पाठ्क्रम विकास में शिक्षक की भूमिका का सविस्तार वर्णन कीजिए।
पाठ्यक्रम विकास में शिक्षक की भूमिका (Role of Teacher in Curriculum Development) – शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है एवं पाठ्यक्रम विभिन्न सिद्धान्तों एवं प्रतिमानों के अनुसरण में सम्पादित होता है। पाठ्यक्रम का प्रकरण अत्यन्त जटिल होता है। लेकिन इन जटिलताओं को दूर कर पाठ्यक्रम का निर्माण किया जा सकता है। पाठ्यक्रम द्वारा समाज व राष्ट्र की भावी आवश्यकताओं के लिए नागरिकों को शिक्षा द्वारा तैयार कर सके।
पहले हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था निजी हाथों में थी। उस समय पाठ्यचर्या निर्माण करने का अधिकार किसी भी व्यक्ति या संस्था का था। जब भारत पर अंग्रेजों का शासन था तब पहली बार पाठ्यक्रम के निर्माण का उत्तरदायित्व राज्य सरकार द्वारा स्वीकार किया गया। तभी से लेकर आज तक किसी भी पाठ्यचर्या का निर्माण करने का अधिकार सिर्फ राज्य व केन्द्र सरकार का है। पाठ्यचर्या में कोई भी परिवर्तन किया जाता है तो सिर्फ सरकार के द्वारा किया जाता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में पूरे देश के लिए 10+2+3 शिक्षा संरचना घोषित की गई और यही शिक्षा प्रणाली वर्तमान में भी हमारे देश में लागू है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में 10+2+3 शिक्षा संरचना को सम्पूर्ण देश में लागू करने की घोषणा की गई।
वर्तमान समय में पूरे देश में 10+2+3 की शिक्षा प्रणाली को लागू किया गया है। शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, उच्चतर माध्यमिक तथा +2 की पाठ्यचर्या का निर्माण करने का उत्तरदायित्व सिर्फ (NCERT) राष्ट्र शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् का है। नये पाठ्यक्रम के गठन के लिए (NCERT) ही समिति गठन करती है जिसमें अनुभवी विशेषज्ञों के साथ अनुभवी अध्यापकों को स्थान दिया जाता है।
(1) पाठ्यक्रम गतिविधियों में शिक्षक की भूमिका (Role of Teacher in Curriculum) – किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम की सफलता या असफलता उस कार्यक्रम को क्रियान्वित करने वाले शिक्षकों पर निर्भर करती है। शिक्षकों के आचार-विचार, सामाजिक पृष्ठभूमि, योग्यता आदि पाठ्यक्रम को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। इसीलिए शिक्षक, शिक्षा प्रक्रिया की महत्वपूर्ण धुरी होता है। अतः शिक्षक से जुड़ा प्रत्येक पक्ष इस प्रक्रिया को प्रभावित करता है; जैसे- अधिकांश शिक्षक समाज के मध्यम एवं उच्च वर्ग से आते हैं। अतः वे केवल ऐसे ही अधिगम अनुभव ही कक्षा में प्रस्तुत करते हैं जो केवल उसी वर्ग के बालकों के लिए उपयुक्त होते हैं। साथ ही शिक्षकों का आयु वर्ग भी पाठ्यक्रम को प्रभावित करता है।
प्रत्येक शिक्षक कुछ नैतिक मूल्यों में आस्था रखता है तथा जाने-अनजाने वह उनका शिक्षण भी करता रहता है। इसलिए कहावत भी प्रचलित है कि प्रत्येक शिक्षक अनिवार्य रूप से धर्म का शिक्षक होता है, यहाँ पर धर्म का तात्पर्य सामान्य नैतिक आचरण से है। पाठ्यक्रम शिक्षक के लिए अपने विचारों को बालकों तक पहुँचाने का माध्यम होता है यह प्रायः पाठ्यक्रम की अंतर्वस्तु का उपयोग अपने विश्वास, दृष्टिकोण एवं मान्यताओं को विद्यार्थियों के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए करता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष तथा परोक्ष ढंग से शिक्षक व्यक्तिगत रूप में पाठ्यक्रम को प्रभावित करता है।
वर्तमान समय में शिक्षक संगठन शक्ति के रूप में भी उभर रहा है। अन्य व्यवसायिक वर्गों के समान ही शिक्षक वर्ग के संगठन भी कार्य करने लगे हैं जो उनकी आर्थिक एवं सेवा सम्बन्धी मांगों को पूरा करवाने के साथ-साथ कुछ सीमा तक पाठ्यक्रम को भी प्रभावित करते हैं। शिक्षक अपनी विचारधाराओं के अनुसार पाठ्यक्रम पर प्रभाव डालतें हैं। इस प्रकार संगठित शक्ति के रूप में शिक्षक वर्ग पाठ्यक्रम-विकासे में एक दबाव समूह के रूप में कार्य करता है।
(II) पाठ्यक्रम के सम्पादन में शिक्षण की भूमिका (Role of Teacher in Transaction of Curriculum) – शिक्षक अपने शिक्षण में पाठ्यक्रम का कठोरता से अनुकरण कर सकता है या लचीली नीति अपना सकता है। यदि वह कठोरता से इसका पालन करता है तो वह जो कुछ पाठ्यक्रम में प्रस्तावित है उससे हटेगा नहीं, अतः उसका शिक्षण यान्त्रिक हो जायेगा। यदि शिक्षण में लचीली विधि अपनायेगा तो वह अपने शिक्षण में नवीनता ले आयेगा। यह सब शिक्षक पर निर्भर करता है कि कैसी विधि अपनायेगा। पाठ्यक्रम का कठोरतापूर्वक अनुसरण करके छात्रों को सिखाना काफी यान्त्रिक कार्य होता है। यह रटन विधि पर अधिक जोर देता है। इस विधि का प्रयोग करके शिक्षक सीखने में सुविधा देने वाला व्यक्ति न होकर केवल छात्रों के मस्तिष्क को सूचनाओं से भर देने वाला व्यक्ति बनकर रह जाता है। इस स्थिति में आधुनिक ढंग से शिक्षण प्रदान करने की अपेक्षा परम्परागत तथा प्राचीन तरीके से शिक्षण प्रदान करना होता है। • यह आधुनिक शिक्षण सीखने में नियमों के विरोधाभास की स्थिति होती है।
शिक्षण में लचीलेपन का प्रयोग करने से यह भय रहता है कि शिक्षक पाठ्यक्रम को निश्चित अवधि में पूर्ण नहीं कर पायेगा तथा उन तथ्यों को पढ़ाने में अधिक रुचि लेगा जो उसे पसन्द हैं तथा बहुत से अरुचिकर एवं उबाऊ विषयों तथा तथ्यों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देगा। इसे छात्रों द्वारा पसन्द नहीं किया जायेगा क्योंकि उन्हें परीक्षा देनी है और परीक्षा में सम्पूर्ण पाठ्यक्रम से प्रश्न आते हैं यही कारण है कि अधिकांश शिक्षक पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य करते हैं अपनी और छात्रों की रुचियों पर ध्यान नहीं देते हैं। शिक्षक का पूरा ध्यान पाठ्यक्रम को पूरा करने में रहता है और वे प्रस्तावित पाठ्यक्रम पर कठोरता से बने रहते हैं। यह कठिनाई उस स्थिति में दूर हो सकती है जब शिक्षकों को पाठ्यक्रम निर्माण की स्वतन्त्रता प्राप्त हो और शिक्षक अपने छात्रों का स्वयं मूल्यांकन व आंकलन करें।
(III) शिक्षक की सामाजिक पृष्ठभूमि का पाठ्यक्रम पर प्रभाव – शिक्षक की पाठ्यक्रम में मुख्य भूमिका होती है। शिक्षक छात्रों के अनुरूप ही पाठ्यचर्या में अपने विचारों को रखने का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर पाठ्यचर्या कितनी भी उच्च एवं श्रेष्ठ स्थिति का क्यों न हो, उसे प्रस्तुत करने वाला शिक्षक अयोग्य है तो शिक्षक उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। शिक्षक के सामाजिक स्तर का भी पाठ्यक्रम पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है जिसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
1. शिक्षक की योग्यता एवं व्यवहार- एक योग्य शिक्षक ही पाठ्यक्रम में परिवर्तन कर सकता है। एक अयोग्य शिक्षक अपने विचारों को पाठ्यचर्या में रखकर किसी को भी सन्तुष्ट नहीं कर सकता। शिक्षक की योग्यता के विकास में समाज की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि पाठ्यक्रम में किसी कठिनाई या सरलता के कारण यह स्थिति उत्पन्न हो रही है कि छात्र अधिगम में रुचि नहीं दिखा रहे हैं तो शिक्षक के द्वारा सुझाव देने पर पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया जा सकता है। शिक्षक का व्यवहार भी पाठ्यक्रम के लिए मायने रखता है। शिक्षक की मनोदशा के आधार पर पाठ्यक्रम का विकास किया जा सकता है। प्राचीन काल में सभी शिक्षक अपने कठोर व्यवहार के कारण पाठ्यक्रम के नियमों एवं अपने प्रभाव को महत्व प्रदान करते थे। वे कभी इस तथ्य को स्वीकार नहीं करना चाहते थे कि पाठ्यक्रम के क्रियाकलापों में उनका महत्व नगण्य हो तथा छात्र का महत्व अधिक हो। इस व्यवहार के कारण ही प्राचीन पाठ्यक्रम शिक्षक केन्द्रित थे। वर्तमान समय में शिक्षक के सकारात्मक व्यवहार एवं दृष्टिकोण के आधार पर निश्चित हुआ कि पाठ्यक्रम का स्वरूप बालकेन्द्रित होना चाहिए।
(2) शिक्षक का जीवन-दर्शन एवं आर्थिक स्तर- दर्शन पाठ्यक्रम के विकास को अभिप्रेरित करता है। सुकरात एक शिक्षक एवं उपदेशक के रूप में अपने कार्य का निर्वहन करता था। उसकी प्रश्न प्रविधि को आज भी पाठ्यक्रम में स्थान प्रदान किया जाता है क्योंकि उसकी सामाजिक पृष्ठिभूमि तत्कालीन समय की विचारधारा से अलग थी। वह सत्य एवं असत्य के मध्य विभेद करते हुए विकास मार्ग को प्रशस्त करना चाहता था। इसी प्रकार प्रत्येक शिक्षक का जीवन दर्शन प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से पाठ्यक्रम को प्रभावित करता है। शिक्षक पाठ्यक्रम में उन तथ्यों का समावेश करना चाहता है जो कि उसके जीवन दर्शन में समाहित होते हैं।
स्तर भी सामाजिक पृष्ठभूमि का ही एक अंग है। शिक्षक का आर्थिक स्तर उच्च श्रेणी का है तो वह पाठ्यक्रम में मूल्यवान संसाधनों के प्रयोग के सुझाव प्रस्तुत करेगा, जैसे- कम्प्यूटर, टी.वी. एवं इण्टरनेट आदि। इसके विपरीत जिस शिक्षक का आर्थिक स्तर निम्न है, वह कम मूल्यवान वस्तुओं के प्रयोग के सुझाव प्रस्तुत करेगा, जैसे- चार्ट, फ्लैश कार्ड एवं टेपरिकॉर्डर आदि। इस प्रकार शिक्षक अपनी आर्थिक सोच एवं उपलब्ध संसाधनों की स्थिति को देखते हुए पाठ्यक्रम को प्रभावित करने का प्रयास करेगा। अतः शिक्षक का आर्थिक स्तर पाठ्यक्रम को प्रभावित करता है।
3. शिक्षण कार्य एक सम्मानजनक पद- शिक्षक का जिस समाज में सम्मान होता है, उस समाज में रहने वाले शिक्षक छात्रों के हित एवं कल्याण के लिए समर्पित भाव से कार्य करते हैं। इसके लिए वे छात्रों के सर्वांगीण विकास एवं समाज की आकांक्षा की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम में संशोधन करते हैं। इनके विपरीत जिन शिक्षकों का समाज में सम्मान नहीं होता अर्थात् शिक्षक की सामाजिक स्थिति सम्मानजनक नहीं होती, उस समाज के शिक्षक अपने कर्तव्य के प्रति उत्साहित न होकर मात्र औपचारिकता पूर्ण कार्य करते हैं।
पाठ्यक्रम विकास की नवीन प्रवृत्तियों पर एक लेख लिखिए।
पाठ्यक्रम विकास की नवीन प्रवृत्तियाँ – वर्तमान समय अत्यधिक चुनौतीपूर्ण है। मनुष्य जहाँ एक ओर अपनी बुद्धि एवं विवेक से नवीन ज्ञान का अर्जन करके मानव जीवन की कुछ समस्याओं के समाधान के उपाय ढूँढ़ रहा है वहीं दूसरी ओर नित्य नई समस्याएँ उपस्थित होती जा रही हैं। अतः मनुष्य का जीवन दिन-प्रतिदिन जटिल से जटिलतर होता जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें अनेक चुनौतियों एवं समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। चूँकि शिक्षा मानव समस्याओं के समाधान का एक प्रमुख साधन है। इस कारण समाज भी समस्याओं के निराकरण हेतु शिक्षा की ओर ही निगाहें लगाये रहता है। अतः शिक्षा का दायित्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। इसके लिए शिक्षा के माध्यम से अपेक्षित परिवर्तन हेतु पाठ्यक्रम में भी आवश्यक परिवर्तन करने आवश्यक हो जाते हैं। परिणामस्वरूप पाठ्यक्रम विकास की अनेक नवीन प्रवृत्तियों का उदय होता है। अतः आधुनिक समय में पाठ्यक्रम विकास की अनेक नवीन प्रवृत्तियाँ विकसित होती जा रही हैं। कुछ प्रमुख नवीन प्रवृत्तियों की चर्चा हम यहाँ पर कर रहे हैं-
(1) भविष्य पर विशेष दृष्टि (Special View on Future)- रोजेन ब्लूम एवं हिलेस्टड (Rosenbloom and Hillested) ने अपनी पुस्तक ‘Modern View Points in the Curriculum’ में लिखा है कि ‘वर्तमान युग की समस्या यह है कि मानव इतिहास में हम वह पहली पीढी हैं जिसे अपने बालकों को ऐसे परिवर्तनशील समाज के लिये शिक्षित करना है जिसका पूर्व अनुमान नहीं लगाया जा सकता। उन्हें अपने जीवनकाल में जिन बातों को जानने की आवश्यकता होगी उनमें से अनेक अभी तक ज्ञात भी नहीं हो सकी हैं। उन्हें जिन समस्याओं का सामना करना पडेगा उनके बारे में अभी कुछ भी पता नहीं है उनके लिए अधिगम कार्य जीवन पर्यन्त चलेगा। वर्तमान कार्य-व्यवहार बदल जायेंगे या समाप्त हो जायेंगे।’ सामान्यतया कोई शिक्षक अपने विद्यार्थियों को उन्हीं बातों को बता एवं पढ़ा सकता है जिन्हें वह स्वयं जानता है। किन्तु जिन बातों के बारे में उसे ज्ञान ही नहीं है उसे नई पीढ़ी को पढ़ाने की उससे कैसे आशा की जा सकती है। चूंकि शिक्षा भविष्योन्मुख होती है अतः हमें निराश भी नहीं होना चाहिए तथा भविष्य पर दृष्टि रखकर नवीन मार्ग खोजना चाहिए। शिक्षाविदों ने इस मार्ग को लगभग खोज भी लिया है। वह मार्ग यह है कि अब हम छात्रों को ‘सीखना’ सिखायें तथा जीवन पर्यन्त सीखते रहने पर विशेष बल देंगे। इस सम्बन्ध में एक कहावत भी प्रसिद्ध है कि, ‘यदि आप किसी को एक मछली पकड़कर दे देंगे तो वह उससे एक बार अपना पेट भर सकेगा किन्तु यदि उसे आप मछली पकड़ना सिखा देंगे तो वह हमेशा अपना पेट भर सकेगा।’ यही स्थिति आधुनिक पाठ्यक्रम में सूचनात्मक ज्ञान देने की अपेक्षा ‘ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया सीखने पर अधिक बल देने की प्रवृत्ति को विकसित कर रही है। इस प्रकार भविष्य की दृष्टि से ‘क्या हो सकता है’ का विचार पाठ्यक्रम में सभी विषयों की अन्तर्वस्तु एवं शिक्षण विधियों को प्रभावित कर रहा है।
शिक्षा की भविष्योन्मुख प्रवृत्ति को वर्तमान पाठ्यक्रम के स्वरूप को देखकर जाना जा सकता है। उदाहरणार्थ, विज्ञान के नवीन पाठ्यक्रमों में अब अन्तर्वस्तु के बाह्य विस्तार की अपेक्षा उसके आधारभूत सिद्धान्तों के सम्यक् अवबोधन पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। इसी प्रकार शिक्षण विधियों में भी तथ्यों की जानकारी देने एवं प्रयोगों के प्रदर्शन करने की अपेक्षा विद्यार्थियों द्वारा स्वयं अवलोकन एवं पर्यवेक्षण से निष्कर्ष निकालने के लिए प्रशिक्षण देने तथा समस्या का समाधान स्वयं खोजने पर अधिक बल दिया जा रहा है। भाषा शिक्षण में संचरण पर अधिक बल दिया जा रहा है। भूगोल मानव पर वातावरण के प्रभाव के अध्ययन पर केन्द्रित होता जा रहा है। मानवीय विषयों में मानव कल्याण तथा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव की शिक्षा पर बल दिया जा रहा है। साहित्य को शैली के अध्ययन के स्थान पर मानव परिस्थितियों को और अच्छी तरह समझने तथा आत्माभिव्यक्ति की क्षमता बढ़ाने का साधन समझा जा रहा है। नवीन गणित में प्राथमिक स्तर पर अभ्यास का स्थान ऐसी विधियों ने ले लिया है जो अधिक अच्छे अवबोधन के साधनों के रूप में स्वयं खोज को महत्त्व देती हैं। माध्यमिक स्तर पर कठिन समीकरणों को हल करने के स्थान पर बीजगणित एवं रेखागणित की उन गणितीय संरचनाओं पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है जो सम्पूर्ण विषय को तर्कसगत एवं क्रमबद्ध ढाँचा प्रदान करती हैं। इसी प्रकार धार्मिक शिक्षा किस्से, कहानियों से हटकर नैतिक प्रश्नों के अध्ययन की ओर बढ़ रही है।
विकासशील देशों में पाठ्यक्रम आयोजकों के दायित्वों में और अधिक वृद्धि हो रही है तथा उन पर सामाजिक आवश्यकताओं को पूर्ति करने के लिए दबाव पड़ रहे हैं। इन देशों की प्रमुख आवश्यकता विभित्र पिछड़ी जातियों के समूहों को राष्ट्र के रूप में निर्मित होने में सहायता प्रदान करना है। इनकी दूसरी प्रमुख आवश्यकता ऐसे पाठ्यक्रम निर्माण की है जो ग्रामीण एवं खेतिहर समुदाय के लिए उपयुक्त हो। इसके लिए विकसित देशों का कोई पाठ्यक्रम प्रतिमान उनके लिए सर्वथा उपयोगी नहीं हो सकता है। अतः भविष्य पर विशेष दृष्टि रखते हुए इन देशों को विकसित देशों में सम्पन्न हुए सफल प्रयोगों के अनुभवों का उपयोग करते हुए स्वयं अपना शिक्षाक्रम प्रतिमान निर्मित करना होगा।
(2) अधिगम प्रक्रिया में परिवर्तन (Change in the Learning Process)- बीसवीं शताब्दी में अधिगम मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुए प्रयोगों एवं अनुसन्धान कार्यों के निष्कर्षों ने अधिगम के संप्रत्यय में अनेक प्रकार के परिवर्तन कर दिये हैं। अधिगम उद्यतता (Readiness for Learning) के संप्रत्यय में तो बहुत अधिक बदलाव आ गया है। शिक्षा मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर अब इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके हैं कि यदिं बालकों को समुचित शिक्षण व्यूह रचनाओं के माध्यम से पढ़ाया जाये तो उन्हें वह सब बातें सिखलाई जा सकती हैं जिनके बारे में हम कल्पना भी नहीं करते। रूसी मनोवैज्ञानिकों ने तो आयु और बुद्धि के सह-सम्बन्ध के संप्रत्यय को ही अस्वीकार कर दिया है तथा ब्रूनर का कहना है कि ‘कोई भी बात किसी भी आयु वर्ग के बालक को सफलतापूर्वक सिखाई जा सकती है।’ ‘बालक क्या कर सकता है।’ इस प्रकार की सम्भावनाओं पर विचार करना अब अधिक उपादेय समझा जा रहा है। अब ज्ञान को टुकड़ों- टुकड़ों में पढ़ाने की अपेक्षा तर्क-संगत एवं क्रमबद्ध ढंग से व्यवस्थित रूप में पढ़ाना अधिक उपयोगी माना जा रहा है। व्यक्तिगत भिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए अब शिक्षण का वैयक्तिकरण (Individualisation of teaching) पर अधिक बल दिया जा रहा है।
इस प्रकार वर्तमान समय में स्वयं शिक्षण पर अधिक बल है। इसके लिए नवीन शिक्षण विधियों एवं नवीन अधिगम सामग्री भी निर्मित की गई हैं। अभिक्रमित अधिगम, शिक्षण मशीन, टेपरिकॉर्डर, वीडियो टेप, कम्प्यूटर, फिल्म्स आदि अनेक नवीन शैक्षिक उपकरणों का प्रयोग बढ़ रहा है जिनकी सहायता से शिक्षार्थी तीव्र गति से स्वयं सीख सकता है। ये शैक्षिक उपकरण एवं सामग्री पुनर्बलन एवं पुनः पुष्टि भी करते हैं। रेडियो, दूरदर्शन एवं संचार उपग्रह से भी स्वयं शिक्षण को बहुत बल मिला है।
इन नवीन शिक्षण विधियों एवं शिक्षण सामग्री के प्रयोग के परिणामस्वरूप अधिगम प्रक्रिया में बहुत अधिक परिवर्तन आया है। अब कक्षा में शिक्षकों एवं छात्रों की स्थिति में अन्तर आ गया है। धीरे-धीरे शिक्षक पृष्ठ-भूमि में होता जा रहा है। ‘एक कक्षा एक शिक्षक’ का परम्परागत संप्रत्यय भी बदलता जा रहा है। इसके स्थान पर ‘दल शिक्षण’ तथा अन्य वर्ग विधियों का प्रसार हो रहा है। अतः इसने पाठ्यक्रम विकास में नवीन प्रवृत्ति को जन्म दिया है।
(3) विभिन्न व्यक्तियों एवं वर्गों की बढ़ती रुचि एवं अधिकाधिक सम्भागित्व (Increasing Interests and More Participation of Different People and Groups)- सामान्यतया पाठ्यक्रम निर्माण शिक्षकों, विषय-विशेषज्ञों, शिक्षा परिषदों, शिक्षा विभाग तथा राज्य पाठ्यक्रम समिति से सम्बन्धित कार्य माना जाता रहा है। किन्तु शिक्षा के प्रसार एवं शिक्षा के प्रति लोगों में बढ़ती जागरूकता के परिणामस्वरूप अब पाठ्यक्रम निर्माण कार्य में उपर्युक्त अभिकरणों के साथ-साथ छात्रों, अभिभावकों, जनसामान्य, समाजशास्त्रियों, राजनीतिज्ञों, अर्थशास्त्रियों आदि की रुचि बढ़ती जा रही है। पाठ्यक्रम निर्धारण में सरकार का भी अब पहले की अपेक्षा अधिक हस्तक्षेप बढ़ रहा है। इनके अतिरिक्त साहित्यकार, धार्मिक नेता, वैज्ञानिक, प्रकाशक, शिक्षण सहायक सामग्री निर्माता तथा खेल सामग्री एवं उपकरणों के निर्माता भी पाठ्यक्रम विकास कार्य को प्रभावित करने लगे हैं। श्रमिक संगठन, व्यवसायी, उद्योगपति एवं कृषक वर्ग भी अब शिक्षा एवं पाठ्यक्रम विकास में अधिक रुचि प्रदर्शित कर रहे हैं। अतः पाठ्यक्रम विकास के सहभागियों एवं अभिकरणों में पर्याप्त संख्या में वृद्धि होती जा रही है तथा ये सभी पाठ्यक्रम विकास को किसी-न-किसी रूप में प्रभावित करने लगे हैं। अतः पाठ्यक्रम में संगठनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक समावेश की प्रवृत्ति विकसित हो रही है।
(4) पाठ्यक्रम विकास में केन्द्रीय प्रभाव में वृद्धि (More Central Control in Curriculum Development)- यूनेस्को के एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग सभी देशों में पाठ्यक्रम पर केन्द्रीय सरकार का प्रभाव एवं नियन्त्रण निरन्तर बढ़ता जा रहा है। समाजवादी एवं नवोदित राष्ट्रों में तो इस स्थिति को बहुत सामान्य माना जा सकता है किन्तु अमेरिका एवं ब्रिटेन जैसे सम्पन्न तथा लोकतान्त्रिक व्यवस्था के पोषक देश जो शिक्षा में स्थानीय स्व-शासन व्यवस्था के लिए अग्रणी कहे जाते रहे हैं, वहाँ भी विभिन्न अधिनियमों के द्वारा केन्द्रीय नियन्त्रण में बहुत अधिक वृद्धि हो चुकी है।
भारतीय संविधान में प्रारम्भ में शिक्षा को राज्य सूर्च में रखा गया था किन्तु बाद में इसे समवर्ती सूची में शामिल कर दिया गया जिसके परिणामस्वरूप अब शिक्षा एवं पाठ्यक्रम पर केन्द्रीय नियन्त्रण अधिक हो गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण एवं उसके क्रियान्यवन पर बल इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। अतः पाठ्यक्रम निर्माण में अब केन्द्रीय अर्थात् राष्ट्रीय प्रवृत्ति का तीव्रता से विकास हो रहा है।
(5) पाठ्यक्रम को अधिक व्यापक बनाना (Making Curriculum More Wider)- मनुष्य अपनी बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति एवं जीवन की जटिल समस्याओं के समाधान हेतु निरन्तर प्रयास करता रहता है जिससे उसे नये अनुभव एवं नवीन ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस प्रकार के ज्ञान के भण्डार में वृद्धि होती जा रही है। दूसरी तरफ शैक्षिक अवसरों में भी वृद्धि हो रही है। परिणामस्वरूप पाठ्यक्रम को विस्तृत एवं व्यापक बनाने की आवश्यकता भी बढ़ रही है तथा इसका प्रभाव सभी विषयों पर पड़ने के साथ-साथ नये विषयों के उदय के रूप में भी हो रहा है। उदाहरणार्थ-इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन अब ‘सामाजिक अध्ययन’ विषय के अन्तर्गत किया जा रहा है। विद्यालयी जीवन की अवधि बढ़ जाने के कारण अधिक आयु के बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी पाठ्यक्रम को विस्तार प्रदान करना अनिवार्य हो गया है। विज्ञान एवं तकनीकी की प्रगति के कारण जीवन के सभी क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक एवं स्व-चालित यन्त्रों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। साथ ही कम्प्यूटर शिक्षा की माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। अब मानव अन्तरिक्ष युग में प्रवेश कर चुका है तथा उसके रहस्यों का पता लगाने में जुटा हुआ है। अतः अन्तरिक्ष विज्ञान जैसे विषयों को पाठ्यक्रम में समाविष्ट करने पर बल दिया जा रहा है। इस प्रकार पाठ्यक्रम को विस्तृत एवं व्यापक बनाने की प्रवृत्ति का विकास हो रहा है।
(6) शिक्षा में व्यावसायीकरण (Vocationalization of Education) – आधुनिक युग (मशीन युग़) से पूर्व शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाना होता था तथा ‘ज्ञान, ज्ञान के लिए कहा जाता था। किन्तु अब शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों में ‘जीविकोपार्जन का उद्देश्य’ भी सम्मिलित हो चुका है तथा शिक्षा का सम्बन्ध उत्पादन एवं व्यवसाय से जुड़ता जा रहा है। अतः लगभग सभी देशों में शिक्षा को व्यवसाय से जोड़ने पर बल दिया जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या एवं बेरोजगारी की समस्या भी इसका एक कारण है। इससे पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा को सम्मिलित करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
(7) तकनीकी, व्यावसायिक एवं सामान्य विषयों का सन्तुलित समावेश (Balanced Inclusion of Technical, Vocational and Liberal Subjects) – अठारहवीं शताब्दी के लगभग तक शिक्षा केवल विशिष्ट लोगों अर्थात् धनी एवं कुलीन वर्ग के बालकों तक ही सीमित थी। चूंकि इन वर्ग के बालकों को रोजी-रोटी की कोई चिन्ता नहीं होती थी, इसलिए पाठ्यक्रम में उन्हीं विषयों को सम्मिलित किया जाता था जो उन्हें विशिष्ट व्यक्तियों की श्रेणी में होने के लिए उपयुक्त होते थे। औद्योगिक क्रान्ति, विज्ञान एवं तकनीकी के विकास तथा मध्यम वर्ग के बालकों के शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश के परिणामस्वरूप शिक्षा का सम्बन्ध जीविकोपार्जन से जुड़ता गया तथा सामान्य (उदार) विषयों के स्थान पर पाठ्यक्रम में धीरे-धीरे विज्ञान एवं तकनीकी विषयों का समावेश होता गया। इस प्रकार अनेक देशों के पाठ्यक्रम में विज्ञान एवं तकनीकी विषयों का वर्चस्व हो गया। यद्यपि उपयोगिता की दृष्टि से यह परिवर्तन ठीक ही था किन्तु इसके अनेक दुष्परिणाम श्री सामने आयें। इसका कारण यह था कि शिक्षित युवक तकनीकी एवं व्यावसायिक दृष्टि से तो उपयुक्त होते थे किन्तु मानवीय एवं चारित्रिक गुणों की दृष्टि से बहुत निम्न स्तर के होने लगे। चूँकि यह स्थिति उदार विषयों की उपेक्षा के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई थी। अतः पाठ्यक्रम में तकनीकी, व्यावसायिक एवं उदार विषयों के सन्तुलित समावेश पर बल दिया जाने लगा। पाठ्यक्रम विकास में यह प्रवृत्ति अत्यन्त उपयोगी मानी जाती है।
(8) पाठ्यक्रम की बोझिलता को कम करना (Reducing the Heaviness of Burriculum)- मनुष्य सदैव समस्याओं से ही जूझता रहता है तथा एक समस्या का समाधान दूसरी समस्या को जन्म दे देता है। ज्ञान का विस्फोट, जीवन की बढ़ती जटिलता, बालकों को मानवीय, चारित्रिक एवं व्यावसायिक दृष्टि से सन्तुलित रूप से तैयार करने की आवश्यकता आदि ने पाठ्यक्रम में बहुत अधिक विषयों एवं प्रवृत्तियों को समाविष्ट कर दिया। इससे पाठ्यक्रम में एकांगीपन दूर होकर सन्तुलन तो स्थापित हो गया किन्तु पाठ्यक्रम बहुत अधिक बोझिल होता चला गया। वर्तमान समय में पाठ्यक्रम की बोझिलता को कम करने के अनेक प्रयास किये गये हैं।
पाठ्यक्रम की बोझिलता को कम करने हेतु किये गये प्रयासों का उल्लेख कीजिए।
पाठ्यक्रम की बोझिलता को कम करने हेतु किये गये प्रयासों अथवा प्रवृत्तियों को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है-
विषयों का सम्मिश्रण या संग्रथन (Fusion) – इसके अन्तर्गत समान धारा के विषयों को मिलाकर एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है जिससे विषयों की संख्या को कम कर दिया जाता है। उदाहरणार्थ-इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विषयों को मिलाकर सामाजिक अध्ययन’ तथा भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, जीवविज्ञान आदि विषयों को मिलाकर सामान्य विज्ञान’ विषय को पढ़ाया जाता है। ‘
(ii) शीघ्रतर विभिन्नीकरण एवं चयन (Earlier Diversification and Selection of Courses)- कुछ देशों में पाठ्यक्रम के पाठ्य विषयों को अनिवार्य एवं ऐच्छिक दो वर्गों में विभाजित कर दिया गया है। अनिवार्य वर्ग में अन्तर्गत उन विषयों का अध्ययन करना होता है जो सभी छात्रों के लिए उपयोगी होते हैं। ऐच्छिक वर्ग में व्यावसायिक उपयोगिता की दृष्टि से विषयों या विषय समूहों को सम्मिलित किया जाता है। विद्यार्थी अपनी योग्यता, अभियोग्यता एवं आकांक्षा के अनुरूप ऐच्छिक वर्ग से विषयों अथवा विषय समूह का चयन कर सकता है। कुछ देशों में आठ वर्ष की शिक्षा के पश्चात् (निम्न माध्यमिक स्तर पर) इस प्रकार के विभिन्त्रीकरण एवं चयन की व्यवस्था की गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में तो इस प्रकार के चयन के और अधिक स्वतन्त्रता है तथा कोई निश्चित वर्ग या समूह बनाने का प्रयास नहीं किया जाता है किन्तु अधिकांश देशों में वहाँ की व्यावसायिक आवश्यकताओं की दृष्टि से विषय समूह बनाये जाते हैं। भारत में माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) ने इन विषयों को सात धाराओं में समूहबद्ध किया है। कक्षा आठ उत्तीर्ण करने के पश्चात् कक्षा नौ में प्रत्येक विद्यार्थी (छात्र एवं छात्रा) को अनिवार्य विषयों के अतिरिक्त इन सात धाराओं में से किसी एक धारा का चयन करना होता है। इस व्यवस्था अर्थात् प्रवृत्ति के पीछे यह उद्देश्य है कि एक तो इससे छात्रों पर पाठ्यक्रम का बोझ कम होगा तथा दूसरे वह यथाशीघ्र अपने इच्छित व्यावसायिक वर्ग में प्रवेश पाकर उसकी तैयारी में जुट सकेगा।
(iii) पाठ्यक्रम में लचीलापन (Flexibility in Curriculum)- पाठ्यक्रम निर्माण का एक प्रमुख सिद्धान्त ‘उसका लचीला होना’ है। इसका तात्पर्य यह है कि विद्यालय तथा शिक्षकों को इतनी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वे स्थानीय समुदाय एवं छात्र वर्ग की आवश्यकताओं तथा तात्कालिक परिस्थितियों के अनुरूप पाठ्यक्रम में यथोचित परिवर्तन संशोधन एवं परिवर्धन कर सकें। ऐसा पाठ्यक्रम की बोझिलता दूर करने के लिए आवश्यक होता है क्योंकि अन्तर्वस्तु, अधिगम अनुभवों एवं शिक्षण विधियों के समरूपता लाने की दृष्टि से पाठ्यक्रम प्रायः कठोर (Rigid) हो जाता है। इसके लिए पाठ्यक्रम को विषयों के स्थान पर शिक्षण इकाइयों में व्यवस्थित करने तथा उनका शिक्षण तार्किक एवं मनोवैज्ञानिक क्रम के अनुसार करने के प्रयास किये जा रहे हैं। इसे संयुक्त उपागम (Composite approach) कहा जाता है। एक दूसरा उपाय आंशिक उपागम (Patch approach) है जिसके अन्तर्गत पाठ्य विषय का सम्पूर्ण अध्ययन न करके उसके कुछ प्रमुख अंशों का अध्ययन किया जाता है जो छात्रों एवं समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक एवं उपयोगी होते हैं। N. C. E. R. T. द्वारा भी अपने दस वर्षीय विद्यालयी पाठ्यक्रम हेतु इन उपागमों को अपनाने की संस्तुति की गई है।
(iv) नवाचारों को अपनाना (Use of New Innovations)- वर्तमान समय में शिक्षा में नवाचारों को अपनाने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है। अभिक्रमिक अनुदेशन, शिक्षण मशीन, टेपरिकॉर्डर, वीडियो टेप, फिल्म, रेडियो, दूरदर्शन, दल शिक्षण जैसी शिक्षण विधियों के साथ-साथ शिक्षण की उच्च प्रविधियों, जैसे समूह चर्चा, वातीलाप, संवाद, अनुवर्ग शिक्षण, पर्यवेक्षित अध्ययन आदि का प्रयोग भी तीव्र गति के अधिगम हेतु किया जा रहा है।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यक्रम विकास का उल्लेख कीजिए।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यक्रम विकास (Curriculum development at international level)- विज्ञान एवं तकनीकी की प्रगति तथा उत्कृष्ट संचार सुविधाओं ने विश्व के देशों में समय एवं दूरी की गोमा को समाप्त कर दिया है अन्तर्राष्ट्रीयता के का प्रारम्भ तथा के युग हुआ है। इससे विभिन्न क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना का विकास हुआ है। अन्य सभी क्षेत्रों के समान ही पाठ्यक्रम विकास के क्षेत्र में भी अन्तर्राष्ट्रीयता का समावेश हुआ है। यूनेस्को तथा अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा ब्यूरो विभिन्न राष्ट्रीय संगठनों की सहायता से इस दिशा में सक्रिय भी है। पाठ्यक्रम विकास के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का प्रथम प्रयास 1967 में आक्सफोर्ड में आयोजित तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रकाश में आया। इस सम्मेलन में डॉ० डब्ल्यू० जी० कार द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय पाठ्यक्रम सम्मेलनों के आयोजन के लिए International center for the study of instruction’ स्थापित करने का प्रस्ताव एवं रूपरेखा प्रस्तुत की गई। इसकी सफलता के लिए उन्होंने दो बातों की आवश्यकता पर विशेष बल दिया-
1. अपने क्षेत्र में पर्याप्त स्वतन्त्रता ।
2. प्रभावी प्रशासन के लिए समुचित समन्वय सेवाएँ।
डॉ० कार ने कहा कि इनके लिए पर्याप्त कौशल अनुभव एवं सद्भाव की आवश्यकता होगी। अतः इसमें थोड़ी संख्या में किन्तु अत्यधिक सुयोग्य कर्मचारी होने चाहिए जो एक ‘शासी परिषद्’ के प्रति उत्तरदायी हो। ‘शासी परिषद्’ का गठन इस प्रकार किया जाए-
1. गणित, मानवीय विषय, कलाएँ, सामाजिक अध्ययन, विज्ञान अनुशासनों के विद्वान।
2. शिक्षा प्रणालियों का संचालन करने वाली तथा उनका वित्तीय भार वहन करने वाली सरकारों के प्रतिनिधि ।
3. शिक्षक संगठनों के प्रतिनिधि ।
4. पाठ्यक्रम एवं अध्यापन क्षेत्र के विद्वान।
परिषद् के सदस्यों के चयन के बारे में डॉ० कार के मतानुसार सरकारी प्रतिनिधि यूनेस्को के सहयोग से चयनित किये जा सकते हैं तथा शिक्षकों के प्रतिनिधि विश्व शिक्षक संघ के सहयोग से। विभिन्न अनुशासनों के विद्वान उपयुक्त अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से चयनित किये जा सकते हैं। डॉ० कार के अनुसार चतुर्थ वर्ग के सदस्यों अर्थात् पाठ्यक्रम एवं अध्यापन क्षेत्र के विद्वानों की संख्या लगभग कुल सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए। इस प्रकार इसमें विभिन्न राष्ट्रों, जातियों, सांस्कृतिक मूल के प्रतिनिधि होंगे।
‘इन्टरनेशनल सेन्टर फार दि स्टडी ‘ऑफ इन्स्ट्रक्शन’ तथा ‘शासी परिषद’ का प्रमुख दायित्व वर्तमान पाठ्यक्रम की अपेक्षा भविष्य के पाठ्यक्रम पर विचार करना होगा। डॉ० कार की दृष्टि में इसे अपने समय, शक्ति एवं साधनों का कम से कम एक तिहाई भाग आगामी पाँच या दस वर्षों के लिए विचार करने में लगाना चाहिए।
तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय पाठ्यक्रम सम्मेलन में ही नेशनल एजूकेशन एसोसिएशन (अमेरिका) के निदेशक डॉ० ओलसेन्ड ने पाठ्यक्रम विकास की प्रवृत्तियों की चर्चा करते हुए विचार व्यक्त किया कि, वर्तमान शताब्दी के तीसरे दशक में जब प्रगतिशील शिक्षा का बोलबाला था, तब पाठ्यक्रम मुख्य रूप से बाल-केन्द्रित था। चौथे दशक में जब हम द्वितीय विश्व युद्ध में उलझे हुए थे तब वह समाज केन्द्रित हो गया। पाँचवें एवं छठे दशक में विद्वानों का वर्चस्व हो जाने के कारण पाठ्यक्रम अनुशासन केन्द्रित रहा। डॉ० सेन्ड ने आशा व्यक्त की थी कि सत्तर के दशक में ‘सम्पूर्ण पाठ्यक्रम’ पर बल रहेगा जो सभी बालकों के लिए होगा तथा सभी पक्षों का समाहित करेगा और अस्सी के दशक तक वास्तविक अर्थ में पाठ्यक्रम विकसित हो जायेगा। डॉ० सेन्ड का अनुमान लगभग ठीक ही रहा। उन्होंने पाठ्यक्रम में सम्भावित परिवर्तनों को भी सूचीबद्ध किया है। यद्यपि यह सूची संयुक्त राज्य अमेरिका में पाठ्यक्रम विकास की स्थितियों एवं प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर बनाई गई है, फिर भी यह विश्वव्यापी प्रवृत्तियों का पर्याप्त अंशों में संकेत देती है। डॉ० सेन्ड द्वारा प्रस्तुत की गई सूची इस प्रकार की है-
पाठ्यक्रम की वर्तमान एवं सम्भावित प्रवृत्तियाँ
वर्तमान तक की स्थिति एवं प्रवृत्ति-
1. अकादमिक विद्वता पर मुख्य बल ।
2. केवल अकादमिक विद्वानों एवं शिक्षकों का सम्भागित्व।
सम्भावित प्रवृत्ति-
- बाल-केन्द्रित, समाज-केन्द्रित अथवा अनुशासन-केन्द्रित पाठ्यक्रम ।
- पूर्व निर्मित कार्यक्रमों का क्रियान्यवन।
- शिक्षा के साधनों के उन्नयन पर दृष्टि ।
- अकादमिक के साथ शैक्षणिक विद्वता पर भी बल।
- शिक्षकों के सम्भागित्व पर विशेष बल के साथ-साथ जन-सामान्य एवं विद्वानों तथा विद्यालय के सभी स्तरों के निर्णय कार्य से सम्बन्धित व्यक्तियों के सम्भागित्व पर भी बल।
- सम्पूर्ण पाठ्यक्रम, मानवीय पाठ्यक्रम ।
- वास्तविक रूप में प्रयोगात्मक कार्यक्रम, अनुभवजनित शैक्षिक विकल्प।
- लक्ष्यों एवं उद्देश्यों पर केन्द्रीय दृष्टि, दार्शनिकों की प्रमुख पात्र के रूप में वापसी।
- सब कुछ पढ़ाने का प्रयास।
- टुकड़ों में शिक्षण, एक बार में एक पाठ्यक्रम।
- प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तरीय सुधार।
- शिक्षकों का सेवारत प्रशिक्षण ।
- कक्षा में वर्ग शिक्षण।
- स्मरण शक्ति अर्थात् रटने पर बल।
- संज्ञान शून्य अर्थात् सामान्य वातावरण।
- क्रमिक कक्षाबद्ध विद्यालय।
- समय सारिणी एवं कालांशबद्ध कक्षाएँ।
- पाठ्य-पुस्तकों, विद्यालय भवन एवं दैनन्दिन समय विभाग चक्र से बंधा हुआ
- प्राथमिकताओं का निर्धारण।
- पूर्व प्राथमिक (नर्सरी) से महाविद्यालयों तक व्यापक विद्यालयी कार्यक्रम।
- प्राथमिक एवं माध्यमिक के साथ-साथ उच्च शिक्षा स्तर पर भी सुधार।
- शिक्षकों की सेवारत शिक्षा ।
- व्यक्तिगत शिक्षण ।
- खोज प्रवृत्ति का विकास।
- अधिगम के लिए प्रेरक वातावरण।
- कक्षारहित अविभाजित विद्यालय ।
- सम्पर्क द्वारा स्वतन्त्र अधिगम।
- शिक्षक, माध्यन एवं मशीन’ (शैक्षिक उपकरण) तीनों का सहयोग।
Important Link
- पाठ्यक्रम का सामाजिक आधार: Impact of Modern Societal Issues
- मनोवैज्ञानिक आधार का योगदान और पाठ्यक्रम में भूमिका|Contribution of psychological basis and role in curriculum
- पाठ्यचर्या नियोजन का आधार |basis of curriculum planning
राष्ट्रीय एकता में कौन सी बाधाएं है(What are the obstacles to national unity) - पाठ्यचर्या प्रारुप के प्रमुख घटकों या चरणों का उल्लेख कीजिए।|Mention the major components or stages of curriculum design.
- अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण किस प्रकार होता है? विवेचना कीजिए।How is a learner’s choice of experiences determined? To discuss.
- विकास की रणनीतियाँ, प्रक्रिया के चरण|Development strategies, stages of the process
Disclaimer: chronobazaar.com is created only for the purpose of education and knowledge. For any queries, disclaimer is requested to kindly contact us. We assure you we will do our best. We do not support piracy. If in any way it violates the law or there is any problem, please mail us on chronobazaar2.0@gmail.com
Leave a Reply