गंगा कार्य योजना (गंगा एक्शन प्लान)
हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थों में ‘गंगा’ को अत्यधिक महत्व तथा गरिमा के साथ वर्णित किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं- “स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी” अर्थात् मैं नदियों में गंगा हूँ। ऐसा माना जाता है कि गंगा का प्रादुर्भाव भगवान विष्णु के चरण-कमल से हुआ है। विष्णु के चरण से निकलकर गंगा ब्रह्मा के कमण्डल में और अन्ततः भगवान शिव की जटाओं में समा गई। भगीरथ अपनी तपस्या के बल से इसे धरती पर लाए। गंगा तट पर अनेक ऋषि- मुनियों ने अपने आश्रम बनाए और जन कल्याणर्थ तपस्या की। अनेक भक्त कवियों ने कविता के माध्यम से माँ गंगा को महिमामण्डित कर स्वयं को धन्य माना है। ‘धन्य देस सो जहँ सुरसरी’
कहने वाले भक्त कवि गोस्वामी तुलसीदास ने अन्यत्र लिखा है
गंग सकल मुद मंगल मूला।
सब सुख करनि हरनि सब सूला ।।
इन पंक्तियों का अर्थ है-गंगा समस्त आनन्द-मंगलों की जननी है। वह सभी दुःखो को हरने वाली और सर्वसुखदायिनी है। भरतेन्दु जी ने भी लिखा है- “सुभग स्वर्ग सोपान सरिस सबके मन भावत” अर्थत् गंगा स्वर्ग की सीढ़ी है और सबके मन को भाती है।
गंगा की महिमा का वर्णन न केवल धर्मग्रन्थों और भक्त कवियों की रचनाओं में मिलता है, बल्कि आधुनिक शोधों के आधार पर भी यह सिद्ध हो चुका है कि गंगा में अन्य नदियों की तुलना में रोगाणुनाशक गुण कई गुना अधिक पाए जाते हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियान्त्रिकी शोध संस्थान (एनआई) द्वारा किए गए अध्ययनों में कहाँ गया है कि रोगाणुओं को नष्ट करने वाले जो रेडियोएक्टिव तत्व, भारी धातुएँ और कोलियोफेज नामक जीवाणु वाणु गंगा में। पाए जाते हैं, अन्य नदियों के जल में सर्वथा उनका अभाव रहता है। गंगा में पाए जाने वाले ये गुणकारी तत्व सूक्ष्म वनस्पति कणों, मिट्टी, पत्थर आदि रूपों में जलधारा के साथ बहकर आते हैं।
पावन सलिला मानी जाने वाली गंगा नदी के तट पर आज अनेक नगर महानगर बसा दिए गए हैं और शहरों की सारी गन्दगी इसमें ही डाली जाती है। नालों से निकले मल-जल, कल- कारखानों से निकले अवशिष्ट पदार्थ, कृषि सम्बद्ध रासायनिक अवशेष, बड़ी संख्या में पशुओं के शव, अधजले मानव शरीर छोड़े जाने और यहाँ तक कि धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान बड़ी संख्या में देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ आदि विसर्जित करने के कारण आज इसका अमृततुल्य जल अत्यन्त दूषित हो गया है।
इस प्रदूषित जल में उपस्थित जीवाणु, फफूंद, परजीवी और विषाणु के कारण गंगाजल पर आश्रित रहने वाले लगभग 40 भारतीय हैजा, उल्टी-दस्त, अपच, बुखार, जेट की जलन, त्वचा विकार, मूत्र सक्रमण, परजीवी संक्रमण, संक्रामक हेपेटाइटिस जैसी बीमारियों से ग्रस्त हो रहे हैं। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने गंगा का विश्व की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक मानते हुए इसका प्रदूषण स्तर निर्धारित मानक स्तर से 300 गुणा अधिक बताया है। कोलिफार्म (मानव व पुशओं की आँतों में पाया जाने वाला एक जीवाणु), घुलित ऑक्सीजन और जैव-रासायनिक ऑक्सीजन के स्तर के आधार पर पानी को पीने, नहाने और कृषि में उपयोग की जाने वाली, तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।
पीने के पानी में कोलिफार्म का स्तर 50 से जीचे, नहाने के पानी में 500 से नीचे और कृषि योग्य पानी में 5,000 से नीचे रहना चाहिए, जबकि यूईसीपीसीबी द्वारा किए गए एक अध्ययन में हरिद्वार में गंगाजल मे कोलिफार्म का स्तर 5,500 पाया यगा। पर्यावरण जीव विज्ञान प्रयोगशाला, प्राणी विज्ञान विभाग, पटना वश्विविद्यालय ने वाराणसी स्थित गंगा के जल में पारे की उपस्थिति पाई। वहाँ पारे की वार्षिक सघनता 0.00023 पीपीएम थी। भारतीय विषाक्तता अनुसन्धान केन्द्र (आईटीआरसी), लखनऊ द्वारा वर्षा 1986 से 1992 के मध्य किंए गए अध्ययन में ऋषिकेश, इलाहाबाद औश्र दक्षिणेश्वर में गंगा जल में पारे की वार्षिक सघनता क्रमशः 0.081, 0.043 एवं 0.012 पीपीबी थी। पवित्रता और धार्मिक आस्था से जुड़ी भारत की सबसे बड़ी नदी के जल का इतना प्रदूषित होना अत्यन्त चिन्ताजनक है। इस सन्दर्भ में ‘गोपालदास नीरज’ की ये पंक्तियाँ बिल्कुल समीचीन प्रतीत होती हैं
आग बहती है यहाँ गंगा में और झेलम में,
कोई बतलाए कहाँ जाके नहाया जाए?
आज गंगा अमृत के स्थान पर जल के रूप में विष उगल रही है और ऐसा होने के पीछे कारण है-हमारी आर्थिक सोच का दिनों-दिन नकारात्मक होते जाना। आज यहाँ के लाखों लोग अपने आर्थिक हितों की पूर्ति करने के लिए देश की उस अमूल्य धरोहर के अस्तित्व के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, जो हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। गंगा नहाना, बहती गंगा में हाथ धोना, गंगाजली उठाना, मन चंगातो कटौती में गंगा आदि कितने ही मुहावरों और कहावतों से गंगा से जुड़े हमारे सम्बन्ध की प्रगाढ़ता सिद्ध होती है। ‘दुष्यन्त कुमार’ की पीड़ा-सी व्यापक हो जाती है, तो वह कह उठते हैं
हो गई है परी पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
‘भूपेन हजारिका’ से देशवासियों को अमृत-जल का पान करवाने वाली माँ गंगा का कष्ट नहीं देखा जा रहा। वह कहते हैं
विस्तार हैं अपार
प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार
निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम
आ गंगा बहती हो क्यूँ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई
निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यूँ?
सचमुच, हमारी सभ्यता-संस्कृति से इस प्रकार जुड़ी हुई गंगा जैसी महत्वपूर्ण नदी का प्रदूषित होना और उसके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगाना हम भारतीयों के लिए अत्यन्त पीड़ादायक ही नहीं, शर्मनाक भी है। भारत के प्रसिद्ध पर्यावरण वैज्ञानिक बी डी त्रिपाठी द्वारा गंगा पर किए बए शोध की गूंज 231 जुलाई, 1980 में ससंद में उठी और यही शोध आगे चलकर ‘गंगा एक्शन प्लान’ अर्थात् गंगा योजना का आधार बना। गुंगा कार्य योजना का प्रारम्भ तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी द्वारा 14 जून, 1986 को किया गया। रु 462 करोड़ की इस योजना का मुख्य उद्देश्य अवरोधनत्व दिशा बदलकर, नदी में गिरने वाली चिह्नित की गई अपरिष्कृत प्रदूषित इकाइयों से घरेलू मल-जल, उपस्थित विषाक्त तत्व एवं औद्योगिक रासायनिक अवशिष्ट पदार्थों के उपचार द्वारा जल की गुणवत्ता का संबर्द्धन कर नदी में प्रदूषण भार को कम करना था।
साथ ही साथ निम्नलिखित उद्देश्य भी इस योजना में सन्निहित थे
(i) नदी में छोड़े जाने वाले कृषि सम्बन्धित अवशिष्ट पदार्थ, मानव मल, मवेशी मल और शवों के रूप में स्थूल प्रदूषण को कम करना।
(ii) नदी की उत्पादकता के संवर्द्धन हेतु उसके जीवीय तत्व व विविधता की रक्षा के लिए शोध और विकास करना।
(iii) मल-जल उपचार की नई तकनीक विकसित करना।
(iv) प्रदूषण की रोकथाम हेतु नदी में पुनः कछुओं का छोड़ा जाना।
(v) साधन समुत्थान विकल्पों को तलाशना, जैसे-ऊर्जा उत्पन्न करने हेतु मीथेन का उत्पादन आदि।
(vi) अन्य नदियों के स्थूल रूप में पाए जाने वाले प्रदूषण की रोकथाम हेतु समान कार्य योजना चलाए जाने में आदर्श होना।
इस योजना की नींव रखते हुए श्री राजीव गाँधी ने कहा था कि हम सब मिल-जुलकर गंगा को प्रदूषण मुक्त करेंगे। गंगा के निर्मलीकरण हेतु सबको आगे आना होगा। इस योजना के साथ-साथ हमें गंगा की सफाई के कार्य को जन-आन्दोलन बनाना होगा। हम सभी साथ मिलकर गंगा सहित अन्य नदियों को भी हजारों वर्ष पूर्व की भाँति शुद्ध करेंगे, किन्तु 15 वर्षों में कुल रु 901.71 करोड़ खर्च किए जाने के बाद भी गंगा कार्य योजना (गैप) को सफलता नहीं मिली।
इसके कारण थे- योजना का पर्यावरण के अनुकूल न होना, केन्द्र, राज्य व स्थानीय सरकारी निकायों का आपस में सामंस्य न होना, अनुपयुक्त जनबोध एवं विभिन्न परियोजनाओं से जड़े लोगों का नेतृत्व करने हेतु स्थानीय तकनीकी विशेषज्ञ का अभाव, गंगा रक्षा हेतु राजनितिक समर्पण एवं उचित दृष्टिकोण का अभाव और उत्तर प्रदेश व बिहार द्वारा सुविधाओं को जारी रखने हेतु लगातार बिजली उपलब्ध न कराया जाना। अन्ततः 31 मार्च, 2000 को यह योजना रोक दी गई। इस प्रकार गंगा कार्य योजना का प्रथम चरण लाभकारी न हो सका।
गंगा कार्य योजना के दूसरे चरण का प्रारम्भ वर्ष 1993 में हुआ, इसके अन्तर्गत कुल 2.061 परियोजनाओं को पूर्ण करने का लक्ष्य रखा गया। इस बार गंगा कार्य योजना में 25 शहरों से सम्बद्ध यमुना कार्य योजना, गोमती कार्य योजना, दामोदर कार्य योजना और महानन्दा कार्य योजना का भी सम्मिलित किया गया। इस प्रकार रु 462 करोड़ की स्वीकृति के साथ इस योजना का कार्यक्षेत्र काफी व्यापक हो गया।
वर्ष 1995 में गंगा कार्य योजना का और विस्तार कर इसमें अन्य नदियों को भी सम्मिलित कर इसे राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एनआरसीपी) नाम दे दिया गया। अब इस योजना के दायरे में 35 नदियाँ आ गई। वर्ष 2009 में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण कानून, 1986 के अन्तर्गत नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) का गठन किया गया।
दिसम्बर, 2009 में विश्व बैंक गंगा सफाई हेतु 1 अरब डॉलर कर्ज देने पर सहमत हुआ। यह राशि वर्ष 2020 तक गंगा में अनुपचारित अवशिष्ट पदार्थों की समस्या के निपटान हेतु स्वीकृत की गई। विश्व की दूसरी बड़ी नदी होने और अत्यन्त प्रदूषित होने के कारण गंगा की. सफाई करने हेतु यह राशि बहुत अधिक नहीं है। विश्व बैंक के भारत के निदेशक ओन्नो रहल कहते है। कि गंगा बहुत बड़ी नदी है, इसके आस-पास घनी आबादी है और यह नदी अत्यन्त प्रदूषित हो चुकी है। वर्ष 2014 में केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा ‘नाममि गंगे’ योजना का प्रारम्भ किया गया है। रु 2,037 करोड़ की गंगा सफाई की इस योजना की घोषणा के साथ ही साथ केन्द्र सकरार ने गंगा संरक्षण मन्त्रालय का गठन भी किया है। इस नई सरकार से दशवासी गंगा कल्याण को लेकर काफी आशान्वित हैं। आज सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ हमारी सेना भी गंगा को स्वच्छ बनाने में मददगार साबित हो रही है।
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