पाठ्यचर्या नियोजन का आधार |basis of curriculum planning
निर्धारक के रूप में दार्शनिक आधार की विवेचना कीजिए।
दार्शनिक आधार (Philosophical Basis) – पाठ्यक्रम या पाठ्यचर्या के निर्धारण में व्यक्ति समाज की प्रकृति के साथ-साथ विद्यालयों में प्रस्तुत की जाने वाली अन्तर्वस्तु तथा अनुभवों की प्रकृति पर भी ध्यान देना आवश्यक है। इस प्रकार पाठ्यचर्या-विकास की प्रक्रिया में तीन पक्षों पर ध्यान देना होता है, समाज, व्यक्ति तथा सांस्कृतिक विरासतों पर। पाठ्यक्रम के लिए निर्धारित तत्वों में दार्शनिक आधार का महत्वपूर्ण स्थान है।
एच.टी. जॉनसन ने अपनी पुस्तक ‘Foundations of Curriculum’ में दर्शशास्त्र को जीवन की आधारभूत समस्याओं के समाधान हेतु अध्ययन योग्य विषय के रूप में परिभाषित किया है। अतः दर्शन जिसका सम्बन्ध जीवन-बोध तथा जीवन मूल्यों से है, पाठ्यक्रम का एक मुख्य आधार भी है। पाठ्यचर्या का संगठन शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। शिक्षा के उद्देश्य हमें ‘दर्शन’ द्वारा ही प्राप्त होते हैं। अतः किसी विषय विशेष की उपयोगिता व अनुपयोगिता भी समाज व व्यक्ति के दर्शन के आधार पर ही निश्चित की जा सकती है। महान् दार्शनिक प्लेटो ने कहानियों को न पढ़ाने की वकालत की थी, क्योंकि वह छात्रों को सत्य और केवल सत्य से परिचित कराना चाहता था। दूसरी तरफ महान शिक्षाशास्त्री मैडम मारिया मॉण्टेसरी ने कहानियों को बहुत उपयोगी बताया है। इसी प्रकार कुछ भारतीय शिक्षाशास्त्री प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन को बेकार समझते हैं, जबकि आर्य समाजी शिक्षाशास्त्री प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन को बेकार समझते हैं, जबकि आर्य समाजी शिक्षाशास्त्री इस अध्ययन को अनिवार्य मानते हैं। यह सब मतभिन्नता इसी कारण है कि प्रत्येक दार्शनिक विचारधारा का दृष्टिकोण अलग है। अतः पाठ्यचर्या का मुख्य आधार दर्शन ही है जिसके अभाव में पाठ्यचर्या निष्याण हो जाती है। अतः दार्शनिक आधार पर पाठ्यचर्या के निर्माण में विभिन्नता अवश्य आ जाती है। दार्शनिक आधार की प्रचलित पाँच विचारधाराएँ निम्नलिखित हैं-
- आदर्शवाद (Idealism) – यह विचारधारा शाश्वत मूल्यों एवं आदर्शों पर बल देती है तथा इसके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य उस सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाते रहना है जो सम्बन्धित समाज द्वारा युगों से जाँचे-परखे लक्ष्यों को परिलक्षित करती है। इसके अनुसार शिक्षा का लक्ष्य मानव जीवन को समझने और उसके द्वारा पूर्ण जीवन जीने का आदर्श प्राप्त करना होता है। अतः आदर्शवाद के अनुसार पाठ्यचर्या का मुख्य आधार मानव के विचार व आदर्शों की पूर्णता है। अतः आदर्शवाद के अनुसार पाठ्यचर्या में साहित्य, कला, संगीत, भाषाएँ, भूगोल, इतिहास, विज्ञान तथा गणित रखे जाने चाहिए। प्रो. हार्न के अनुसार जो कि एक आदर्शवादी है, पाठ्यचर्या में किसी कला, विज्ञान तथा व्यवसाय को स्थान मिलना चाहिए। इसी प्रकार चूंकि आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य आत्मानुभूति है। अतः व्यक्ति के व्यक्तित्व का चरम विकास ही आदर्शवादी शिक्षा/पाठ्यचर्या का होना चाहिए। रॉस महोदय के अनुसार पाठ्यचर्या का आधार तीन प्रक्रियाओं- ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक का विकास होना चाहिए। अतः इनके विकास के लिए भाषा, सामाजिक विषय, साहित्य, गणित, विज्ञान, कविता, संगीत, कला, पाकशास्त्र, शिल्प कला, कताई-बुनाई आदि को पाठ्यचर्या में स्थान देने के लिए बल दिया जाता है।
- प्रकृतिवाद (Naturalism) – फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो को प्रकृतिवाद का प्रवर्तक माना जाता है। अन्य प्रकृतिवादियों में बेकन, डार्विन एवं हरबर्ट स्पेन्सर के नाम प्रमुख हैं। वास्तव में प्रकृतिवाद सभ्यता की जटिलता की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप प्रकट हुआ है। इसके प्रमुख नारे प्रकृति की ओर लौटो तथा ‘समाज के बन्धनों को तोड़ो’ आदि हैं। इस प्रकार सभ्यता के लचीलेपन की समाप्ति होने पर इस वाद का उदय होता है। प्रो. सोर्ले के अनुसार, “प्रकृतिवाद को नकारात्मक रूप से ही भली-भाँति परिभाषित किया जा सकता है जो किसी स्वाभाविक अथवा सृजनात्मक कार्य का श्रेय मानव शरीर को नहीं देता है।”
प्रकृतिवादी शिक्षा वस्तुतः नास्त्यात्मक है। अतः पाठ्यचर्या में प्रचलित विषयों को सम्मिलित करने का प्रकृतिवाद विरोध करता है। प्रकृतिवादी बालक के स्वाभाविक विकास पर ही विशेष महत्व देते हैं तथा ‘ज्ञान के लिए ज्ञान’ को शिक्षा का लक्ष्य मानने के पक्ष में नहीं हैं। वे बालक की प्राकृतिक प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति हेतु पूर्ण अवसर प्रदान करना चाहते हैं। अतः उनके अनुसार पाठ्यचर्या का निर्माण बालक की रुचियों, अभिवृत्तियों, योग्यताओं एवं स्वाभाविक क्रियाओं तथा उनके विकास के विभिन्न स्तरों के अनुसार किया जाना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि पाठ्यचर्या बाल-केन्द्रित होनी चाहिए तथा उसमें ऐसे विषयों का समावेश होना चाहिए जिनके अध्ययन से बालकों का स्वाभाविक विकास हो सके।
(III) प्रयोजनवाद (Pragmatism) – प्रयोजनवाद अंग्रेजी शब्द ‘प्रेग्मेटिज्म’ का हिन्दी रूपान्तर है, जिसकी उत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘प्रेग्मेटिकोस’ से हुई है। हिन्दी के ‘प्रयोजनवाद’ शब्द से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ‘वाद’ में सोद्देश्य क्रिया को महत्व दिया जाता है तथा सत्य को प्रयोजन की कसौटी पर कसा जाता है। व्यावहारिकवाद के बारे में लॉक महोदय का कथन भी यहाँ पर उल्लेखनीय प्रतीत होता है। उनके अनुसार, “हमें सब वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करना उतना आवश्यक नहीं है जितना उन वस्तुओं का जिनसे हमारे जीवन का सम्बन्ध है।”
इस विचारधारा का विकास सर्वप्रथम अमेरिका में हुआ तथा शिक्षा के क्षेत्र में इसका प्रादुर्भाव प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी के प्रयत्नों से हुआ है। इस विचारधारा का शिक्षा पर प्रभाव जानने से पहले इसकी प्रमुख विशेषताओं पर एक दृष्टि डालना आवश्यक है। यह विचारधारा बुद्धि के व्यावहारिक रूप में ही विश्वास करती है। अतः प्रयोजनवादी विज्ञान तथा वैज्ञानिक सत्यों पर विश्वास नहीं करता। उनके अनुसार प्रज्ञा हमें वातावरण को परिवर्तित कर अपने अनुकूल बनाने की शक्ति प्रदान करती है।
उक्त विवेचन के आधार पर प्रयोजनवाद का शिक्षा से सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। प्रकृतिवाद की ही तरह प्रयोजनवाद भी बालक के स्थान को महत्व प्रदान करता है। इसके अनुसार बालक, बालक है न कि प्रौढ़ का एक छोटा रूप। बालक और प्रौढ़ की आवश्यकताओं, इच्छाओं एवं रुचियों में अन्तर होता है। हम बालक के वर्तमान से सम्बन्धित हैं, इसलिए उसके भविष्य के बारे में बात करना उचित नहीं है। अतः प्रयोजनवादी शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करने को महत्व नहीं देते हैं। इनका मानना है कि ‘शिक्षा’, शिक्षा के लिए, न होकर शिक्षा बालक के लिए होनी चाहिए। इस प्रकार यह ‘वाद’ प्रकृतिवाद के अधिक निकट है।
प्रयोजनवाद किसी भी अन्तिम वास्तविकता को नहीं मानता है। यह प्रकृति और विचार की उपयोगिता पर बल देता है तथा विचार केन्द्रित पाठ्यचर्या का विरोध करता है जिसमें बालक की रुचियों एवं समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता है तथा प्रौढ़ों की इच्छाओं को ही बालकों पर थोपा जाता है। यह पाठ्य-वस्तु का पूर्णरूपेण खण्डन नहीं करता है लेकिन चाहता है कि पाठ्यचर्या के अन्तर्गत इस प्रकार की पाठ्य-वस्तु सम्मिलित की जानी चाहिए जो छात्रों की अभिरुचियों एवं आवश्कताओं के अनुकूल हो जिससे वह अपने जीवन की समस्याओं को हल करने में समर्थ हो सके। अतः प्रयोजनवाद बालक के सम्पूर्ण विकास के लिए पाठ्यचर्या रचना के कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है।
(IV) यथार्थवाद (Realism) – यथार्थवाद का उदय आदर्शवाद की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ है। आदर्शवादी इस सृष्टि का अस्तित्व विचारों के आधारों पर मानते हैं। उनके अनुसार वास्तविक सत्ता मनस् की है, न कि सृष्टि की आधारभूत प्रकृति की। प्रकृति तत्व मनस् की प्रतीति मात्र है। मनस् यान्त्रिक नहीं है, बल्कि यह चेतनायुक्त है, जीवनयुक्त है। इसके विपरीत प्रकृतिवाद दर्शन जड़ और चेतन में भेद नहीं करता। इनके अनुसार प्रकृति में ही गति है तथा इसी गति-क्रम में एक स्तर पर जड़ में जीवन प्रकट होता है तथा दूसरे स्तर पर चेतना।
यथार्थवादी विचारधारा के अनुसार शिक्षा का लक्ष्य शिक्षार्थी को उस भौतिक व्यवस्था को समझने तथा उसके साथ समायोजन स्थापित करने में सहायता करना होता है जिस पर उसका कोई नियन्त्रण नहीं होता। इसके अन्तर्गत सुखमय जीवन हेतु उपयुक्त सामग्री का चयन करने के लिए आवश्यक अवबोध विकसित करने पर बल दिया जाता है। विद्यालय में छात्र विभिन्न परिस्थितियों के प्रति अपने व्यवहार को नियन्त्रित करना सीखता है। शिक्षक इस हेतु उपयुक्त निर्देशन प्रदान करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार तथ्यों के वस्तुनिष्ठ प्रस्तुतीकरण पर बल दिया जाता है तथा अधिगम-अनुभव हेतु ज्ञानेन्द्रियों के प्रयोग को महत्वपूर्ण माना जाता है। अतः यथार्थवादी पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों पर बल दिया जाता है जो बालक को वास्तविक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में पूर्णरूपेण अवगत करा सकें। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यथार्थवाद के अनुसार पाठ्यचर्या विस्तृत होनी चाहिए। विद्यार्थी को उसे विस्तृत पाठ्यचर्या में से अपनी योग्यता के अनुसार विषयों को चयन करने की स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। विद्यार्थी के जीवन के लिए उपयोगी विषयों को ही पढ़ाया जाना चाहिए अर्थात् पाठ्यचर्या में विषयों का समावेश ज्ञान एवं कला के विकास की अपेक्षा जीवन की उपयोगिता की दृष्टि से अधिक होना चाहिए।
(V) अस्तित्ववाद (Existentialism)- इससे पूर्व चार प्रमुख दर्शनों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि वर्तमान में आदर्शवाद और प्रकृतिवाद की अपेक्षा प्रयोजनवाद और यथार्थवाद का शिक्षा एवं पाठ्यचर्या पर अधिक प्रभाव पड़ा है। अस्तित्ववाद प्रयोजनवाद और यथार्थवाद की अपेक्षा अधिक नवीन दर्शन है। इस दर्शन ने शिक्षा को बहुत अधिक प्रभावित नहीं किया है, किन्तु शिक्षापरक दार्शनिकों ने इस पर उस समय अधिक ध्यान दिया जब इसके विशिष्ट अर्थों को शिक्षा के क्षेत्र में अनुपयुक्त ठहराने का प्रयास किया गया। एडमण्ड हर्सल, मार्टिन हीडेगर तथा ज्या पाल सार्च को इस दर्शन का पूर्वज माना जाता है।
अस्तित्ववाद के अनुसार हमें विद्यार्थी के अस्तित्व के बारे में सोचना चाहिए न कि उसके सार-तत्व के बारे में, क्योंकि ‘अस्तित्व तत्व से पूर्व होता है।’ अतः बालक को सामाजिक कुशलता का पाठ पढ़ाने की जरूरत नहीं है। अस्तित्ववाद व्यक्तिवाद का प्रबल समर्थक है। इसके अनुसार बालक स्वयं अपना स्वामी है। वह अपनी क्रियाओं तथा उनकी सफलताओं का स्वयं ही निर्णायक है। अतः शिक्षा बाल-केन्द्रित होनी चाहिए। इस वाद के अनुसार बालक में समूह प्रवृत्ति जैसी कोई वस्तु नहीं होती है, इसलिए सामूहिक शिक्षा सम्भव ही नहीं है। अतः उसके व्यक्तित्व की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उस पर कोई सामाजिक स्वीकृत थोपी न जाए तथा उसे स्वतन्त्र निर्णय लेने के अवसर सुलम् कराये जायें। इस प्रकार अस्तित्ववाद विद्यार्थी को शिक्षा- दर्शन के विषय में स्वतन्त्र चुनाव करने तथा पूर्ण अन्तःशक्ति के साथ अपने व्यक्तित्व का विकास करने पर बल देता है।
अस्तित्ववादियों के अनुसार नैतिक मूल्यों का कोई स्वीकृति सिद्धान्त नहीं है जो विद्यार्थी को दिशा-निर्देश कर सके। वर्तमान समय नैतिक मूल्यों के अवसान का समय है। विद्यार्थी को स्वयं संकट का सामना करते हुए, नैतिक जगत् की खोज करनी है।
अस्तित्ववाद के अनुसार पाठ्यचर्या में दुःखान्त का तत्व भी महत्वपूर्ण है। इस ‘वाद’ की मान्यता के अनुसार मृत्यु जीवन का सर्वस्व है। अपने स्वयं के अस्तित्वों की तथ्यता के अंग के रूप में मृत्यु की सम्भाव्यता का सामना हमें निरन्तर करना होता है। अतः इस दुःखान्त तत्व को पूरे खुलेपन से हमें स्वीकार करना चाहिए। अपने शिक्षण और ज्ञानार्जन से हमें इसकी पहचान होनी चाहिए कि जीवन में दुःखान्त तत्व है। हमारे प्राचीन साहित्य में, इस वाद के उदय से बहुत पहले भी, जीवन के इस पक्ष को आत्मसात् करने की बात कही गई है।
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