भारत में शिक्षा का निजीकरण(Education line in India)

भारत में शिक्षा का निजीकरण(Education line in India)

शिक्षा का निजीकरण- व्यक्ति के विकास में शिक्षा की महत्त्वपर्ण भूमिका है, अतः शिक्षा कल्याण कर्तव्य है। कोई भी राष्ट्र यदि अपने नागरिकों को शिक्षित करने का प्रयास नहीं करता, तो वह कल्याणकारी राज्य की परिभाषा में नहीं आ सकता।

शिक्षा, स्वास्था रोजगार, आवास, वस्त्र, भोजन की व्यवस्था करने में जो राष्ट्र जितने अधिक सफल हैं, वे उतने ही विकसित एवं उन्नत राष्ट्र माने जाते है। शिक्षा राष्ट्र की प्रगति का मापदण्ड है, अतः प्रत्येक राष्ट्र को शिक्षा का प्रबन्ध सरकारी स्तर पर करना चाहिए।

शिक्षा के निजीकरण के कारण- भारत जैसे विशाल देश में शिक्षा की समुचित व्यवस्था कर पाना सरकार के लिए एक नितान्त कठिन कार्य रहा है। देश की एक अरब जनसंख्या को पूर्णतः शिक्षित कर पाने के लिए न तो सरकार के पास पर्याप्त आर्थिक साधन है और न ही उसके लिए पर्याप्त प्रबन्धकीय सुविधाए उपलब्ध हैं।

हमारे देश में शिक्षा केन्द्रीय समवर्ती सूची में न होकर राज्यों का विषय है अर्थात् शिक्षा उपलब्ध का उत्तरदायित्व केंद्र सरकार का न होकर राज्य सरकारों का है। राज्य सरकारों की आर्थिक स्थिति पहले से ही डांवाडोल है, अतः जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में वे नए स्कूल/कॉलेज खोलने की स्थिति में नहीं हैं।

यही कारण की शिक्षा क्षेत्र में नए विद्यालय दिनों-दिन खुल रहे हैं। सरकार को भी इसमें कोई आपत्ति नहा है, प्रकारांतर से ये प्राइवेट स्कूल/कालेज देश के भावी नागरिकों को शिक्षित करने का कार्य तो कर ही रहे है, भले ही इसके बदले में अभिभावकों से फीस के रूप में मोटी रकम वसूल कर रह हों।

सरकारी विद्यालयों की गिरती दशा- शिक्षा के तीन स्तर हैं- 1. प्राथमिक शिक्षा, 2. माध्यमिक शिक्षा, 3. उच्च शिक्षा। आज तीनों ही स्तरों पर शिक्षा का निजीकरण हो रहा है। प्राइमरी स्तर पर जो भी नए विद्यालय खोले जा रहे हैं, उनमें से 90 प्रतिशत निजी संस्थानों द्वारा खोले जा रहे हैं।

सच तो यह है कि नगरों में अब सरकारी प्राइमरी स्कूलों में छात्र संख्या दिनोंदिन घट रही है और कहीं-कहीं तो एक भी छात्र न होने से स्कूल बन्द पड़े है। अभिभावक भी अब प्राइमरी स्तर पर अपने बच्चों को सरकारी पाठशालाओं में भेजना पसन्द नहीं करते, क्योंकि वहाँ पढ़ाई का स्तर इतना खराब है कि बच्चे कुछ भी नहीं सीख पाते।

इन सरकारी प्राइमरी पाठशालाओं में न तो ढांचागत सुविधाएं हैं और न पढ़ाने के लिए पर्याप्त अध्यापक ही हैं। जो अध्यापक इन विद्यालयों में नियुक्त हैं वे भी अपने कर्तव्य पालन में शिथिल हैं।

निजी क्षेत्र की शिक्षा संस्थाएं- दूसरी ओर निजी क्षेत्र की शिक्षा संस्थाएं यथा सरस्वती शिशु मन्दिरों एवं ईसाई चचर्चों द्वारा संचालित कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ाई, खेल-कूद एवं पाठ्येतर गतिविधियों की समुचित व्यवस्था है। बच्चों को स्कूल तक लाने ले जाने हेतु वाहन व्यवस्था है, स्कूल की अपनी ड्रेस है, भारी भरकम पाठ्यक्रम है, अंग्रेजी का बोलबाला हैं, परिणामतः अभिभावक सन्तुष्ट है कि उनके पाल्य को उच्च स्तर की शिक्षा मिल रही है।

पब्लिक स्कलों का धन्धा बड़े जोर-शोर से चल रहा है। दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों में तो इन ख्याति प्राप्त पब्लिक स्कलों में अपने बच्चे को प्रवेश दिला पाना टेढ़ी खीर बन गया है। मन्तियों तक की सिफारिश अमान्य कर दी जाती है।

माता-पिता का आर्थिक स्तर, शैक्षिक स्तर एवं सामाजिक स्तर तो उच्च वर्ग का होना ही चाहिए साथ ही ‘डोनेशन के रूप में भारी राशि चुकाने की क्षमता भी होनी चाहिए, तभी इन तथाकथित पब्लिक स्कलों में प्रवेश मिल सकता है। सच तो यह है कि इन स्कूला में प्रवेश दिलाना अब ‘स्टेटस सिम्बल’ बन गया है।

निजी क्षेत्र की शिक्षा संस्थाओं– में शोषण छोटे नगरा में ही नहीं, कस्बों में भी इस प्रकार के तमाम स्कूल खुल गए हैं।

इनसे पढे लिखे बेरोजगारों को रोजगार तो मिल रहा है, किन्तु उनका आर्थिक शोषण निजी क्षेत्र में खुले स्कलों के प्रबन्धतन्त्र द्वारा किया जा रहा है। एम. ए. उपाधि प्राप्त तथा बी. एड. डिग्री धारक अध्यापक-अध्यापिकाए दो-तीन हजार रुपए प्रतिमाह पर उपलब्ध हो जाते हैं।

इन स्कूलों में सरकार द्वारा निर्धारित वेतन नहीं दिया जाता साथ ही जब सीक्योरिटी न होने के कारण अध्यापक सभी शततर्तों पर काम करने को तत्पर रहते हैं उनसे मानक से अधिक कार्य लिया जाता है तथा हर स्तर पर उनका शोषण किया जाता है। दूसरी ओर शिक्षा को व्यवसाय बना देने वाले निजी शिक्षण संस्थानों के प्रबन्धक प्रति वर्ष मोटी कमाई करते हैं।

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण- उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी शिक्षा संस्थानों का बोलबाला दिनों-दिन बढ़ रहा है। विशेष रूप से व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में तो पिछले कुछ वर्षों से इन संस्थानों की बाढ़ सी आ गई है। चिकित्सा, इन्जीनियरिंग, व्यवसाय प्रबन्धन, होटल प्रबन्धन, टूरिज्म, माइको बायलोजी आदि अनेक क्षेत्रों में स्कूल खोले जा रहे हैं। इन संस्थानों में फीस के रूप में हजारों-लाखों रुपए छात्रों से वसूले जा रहे हैं। परंतु न तो उच्च प्रतिष्ठ प्राध्यापकों की सेवाएं इन्हें उपलब्ध हैं और न ही सरकार द्वारा निर्धारित मानदण्डौं को ये संस्थान पूरा कर पाते हैं।

भले ही ऐसे संस्थानों को AICTE (All India Council for Technical Education) से मान्यता लेनी पड़ती हो और डिग्री के लिए किसी विश्वविद्यालय से सम्बद्धता होनी आवश्यक हो, किन्तु इन संस्थानों के प्रबन्धक अपनी ऊंची पहुँच तथा धनबल के द्वारा व्यवस्था कर लेते हैं।

शिक्षा का व्यवसाय-सच तो यह है कि शिक्षा के निजीकरण से भारत में एक नया व्यवसाय फल-फूल रहा है और यह है शिक्षा का व्यवसाय। अब हम शिक्षा को बेच रहे हैं तथा इस उपभोक्तावादी युग में शिक्षा बेचकर कुछ लोग मोटी रकम कमा रहे हैं। ये शिक्षण संस्थान एक ऐसा उद्योग बन गए हैं जहां बिना आयकर चुकाए मोटी कमाई की जा सकती है।

सुविधाओं का अभाव – शिक्षा के निजीकरण से भले ही कुछ क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता सुधरी हो, किन्तु उच्च स्तर पर शिक्षा के निजीकरण ने ऐसे संस्थानों को जगह-जगह पनपा दिया है जहां पढ़ाई के लिए आधारभूत ढांचा एवं मूल सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।

चिकित्सा शिक्षा में किसी सरकारी अस्पताल से सम्बद्ध कॉलेज में विशेषज्ञ चिकित्सकों की देखरेख में जो भावी चिकित्सक तैयार होते हैं, उसका अवसर निजी क्षेत्र में खोले गए चिंकित्सा संस्थानों में भला कहां मिल सकता है।

सरकारी अंकुश की आवश्यकता- यह ठीक है कि सरकारी स्कूल कॉलेजों में सेवा सुरक्षा उपलब्ध होने से अध्यापक पढ़ाने में उतनी रुचि नहीं लेते, किन्तु निजी संस्थानों में न तो निर्धारित योग्यता वाले अध्यापक है। और न ही वहाँ शिक्षा के लक्ष्य पर बल दिया जाता है। अभिभावकों का आर्थिक शोषण, अध्यापकों का शारीरिक एवं मानसिक शोषण ही इन निजी शिक्षण संस्थानों का एकमात्र लक्ष्य बन गया है।

आवश्यकता इस बात की है कि सरकार नियम एवं कानून बनाकर ऐसे शिक्षण संस्थानों पर प्रभावी नियन्त्रण करे और उन्हें नियमों का पालन करने के लिए बाध्य करे। सरकार को चाहिए कि ऐसे स्कूल कॉलेजों की मान्यता रद्द कर दे जो इन नियमों का पालन नहीं करते।

यही नहीं अपितु अभिभावकों का शोषण रोकने के लिए भी फीस के सम्बन्ध में नियमावली बनानी होगी। फीस की मात्रा इतनी ही होनी चाहिए कि उससे इस संस्थानों का रख रखाव किया जा सके तथा उन्हें मोटी कमाई का अवसर न मिले।

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