प्रेमचंद की प्रासंगिकता|Relevance of Premchand.

प्रेमचंद की प्रासंगिकता|Relevance of Premchand.

अक्सर प्लेमचंद की लोकप्रियता और प्रासंगिकता को लेकर सवाल उठाये जाते रहे हैं, क्योंकि 1936 (प्रेमचंद का निधन) के बाद गंगा-यमुना में बहुत-सा पानी बह चुका है तब से न जाने कितने कथाकारों ने अनगिनत पृष्ठ स्याह-सफेद भी किये, लेकिन उन सभी के होते हुए बार-बार प्रेमचन्द पर घूम-फिर कर हमारी दृष्टि क्यों जाती है?

जनवरी-फरवरी 2000 में ‘वर्तमान साहित्य’ ने शताब्दी कथा विशेषांक नाम से एक मोटा अंक प्रकाशित किया। इसमें पिछली शताब्दी (1901-2000 तक) के श्रेष्ठ दस उपन्यासों का चयन लोकतांत्रिक ढंग से किया गया जिसमें देश के सभी विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों और पाठकों से राय माँगी गयी। इस सर्वेक्षण में हिन्दी विभागों ने तो अपनी प्रकृति के अनुसार ज्यादा रूचि नहीं दिखाई, लेकिन पाठकों ने बड़े उत्साह के साथ हिस्सा लिया और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि श्रेष्ठ दस उपन्यासों में प्रेमचन्द का ‘गोदान’ नंबर एक पर था। जाहिर है इस सर्वेक्षण के लिए पाठकों को न तो कोई प्रलोभन दिया गया होगा, न ही कोई लोभ-लालच लेकिन प्रेमचन्द में ऐसी कोई बात अवश्य होगी कि एक सदी के बाद भी वे उतने ही मजबूत हैं। ऐसा प्रेमचन्द में क्या है जिसके चलते वे अब भी वैसे ही पढ़े जा रहे हैं। इसका जवाब अमृत राय ने देते हुए लिखा है कि “जीवंत क्लासिक ही जनसाधारण के बीच लगातार पढ़े जाते हैं। प्रेमचन्द शायद उसी तरह का एक जीवंत क्लासिक है। प्रेमचन्द आज भी पढ़ा जाता है क्योंकि वह आज भी उतना ही जिंदा है जितना कभी था।”

जहाँ तक प्रासंगिकता का सवाल है तो मशहूर मार्क्सवादी लेखक शिवकुमार मिश्र मानते हैं कि प्रासंगिकता की तलाश यदि होनी ही है तो वह किसी ऐसी रचना या उसके महत्त्व की होनी चाहिए जिसके रचना-संदर्भ, उन रचना-संदर्भों को लाने वाली जिसकी सामाजिक वास्तविकता, उस सामाजिक वास्तविकता को सामने रखने वाली जिसकी प्रेरक विचारधारा तथा इन सबकी सम्मिलित तथा संश्लिष्ट उपज वह कृति हमारे समय से काफी पीछे छूट गयी हो, किंतु हमें अपने खुद के समय के प्रयोजनों के तहत ऐसा लगता हो कि जिसका कोई न कोई तार या जिसके बहुत से तार हमारे अपने समय से जुड़े हैं और उसे ऊर्जास्वित बनाये हुए हैं अर्थात् वह रचना अभी तक कालबद्ध नहीं हो पायी है। जाहिर है कि ये बातें मिश्र ने ‘गोदान’ के संबंध में कही हैं। लेकिन प्रेमचन्द की सभी कृतियों को सामने रखकर देखें और विचार करें कि उन्होंने अपनी कथा-कृतियों में जो समस्याएँ उठायी हैं, क्या वे समस्याएँ हल हो गयी हैं? आजादी के 65 साल बाद क्या सभी क्षेत्रों में खुशहाली आ गयी है जिसकी परिकल्पना आजादी के पहले के लेखकों ने अपने साहित्य में, भाषणों में, विचारों में व्यक्त की थी। तो इसका उत्तर हमें नकारात्मक ही मिलेगा और जब तक सकारात्मक उत्तर न मिले तब तक प्रेमचन्द के साहित्य को प्रासंगिक मानना पड़ेगा। यह बात और है कि कुछेक समस्याओं का रूप बदल गया था और भी जटिल हो गया है। प्रासंगिकता के संबंध में अमृत राय ने बड़ी सटीक टिप्पणी की है। वे कहते हैं कि प्रेमचन्द आज भी हमारे युग के लिए प्रासंगिक हैं। उनकी इस प्रासंगिकता का कारण भी बहुत सीधा-सा है: जिस हिन्दुस्तान की तस्वीर प्रेमचन्द ने खीची है वह, कुछ ऊपरी साज-सिंगार को छोड़कर बुनियादी तौर पर आज भी वहीं है। ‘कफन’ और ‘पूस की रात’ जैसी कहानियों में किसान की गरीबी और बदहाली की जैसी भयानक, हिला देने वाली तस्वीर मिलती है, वह अब भी वही है। गाँव में किसान के पैशाचिक शोषण का वह तंत्र, जिसमें जमींदार था, महाजन था, गाँव का पटवारी था, जमींदार का कारिन्दा था, ब्राह्मण देवता थे, कानूनगों और दूसरे छोटे-छोटे सरकारी अमले थे- जिसकी जीती जागती तस्वीर हमें दर्जनों कहानियों में मिलती है, ‘गोदान’ (1936) उपन्यास में मिलती है, उसके पहले ‘प्रेमाश्रम’ (1922) में मिलती है (जिसे प्रेमचंद ने गाँधीवादी हृदय-परिवर्तन की टोपी पहनाकर खराब कर दिया है)। वह सब आज भी तो बहुत कुछ वैसे का वैसा ही मिलता है, इसके सिवा कि जमींदार की जगह आधुनिक उपकरणों से खेती करने वाले नये बड़े किसान ने ले ली है। जिसके साथ ही जमीन के मालिक और खेतिहर मजदूर के बीच के संबंध का रहा-सहा निजीपन भी मिट गया है और सारे संबंध उन उपकरणों के समान यांत्रिक हो गये हैं। अमृत राय के आगे की स्थितियों का बड़ा बेबाक वर्णन शिवकुमार मिश्र ने भी किया है। जिसको पहले मैंने समस्याओं का रूप बदलना या जटिल होना कहा है, वे समस्याएँ प्रेमचन्द का समय बीत जाने के बाद और पेचीदगियों से भरी हुई हैं। क्योंकि आजादी के बाद गाँवों में अब एक नया धनाढ्य वर्ग पैदा हुआ है जो शहरों से जायज-नाजायज धन अर्जित कर वह और उसकी संततियाँ गाँवों में फिर से कहर ढा रही हैं। कहने को तो ग्राम पंचायतों के जरिए ग्रास रूट लेविल तक जनतांत्रिक व्यवस्था बहाल हो गयी हैं लेकिन पंचायतों के चुनावों से लगता है कि ऊपर से भले सब कुछ ठीक-ठाक लगता हो असल बात तो ढाई हजार करोड़ रुपये हैं जिसके लिए लोग अति उत्साह दिखा रहे होते हैं। एक बार ग्राम प्रधान का विकास अवश्य हो जाएगा। गाँव की सड़क, नाली पक्की भले न हो, ग्राम प्रधान की बहुमंजिली इमारत जरूर गाँव के बाहर दिखा करेगी। गाँवों में बिजली न पहुँचे, स्वच्छ पानी न मिले, लेकिन ग्राम प्रधान की पौ बारह होगी। ग्राम प्रधानों की तरह विधायकों और सांसदों का विकास दून दूना, रात-चौगुना होगा, देश-विदेश में बैंकों में पैसा जमा होगा, विभिन्न नगरों में चल-अचल संपत्तियाँ होंगी लेकिन वे जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे होंगे, वे क्षेत्र बदहाल होंगे। पहले सूदखोर और महाजन गाँव- गाँव में दिखाई पड़ते थे, अब उनकी जगह कोआपरेटिव बैंकों से ऋण दिलाने वाले बिचौलिए तथा ऋण पास कराने वाले अफसरों और बाबुओं ने ले ली है। जो ऋण दिलाने में तो घूस लेते ही हैं, ऊँची ब्याज दरों के साथ मूलधन भी वसूलते हैं। हिन्दुस्तान के कई प्रांतों से ऐसे किसानों की आत्महत्याओं की खबरें प्रायः आती रही है। कहने को न्यूनतम मजदूरी तय हो गयी है, बेगारी और बंधुआगिरी खत्म हो गयी है लेकिन असलियत इसके उलट है। बकौल शिवकुमार मिश्र बँटाईदारी के रूप में अब शोषण का नया सिलसिला चल रहा है। बड़ी जोत वाले, हजारों एकड़ जमीन के पुराने मालिकों ने अपने लड़के-बच्चों, नाते-रिश्तेदारों, नौकरों-चाकरों के नाम तमाम बेनामी जमीन बाँटकर न केवल अपने अधिकार को बनाये रखा है बल्कि शोषण की प्रक्रिया को भी नये रूप में चलाना सीख लिया है। भय और हिंसा, दमन और अपराधों का एक नया रूप, आतंक का एक नया अध्याय, चुनावों और उसके साथ जुड़ी राजनीति के माध्यम से उभरा है। जाँत-पाँत खत्म करने के जितने ही दावे किये जा रहे है, वह उतना ही जड़ें जमाता जा रहा है। सरकारी अमले- पुलिस, कचहरी, हाकिमों और दरोगाओं का आतंक पहले से बढ़ा ही है। चारों तरफ भ्रष्टाचार की फसल लहलहा रही है। धर्म के नाम पर स्टेट स्पांसर्ड हिंसा को छूट मिल गयी है, लेकिन ढेर सारी आशंकाओं और संदेहों के बीच। महिला आरक्षण विधेयक कई सालों से लटकता जा रहा है। 4-5 बीघे वाले होरी जैसे किसान तब भी परेशान थे और आज भी। पहले इक्के-दुक्के गोबर गाँव छोड़कर नगरों में जाते थे, आज गोबर की संतानें काफी संख्या में नगरों की ओर भाग रही हैं- पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मुहैया किये गये कल-कारखानों के जबड़ों में समाने के लिए या रिक्शा खींचने, बोझा ढोने या फिर नगर के फुटपाथों पर नये-नये धंधे करने के लिए। इतना लंबा विवरण देने का अर्थ है कि प्रेमचन्द के बाद परिस्थितियों में बहुत सुधार नहीं हुआ है, बल्कि हालात बदतर ही हुए हैं। क्योंकि सामाजिक या राजनीतिक ढाँचे में कोई तब्दीली नहीं हुई है। यदिं सब कुछ बदल गया होता तो शायद प्रेमचंद की जरूरत न पड़ती। लेकिन क्योंकि वे समस्याएँ मौजूद हैं इसलिए प्रेमचंद तब तक प्रासंगिक बने रहेंगे, जब तक वे हल नहीं हो जाती।

प्रेमचंद की प्रासंगिकता

प्रेमचंद ने अपने बचपन में भले ही मौलाना फैजी की तिलिस्म होशरूबा, रेनाल्ड की ‘मिस्ट्रिीज ऑव द कोर्ट ऑफ लंदन’, मौलाना सज्जाद हुसैन की हास्य कृतियाँ, मिर्जा रूसवा की ‘उमराव जान अदा’ रतननाथ सरकार के ढेरों किस्से एवं नवलकिशोर प्रेस द्वारा. छपे पुराणों के अनुवाद से शुरूआत की हो, लेकिन जब वे लिखने चले तो उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार से ही शुरूआत की। प्रेमचंद ने अपने पहले उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ उर्फ देवस्थान रहस्य में, जो 8 अक्टूबर, 1903 से फरवरी 1905 तक बनारस के उर्दू साप्ताहिक ‘आवाज ए खल्क’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ, में पंडों और महंतों द्वारा भोली-भाली औरतों के दैहिक शोषण का चित्र खींचा। वैसे तो मंदिर एक पवित्र जगह होती है लेकिन पंडे और महंत उसे भोग-विलास के रूप में इस्तेमाल करते हैं। ऐसे यथार्थ चित्र आज भी मिल जाएँगे। आये दिन अखबारों में ऐसी खबरें पढ़ने को मिल ही जाती है। 1906 में विधवा विवाह को लेकर प्रेमचंद का उपन्यास आया ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ जिसका नायक अमृत राय सुंदरी और समृद्ध परिवार की अपनी मंगेतर ‘प्रेमा’ को छोड़कर एक तरूणी विधवा पूर्णा से विवाह करता है। यह और बात है कि कथा कुछ फिल्मों जैसी फार्मूलाबद्ध है यानी प्रेमा का विवाह दाननाथ से होता है लेकिन प्रेमा उन्हें चाहती नहीं अर्थात बेमेल विवाह है फिर तो दाननाथ अमृत राय पर आक्रमण करवाता है लेकिन गोली पूर्णा को लगती है और पूर्णा द्वारा चलायी गयी गोली से दाननाथ ढेर हो जाता है। जब अमृत राय और पूर्णा बच जाते हैं तो प्रेमचंद अंत में उन दोनों की शादी करा देते हैं। इसमें विधवा विवाह के साथ अंतर्जातीय विवाह का वे पक्ष लेते हैं। इसी उपन्यास का लिप्यंतरण है ‘प्रेमा’ जो इंडियन प्रेस से 1907 से प्रकाशित हुआ। इसी कथानक पर प्रेमचन्द का एक तीसरा उपन्यास है ‘प्रतिज्ञा’ जो जनवरी 1927 से नवंबर 1927 तक ‘चाँद’ में प्रकाशित हुआ, इसमें प्रेमचंद विधवा विवाह की समस्या से ही अमृत राय की शादी कराते हैं यानी विधवा आश्रम खोलकर अमृत राय विधवाओं की सेवा तो करते हैं लेकिन पूर्णा से शादी नहीं करते। बकौल कमल किशोर गोयनका प्रेमचंद हिंदू संस्कारों • की ओर पुनः लौटते हैं और एक पत्र में यह स्वीकार करते हैं कि युवावस्था में आदर्श में पड़कर उन्होंने हिंदू विधवा का गलती से विवाह करा दिया था। लेकिन मार्क्सवादी आलोचक गोयनका द्वारा पेश किए गए साक्ष्य यानी प्रेमचंद के पत्र को ही झूठा करार देते हैं और कहते हैं कि प्रेमचंद ऐसा पत्र कभी लिख ही नहीं सकते।

Relevance of Premchand.

‘प्रेमा’ के बाद प्रेमचंद के एक और उपन्यास का उल्लेख मिलता है जिसका नाम है ‘किशना’ जिसे बनारस मेडिकल हाल प्रेस से 1907 में छपा बताया जाता है। लेकिन यह उपन्यास मिलता नहीं है। इसकी तिथि की अक्टूबर-नवंबर 1907 में ‘जमाना’ में छपी समालोचना के आधार पर तय की गयी है। इस उपन्यास में स्त्रियों में गहनों के प्रति ललक पर व्यंग्य किया गया है। बाद में इसी कथानक को लेकर प्रेमचंद ने ‘गबन’ उपन्यास लिखा जिसके पूर्वार्द्ध की कथा किशना से मिलती है और उत्तरार्द्ध का कथानक क्रांतिकारियों से जोड़ दिया गया है। यह उपन्यास 1931 में सरस्वती प्रेस से प्रकाशित हुआ। ‘गबन’ की नायिका जालपा एक चंद्रहार पाने के लिए लालायित है। उसका पति रमानाथ अपनी पत्नी के चंद्रहार के लिए अपने चुंगी के दफ्तर से रुपया गबन करता है। पुलिस के डर से भागकर कलकत्ता जाता है जहाँ देवीदीन खटिक के यहाँ शरण पाता है। डकैती के एक जाली मामले में पुलिस उसे फंसाकर मुखबिर की भूमिका में उसे पेश करती है। उसकी पत्नी जालपा कलकत्ता आती हैं और उसे पुलिस के चंगुल से निकलाने में सफल होती है। इस उपन्यास में मध्य वित्त वर्ग के हाँकू चरित्र रमानाथ की सटीक मनोवृत्ति का वर्णन है तथा उत्तरार्द्ध का संबंध स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को फँसाने की साजिश का पर्दाफाश है।

1907 में ही प्रेमचंद का एकमात्र ऐतिहासिक उपन्यास ‘रूठी रानी’, ‘जमाना’ में अप्रैल 1907 से अगस्त 1907 तक क्रमशः प्रकाशित हुआ। इसकी कथा जैसलमेर के लोनकरन की बेटी उमा दे के इर्द-गिर्द घूमती है और उसी के आन-बान की कहानी है। जो अपने पति बाड़मेर के राजा मालदेव से ऐसी रूठती है जीवन भर रूठी ही रहती है। लेकिन रूठने की वजह यह है कि उसका पति दासी और रानी में अंतर नहीं कर पाता। नशे की हालत वह दासी भारीली को ही उमा दे समझ बैठता है और प्रेमालाप में संलग्न हो जाता है। 1912 में प्रेमचंद का उर्दू में एक उपन्यास आया ‘जलवए ईसार’ जिसका हिंदी अनुवाद 1920 में ‘वरदान’ नाम से हुआ। दरअसल इस उपन्यास के नायक प्रताप की माँ सुवामा विन्ध्यवासिनी देवी यानी अष्टभुजा देवी से ऐसे सपूत का वरदान माँगती है जो अपने देश का उपकार कर सके। सचमुच प्रताप विरजन को प्रेमिका और पत्नी के रूप में न पाकर संन्यासी (बालाजी) बन जाता है और देश की सेवा करता है। सामाजिक कुरीतियों और क्रूरतम अन्याय की शिकार हजारों जवान लड़कियाँ ‘सेवा सदन’ (1918) की सुमन की तरह आज भी चकलों में पहुँच रही हैं। आज तो जिस्म फरोशी का यह धंधा व्यवसाय का रूप ग्रहण कर चुका है। ‘रंगभूमि’ (1925) की केंद्रीय कथा उस अविस्मरणीय अहिंसक संग्राम को लेकर है जो अंधा भिखारी सूरदास पूँजीपति जॉन सेवक के विरुद्ध लड़ता है जो उसको उसकी जमीन से बेदखल करके वहाँ पर अपना सिगरेट का कारखाना बैठाना चाहता है। सूरदास अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर यह लड़ाई लड़ता है क्योंकि उसका विश्वास है कि वहाँ पर सिगरेट का कारखाना बैठाना अनेक दृष्टियों से घातक होगा। सूरदास की यह आशंका तब से भी अधिक जीवंत रूप में हमारे सामने हैं जब से मल्टीनेशनल कंपनियाँ हमारे देश में आने लगी हैं। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद से जिस तरह हमारी संस्कृति और जीवन मूल्यों पर लगातार हमले हो रहे हैं उनसे सचमुच संकट खड़ा हो गया है। ‘कायाकल्प’ (1926) की केंद्रीय विषयवस्तु राजनीतिक सत्ता की भूख है जिसमें सत्ता में आते ही अच्छे खासे लोग टुच्चे, महत्त्वाकांक्षी, लोभी और स्वार्थी बन जाते हैं। इसके नायक चक्रधर के साथ कुछ-कुछ ऐसा ही होता है क्योंकि जीवन के लिए संघर्ष करते हुए चक्रधर का नैतिक उत्थान होता है, लेकिन प्रभुत्ता पाते ही उसका पतन शुरू हो जाता है। शायद यही वह असल कायाकल्प है जिसकी ओर कथाकार अपने पाठक का ध्यान आकर्षित करना चाहता है। आज भी कितने ही राजनेताओं और अधिकारियों का कायाकल्प होते देखा जा सकता है। ‘निर्मला’ (नवंबर 1925 से नवंबर 1926 तक ‘चाँद’ में धारावाहिक़) जैसा कि हम सभी जानते हैं, अनमेल विवाह की कहानी है। जवान लड़की की शादी बूढ़े आदमी के साथ कर दी जाती है, क्योंकि जवान लड़का बाजार में बहुत महंगा बिकता है और बाप की गांठ में उतना पैसा नहीं है। क्या आज भी इन स्थितियों में कोई खास फर्क पड़ा है? आज भी माँ-बाप मजबूरी में अपनी जवान लड़कियों की शादी अधेड़ आदमियों से क्यों नहीं कर रहे हैं? दहेज की समस्या ने आज तो और भी विकराल रूप ग्रहण कर लिया है। आज तो दूल्हों के भाव तक तय हैं। एक आईएएस दूल्हे की कीमत 50 लाख और पीसीएस दूल्हे की कीमत 25 लाख देने वाले भी है और बिकने वाले भी। ‘कर्मभूमि’ (1932) प्रेमचंद की एक प्रौढ़ और क्रांतिकारी रचना है जिसमें साहित्यिक अन्याय के विरुद्ध विद्रोह की चिनगारी है। अंग्रेजों के विरोध में लामबंदी तो इस उपन्यास में दिखाई देती ही है, उनके विरुद्ध जनता खड़ी हो उठती है। इसके अलावा खाद्य-अखाद्य की समस्या, हरिजनों का मंदिर में प्रवेश, जमींदारों द्वारा जबरन लगान वसूली, बेगार के विरुद्ध मुहिम जैसी कई बातें इस उपन्यास में उठाई गयी हैं।

ऐसे ही प्रेमचंद की ‘पूस की रात’, ‘सद्गति’, ‘सवासेर गेहूँ’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘कफन’, ‘पंचपरमेश्वर’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘मंत्र’, ‘नमक का दरोगा’, ‘विध्वंस’, ‘स्वत्व रक्षा’, ‘सभ्यता का रहस्य’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, जैसी कितनी ही कहानियाँ, ‘संग्राम’, ‘कर्बला’, ‘प्रेम की वेदी’ जैसे नाटक और ‘पुराना जमाना नया जमाना’ और ‘महाजनी सभ्यता’ जैसे निबंधों एवं उस समय की लिखी गयी संपादकीय टिप्पणियों में कितनी ही ऐसी बातें हैं जो समय बदल जाने के बाद भी प्रासंगिक हैं और उनकी चर्चा गाहे-बगाहे किसी न किसी संदर्भ में होती रहती हैं। इसलिए यह कहना कि प्रेमचंद अप्रासंगिक हो गये हैं, मुनासिब नहीं।

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