मनोवैज्ञानिक आधार का योगदान और पाठ्यक्रम में भूमिका|Contribution of psychological basis and role in curriculum
मनोवैज्ञानिक आधार का वर्णन कीजिए। पाठ्यक्रम के निर्धारण में इसका क्या योगदान है?
मनोवैज्ञानिक आधार (Psychological Basis)- शैक्षिक अवधारणा का प्रमुख उद्देश्य बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाना है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए शिक्षा को एवं पाठ्यक्रम निर्माताओं को बालक का स्वरूप उसके विकास, विकास के विभिन्न स्तरों पर उसकी आवश्यकताओं, क्षमताओं, अभियोग्यताओं, अभिरुचियों, आकांक्षाओं अनुभवों एवं मनोवैज्ञानिक क्षेत्र की अन्य प्रवृत्तियों को ध्यान में रखना तथा तद्नुसार पाठ्यचर्या को निर्मित एवं संगठित करना अति आवश्यक होता है। इसके साथ ही पाठ्यचर्या निर्माताओं के निए अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी रूप से गतिमान करने तथा उपयुक्त अधिगम परिस्थितयों को उत्पन्न कर सकने का ज्ञान भी आवश्यक होता है। सामान्य रूप से इन्हीं को पाठ्यचर्या के मनोवैज्ञानिक आधार की संज्ञा दी जाती है। हेराल्ड टी० जॉनसन के अनुसार, “पाठ्यचर्या के मनोवैज्ञानिक आधार मनोविज्ञान के वे पक्ष हैं जो अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं तथा पाठ्यचर्या निर्माता को विद्यार्थी के व्यवहार के सम्बन्ध में बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लेने में सहायता करते हैं।”
शिक्षा में इसी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति ने शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण पद्वति, पाठ्यचर्या, शिक्षा के संगठन, अनुशासन की अवधारणा, शिक्षक की भूमिका आदि सभी पक्षों को नया आयाम प्रदान किया है। मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति के अनुसार शिक्षा बाल-केन्द्रित होनी चाहिए तथा शिक्षा के द्वारा बालक के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन आना चाहिए। इन सबका पाठ्यचर्या पर भी प्रभाव पड़ रहा है क्योंकि मनोविज्ञान के अध्ययन से यह ज्ञात करने का भी प्रयास किया जाता रहा है कि शिक्षक छात्रों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं तथा उनकी अधिगम तत्परता को ध्यान में रखते हुए अन्तर्वस्तु को किस रूप में व्यवस्थित करते हैं। अतः मनोवैज्ञानिक आधार को ध्यान में रखते हुए पाठ्यचर्या का निर्धारण बालक की रुचियों, स्वाभाविक प्रवृत्तियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं, योग्यताओं आदि के अनुसार होता है अर्थात बालक को केन्द्र बिन्दु मानकर पाठ्यचर्या का निर्धारण होता है। इसी सन्दर्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका में ‘विकास आवश्यकता पाठ्यचर्यां’ के रूप में एक नई संकल्पना विकसित हुई है। इसके अन्तर्गत शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण बालकों के सामान्य विकास और उसे बल प्रदान करने वाली स्थितियों के लिए आवश्यक जैविक एवं मनोवैज्ञानिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। इसी प्रकार अनुभव आधारित पाठ्यचर्या भी मनोविज्ञान की ही देन है।
पाठ्यक्रम-विकास में मनोविज्ञान का योगदान (Contribution of Psychology in Curriculum Development) मनोविज्ञान के विकास के कारण विगत दशकों में शैक्षिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी बहुत कार्य हुआ है। बुद्धि के क्षेत्र में स्मीयरमैन से लेकर हैब तक ने अनेक प्रयोग किये हैं जिनके निष्कर्ष ने पाठ्यक्रम को केवल अन्तर्वस्तु के चयन की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि उसके अन्य पक्षों को भी प्रभावित किया है। इसी प्रकार अभियोग्यता, अभिरुचि, अभिवृत्ति, निष्पत्ति, कौशल, क्षमता, समाजमिति आदि के क्षेत्र में हुए अध्ययनों का भी पाठ्यक्रम पर प्रभाव पड़ा है।
फ्रायड, कैटेल, लेवित, आलपोर्ट, आईजैक आदि मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व के क्षेत्र में अध्ययन करके बालकों में व्यवहारगत परिवर्तनों का मापन करने तथा उसे कार्यात्मक रूप में परिभाषित करने में शिक्षाविदों को सहायता प्रदान की है। एक तरह से योग्यता-मनोविज्ञान तथा व्यक्तित्व-मनोविज्ञान इन दोनों ने मिलकर उस विधि को जन्म दिया है जिसे पाठ्यक्रम-लेखा (Curriculum Accountancy) कहा जाता है। इसमें यह जानने का प्रयास किया जाता है कि पाठ्यक्रम से व्यक्ति तथा समाज को क्या लाभ या हानि हुई है।
लिथित एवं व्हाइट ने नेतृत्व और सामाजिक वातावरण के क्षेत्र का अध्ययन किया है। इसी प्रकार लेविन और उसके सह-अध्ययनकर्ताओं ने समाज-मनोविज्ञान के क्षेत्र में यह निष्कर्ष निकाला है कि विभिन्न प्रकार के नेतृत्व प्रजातान्त्रिक, अधिनायकवादी तथा व्यक्तिवादी, विद्यार्थियों में विभिन्न प्रकार के व्यवहार विकसित करते हैं।
कक्षा-शिक्षकों के व्यवहार तथा अधिगम के क्षेत्र में भी अनेक अध्ययन हुए हैं तथा शिक्षक-प्रशिक्षण पर काफी साहित्य का निर्माण भी हुआ है।
इन उपर्युक्त उपलब्धियों के होते हुए भी मनोविज्ञान तथा अधिगम मनोविज्ञान का व्यावहारिक दृष्टि से पाठ्यक्रम पर समुचित प्रभाव नहीं पड़ गया है। जहाँ तक शिक्षण विधियों का सम्बन्ध है तो इसके विकास में भी अभी तक मनोविज्ञान ने कुछ सतही योगदान ही दिया है। इसका कारण यह है कि अधिकांश अध्ययन ऐसी परिस्थितियों में किये जाते हैं जो कक्षा की वास्तविक परिस्थितियों से भिन्न होती हैं। साथ ही प्रयोगों के निष्कर्ष बहुत जल्दी (Short Cut) में निकालने की भी प्रवृत्ति रही है। अतः अध्ययन विषय-वस्तु के बहुत थोड़े क्षेत्र तक ही सीमित रहे हैं।
इस प्रकार जब पाठ्यक्रम से सम्बन्धित व्यक्ति शिक्षण विधियों के बारे में मनोविज्ञान से निश्चित मार्गदर्शन नहीं पाते हैं तो वे स्वयं अपनी शिक्षण विधियाँ निर्मित कर लेते हैं जिनकी उपयुक्तता एवं प्रभावोत्पादकता के बारे वैज्ञानिक प्रमाण का अभाव होता है।
बाल-मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी अभी बहुत कम प्रयोगात्मक कार्य हुए हैं तथा उनके निष्कर्षों में विरोधाभास भी दिखता है। इसके कारण बहुत-से शिक्षाविदों ने बाल-मनोविज्ञान को अधिक महत्व नहीं दिया है। अतः पाठ्यक्रम के क्षेत्र में बाल-मनोविज्ञान ने योगदान तो किया है किन्तु साथ ही अनेक बाधाएँ भी उपस्थित की हैं।
अधिगम के बारे में भी लगभग यही स्थिति है। अब यह तो माना जाने लगा है कि अधिगम का अर्थ व्यवहार परिर्वतन है तथा पाठ्यक्रम का उद्देश्य अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाना है। इस मान्यता के कारण शिक्षकों का ध्यान विषय-वस्तु से हटकर बालक और अधिगम- स्थितियों पर केन्द्रित होने लगा है, किन्तु अभी तब अधिगम सिद्धान्तों का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में बहुत कम हो पाया है।
अतः उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि पाठ्यक्रम-निर्माण में मनोविज्ञान के उपयोग की प्रामाणिक विधि इसकी प्रकृति को सही ढंग से समझने और यह जानने में है कि कहीं अभी इसके सिद्धान्तों की पुष्टि की आवश्यकता तो नहीं है? इसके साथ ही पाठ्यक्रम में इन सिद्धान्तों का उपयोग तभी वैध सिद्ध हो सकेगा जब पाक्रम-निर्माणकर्ता इस बात का स्मरण रखें कि सम्बन्धित विचार एवं संकल्पनाएँ शिक्षा के अंग नहीं हैं बल्कि वे मनोविज्ञान से ली गई हैं। अतः पाठ्यक्रम-निर्माताओं को यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि उनके लक्ष्य मनोवैज्ञानिक लक्ष्यों के अनुरूप नहीं हैं बल्कि भिन्न हैं।
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