बाइबिल का जितना प्रचार हैं, उससे कहीं अधिक और आदर हिन्दुओं में रामचरितमानस का है।”

‘रामचरितमानस’ अवधी भाषा में रचा गया महाकाव्य है, इसकी रचना गोस्वामी तुलसीदास ने सोलहवीं सदी में की थी। इसमें भगवान राम के जीवन का वर्णन है। यह महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत के महाकाव्य ‘रामायण’ पर आधारित है। तुलसीदास ने इस महाकाव्य को सात काण्डो में विभाजित किया है। इन सात काण्डों के नाम हैं- ‘बालकाण्ड’, ‘अयोध्याकाण्ड’, ‘अरण्यकाण्ड’, किष्किन्धाकाण्ड’, ‘सुन्दरकाण्ड’, ‘लंकाकाण्ड’ एवं ‘उत्तरकाण्ड’।

‘बालकण्ड’ में ‘रामचरितमानस’ की भूमिका, राम के जन्म के पूर्व का घटनाक्रम, राम और उनके भाइयों का जन्म, ताड़का वध, राम विवाह का प्रसंग आदि का बड़ा मनोरम वर्णन है। ‘अयोध्याकाण्ड’ में राम के वैवाहिक जीवन, राम को राम-भरत मिलाप इत्यादि घटनाओं का वर्णन है। ‘अरण्यकाण्ड’ में राम का वन में सन्तों से मिलना, चित्रकूट से पंचवटी तक उनकी यात्रा, शूर्पणखा का अपमान, खर-दूषण से राम का युद्ध, रावण द्वारा सीता का हरण इत्यादि घटनाओं का वर्णन है।

‘किष्किन्धाकाण्ड’ में राम-लक्ष्मण का सीता को खोजना, राम-लक्ष्मण का हनुमान से मिलना, राम और सुग्रीव की मैत्री, बालि का वध, वानरों के द्वारा सीता कर्की खोज इत्यादि घटनाओं का वर्णन है। ‘सुन्दरकाण्ड’ में हनुमान का समुद्र लाँघना, विभीषण से मुलाकात, अशोक वाटिका में माता सीता से भेंट, रावण के पुत्रों का अशोक वाटिका में हनुमान से युद्ध, लंका दहन, हनुमान का लंका से वापस लौटना, हनुमान द्वारा राम को सीता का सन्देश सुनाना, लंका पर चढ़ाई की तैयारी, वानर सेना का समुद्र तक पहुँचना, विभीषण का राम की शरण में आना, राम का समुद्र से रास्ता माँगना इत्यादि घटनाओं का वर्णन हैं।

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‘लंकाकाण्ड’ में नल-नील द्वारा समुद्र पर सेतु बनाना, वानर सेना का समुद्र पार कर लंका पहुँचना, अंगद को शान्ति-दूत बनाकर रावण की सभा में भेजना, राम वं रावण की सेना में युद्ध, राम द्वारा रावण और कुम्भकरण का वध, राम का सीता से पुनर्मिलन इत्यादि घटनाओं का वर्णन है। ‘उत्तरकाण्ड’ में राम का सीता व लक्ष्मण सहित अयोध्या लौटना, अयोध्या में राम का राजतिलक, अयोध्या में रामराज्य का वर्णन, राम का अपने भाइयों को ज्ञान देना इत्यादि घटनाओं का वर्णन है।

‘रामचरितमानस’ में सामाजिक आदर्शों को बड़े ही अनूठे ढंग से व्यक्त किया गया है। इसमें गुरु-शिष्य, माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन इत्यादि के आदर्शों को इस तरह से प्रस्तुत किया गया है कि ये आज भी भारतीय समाज के प्रेरणा-स्रोत बने हुए हैं। वैसे तो इस ग्रन्थ को ईश्वर (भगवान राम) की भक्ति प्रदर्शित करने के लिए लिखा गया काव्य माना जाता है, किन्तु इसमें तत्कालीन समाज की विभिन्न बुराइयों से मुक्त करने एवं उसमें श्रेष्ठ गुण विकसित करने की पुकार सुनाई देती है। यह धर्म-ग्रन्थ उस समय लिखा गया था, जब भारत में मुगलों का शासन था और मुगलों के दबाव में हिन्दुओं को इस्लाम धर्म स्वीकार करना पड़ रहा था।

समाज में अनेक प्रकार की बुराइयाँ अपनी जड़ें जमा चुकी थीं। समाज ही नहीं परिवार के आदर्श भी एक-एक कर खत्म होते जा रहे थे।ऐसे समय में इस ग्रन्थ ने जनमानस को जीवन के सभी आदर्शों की शिक्षा देकर समाज सुधार एवं अपने धर्म के प्रति आस्था बनाए रखने के लिए प्रेरित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन पंक्तियों को देखिए-

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी ॥ काव्य-शिल्प एवं भाषा के दृष्टिकोण से भी ‘रामचरितमानस’ अति समृद्ध है। यह आज

तक हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य बना हुआ है। इसके छन्द और चौपाइयाँ आज भी जन-जन में लोकप्रिय हैं। अधिकतर हिन्दू घरों में इसका पाठ किया जाता है। रामचरितमानस की तरह अब तक कोई दूसरा काव्य नहीं रचा जा सका है, जिसका भारतीय जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा हो। आधुनिक कवियों ने अच्छी कविताओं की रचना की है, किन्तु आम आदमी तक उनके काव्यों की उतनी पहुँच नहीं है, जितनी तुलसीदास के काव्यों की है।

चाहे ‘हनुमान चालिसा’ हो या ‘रामचरितमानस’ तुलसीदास जी के काव्य भारतीय जनमानस में रच-बस चुके हैं। इन ग्रन्थों की सबसे बड़ी विशेषता इनकी सरलता एवं गेयता है, इसलिए इन्हें पढ़ने में आनन्द आता है। तुलसीदास की इन्हीं अमूल्य देनों के कारण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- “यह (तुलसीदास) एक कवि ही हिन्दी को एक प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।”

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जीवन के सभी सम्बन्धों पर आधारित ‘रामचरितमानस’ के दोहे एवं चौपाइयाँ आम जन में अभी भी कहावतों की तरह लोकप्रिय है। लोग किसी भी विशेष घटना के संदर्भ में इन्हें उद्धृत करते हैं। लोगों द्वारा प्रायः रामचरितमानस से उद्धृत की जाने वाली इन पंक्तियों को देखिए-

सकल पदारथ ऐहि जग माहिं, करमहीन नर पावत नाहिं।

‘रामचरितमानस’ को भारत में सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला ग्रन्थ माना जाता है। विदेशी विद्वानों ने भी इसकी खूब प्रशंसा की है। इसका अनुवाद विश्व की कई भाषाओं में किया गया है, किन्तु अन्य भाषा में अनुदित ‘रामचरितमानस’ में वह काव्य सौन्दर्य एवं लालित्य नहीं मिलता, जो मूल ‘रामचरितमानस’ में है। इसको पढ़ने का अपना एक अलग आनन्द है। इसे पढ़ते समय व्यक्ति को संगीत एवं भजन से प्राप्त होने वाली शान्ति का आभास होता है, इसलिए भारत के कई मन्दिरों में इसका नित्य पाठ किया जाता है।

हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में ‘रामचरितमानस’ की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही है। इस कालजयी रचना के साथ-साथ इसके रचनाकार तुलसीदास की प्रासंगिकता भी सर्वदा बनी रहेगी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में- ‘लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके। गीता में समन्वय की चेष्टा है। बुद्धदेव समन्वयवादी थे और तुलसीदास समन्वयकारी थे। लोकशासकों के नाम तो भुला दिये जाते हैं, परन्तु लोकनायकों के नाम युग-युगान्तर तक स्मरण किए जाते हैं।”

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उचित ही लिखा है कि-

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रामचरितमानस|

“यह पापपूर्ण परावलम्बन चूर्ण होकर दूर हो,फिर स्वावलम्बन का हमें प्रिय पुण्य पाठ पढ़ाइए।”

स्वावलम्बन वह गुण है, जो जीवन की कठिन राह को आसान बना देता है। दुनिया का सबसे बड़ा खजाना भी इसके सामने तुच्छ है। खजाना खाली हो सकता है, लेकिन स्वावलम्बी व्यक्ति तो कई खजानों का निर्माण कर सकता है। वास्तव में, स्वावलम्बी व्यक्ति कर्मठ एवं दृढ़ निश्चयी होता है। कर्मठता एवं दृढ़ संकल्प के मौजूद रहने पर पूरी दुनिया की सम्पत्ति व्यक्ति की राह में बिछी रहती है। उसके लिए कुबेर के खजाने का भी अधिक महत्त्व नहीं है। वह यदि हृदय से कोई भी खजाना निर्मित करना चाहे, तो अपने पौरुष के दम पर ऐसा कर सकता है, क्योंकि स्वावलम्बी व्यक्ति में पुरुषार्थ भी छिपा होता है।

जो लोग बिना अपनी योग्यता एवं सामर्थ्य के किसी दूसरे की सहायता से ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं, वे एक हल्के से आंघात से ही नीचे आ जाते हैं। दूसरों का अधिक सहयोग हमारी स्वाभाविक क्षमता के विकास में बाधक बनता है। जब हम दूसरों का सहारा लेते हैं, तो अपने पैरों को मजबूत बनाने का प्रयास ढीला पड़ जाता है। इसके अतिरिक्त, दूसरों के सहारे में एक अलग ढंग की अनिश्चितता होती है। जिस देश के नागरिक स्वावलम्बी होते हैं, उस देश में भुखमरी, बेरोज़गारी, निर्धनता जैसी सामाजिक समस्याएँ नहीं के बराबर होती हैं, वह उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है। जापान का उदाहरण दुनिया के सामने हैं, चाहे वह परमाणु बम का ध्वंस हो या सुनामी का कहर। जापान की स्वावलम्बी जनता ने यह सिद्ध कर दिया कि सफलता एवं समृद्धि वस्तुतः परिश्रमी एवं स्वावलम्बी व्यक्तियों के ही चरण चूमा करती है।

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