भारत की सांस्कृतिक विरासत एवं विशिष्टताएँ| Cultural heritage and specialties of India
बहुसांस्कृतिक तत्वों से समन्वित भारत की सांस्कृतिक विरासत बाह्य आक्रमणों, सांस्कृतिक संपर्क और सामाजिक उद्वेलनों के कारण नए-नए प्रयोगों का अद्भुत परिणाम है।
संस्कृति ऐसी अवधारणा है, जिसे लक्षणों के आधार पर ही निर्धारित किया जा सकता है; क्योंकि इसकी कोई एक स्पष्ट परिभाषा संभव नहीं है। वस्तुतः संस्कृति का निर्माण संस्कारों से होता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ‘संस्कारों का विकसित या घनीभूत रूप ही संस्कृति है।
संचार और यांत्रिकीकरण की तकनीकों के चलते आज समूचा विश्व ग्लोबलाइजेशन (भूमंडलीकरण) और एकीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहा है। इन अभिवृत्तियों के पर्यवेक्षण के आधार पर हम समझ सकते हैं कि हमारी संस्कृति के संचालक कितने अग्रगामी, प्रबुद्ध और उच्चतम विश्लेषण क्षमता से युक्त थे, जिन्होंने हजारों वर्ष पूर्व ही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा प्रस्तुत की थी।
भारतीय संस्कृति की विशिष्टताओं में प्रधान हैं – सामूहिक कुटुम्ब प्रणाली, उदात्तता, चिन्तन की स्वतंत्रता, ग्रहणशीलता, प्राचीनता, वैश्विक कल्याण की भावना, सहिष्णुता और जो सर्वाधिक उल्लेखनीय है, वह है- अनेकता में एकता। महान विद्वान रिजले इस संदर्भ में लिखते हैं-” भौतिक, सामाजिक, भाषायी वैविध्य के अंतर में समूची भारतीय शैली में हिमालय से लेकर कैमोरिन तक एक एकता देखने को मिलती है।” यह विशिष्ट सांस्कृतिक एकता हजारों वर्षों के समन्वयन और सहिष्णुता का परिणाम है। रूप, रंग, क्षेत्र, भाषा तथा धर्म की तमाम विविधताओं के बावजूद इसमें सामूहिक एकता के प्रबल तत्त्व विद्यमान हैं।
भारत में भौगोलिक विभिन्नताएँ प्रत्येक स्तर पर विद्यमान है। यहाँ हिमालय की बर्फीली पहाड़ियाँ हैं, तो राजस्थान की मरुभूमि भी। इसके अलावा पठार, दोआब, तटीय क्षेत्र, घने जंगल, बीहड़, पूर्वोत्तर का आदिवासी बहुल इलाका, अंडमान और निकोबार का द्वीपीय परितंत्र यहाँ के भौगोलिक वैविध्य को निर्दिष्ट करता है। जाहिर है कि भौगोलिक विभिन्नता सामाजिक विविधता को भी जन्म देती है। वेश-भूषा, भाषा, खान-पान, मनोरंजन, रीति-रिवाज परिस्थितिकीय स्वरूपों के अनुसार विकसित होते हैं। भौगोलिक विशिष्टताओं के चलते शारीरिक संरचना में भी परिवर्तन आ जाता है। पंजाब के लोग दक्षिणी राज्यों के लोगों या बंगालियों से बिल्कुल अलग नजर आते हैं। समूचे भारत में हजारों स्थानीय संस्कृतियाँ विकसित हैं। बांग्ला, तमिल, पंजाबी, बिहारी, राजस्थानी, मणिपुरी, असमी, ओडिया, कश्मीरी, बुंदेलखंडी, गढ़वाली के अलावा न जाने कितनी छोटी- बड़ी स्थानीय सामाजिक समष्टियाँ अपनी सामूहिकता से अस्तित्व में हैं।
भारत की संस्कृति आत्मज्ञान पर केंद्रित है। यहाँ पर संकीर्ण आचरण की परंपरा कभी भी विद्यमान नहीं रही है। ‘जियो और जीने दो‘ की संस्कृति वाले भारत में सहिष्णुता की जड़ें बहुत गहरी हैं। ऐसा नहीं है कि इस पर प्रहार न हुए हों। कभी विदेशी तो कभी हमारे बीच के ही लोगों ने धर्मान्धता, संकीर्णता, क्षेत्रीयता के आधार पर संस्कृति की जड़ पर कुठाराघात किया लेकिन वे सदैव पराजित हुए।
भारतीय भाषाओं की विविधता तो अद्भुत है। क्षेत्र-विशेष का प्रभाव भाषा पर साफ झलकता है। अनेक भाषाओं में बोलियों के विविध स्तर प्राप्त होते हैं। हर भाषा का अलग संसार है, अलग- अलंग साहित्य हैं, जिसकी श्रीवृद्धि उस भाषा के विशेष सृजनकर्त्ता करते हैं। थोड़ा-सा गहराई से विश्लेषण करने पर स्वतः सिद्ध हो जाता है कि इन भाषाओं में एक प्रकार की निकटता है। समूचे दक्षिण-भारतीय वांङ्गमय पर संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। लगभग सभी भारतीय भाषाओं की लिपियों की जननी ब्राह्मी ही है। ब्राह्मी से ही बांग्ला, कैथी, मराठी, गुजराती, देवनागरी, महाजनी आदि लिपियों का जन्म हुआ। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भारतीय भाषा सर्जकों का अभूतपूर्व समायोजन और सहयोग देखने को मिला। यद्यपि कालान्तर में क्षुद्र क्षेत्रीय राजनैतिक लिप्साओं के चलते भाषा-विवाद उत्पन्न किए गए। अतः हम गर्व से कह सकते हैं कि विविधताओं के बावजूद भारतीय भाषाओं में, सामूहिकता के तत्व अधिक प्रबल हैं।
अब धार्मिक पहलू पर बात करते हैं। भारतवर्ष आस्थाओं और विश्वास की संगम स्थली है। हिन्दुओं में अनेक वर्ग-उपवर्ग नियोजित हैं। वैष्णव, शास्तथा अव अपिचिरात्रिक आदि में अनेक वर्गीकरण हैं। मुसलमानों में शिया तथा सुन्नी के अलावा अनेक वर्ग और समीकरण है। जैन, बौद्ध ईसाई सभी धर्मावलंबियों ने यहाँ आत्मिक संबंध स्थापित किए हैं।
धर्मनिरपेक्षता की जो अवधारणा आधुनिक युग में निर्धारित की गयी है, उस पर सही ढंग से आज किसी भी देश में अमल नहीं हो रहा है। परिवर्तन और सामाजिक मूल्यों के सबसे बड़े पैरोकार अमेरिका में यदि अक्सर नस्लीय दुर्व्यवहार की घटनाएँ सुनी जा सकती हैं, तो अन्य देशों की बात ही क्या। इसी धर्मनिरपेक्षता को सम्राट अशोक ने सही अर्थों में क्रियान्वित किया था। मिनांडर, हर्षवर्धन, अकबर जैनुल आबिदीन की शासक श्रृंखला ने धार्मिक समरसता की नींव बड़े कारगर तरीके से रखी। भारत की संस्कृति आत्मज्ञान पर आधारित है। जब इससे प्रकाश निकलता है, तो संकीर्ण और पृथकतावादी सांप्रदायिकता की धुंध अपने आप छंटने लगती है।
लोकतांत्रिक मूल्यों में धर्मनिरपेक्षता सर्वोपरि है क्योंकि बिना धर्मनिरपेक्षता के लोकतंत्र की संपूर्णता संभव ही नहीं है। वस्तुतः धर्मनिरपेक्षता में ‘सर्व धर्म समभाव’ रखने का विचार अनेक धर्म मानने वाली जनता की राजनीतिक और धार्मिक दोनों भावनाओं का समान है। इसमें धर्म को राज्य के सामूहिक कार्यों से अलग कर व्यक्तिगत महत्त्व का प्रश्न माना जाता है।
भारतीय संस्कृति का एक बड़ा क्रान्तिकारी पहलू यह है कि इसमें परिवर्तनशीलता धारण करने की क्षमता है। भारतीय संस्कृति ने सदैव विश्व की अन्य समृद्ध संस्कृतियों के प्रगतिवादी तत्वों को अंगीकृत किया रोमन, यूरोपीय, यूनानी, अरबी, मंडारिन सभी के कुछ न कुछ तत्व भारतीय संस्कृति में खोजे जा सकते हैं। भारत की सांस्कृतिक एकता प्राचीन है तथा हमारे पूर्वजों ने इसे आदान-प्रदान द्वारा सदैव समंजित किया है। । ऐसा नहीं है कि इस पर हमले नहीं हुए। समय-समय पर विदेशियों द्वारा भारत पर राजनैतिक और सांस्कृतिक हमले किए गए। अपनी अकूत प्राकृतिक संपदा के चलते भारत सदैव राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार बना रहेगा। लेकिन हमारी संस्कृति की बुनियाद इतनी मजबूत है कि इसे डिगा पाना आसान नहीं है। गंगा में तो नाले भी मिलकर पवित्र हो जाते हैं। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति अपसंस्कृति के थपेड़ों को प्रभावहीन कर परिमार्जित होती रहेगी।
दर्शन, कला, शिल्प, स्थापत्य, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, साहित्य आदि सभी क्षेत्रों में वर्चस्व भारत की परंपरा रही है। दर्शन की जितनी विरोधाभासी धाराएँ भारत में विद्यमान रही हैं, उतनी अन्य किसी देश में नहीं। चार्वाक, अद्वैत, द्वैत, शुद्धादैत, द्वैताद्वैत, सांख्य, मीमांसा, तर्कशास्त्र, वैशेषिक, बौद्ध, आजीवक, जैन के साथ न जाने कितनी विचारधाराएँ यहीं सम्यक् आकार धारण करने में सफल रहीं।
कलात्मक विधाओं के तहत संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि सभी क्षेत्रों में भारतीय मनीषियों ने उच्चतम मानक स्थापित किए। अजंता, एलोरा की गुफाएँ स्थापत्य, चित्रकला और धार्मिक सहिष्णुता तीनों का निदर्शन प्रस्तुत करती हैं।
शास्त्रीय संगीत में दो प्रमुख विधियाँ प्रचलित रही हैं- हिन्दुस्तानी और कर्नाटक शैली। इनके अतिरिक्त अनेक शास्त्रीय नृत्य भी प्रचलित हैं, जिनमें कत्थक, भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी, मोहिनीअट्टम, ओडिसी, कथकली आदि सम्मिलित हैं। लगभग प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशिष्ट लोकनृत्य शैलियाँ हैं। लोकनृत्य तो वैसे पूरे भारत में प्रचलित हैं, लेकिन राजस्थान और पूर्वोत्तर के राज्य इस संदर्भ में थोड़ा ज्यादा समृद्ध हैं। राजस्थान के ‘कालबेलिया’ नृत्य को तो यूनेस्को की सूची में भी स्थान मिला है। लोकनृत्यों के अतिरिक्त अनेक क्षेत्रीय एवं जनजातीय नृत्य और लोकगीत की शैलियों से हमारी संस्कृति रंगीन हो गयी है। ये सभी संगीत एवं नृत्य हमारी मानवीय संवेदनाओं को ध्वनित करते हैं और हमारी सांस्कृतिक जीवंतता का अहसास कराते हैं।
भारत की साहित्यिक समृद्धि तो सदैव वैश्विक आकर्षण का केंद्र रही है। ऋग्वेद विश्व की प्राचीनतम रचना मानी जाती है। बौद्ध, जैन व वैदिक साहित्य की कृतियाँ दर्शन और इतिहास दोनों का आधार रही हैं। कालिदास, अश्वघोष, तुलसीदास, कबीर, सूरदास, भारवि, भरतमुनि, बिहारी की रचनाएँ साहित्य की अमूल्य विरासत हैं। समूचे भारत में भाषा और बोली दोनों में व्यापक
साहित्य सर्जना हुई है। लोकसाहित्य तो इतना विस्तृत और प्राचीन है कि उसके स्त्रोत और परिमाण का आकलन भी संभव नहीं।
भारतीयों ने गणित व खगोल विज्ञान पर प्रामणिक व आधारभूत खोजें कीं। शून्य का आविष्कार, पाई का शुद्धतम मान, सौरमंडल पर सटीक विवरण, त्रिभुज का क्षेत्रफल निकालने का सूत्र तथा त्रिकोणमिति की आधार भूमि तैयार करने का काम भारत में ही हुआ। अक्सर भारतीय संस्कृति की पुरातनपंथी व कर्मकांडीय माना जाता है, लेकिन यहाँ विज्ञान व प्रौद्योगिकी की उच्चता के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं। पृथ्वी के गोल होने से लेकर गुरुत्वाकर्षण तक का सिद्धांत यहाँ पूर्व- मध्यकाल में ही खोज लिया गया था।
भारतीय संस्कृति की उच्चतम विशिष्टता है, इसमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘ और सर्वकल्याण की भावना का व्याप्त होना।
सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया जैसी कल्याणकारी चेतना इतने उदात्त रूप में कहीं और मिलनी मुश्किल है। गीता, रामायण, महाभारत, रामचरितमानस से लेकर प्रगतिवादी रचनाओं में भी यही तथ्य ध्वनित होता है।
भारतीय संस्कृति के संबंध में पर्यावरणीय व जैव-विविधता के पहलुओं को देखे तो हमें अपने पूर्वजों की दूरदृष्टि पर नतमस्तक होना पड़ता है। वृक्षों व वनों के संरक्षण से लेकर पारिस्थितिकीय उन्नयन के संदर्भ में बड़े स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं। लगभग सभी जंतुओं व वृक्षों को दैवीय प्रतीकों से संबद्ध कर उन्हें संरक्षण प्रदान किया गया है। साथ ही आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा भौतिकवाद पर अंकुश आरोपित करने की चेष्टा की गयी है, जो आज आधुनिक समस्याओं का मूल स्रोत है। आज फिर हमारी संस्कृति के समक्ष कुछ चुनौतियाँ खड़ी हो गयी हैं। क्षेत्रीयता, अलगाववाद, आतंकवाद व सांप्रदायिकता के हमले बढ़ गए हैं।
क्षेत्रीयता, जातिवाद और सांप्रदायिक हमलों के संदर्भ में हमारे राजनीतिज्ञों की भूमिका निहायत ही खराब रही है।
तात्कालिक कुछ नकारात्मक घटनाओं व प्रभावों ने जो धुंध हमारी सांस्कृतिक जीवन- शैली पर आरोपित की है, उसे सावधानी से हटाना होगा।
सांप्रदायिकता, उन्माद और मूल्यविहीन राजनीति का संयोग होने पर जो अस्पष्ट और विचलनपूर्ण स्थिति उत्पन्न होती है, उससे हमारा देश अक्सर गुजरता रहता है।
वस्तुतः समय आ गया है कि हम सांप्रदायिक निरपेक्षता को समझें और उस पर उसमें निहित भावना को नए सिरे से विचार करें। कूटनीति और सांप्रदायिकता को राजनीति से अलग रखने का आत्मबल भी होना चाहिए।
असलियत तो यह है कि राष्ट्रीय संस्कृति का मूल उस प्रक्रिया में निहित है, जो त्याज्य. मूल्यों के विघटन और नए मूल्यों के निर्माण को उत्प्रेरित करे। अपने देश की संस्कृति पर सबको गर्व करना चाहिए, लेकिन हममें इतना आत्मबल भी होना चाहिए कि हम उन रूढ़ियों को निस्तारित कर सके, जो मानवीय गरिमा और राष्ट्रवादी परिकल्पना पर चोट करती हों।
अतः जरूरत इस बात की है कि अतीत की सांस्कृतिक धरोहर को हम सहेजे-सवारें और उसकी मजबूत आधारशिला पर खड़े होकर नए मूल्यों व नई संस्कृति को निर्मित-विकसित करें। साथ ही संस्कृति और ‘सांस्कृतिक अपशिष्ट’ के मध्य विभाजक रेखा खींचकर सांस्कृतिक शुचिता को भी बनाए रखने की आवश्यकता है।
वर्तमान भारत सरकार सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने के लिए अधिक तत्पर दिखती है, परन्तु यह तत्परता संस्कृति के तर्कयुक्त व वैज्ञानिक आधार पर आगे बढ़े तो वही श्रेयस्कर होगा। क्योंकि यदि वह पाखंड और आडम्बर के साथ आगे बढ़ेगा तो संस्कृति, मानवता सब एक स्वप्न हो जाएगा|
Important Link
- पाठ्यक्रम का सामाजिक आधार: Impact of Modern Societal Issues
- मनोवैज्ञानिक आधार का योगदान और पाठ्यक्रम में भूमिका|Contribution of psychological basis and role in curriculum
- पाठ्यचर्या नियोजन का आधार |basis of curriculum planning
राष्ट्रीय एकता में कौन सी बाधाएं है(What are the obstacles to national unity) - पाठ्यचर्या प्रारुप के प्रमुख घटकों या चरणों का उल्लेख कीजिए।|Mention the major components or stages of curriculum design.
- अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण किस प्रकार होता है? विवेचना कीजिए।How is a learner’s choice of experiences determined? To discuss.
- विकास की रणनीतियाँ, प्रक्रिया के चरण|Development strategies, stages of the process
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