कन्या भ्रूण-हत्या – एक अभिशाप
प्रकृति की प्रायः सभी देनों में स्वाभाविक सन्तुलन देखा जाता है, किन्तु मानव ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रकृति का दोहन कर इस सन्तुलन को बिगाड़ने का कार्य किया है। इसने न. केवल औद्योगिक विकास के नाम पर पर्यावरण का दोहन कर प्राकृतिक सन्तुलन को बिगाड़ा है, बल्कि स्त्रियों के साथ अन्याय कर पुरूषों की तुलना में उनकी संख्या घटाने का अमानवीय कार्य भी किया है। आज के इस तकनीकी युग में गर्भस्थ शिशु के लिंग का परीक्षण करना काफी आसान हो गया है। गर्भस्थ शिशु के लिंग परीक्षण के बाद मादा भ्रूण होने की स्थिति में उसे माँ के गर्भ में ही नष्ट कर देना कन्या भ्रूण हत्या कहलाता है। भारत में पिछले कुछ दशकों में स्त्री-पुरूष लिंगानुपात में आए असन्तुलन का मुख्य कारण कन्या भ्रूण हत्या है।
कन्या भ्रूण हत्या आज एक ऐसी अमानवीय समस्या का रूप धारण कर चुकी है, जो कई और गम्भीर समस्याओं की भी जड़ है। इसके कारण महिलाओं की संख्या दिन-प्रतिदिन घट रही है। भारत में वर्ष 1901 में प्रति 1000 पुरूषों पर 972 महिलाएँ थीं, वर्ष 1991 में महिलाओं की यह संख्या घटकर 927 हो गई है। वर्ष 1991-2011 के बीच महिलाओं की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई। फलस्वरूप वर्ष 2011 की जनगणना में प्रति हजार पुरूषों पर 943 महिलाएँ हो गईं। साामजिक सन्तुलन के दृष्टिकोण से देखें, तो यह वृद्धि पर्याप्त नहीं है।
नेशलन क्राइम रिकॉर्ड (एनसीआरबी) के अनुसार, वर्ष 2014 में कन्या भ्रूण हत्या के 50 मामले सामने आए थे। इसके बाद वर्ष 2015 में 45 और 2016 में 40 मामले सामने आए। भारत में 0 से 6 वर्ष की आयु वर्ग वाले बच्चों के लिंगानुपात की स्थिति सबसे दयनीय है।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार हरियाणा के लिंगानुपात 879 है, जो भारतीय राज्यों में सबसे कम है। इन ऑकड़ों को देखकर हम यह सोचने के लिए विवश हो जाते हैं कि क्या हम वही भारतवासी हैं, जिनके धर्मग्रन्थ- “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवाताओं का वास होता है, जैसी बातों से भरे पड़े हैं। संसार का हर प्राणी जीना चाहता है और किसी भी प्राणी के प्राण लेने का अधिकार किसी को भी नहीं है, पर अन्य प्राणियों की बात कौन करे, आज तो बेटियों की जिन्दगी कोख में ही छीनी जा रही है।
भारत में कन्या भ्रूण-हत्या के कई कारण है। प्राचीनकाल में भारत में महिलाओं को भी पुरूषों के समान शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध थे, किन्तु विदेशी आक्रमणों एवं अन्य कारणों से महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने से वंचित किया जाने लगा एंव समाज में पर्दा प्रथा और सप्ती प्रथा जैसी कुप्रथाएँ व्याप्त हो गई। महिलाओं को शिक्षा के अवसर उपलब्ध नहीं होने का कुप्रभाव समाज पर रूप भी पड़ा। लोग महिलाओं को से पुरूषों को अपने सम्मान का प्रतीक समझने लगे। धार्मिक एवं सामाजिक अधिक महत्व दिया जाने लगा एवं महिलाओं को सीमित कर दिया गया।
इसके कारण सन्तान के रूप में नर शिशु की कामना करने की गलत परम्परा समाज में विकसित हुई। युवावस्था में प्रेम के फलस्वरूप गर्भधारण को हमारा समाज पाप मानता है। जिस परिवार की किशोरी ऐसा करती ती है, समाज में उसकी निंदा की जाती है। बनाने की स्थिति में भी महिला की ही निन्दा अधिक की जाती है। इसके अतिरिक्त यौन सम्बन्ध है। इसे समाज ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। इनहीं कारणों से लोग चाहते है कि भविष्य में अपनी प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचने की किसी आशंका से बचने के लिए वे केवल नर शिशु को ही जन्म दें। कोई भी महिला गर्भस्न सन्तान को मारना नहीं चाहती, भले ही वह कन्या शिशु ही क्यों न हो, लेकिन परिजन विभिन्न कारणों से उसे ऐसा करने के लिए बाध्य करते हैं। भारतीय नारियाँ तो अपनी कन्याओं को जीवनभर समस्याओं का दृढ़तापूर्वक सामना करने की सीख देती हैं।
कवि ऋतुराज की कविता में ‘कन्यादान’ करती हुई एक माँ अपनी बेटी को सीख देती है
पानी में झॉककर
अपने चेहरे पर मत रीझना
आग रोटियाँ सेंकने के लिए हैं
जलने के लिए नहीं।
कन्या-भ्रूण हत्या का एक बड़ा कारण दहेज प्रथा भी है। लोग लड़कियों को पराया धन समझते हैं। उनकी शादी के लिए दहेज की व्यवस्था करनी पड़ती है। दहेज जमा करने के लिए कई परिवारों को कर्ज भी लेना पड़ता है, इसलिए भविष्य में इस प्रकार की समस्याओं से बचने के लिए लोग गर्भावस्था में ही लिंग परीक्षण करवाकर भ्रूण होने की स्थिति में उसकी हत्या करवा देते हैं। हमारे समाज में महिलाओं से अधिक पुरूषों को महत्व दिया जाता है। इस प्रकार की मानसिक प्रवृत्ति से भी महिलाओं के प्रति होने वाले भेदभाव को बढ़ावा मिलता है।
अभी भी कामकाजी महिलाओं की संख्या बहुत कम है। उन्हें केवल घर के काम-काज तक सीमित रखा जाता है संविधान द्वारा महिलाओं को समान अधिकार दिए जाने के बाद भी उनके प्रति सामाजिक भेदभाव में कमी नहीं हुई है, इसलिए परिवार के लोग भविष्य में परिवार की देखभाल करने वाले के रूप में नर शिशु की कामना करते हैं। भारतीय समाज में यह अवधारणा रही है कि वंश पुरूष से ही चलता है, महिला से नहीं, इसलिए सभी लोग अपनी वंश परम्परा को कायम रखने के लिए पुत्र की चाह रखते हैं एवं उसे पुत्री की तुलना में अधिक लाड़-प्यार देते हैं, किन्तु वे भूल जाते हैं कि उनकी पुत्री भी आगे चलकर मदर टेरेसा, पीटी, ऊषा, लता मंगेशकर, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स आदि बनकर उनके कुल और देश का गौरव बन सकती है।
‘मृदुल जोशी’ की कविता ‘माँ मुझे आने तो दे’ मैं गर्भ में पल रही एक बालिका अपनी माँ को यह समझाते हुए कि वह भी बड़ी होकर पुरूषों की तरह सब कुछ करेगी, उससे कहती है
“माँ मुझे आने दे
डर मत आने दे
फैलूँगी तेरे आँगन में हरियाली बनकर
लिपदूँगी तेरे आँचल में खुशबू बनकर
मेरी किलक और ठुकमते कद्रमों में
घर का सन्नाटा बिखर जाएगा।”
किसी भी देश की प्रगति तब तक सम्भव नहीं है, जब तक वहाँ की महिलाओं को प्रगति के पर्याप्त अवसर न मिलें जिस देश में महिलाओं का अभाव हो, उसके विकास की कल्पना भला कैसे की जा सकती है। कन्या भ्रूण हत्या पर नियन्त्रण कर इसे समाप्त करने में महिलाओं की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो सकती है, किन्तु साक्षर महिला ही आपने अधिकारों की रक्षा कर पाने में सक्षम होती है, इसलिए हमें महिला शिक्षा पर विशेष ध्यान देना होगा। महिला परिवार की धुरी होती है। समाज के विकास के लिए योग्य माताओं, गृहिणियों एवं पत्नियों का होना अति आवश्यक है। यदि महिलाओं की संख्या में कमी होती रही, तो सामाजिक सन्तुलन बिगड़ जाएगा एवं समाज में बलात्कार, व्यभिचार इत्यादि की घटनाओं में वृद्धि होने लगेगी।
भारत में वर्ष 2004 में पीसीपीएनडीटी एक्ट लागू कर भ्रूण हत्या को अपराध घोषित कर दिया गया। इस अधिनियम को समय-समय पर प्रभावी बनाने का प्रयारा किया जा रहा है। यह अधिनियम न केवल गर्भ में लिंग के निर्धारण का प्रकटीकरण पर रोक लगाता है, बल्कि जन्म पूर्व बच्चों के निर्धारण में विज्ञान को भी प्रतिबन्धित करता है। इतना ही नहीं इसके तहत क्लीनिक, प्रयोशाला कर्मी, डॉक्टर आदि को कानून का उल्लंघन करने पर 3 वर्ष की सजा तथा रु 50000 तक के अर्थदण्ड का भी प्रावधान किया गया है इसके बाद भी कन्या भ्रूण हत्या पर पूर्ण नियन्त्रण नहीं हो सका है। लोग चोरी-छिपे एवं पैसे के बल पर इस कुकृत्य को अब भी अंजाम देते हैं। कन्या भ्रूण-हत्या एक सामाजिक अभिशाप है और इसे रोकने के लिए हमें लोगों को जागरूक करना होगा। महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाकर ही इस कुकृत्य को रोका जा सकता है।
कानून तब तक कारगर नहीं होता, जब तक कि उसे जनता का सहयोग न मिले। जनता के सहयोग से ही किसी अपराध को रोका जा सकता है कन्या भ्रूण हत्या एक ऐसा अपराध है, जिसमें परिवार एवं समाज के लोगों की भागीदारी की आवश्यकता होती है, इसलिए जागरूक नागरिक ही इस कुकृत्य को समाप्त करने में विशेष भूमिका निभा सकते हैं। सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठन समाज से इस कलंक को मिटाने के लिए प्रयासरत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा हरियाणा के पानीपत, में 22 जनवरी, 2015 को प्रारम्भ किया गया-बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओ’ अभियान इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम।
इसके अतिरिक्त विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा भी इस दिशा में प्रयास किया गया है, जैसे- हरियाणा सरकार द्वारा चालए गए ‘आपकी बेटी हमारी बेटी’ कार्यक्रम, बिहार सरकार द्वारा चलाए गए ‘मुख्यमन्त्री कन्या सुरक्षा योजना कार्यक्रम, राजस्थान सरकार द्वारा चलाए गए ‘अक्षय स्कीम आदि। इस कार्य में मीडिया भी अपनी सशक्त भूमिका निभा रहा है। आवश्यकता बस इस बात की है कि जनता भी अपने कर्तव्यों को समझते हुए कन्या भ्रूण-हत्या जैसे सामाप्ति कलंक को मिटाने में समाज का सहयोग करे। सच ही कहा गया है।
“आज बेटी नहीं बचाओगे तो कल माँ कहाँ से पाओगे?”
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