गीत लेखन पर संक्षिप्त लेख लिखिये।Write a short article on song writing.
गीत – बीसवीं शताब्दी में मुक्तक के दो भेदों को प्रमुखता मिली है- 1. गीत 2. गीतेतर कविता। इससे पूर्व कविता का इस तरह का विभाजन नहीं हुआ था परन्तु छायावाद के साथ गीत को जो समृद्धि प्राप्त हुई, वह उसकी अलग सत्ता स्थापित करने में अधिक सहायक हुई। एक रचनात्मक लेखन के विद्यार्थी का मुख्य सरोकार अपने समय के काव्य-रूपों से जुड़ने का अधिक रहता है परन्तु ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझना भी जरूरी होता है। आज गीत का सर्वाधिक प्रासंगिक रूप नवगीत है पर गत एक शताब्दी में उसने अन्य कई उल्लेखनीय उपलब्धिपरक मापदण्ड भी स्थापित किये हैं।
गीत का शाब्दिक अर्थ है- गाया हुआ। इस दृष्टि से बहुत से प्रबन्ध काव्य एवं आख्यानक काव्य भी गीत हो सकते हैं क्योंकि छन्द में लिखी प्रत्येक रचना गायी जा सकती है। इसलिए आज गीत की परिभाषा का निर्धारण केवल उसके शब्दार्थ के आधार पर सम्भव नहीं। गाये जाने का गुण, आज भी गीत की एक बड़ी विशेषता है पर आधुनिक काव्य के सन्दर्भ में उसमें कुछ अन्य विशेषताओं का होना अनिवार्य है, जिनके आधार पर उसे गीत कहा जाता है।
अनुभव की आवेगात्मक अभिव्यक्ति गीत का बहुत बड़ा लक्षण माना गया और इस आवेगात्मकता ने स्वानुभूति से भी जोड़ दिया गया। वस्तुतः गीति में स्वानुभूति की अनिवार्यता की घोषणा एक विशेष ऐतिहासिक कालखण्ड में हुई। गीत को छायावाद में जो समृद्धि मिली उसके कारण गीत और छायावाद की परिभाषा ही एकमएक हो गयी। छायावादी काव्य आत्मपरक काव्य है। इसी आत्मपरकता को गीत के साथ बीसवीं सदी में अनिवार्यतः जोड़ दिया गया जबकि पूरी भारतीय परम्परा को देखें तो विद्यापति, कबीर, सूर एवं तुलसी के पदपरक गीतों में वस्तुपरकता आत्मपरकता के साथ-साथ विद्यमान है। संस्कृत काव्य में मेघदूत भी इनके अद्वैत का प्रमाण देता है। निराला ने इस तथ्य को पहचाना था और पाँचवे-छठे दशक में गीत को आत्मपरकता की रूढ़ि से मुक्त कर दिया था। इसी के परिणामस्वरूप नवगीत में वस्तुपरकता को समाहित किया गया है पर इस विकास-प्रक्रिया को जानने के लिए गीत के विविध रूपों से परिचित हो’ लेना उपयोगी होगा।
ऊपर हमने आवेगमयता की जो चर्चा की है, उसके साथ ही गीत का एक और तत्त्व जुड़ा है। महादेवी वर्मा ने गीत की परिभाषा इस प्रकार दी है- “सुख-दुख की भावावेशमयी अवस्था विशेष का गिने-चुने शब्दों में स्वर साधना के उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीत है।” यहाँ ‘गिने चुने शब्दों’ पर ध्यान दें। स्वर साधना का भावावेशयम रूप बहुत विस्तृत नहीं हो सकता। संक्षिप्तता उसकी अनिवार्यता है इसलिए गीत की यह अपरिहार्य विशेषता है। ऊपर हमने गाये जाने के साथ आवेगमयता का जो उल्लेख किया है, उसमें एक वस्तुपरक घोल को भी मिला दें तो नये गीत का द्रव्य तैयार हो जाता है।
गीत को कविता का शुद्धतम रूप इसीलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें आवेग की सघनता है। निराला ने गीत-सृष्टि को शाश्वत कहा है। यह कथन सही भी है। जीवन का लौकिक सन्दर्भ हो या आध्यात्मिक सन्दर्भ, जन्म का हो या मृत्यु का, गीत की उपस्थिति शाश्वत है। लोकाचारों में तो लोकगीत के रूप में यह ब्रह्म की तरह व्यापक है। हिन्दी कविता में मध्ययुग तक गीत की एक ही शैली प्रमुख थी। वह थी पद शैली। कबीर, सूर और तुलसी के हजारों पद आज तक लोक के कण्ठ में जीवित हैं। आधुनिक युग के साथ मुद्रण का युग आरम्भ हुआ और इसके साथ ही शुरू हुआ गीत में नये प्रयोगों का युग। कुछ आलोचकों ने माना कि यह अँग्रेजी लिरिक का प्रभाव है पर स्थायी और अन्तरां की जो शैली बीसवीं शती के आरम्भ में हिन्दी गीत में दिखलाई देती है, उस पर लावणी, कजली और दूसरे लोककाव्य आधृत गीतरूपों का विशेष प्रभाव है। सन 1861 में हरियाणवी में रची गयी हीरादास उदासी की एक लोक-नाट्यात्मक काव्य कृति है- ‘साँग राजा रत्न सेन का’। इसमें गीत की इस नयी शैली को स्पष्ट देखा जा सकता है। ऐसा ही प्रभाव अलीबक्श की ‘निहालदे’ का भी पड़ा है। यों खड़ी बोली में गीत के नये कलेवर गढ़ने का श्रेय निराला ने प्रसाद को दिया है। इस सन्दर्भ में उन्होंने ऐसे गीतरूप को आधार माना है :
चढ़कर मेरे जीवन रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर मैंने निज दुर्बल पद बल पर
उससे हारी होड़ लगायी।
रचनात्मक लेखन के तत्त्व- गीत पर विचार करते समय कुछ विद्वानों ने उसके लोकजीवन के पक्ष पर बल दिया तो कुछ ने उसकी शिल्पपरक विशेषताओं पर, परन्तु गीत की शक्ति को सभी ने स्वीकार किया है। गीत एकान्त मन के लोड़न-विलोड़न का विषय भी है और समूह में जनजागरण और जनान्दोलन का माध्यम भी। युद्ध के प्रयाण-गीत यदि ओज से सम्पन्न हैं तो अन्याय के संघर्ष में भी इनका विरोध स्वर बहुत मुखरित है। ये आराधना के भाष्य भी हैं। एक समय में ‘विनय पत्रिका’ में तुलसीदास ने यदि आत्म-निवेदन गीत के माध्यम से किया था तो उनसे पूर्व रूप-मुग्धता का चित्रण विद्यापति ने इस रूप में किया था – “जन्म अवधि हम रूप निहारल नयन ने तिरपित भेल।” मीरा के गीतों की व्यथा तो जन-जन की व्यथा बन गयी है। उनके ऐसे गीत लोक में अमर हैं- “मैं तो गिरधर के रंग राँची।” “म्हाणे चाकार राख्यो जी।” सूर जब गाते हैं, “ये आंखिया हार दर्शन की प्यासी।” तो गीत का अगजग विस्तार कर देते हैं। गीत की सर्वाधिक व्याप्ति लोकजीवन में श्रम के क्षणों में संस्कार के क्षणों में मिलन और विदाई के क्षणों में गीत सम्पूर्ण शक्ति के साथ लोक के साथ खड़ा दिखाई देता है। गीत की इस व्याप्ति के परिणाम स्वरूप उसमें असीम विविधता है।
इसके प्रमुख रूप निम्न हैं :
वैयक्तिक गीत – यों तो कविता मात्र में वैयक्तिक भावों की अभिव्यक्ति महत्त्वपूर्ण है परे गीत में इसका विशेष स्थान है। जैसा कि पहले भी स्पष्ट किया गया है, छायावाद काल के गीतों के आत्मपरकता सर्वाधिक है। प्रसाद के ‘झरना’ और ‘लहर’ के गीत, निराला के ‘परिमल’, ‘अनामिका’ और ‘गीतिका’ के गीत, पन्त के ‘पल्लव’ और ‘गुर्जन’ के गीत तथा महादेवी वर्मा के ‘नीरजा’, ‘नीहार’ एवं ‘दीपशिखा’ के गीत आत्मपरक गीतों के मार्मिक उदाहरण हैं। निराला के सीधी राह मुझे चलने दो, तुम से लग गयी जो मन की, दुखता रहता है अब जीवन, स्नेह निर्झर बह गया है, मैं अकेला जैसे कितने ही आत्मपरक गीत अपनी अनुभूति में आज भी ताजा हैं। दिनकर, अंचल, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, बच्चन, भारती आदि कई कवियों के मार्मिक गीत विशेष वैयक्तिक भाव लिए हैं। ‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’ ‘यह पतझर की शाम सखे’ ‘मधुप नहीं अब मधुवन तेरा’ जैसे गीतों में बच्चन ने आत्मपरक गीतों का मानक प्रस्तुत किया है।
राष्ट्रीय गीत – स्वतन्त्रता-संग्राम के समानान्तर ही आधुनिक गीति काव्य का विकास हुआ है, इसलिए हिन्दी गीत इस आन्दोलन से अछूता नहीं रहा है। भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, निराला, रामनरेश त्रिपाठी, श्याम नारायण पाण्डेय, बिस्मिल आदि अनेक कवियों ने चिरस्मरणीय राष्ट्रगीत लिखे हैं। निराला का ‘भारती जय विजय करे’ और प्रसाद का ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्धा शुद्ध भारती’ लोकप्रिय राष्ट्रीय गीत रहे हैं।
प्रगतिशील गीत – स्वतन्त्रता आन्दोलन का एक पक्ष आम आदमी, शोषित और पीड़ित के पक्ष में आवाज उठाने का भी रहा है। हिन्दी में 1936 से प्रगतिवादी आन्दोलन का उभार विशेष रूप से माना जाता है, यों निराला और पन्त के कई गीत इससे पूर्व प्रगतिशील चेतना का उद्घोष कर उठे थे। बाद में नरेन्द्र शर्मा, भगवती चरण वर्मा, शिव मंगल सिंह सुमन, केदारनाथ अग्रवाल एवं शैलेन्द्र शंकर ने उल्लेखनीय प्रगतिवादी गीतों की रचना की है। इन कवियों ने अमानवीय शोषण को अनावृत्त किया था। भगवतीचरण वर्मा की इन गीत पंक्तियों में इन प्रवृत्ति को देखा जा सकता हैः
मानापमान हो इष्ट तुम्हें मैं तो जीवन को देख रहा
मैं देख रहा दानवता के दुस्साहस के विकराल कृत्य
मैं देख रहा बर्बरता का भू की छाती पर नग्न नृत्य
लोक-शैली के गीत – लोक-काव्य ने आधुनिक गीत को छन्दों और लयों के क्षेत्र में मौलिक योगदान किया है। स्वतन्त्रता के बाद आंचलिकता का आग्रह हिन्दी उपन्यासों और ललित निबन्धों में तो उभरा ही गीत में भी उसकी विशेष पहचान बनी है। अज्ञेय ने ‘काँगड़े की छोरिया’ गीत लिखा तो भवानी भाई ने ‘पीके फूटे आज प्यार के पानी बरसा री’ की रचना की। केदारनाथ अग्रवाल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रामदरश मिश्र, ठाकुर प्रसाद सिंह एवं केदारनाथ सिंह ने भी कई लोकगन्धी गीतों की रचना की। ठाकुर प्रसाद सिंह ने ‘वंशी और मादल’ संग्रह में तथा बच्चन ने ‘त्रिभंगिमा’ तथा ‘चार खेमे चौंसठ खूँटे’ में कई लोक-शैली के गीत रचे। इस शैली का उदाहरण शम्भुनाथ सिंह की इन गीत पंक्तियों में देखा जा सकता है :
पिया न आये आमों में
आ गया टिकोरा री
बँसवारी में मैना बोली
पीपल पर कोयलिया
आँगन की चन्दन गछिया पर
बोला कागा छलिया
दूर किसी झुरमुट में बोला
बन का मोरा री।
नवगीत – सन् 50 के आसपास गीत बहुत व्यक्ति-केन्द्रित हो गया था। तब निराला ने हिन्दी कविता को अपने गीतों से एक नयी राह दिखलाई। उन्होंने गीत में वस्तुपरकता, समष्टि-उन्मुखता और जन पक्षधरता को स्थान दिया। ‘आओ जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाओ।’ जैसे गीत यही नयी राह दिखला रहे थे। जीवन-संघर्ष के साथ जुड़ा गीत ही नवगीत बना। शम्भुनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, नईम, उमाकान्त मालवीय, माहेश्वर तिवारी, शलभ श्री रामसिंह, रमेश रंजक, नचिकेता, गुलाबसिंह, भारतेन्दु मिश्र जैसे कई उल्लेखनीय नवगीतकारों ने जीवन के यथार्थ संघर्ष के साथ तो गीत को जोड़ा ही, लय, छन्द एवं बिम्बों के क्षेत्र में भी एक नये क्षितिज का उद्घाटन किया। रूढ़ और बासी होती गीत धारा को नवगीतं ने नये प्राण और नयी ऊर्जा दी है। नवगीत ने स्त्रीविमर्श और दलित विमर्श सहित सभी समकालीन स्थितियों का चित्रण किया है।
गज़ल-गीत- आत्माभिव्यक्ति के करीब होने के कारण एवं भाव सघनता के कारण ग़ज़ल को भी गीत का ही फार्म मानने की प्रथा हिन्दी में है। पिछले तीन-चार दशकों में तो गीत एक दूसरे के और भी नजदीक आये हैं। दुष्यन्त की पुस्तक, ‘साये में धूप’ के प्रकाशन के बाद ग़ज़ल बहुत लोकप्रिय हुई है और आज हिन्दी में बेशुमार गज़ल कही जा रही है। पर गज़ल लिखने के लिए इसके शिल्प को बहुत बारीकी से समझना होता है। ऐसी समझ के बिना सफल गज़ल नहीं कही जा सकती। यह उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार नवगीत ने पारम्परिक गीत के कथ्य और शिल्प को बदला है, उसी तरह नयी गज़ल जन-जीवन के संघर्ष को ज्यादा मुखर करती है।
गीत की रचना प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
गीत की रचना प्रक्रिया- रचनात्मक लेखन सिद्धान्त से अधिक व्यवहार है। हमने गीत का विकासात्मक अध्ययन इसी दृष्टि से प्रस्तुत किया है कि गीत लेखन के लिए उन भूमियों से परिचित हो लिया जाए, जिन-जिन से गुजरना अपेक्षित है। प्रत्येक गीत की एक विषय-वस्तु होती है। आत्मपरक गीत के भीतर का उद्वेलन एक तरंग बन कर एक तन्मय भाव-स्थिति बनकर अकुलाहट-सी पैदा करता है तो नवगीत भी उसी तरह से सम्वेदना से जुड़ा होता है अन्तर इतना है कि इसके उद्वेलन के कारण-तत्त्व भीतर और बाहर दोनों ओर होते हैं। इसमें अपना भी सुख- दुख होता है और जग कां भी-वस्तुतः कविता परकाया प्रवेश है। ग़ालिब ने लिखा है :
कहते हैं जब रही न मुझमें ताकत-ए-सुखन
जानूँ किसी के दिल की मैं क्योंकर कहे बगैर
अर्थात जब हममें कविता रचने की शक्ति मौजूद रहती है, हम बिना कहे भी औरों के दिल का हाल जान लेते हैं। कवि जब अपने ही दिल का हाल कहता है तो भी वह विशिष्ट कहता है, पर जब वह दूसरे के दिल की कहता है तो और विशिष्ट हो जाता है।
गीत में अनुभूति का प्रस्फुटन किस तरह से होता है उसका, बारीक अध्ययन हम गीत के बदलते स्वरूप के उदाहरण ले कर करेंगे।
1. कवि के मन में एक पंक्ति घुमड़ती है-
“कौन थकान हरे जीवन की”
अनुभव की सघनता से ही ऐसी पंक्ति जन्म लेती है। फिर यह भाव-प्रेरित पंक्ति भीतर तक अनुगुंजित होती है। कवि कल्पना का एक विस्तार इस मूल प्रेरणा को देता है। विशेष यह है कि कवि कहानी कहने नहीं बैठता, घटना का वर्णन नहीं करता। वह हल्के स्पर्शों से एक चित्र उभरता है परन्तु चित्र तब तक नहीं उभार सकता जब तक उसकी भाव-तन्मयता एक लय का अनुसन्धान नहीं कर लेती। यह लय ही गीतकार को शब्दों के चुनाव की ओर ले जाती है। लय का अनुसंधान करने वाले शब्द क्रमशः एक छन्द को मूर्त करते हैं। यह मूर्तिमान छन्द अपने शेष अंगों को उसी तरह संवर्द्धित कर लेता है, जैसे एक पौधा उगता और बढ़ता है। शब्द बिम्बों और प्रतीकों में ढलते हैं। टेक बन जाती है, अन्तरा झूमने लगता है और तन्मयता एक आवेगपूर्ण संक्षिप्तता में रचना को पूर्णता देती है।
2. गीत-रचना की प्रक्रिया को समझने के लिए हम एक और गीत लेते हैं। इस गीत का आरम्भ एक घटना से होता है पर घटना घटना नहीं है, उसकी स्मृति है। प्रधान है- दृश्य । उस दृश्य में भी मुख्य हैं दो हाथ। ये हाथ मेहंदी रचे हैं। यह एक संकेत है, बहुत कुछ कहता हुआ। हाथ किसके हैं। ‘नारी के! नवविवाहिता के ! वे जल में दीप सिराते हाथ हैं। यह दीप सिराना कितने पुरा बिम्बों, संस्कारों और लोक कथाओं की कहानी कह जाता है और यों पहली दो पंक्तियाँ बल्कि छन्द के पूरे प्रवाह के साथ एक पंक्ति एक बिम्ब की सृष्टि करती है। यह दृश्य बिम्ब कवि के मन में उगा। शब्दों ने लयात्मक क्रम प्राप्त किया और अब प्रभाव की प्रतिक्रिया शुरू हुई। जल में दीप धरने वाले दो हाथों का बिम्ब तो एक क्षण का था पर सघन प्रेम ने उसे जनम-जन्मों को प्रभावित करते देखा है। मन का ‘ताल-सा’ हिलना पहले लगता है कि एक उपमा भर है पर ‘जन्म जन्मों ताल-सा हिलाता रहा मन’, एक के बाद एक क्रमिक दृश्यों को जन्म देकर अनन्त बिम्बों की सृष्टि करता है। कल्पना से विस्तार पाकर गीत आगे बढ़ा। पूरी लोक-कंथा एक ही पंक्ति में कह दी -‘ले गया चुनकर कमल कोई हठी युवराज’ और फिर वही ‘देर तक शैवाल सा हिलता रहा मन।’ आवृत्तिपरक अन्तरों में नदी भी आयी, नाव भी और उसके साथ झीने पाल-सा हिलता मन भी। गुजरती रेल के धुएँ के साथ मन हाथ के रूमाल-सा हिलता रह कर जिस चरमोत्कर्ष पर पर पहुँचता है, गीत अपनी सघनता की गाथा अंकित कर देता है। सफल गीत रचना के लिए इस प्रकार लय, छन्द, बिम्ब, आवेश, अनुभव, ये सब तो चाहिए पर टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं एक सघन सावयव जुड़ाव के साथ।
3. अब हम नवगीत-शैली के एक गीत के विश्लेषण के आधार पर गीत की रचना- प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे। गीत इस प्रकार है :
आसपास
जंगली हवाएँ हैं,
मैं हूँ।
पोर-पोर
जलती समिधाएँ हैं
मैं हूँ।
आड़े-तिरछे
लगाव
बनते आते
स्वभाव
सिर धुनती
होंठ की ऋचाएँ हैं
मैं हूँ।
अगले घुटने
मोड़े
झाग उगलते
घोड़े
जबड़ों में
कसती वल्गाएँ हैं
मैं हूँ।
पुराने गीतों की तुलना में सबसे पहला तथ्य तथ्य तो इस गीत से यह उभरता है कि इसमें बच्चन युग के गीतों का विस्तार नहीं है। दूसरी बात ऊपर से जो दिखाई देती है, वह यह कि शायद इसमें कोई निश्चित छन्द व्यवस्था नहीं है, पर यह आभासित सत्य है। लय एवं कथ्य के आधार पर छन्द की इस पंक्ति को ‘आसपास जंगली हवाएँ हैं, मैं हूँ’ को तीन पंक्तियों में तोड़ा गया है। फिर यह भी लगता है कि टेक और अन्तरा में मात्राओं की व्यवस्था एक सी नहीं है; इसलिए किसी मूल छन्द की व्यवस्था नहीं है। पर यह लगता भर है, वास्तविक नहीं है। कई आलोचकों ने इस ऊपरी व्यवस्था की गहरायी में जाये बिना घोषणा कर दी कि नवगीत ने छन्द को छोड़ दिया है जबकि वास्तविकता यह है कि नवगीत में छन्द की शाश्वत जकड़न को अस्वीकार कर उसको कथ्य के अनुरूप लचीला बनाया गया है और मूल लय को कहीं खण्डित नहीं होने दिया है। मूल लय-संरचना को बनाए रखना छन्द के अधकचरे ज्ञान से सम्भव नहीं। यहाँ हम इस गीत के कथ्य पर आते हैं। कवि पहले शब्द से आपको परिवेश से जोड़ा है। हवाओं की उपस्थिति बतलाता पर वह हवा के साथ एक विशेषण जोड़ देता है, जंगली। अब हवा मानवीकृत हो गयी है पर यह छायावादी मानवीकरण नहीं है, जिसमें प्रकृति के माध्यम से कवि कां स्व व्यक्त होता है। यह वह परिवेश है जहाँ प्रकृति भी पात्रता प्राप्त करती, व्यक्तित्व प्राप्त करती है। ‘जंगली’ शब्द के उच्चारण के साथ पंजे उभरते हैं, नाखून उभरते हैं, हिंसक लाल आँखें और दाढ़े उभरती हैं और ये सब हवा के साथ जुड़ जाती हैं। हवा और कहीं नहीं हैं, बहुत आसपास है। इस हिंसकता के बहुत पास “मैं हूँ”। यह मैं कवि है, आम आदमी हैं, जनता है। एक वचन नहीं बल्कि ‘हम’ है। हम जो इस हिंसक परिवेश में घिरे हैं। गीत में बहुत किफायती होकर शब्दों का प्रयोग करना होता है और कवि ने इन छः शब्दों में दो वाक्य दिये हैं।
मुक्तक लेखन पर संक्षिप्त लेख लिखिये।
उत्तर- मुक्तक- मुक्तक आज एक व्यापक शब्द है। काव्याशास्त्र में पाठ्य मुक्तक और गेय मुक्त के भेदै मिलते हैं। हमने गीत को केवल गेयता के आधार पर परिभाषित नहीं किया था, उसमें संवेग और आत्मपरकता का अतिरिक्त सन्निवेश माना था। कविता न तो केवल आत्माभिव्यक्ति होती है और न वह आत्माभिव्यक्ति से पूर्णतः निरपेक्ष हो सकती है पर अलग- अलग स्थितियों में आत्मपरकता और वस्तुपरकता के एक अनुपातपरक अन्तर के आधार पर ही गीत और गोतेतर मुक्तक में भेद कर सकते हैं। कह सकते हैं, मुक्तक में अतिरिक्त रूप में बौद्धिकता होती है, बहिमुर्खता होती है, वस्तुपरकता होती है पर इन विशेषताओं के बाद यह बहुत मुक्त रूप में हमारे सामने आती है क्योंकि इसमें आकार का कोई बंधा-बंधाया मानक नहीं होता। दो पंक्तियों से सौ पंक्तियों तक भी मुक्तक की व्याप्ति हो सकती है। एक बात और। मुक्तक एक और अर्थ में भी रूढ़ हो गया है। कवि सम्मेलनों में कवि मुख्य रचना सुनाने से से पूर्व अक्सर कहते हैं, एक मुक्तक सुनिये। यह मुक्तक वास्तव में रूवाई से मिलती-जुलती चार पंक्तियों का समुच्चय होता है। इसके लिए छन्द का भी विशेष निर्धारण नहीं है। हाँ तुकों की एक रूढ़ि-सी बन गयी है कि प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ पंक्तियों में समान तुक रहती है जबकि तीसरी पंक्ति अतुकान्त होती है। पर यहाँ जिस अर्थ में मुक्तक का प्रयोग कर रहे हैं, उसमें यह कवि सम्मेलनी मुक्तक भी समाहित है और इससे व्यापक अर्थ भी इसमें है। इसके अतिरिक्त दोहा, कवित्त, छप्पय, सवैया और कुण्डली छन्द मुक्तक के रूप में अधिक लोकप्रिय रहे हैं।
मुक्तक की सबसे बड़ी विशेषता है सीधे प्रहार करना। उसमें विस्तार का अवकाश नहीं होता। संक्षिप्तता उसका प्राण है। यह आकारगत संक्षिप्तता अर्थ की सघनता लिए होती है। -इसलिए व्यापक-जीवन अनुभाव के बिना और भाषा पर पूर्ण अधिकार के बिना अच्छा मुक्तक नहीं लिखा जा सकता। भारतीय साहित्य में मुक्तक की लम्बी परम्परा रही है। यदि हम संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी की कविता में मुक्तकों का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि यद्यपि उनका प्रत्यक्ष रूप दो या चार पंक्तियों का होता है पर उनके साथ पूरा व्यापक सन्दर्भ होता है। बिहारी के प्रत्येक दोहे की एक पूर्व पीठिका है और यह शैली उन्होंने अमरुकशतक और गाथा सप्तशती की परम्परा से ही प्राप्त की है। वैदिक साहित्य की ऋचाएँ मुक्तकों का श्रेष्ठ उदाहरण है। तदनन्तर प्राकृत में वज्जालगा और थेरी गाथाओं में मुक्तक का उत्तम रूप मिलता है। बाद में अमरुकशतक, श्रृंगारशतक, नीतिशतक, वैराग्यशतक, आर्यासप्तशती और गाथा सप्तशती के रूप में मुक्त की समृद्ध परम्परा मिलती है। भक्तिकाल और रीतिकाल में श्रेष्ठ मुक्तक काव्य की रचना हुई है बल्कि हिन्दी कविता की तो मूल प्रकृति मुक्तक की ही है।
आधुनिक युग में मुक्तक में बहुत वैविध्य प्राप्त होता है। यह वैविध्य कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर है। बीसवीं शताब्दी का अधिकांश काव्य सामाजिक सरोकारों का काव्य है। इस सदी में एक धारा आत्मपरक मुक्तकों की रही है, जिसकी शैली गीतपरक है। दूसरी ऐसी धारा है जिसमें सामाजिक संघर्ष और जीवन का यथार्थ अधिक व्यक्त हुआ है। इस दूसरी धारा में तीन प्रकार की रचनाएँ हैं- 1 छन्दोबद्ध 2. मुक्त छन्द और 3. छन्द मुक्त। प्रयोगवाद के साथ ही छन्द का रिश्ता कविता से कमजोर पड़ने लगा था और मुक्तक के शिल्प में बिम्ब प्रधान होने लगा था। बिम्ब छन्द की अनुपस्थिति में भी कविता में अन्विति लाने में समर्थ हुआ था बल्कि कभी- कभी तो इनसे गीत का-सा आवेग भी पैदा हुआ है। केदारनाथ सिंह का एक मुक्तक देखिए :
उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए
मुक्तक के सन्दर्भ में ही यह भी याद रखना होगा कि शब्दों के अर्थ प्रायः बदलते रहे हैं। ‘कविता’ गीत के विलोम युग्म के रूप में ऐसा शब्द बन गया है जो छन्द-मुक्त कविता का अर्थ देने लगा है। कम से कम पिछले तीस वर्षों में इस शब्द में गीत का अर्थ तो अवश्य ‘माइनस’ हो गया है। अतएव गत तीस-चालीस वर्षों की वह कविता जो प्रबन्ध काव्य या गीत नहीं है, केवल ‘कविता’ कहलाने लगी अर्थात हम जिस मुक्तक की बात कर रहे हैं यदि उसमें से छान्दसिक मुक्तक को निकाल दें तो शेष को कविता कहेंगे। पर कुछ रचनाएँ तो गीत, मुक्तक और कथा-शैली का एक सम्मिश्रण नजर आती है। वे मुक्तक होकर भी एक रूढ़ चौखटे में नहीं बँधी है। रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता ‘रामदास’ ऐसे ही रचता है :
चौड़ी सड़क गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अन्त समय आ गया पास था
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी
धीरे-धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर वह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे सभी निहत्थे
सभी जानते थे वह उस दिन उसकी हत्या होगी
यह घटनापरक कविता है। पर समूची घटना लगता है, एक निर्वैयक्तिक विवरण है, जबकि यह निर्वैयक्तिकता एक गहन संवेदना के साथ जुड़ी है। संवेदनहीन होते जाते समाज के प्रति व्यक्त संवेदना है। यह अपने समग्र अभिव्यक्त रूप में यह कविता एक पूर्ण मुक्तक का रूप धारणे कर दृष्टान्त बन जाती है। इसकी पैनी व्यंग्यात्मकंता आम आदमी की निरीहता को जिस रूप में व्यक्त करती है, यह मुक्तक की शक्ति बन कर उभरती है।
समकालीन कविता में मुक्तक काव्य क्रमशः अधिक बौद्धिक, अधिक जटिल हुआ है परन्तु यह भी सत्य है कि इस दौर में कई ऐसे व्यंग्यात्मक पैनी रचनाएँ आयी हैं जो नये विमर्शों को सशक्त रूप में व्यक्त कर पायी हैं। इस उत्तर आधुनिक दौर में हाशिए पर चले गये उपेक्षितों को केन्द्र में लाया जा रहा है और नया मुक्तक काव्य उसमें अहम भूमिका निबाह रहा है। इसका उदाहरण हमें आगे की कविता में दिखलायी देता है:
इन्द्र, आप यहाँ से जायें
तो पानी बरसे
मरुत, आप यहाँ से कूच करें
तो हवा चले
वृहस्पति, आप यहाँ से हटें
तो बुद्धि कुछ काम करना शुरू करे
अदिति, आप वहाँ से चलें
तो कुछ ढंग की सन्ततियाँ जन्म लें
रूद्र आप यहाँ से दफा हों
तो कुछ क्रोध आना शुरू हो
देवियों-देवताओं, ओ, हम आप से
जो कुछ कह रहे हैं
प्रार्थना के शिल्प में नहीं
कविता में कई बार कई प्रवृत्तियों एवं रूपों का पुनरागमन होता है। इस ‘रिवाइवल’ को पीछे से जुड़ने का भाव भी हो सकता है और प्रयोगोन्मुखता थी। पुराने साँचे नये कथन की भरने का आग्रह इसमें मूल रूप से होता है। गत तीस वर्षों में हिन्दी कविता में कुछ मुक्तक रूपों का पुनरुदय देखा जा सकता है। इनमें प्रमुख हैं: दोहा, कवित्त और पद। हिन्दी साहित्य परम्परा में इनके कई समृद्धि काल रहे हैं पर आज इनका महत्त्व इनके युगानुरूप वैशिष्ट्य के कारण है।
एक छन्द के रूप में ‘दोहा’ अपभ्रंश और हिन्दी दोनों भाषाओं के साहित्य में प्रतिष्ठित रहा है। कबीर, तुलसी, रहीम और बिहारी ने इसे असीम उत्कर्ष दिया है। केवल 48 मात्राओं के इस छन्द की शक्ति का सभी लोहा भी मानते रहे हैं। सामाजिक गठन का जो उत्कर्ष दोहे को बिहारी ने दिया था वह अद्वितीय है लेकिन विशेष बात यह है कि कबीर के जीवन साक्ष्य-सम्पन्न काव्य की, तुलसी के वैष्णव आराधन की, रहीम के नीतिपरक अनुभव की और बिहारी के भक्ति-नीति-श्रृंगार के त्रिविध कथ्य की दोहे में समुचित एवं सशक्त अभिव्यक्ति हो सकी है। दोहे की इसी विषय-रिपेक्षता एवं अभिव्यक्ति-क्षमता को पहचान कर समकालीन कवियों ने भी इसमें हाथ माँजा है। यह भी ध्यान देने की बात है कि दोहा केवल एक मात्रागत ढाँचा नहीं है, हर युग ने उसको एक नया आन्तरिक वैशिष्ट्य दिया है। सम्भवतः कालिदास के ‘विक्रमोर्वशीयम्’ नाटक में आया यह दोहा इस छन्द की प्रथम लिखित उपस्थिति दर्ज कराता है:
महं जाणिअ निअलोअणि णिसिअस कोड़ हरेइ
जाव णु णव तडिसामलि धाराहरू वरिसेइ
(मुझ वियोगी विक्षिप्त को वर्षाकाल में जब श्यामल मेघों के मध्य चमकती हुई बिजली दिखायी दी तो ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई कृष्ण रंग का निशाचर मेरी गौरवर्णा उर्वशी का अपहरण किये ले जा रहा है।)
इधर कवि सम्मेलनों में कविता के रूप में भी अक्सर मुक्तक प्रस्तुत किये जाते हैं। ‘पद-कुपद’ के नाम से पिछले दिनों अष्टभुजा शुक्ल का एक पद-संग्रह आया था जिसमें वर्तमान जीवन सन्दर्भों को चित्रित किया गया है। उर्दू शैली में रूबाई और शेर तो मुक्तक के प्रमुख रूप हैं ही। विदेशों से हमारे यहाँ सॉनेट ही नहीं आया जपानी हाइकू भी आया। हाइकू तीन पंक्तियों का एक जापानी छन्द है। हम इसका एक उदाहरण यहाँ दे रहे हैं :
नहीं, मेरे घर नहीं।
वह टपटपाता छाता
पड़ोसी के यहाँ चला गया।
हिन्दी में दसियों कवियों ने हाइकू संकलन छपवा डाले हैं।
समग्रतः कहा जा सकता है कि मुक्तक का क्षेत्र असीम है। इसकी शिल्प-संरचना भी विविध है। – किसी भी साधारण से साधारण विषय को कविता का कथन बनाया जा सकता है- इसकी घोषणा मुक्तक के स्वरूप में निहित है। मुक्तक एक ओर नये कवियों के लिए काव्याभ्यास का अवसर प्रदान करता है, दूसरी ओर शिल्प के मंजाव के साथ उपलब्धि का रास्ता भी खोलता है।
“लम्बी कविता क्या है?” लंबी कविता लेखन की प्रक्रिया का वर्णन कीजिये।
लम्बी कविता – आधुनिक युग में पारम्परिक प्रबन्ध रचना की शैली प्रायः अप्रासंगिक हो गयी है। लेकिन मुक्तक की एक सीमा है और जीवन की समग्रता को उसके माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। इसे नये सन्दर्भ में नये काव्यरूपों का आविष्कार हुआ। पन्त ने ‘परिवर्तन’ कविता में एक अकथात्मक, दीर्घ भाव-विश्लेषण किया और उसके बाद 1931 में प्रसाद की कविता ‘प्रलय की छाया’ का प्रकाशन हुआ। यह कविता एक नयी दिशा की उद्घाटक सिद्ध हुई। यह कविता पारम्परिक प्रबन्ध-काव्य के अन्तर्गत नहीं आती थी। इसमें एक पात्र की उपस्थिति है, घटना-सूत्र भी है परन्तु समूची कविता एक नाटकीय तनाव के साथ आगे बढ़ती है। इस कविता में मुक्त छन्द को अपनाया गया है, यह स्थिति भी ट्रेंडसेटर सिद्ध होती है। प्रसाद के साथ ही अपने समय के अग्रदूत निराला ने ‘सरोज-स्मृति’ और ‘वनवेला’ में लम्बी कविता का ही आदर्श प्रस्तुत किया और 36 में आयी मील का पत्थर बन जाने वाली उनकी कविता ‘राम की शक्ति पूजा’, ‘कुकुरमुत्ता’ और ‘खजोहरा’ को भी इसी क्रम में देखा जा सकता है। इन कविताओं में क्रमशः एक नये काव्य-रूप को सम्भव बनाया। आत्मपरकता से क्रमशः दूर होती हुई, गीतात्मक विन्यास को छोड़ती हुई सीमित अनुभव से मुक्त होती हुई जिस तरह की यह नयी कविता-शैली विकसित हो रही थी, वह अपेक्षाकृत वस्तुपरक थी, घटनात्मकता के कारण औपन्यासिक थी और संघर्ष एवं तनाव के कारण नाटकीय थी। ये सारी विशेषताएँ अपेक्षाकृत दीर्घाकार से जुड़ी – थीं। इस प्रकार ‘लम्बी कविता’ का नया रूप कविता में ही प्रतिष्ठित हुआ। ‘मुक्तिबोध’ ने इसे अपने और अपने समय के बहुत अनुकूल पाया। समय-संघर्ष को वे जिस रूप से व्यक्त करना चाहते थे, उनके अनुसार वह लम्बी कविता में ही सम्भव था। इसलिए उन्होंने लिखा “छोटी कविता मैं लिख ही नहीं पाता और जो छोटी होती हैं, वे वस्तुतः छोटी न होकर बल्कि अधूरी होती हैं।” जिस प्रकार ‘राम की शक्ति पूजा’ ने एक इतिहास बनाया था, उसी प्रकार ‘अँधेरे में’ ने एक दूसरे इतिहास की सृष्टि की। बाद में धूमिल ने इस दिशा में सर्वाधिक उल्लेखनीय कविताएँ दीं। उनकी लम्बी कविता ‘पटकथा’ बहुत चर्चित रही है। आलोक धन्वा की ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और वीरेन डंगवाल की ‘रामसिंह’ ऐसी लम्बी कविताएँ हैं जो सामाजिक यथार्थ का बारीकी से और पैनेपन के साथ ‘चित्रण’ करती हैं।
लम्बी कविता की रचना: प्रक्रिया- गीत तथा मुक्तक कविता में एक सहज आवेग-प्रधान होता है। इसीलिए इसकी रचना-प्रक्रिया भी एक अलग मानसिकता की अपेक्षा रखती है जबकि लम्बी कविता में एक अन्तर्बाह्य संघर्ष होता है। यह संघर्ष स्थिति इसके लिए एक लम्बी तैयारी की अपेक्षा रखती है। लम्बी कविता में चिन्तन एवं अनुभूति का सतत प्रवाह तो होता ही है, उसमें एक कथा-तत्त्व भी अनिवार्यतः रहता है। यह कथा-तत्त्व पात्र को अनिवार्यता को उपस्थित करता है। लम्बी कविता में एक या दो प्रमुख पात्र होते हैं। यह स्थिति महाकाव्यों के नायकत्व से मेल खाती है पर यह नायक पारम्परिक महाकाव्यों की तरह महान् कुलोद्भूत, राजा या देवता हो यह आवश्यक नहीं। इधर की कई लम्बी कविताओं में स्वयं कवि ही नायक रूप में विद्यमान रहता है। ये ‘मैं’ परक कविताएँ आन्तरिक धरातल पर अधिक विश्लेषणात्मक हैं। ‘अंधेरे में’ कविता इस शैली का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। नायक की परिकल्पना लम्बी कविता के उद्देश्य के समानान्तर ही की जाती है। प्रसाद ने ‘प्रलय की छाया’ में कमला के माध्यम से एक ओर तत्कालीन गुजरात का राजनैतिक द्वन्द्व चित्रित किया है, दूसरी ओर समकालीन भारतीय इतिहास का राजनैतिक द्वन्द्व भी चित्रित किया है।
नायक के साथ ही लम्बी कविता में परिवेश का उल्लेखनीय महत्त्व होता है। परिवेश यों भी देश और काल का ही संयोग होता है। यह परिवेश लम्बी कविता की ऐतिहासिकता को एक प्रामाणिकता देता है। ‘पटकथा’ में धूमिल ने आजादी के बाद के भारत की, स्वतन्त्रता की अपेक्षाओं और बाद में मोह भंग का जो चित्रण किया है, वह अपनी ऐतिहासिकता में ही उल्लेखनीय है। लम्बी कविता अपने युग के यथार्थ से उपजती है। उसमें एक नाटकीय तनाव की अहम भूमिका होती है। इसी प्रकार उसका कथा – तत्त्व एक औपन्यासिक समन्वय की माँग करता है। लम्बी कविता को शक्ति प्रदान करने में मिथक और जातीय स्मृति का अध्ययन भी सहायक होता है। नायक, सटकीयता, औपन्यासिकता, ऐतिहासिकता, मिथकीय चेतना व जातीय चेतना के तत्त्वों को एक रचनात्मक वैशिष्ट्य कवि की कल्पना के द्वारा दिया जा सकता है और कल्पना भाव-प्रेरित हो यह भी जरूरी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि लम्बी कविता की रचना-प्रक्रिया थोड़ी जटिल है पर यहीं जटिलता उसे अधिकाधिक सार्थक बनाती है। हम यहाँ मुक्तिबोध को लम्बी कविता का एक अंश उदाहरण के रूप में दे रहे हैं। इसका ध्यानपूर्वक अध्ययन लम्बी कविता की रचना में सहायक हो सकता है:
सूनापन सिहरा,
अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे
शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की,
मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर
छटपटा रही है शब्दों की लहरें
मीठी है दुःसह !!
अरे, हाँ, साँकल ही रह-रह
बजती है द्वार पर।
कोई मेरी बात मुझे बताने के लिए ही
बुलाता है-बुलाता है
(हृदय को सहला मानो किसी जटिल
प्रसंग में सहसा होंठों पर
होंठ रख, कोई सच-सच बात
सीधे-सीधे कहने को तड़प जाय, और फिर
वही बात सुनकर धँस जाय मेरा जी-
इस तरह, साँकल ही रह-रह बजती है द्वार पर)
आधी रात, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने ?
विमन प्रतीक्षातुर, कुहरे में घिरा हुआ
द्युतिमय मुख-वह प्रेमभरा चेहरा-
भेला-भाला भाव-
दूर उस शिखर कगार पर स्वयं ही पहुँचो !”
अरे भाई, मुझे नहीं चाहिए शिखरों की यात्रा,
मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से
बजने दो साँकल !!
उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले,
वह जन…. वैसे ही
आप चला जाएगा आया था जैसा।
खड्डे के अँधेरे में मैं पड़ा रहूँगा।
पीड़ाएँ समेटे !!
क्या करूँ, क्या नहीं करूँ मुझे बताओ;
इस तम-शून्य में तैरती जगत-समीक्षा
की हुई उसकी
(सह नहीं सकता)
विवेक-विक्षोभ महान उसका
तम-अन्तराल में (सह नहीं सकता)
अँधियारे मुझ में द्युति-आकृति-सा
भविष्य का नक्षा दिया हुआ उसका
सह नहीं सकता !!
नहीं, नहीं उसको मैं छोड़ नहीं सकूँगा,
सहना पड़े मुझे चाहे जो भले ही।
प्रबंध लेखन पर संक्षिप्त लेख लिखिये।
काव्य-शास्त्र में काव्य-रूपों के विभाजन के सन्दर्भ में दो शब्द-बन्ध प्रयुक्त हुए हैं एक है- ‘पूर्वापर सम्बन्ध सापेक्ष रचना’ और दूसरा है ‘पूर्वापर सम्बन्ध-निरपेक्ष रचना। ‘पूर्वापर का अर्थ है- पहले और बाद का। जब एक क्रमबद्ध कथा अथवा विविध घटनाएँ कविता का रूप लेती हैं तो ऐसी रचना सामने आती है, जिसमें व्यापकता और विस्तार होता है और उसके विभिन्न अंश ‘पूर्व’ और ‘अपर’ के सम्बन्ध की अपेक्षा रखते हैं अर्थात वे एक सूत्र में बँधे रहते हैं। इसीलिए इसमें घटनाओं के साथ पात्रों की भी उपस्थिति रहती है। इसे ही ‘प्रबन्ध-काव्य’ कहते हैं। जहाँ रचना अपने पूर्व-अपर सम्बन्ध से निरपेक्ष होती है, जिसमें पहले और बाद के कथासूत्रों को जानने की अपेक्षा नहीं रहती। उसे हम ‘मुक्तक काव्य’ कहते हैं। वामन ने इन रूपों को क्रमशः निबद्ध और अनिबद्ध काव्य भी कहा है।
पुराने समय में प्रबन्ध काव्यों की रचना का पर्याप्त चलन था। हिन्दी कविता के आरम्भ में ही चन्दरबदायी का ‘पृथ्वीराज रासो’ तो प्रसिद्ध रहा ही और भी अनेक प्रबन्ध-काव्य रचे गये। यह परम्परा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश काव्य से चली आ रही थी। मध्यकाल में रचे गये दो प्रबन्ध-काव्य बहुत प्रसिद्ध हैं। एक, तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ और दूसरा जायसी कृत ‘पद्मावत’। रीतिकाल में मुक्तकों की प्रधानता रही। आधुनिक युग राष्ट्रीय जागृति का युग था। इस लक्ष्य की सिद्धि के लिए अनेक प्रबन्ध-काव्यों की रचना हुई परन्तु गत 30-40 वर्षों में प्रबन्ध काव्य उतने लोक प्रिय नहीं रहे, जितनी ‘लम्बी कविता’। इस युग में प्रबन्ध काव्यों का स्थान उपन्यासों ने ले लिया। प्रबन्ध-काव्य लम्बे अभ्यास एवं साधना की माँग करता है, इसलिए रचनात्मक लेखन में आरम्भिक कदम रखने वालों को प्रबन्ध काव्य रचने का जोखिम कम ही उठाना चाहिए।
प्रबन्ध-काव्य राष्ट्र, समाज और जीवन के बहुत व्यापक फलक को चित्रित करता है, उसकी रचना एक लम्बे जीवनानुभव की भी माँग करती है। आकार और वैविध्य की दृष्टि से प्रबन्ध के लिए साहित्य के सभी तत्त्वों अलंकरण, प्रतीकात्मकता, रूपक, बिम्ब, छन्द, लय, संगीत, औदात्य, से व्यापक परिचय अपेक्षित है, इसलिए लेखन के आरम्भिक चरण में प्रबन्ध रचना की ओर प्रवृत्त होना प्रायः सम्भव नहीं होता और इसीलिए हम यहाँ बहुत विस्तार से इस पर चर्चा नहीं करेंगे।
प्रबन्ध-काव्य के मुख्यतः दो भेद हैं – एक, महाकाव्य, दूसरा खण्ड काव्य। दोनों में जीवन की समग्रता और आंशिकता का एक चित्रण-सापेक्ष अन्तर होता है। रामायण और महाभारत संस्कृत के प्रसिद्ध महाकाव्य हैं। हिन्दी में पृथ्वीराज रासो, पद्मावत और रामचरित मानस जैसे महाकाव्यों की रचना मध्यकाल में हुई। आधुनिक युग में प्रिय प्रवास, साकेत, कामायनी और उर्वशी जैसी कृतियाँ लिखी गयीं, जिन्हें पर्याप्त ख्याति मिली। आधुनिक युग वस्तुतः कई श्रेष्ठ खण्ड-काव्यों के लिए भी जाना जाएगा। इनमें प्रमुख हैं : तुलसीदास, कुरुक्षेत्र, रश्मीरथी, अन्धायुग, आत्मजयी एवं संशय की एक रात। लेकिन पिछले तीस वर्षों में ऐसे प्रबन्ध काव्यों की रचना नहीं हुई है, जो अपनी साहित्यिक उपलब्धि के लिए चर्चा के केन्द्र में हो। एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि हिन्दी कविता का समकालीन परिदृश्य प्रबन्ध-काव्यों के बहुत अनुकूल नहीं है।
Important Link
- पाठ्यक्रम का सामाजिक आधार: Impact of Modern Societal Issues
- मनोवैज्ञानिक आधार का योगदान और पाठ्यक्रम में भूमिका|Contribution of psychological basis and role in curriculum
- पाठ्यचर्या नियोजन का आधार |basis of curriculum planning
राष्ट्रीय एकता में कौन सी बाधाएं है(What are the obstacles to national unity) - पाठ्यचर्या प्रारुप के प्रमुख घटकों या चरणों का उल्लेख कीजिए।|Mention the major components or stages of curriculum design.
- अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण किस प्रकार होता है? विवेचना कीजिए।How is a learner’s choice of experiences determined? To discuss.
- विकास की रणनीतियाँ, प्रक्रिया के चरण|Development strategies, stages of the process
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