एक देश एक चुनाव – संभावनाएं एवं चुनौतियां

एक देश एक चुनाव - संभावनाएं एवं चुनौतियां

एक देश एक चुनाव – संभावनाएं एवं चुनौतियां

15 अगस्त, 1947 को भारत ब्रिटिश औपनिवेशिक गुलामी की जंजीरों को तोड़कर एक स्वतंत्र राष्ट्र बना तथा इसके साथ ही प्राचीन सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले देश भारत ने लोकतांत्रिक प्रणाली पर आधारित संसदीय शासन की प्रक्रिया को अपनाया। लोकतांत्रिक प्रणाली में निष्पक्ष चुनावों की अनिर्वायता लोकतंत्र की एक आधारभूत संकल्पना है। निष्पक्ष चुनाव सरकार को वह वैधता प्रदान करता है, जिस पर लोकतांत्रिक प्रणाली कार्य करती है। इस चुनाव प्रक्रिया में जनभागीदारिता राजनैतिक प्रणाली की वैधता का एक महत्वपूर्ण तत्व है। परंतु चुनावी प्रक्रिया की जटिल बारिकीयों से या तो किसी लोकतंत्र की कब्र की जमीन तैयार हो सकती है या फिर लोकतंत्र की पताका लहराने हेतु आवश्यक ऊर्जा और जीवन शक्ति का प्रवाह सुनिश्चित हो सकता है।

विगत कुछ समय से भारत में निष्पक्ष चुनावों का संपन्न कराने एवं लोकतांत्रिक प्रणाली को और अधिक सुदृढ़ता प्रदान करने हेतु चुनाव सुधारों की चर्चा जोरों पर रही है। इसी क्रम में चुनाव संबंधी एक मुद्दा विशेष रूप से चर्चा के केंद्र में बना हुआ है और वह है ‘एक देश एक चुनाव’ का मुद्दा। विगत कुछ समय से केंद्र सरकार लोक सभा एवं राज्यों क विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने हेतु अनुकूल माहौल तैयार करने की कोशिशों में लगी हुई है। 19 जुलाई, 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक सर्वदलीय बैठक में इस पर चर्चा की गई। संसद के बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी यह मुद्दा प्रमुखता से छाया रहा। इस मुद्दे पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग आपस में चर्चा कर चुके हैं। वहीं देश की कुछ राजनीतिक पार्टियां इसके पक्ष में, तो अधिकांश राजनैतिक पार्टियां इसके विपक्ष में खड़ी नजर आ रही हैं।

मौजूदा केन्द्र सरकार देश में अलग-अलग समय पर होने वाले विधानसभा एवं लोक सभा चुनावों की विसंगतियों को उजागर करते हुए प्रत्येक 5 वर्ष पर देश में एक साथ लोक सभा एवं विधानसभा चुनाव संपन्न कराने हेतु सर्वसम्मति से एक राष्ट्र, एक चुनाव की योजना लागू करने के लिए प्रयासरत है। ऐसा नहीं है कि यह योजना भारत के लिए एक नवीनतम प्रयोग है, अपितु विश्व के कई देशों में एक साथ चुनाव हो चुके हैं। गत वर्ष स्वीडन में आम चुनाव, काउंटी और नगर निगम के चुनाव एक साथ कराए गए थे।

साथ ही इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, स्पेन, पोलैंड आदि देशों में भी एक बार चुनाव कराने की परंपरा है। स्वयं भारत में भी वर्ष 1952, 1957, 1962 तथा 1967 में एक साथ लोक सभा और विधान सभा के चुनाव हो चुके हैं। परंतु ये श्रृंखला उस समय समाप्त हो गई, जब वर्ष 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं समय से पहले ही भग हो गई। आज बदलते समय के साथ भारत विश्व का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बन चुका है। इस आधार पर कुछ विद्वान जहां ऐक देश एक चुनाव की प्रक्रिया को असंगत बताते हैं, वहीं कुछ विद्वान नवीनतम विकसित तकनीकियों के आधार पर इस प्रक्रिया को संभव बताते हैं। अतः इस संबंध में किसी भी-तर्कसंगत निष्पत्ति की ओर अग्रसर होने से पूर्व एक देश एक चुनाव से संबंधित संभावनाओं एवं चुनौतियों का समग्र किंतु सूक्ष्म विश्लेषण करना अनिवार्य हो जाता है।

एक देश एक चुनाव - संभावनाएं एवं चुनौतियां

सैद्धांतिक रूप से एक देश एक चुनाव बहुत ही आकर्षक विचार है। इस विचार के पक्षकार इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण तर्क यह देते हैं कि इससे देश लगातार चुनावी मोड़ में बने रहने से बच जाएगा। वर्तमान में भारत में प्रति वर्ष किसी न किसी राज्य मे चुनाव संबंधी गतिविधियाँ चलती रहती हैं। इसके परिणामस्वरूप देश में प्रति वर्ष चुनावी कार्यों के कारण देश में होने वाले आर्थिक खर्चों में वृद्धि होती है। वर्ष 2019 के लोक सभा चुनाव पर चुनाव आयोग द्वारा 10 हजार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान रहा। हालांकि वास्तविक खर्च लगभग 60 हजार करोड़ रुपये तक माना जा सकता है। इस प्रकार एक साथ चुनाव होने से सरकारी खजाने पर पड़ने वाले अतिरिक्त भार में कमी आएगी तथा साथ ही विभिन्न चुनावों के समय लगने वाले काले धन में भी कमी आयेगी।

एक देश एक चुनाव के पक्ष में एक अन्य महत्वपूर्ण तर्क यह भी दिया जाता है कि लंबे समय तक चलने वाले चुनावों के कारण सरकार और नागरिकों दोनों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ऐसा इसलिए क्योंकि चुनावों की घोषणा होते ही आचार संहिता अमल में आ जाती है। ऐसे में सरकार नई नीतियों, योजनाओं की घोषणा नहीं कर सकती है। इससे नीतिगत पंगुता की स्थिति बनती है। इस दौरान अधिकांश मानव संसाधन चुनावों को संपन्न कराने में लगे होते हैं। अतः ‘एक देश एक चुनाव’ की योजना कार्यान्वित होने से बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू नहीं करनी पड़ेगी, नीतिगत निर्णय समय पर लिए जा सकेंगे, विकास कार्य अप्रभावित होंगे तथा नई परियोजनाओं की घोषणा, अल्प समय के लिए ही रूकेगी।

‘एक देश एक चुनाव’ के पीछे एक महत्वपूर्ण तर्क यह भी दिया जाता है कि बार-बार होने वाले चुनावों में राजनेताओं और पार्टियों को सामाजिक समरसता एवं शांति को भंग करने का मौका मिल जाता है। सामाजिक संपन्न हुए लोक सभा के चुनावों में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई है। जाति, संप्रदाय से जुड़ी टिप्पणीयों, नफरत से भरे भाषणों ने विभिन्न समूहों के मध्य वैमनस्य फैलाने को ही काम किया है। इसके अतिरिक्त एक देश एक चुनाव’ का विचार चुनाव आयोग हतु सुविधाजनक होगी। विशेषकर तब जबकि मतदाता, सुरक्षाकर्मी, मतदान कर्मचारी और पोलिंग बूथ सब एक हैं। अतः यह विचार तार्किक प्रतीत होता है। परंतु सुविधा के कारण संवैधानिक और राजनैतिक बाध्यताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इस आधार पर एक वर्ग ‘एक देश एक चुनाव’ का विरोध कर रहा है।

एक देश एक चुनाव - संभावनाएं एवं चुनौतियां

‘एक देश एक चुनाव’ विचार के आलोचकों का कहना है कि संविधान में लोक सभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर किसी निश्चित प्रावधान का उल्लेख नहीं है। वहीं संविधान में लोक सभा और विधानसभा चुनावों को लेकर वर्षों की अवधि निर्धारित है। ऐसी स्थिति में अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यदि लोक सभा या विधानसभा समय से पहले भंग हो जाती है तो क्या किया जाएगा? क्या सभी राज्यों में पुनः विधानसभा चुनाव करवाए जाएंगे या फिर संबंधित राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाएगा? ध्यातव्य है कि संविधान के अनुच्छेद 85(2) (ख) के अंतर्गत राष्ट्रपति, समय-समय पर लोक सभा का एवं अनुच्छेद 174(2) (ख) ‘के अंतर्गत राज्यपाल, समय-समय पर विधानसभा का विघटन कर सकता है। उपर्युक्त प्रावधानों का प्रयोग कर राष्ट्रपति या राज्यपाल क्रमशः लोक सभा या विधानसभा का पंच वर्ष से पूर्व विघटन कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में केंद्र-राज्य संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। साथ ही संविधान ढांचे को भी आघात पहुंच सकता है। इसके साथ ही विषम परिस्थितियों जैसे अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रीय आपात के कारण लोक सभा के कार्यकाल में वृद्धि हो सकती है एवं एवं उ अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण लगने वाले राष्ट्रपति शासन के परिणामस्वरूप ‘एक देश एक चुनाव’ का विचार कार्यान्वित करने में कठिनाई उत्पन्न हो सकती है।

केंद्र एवं राज्यों में होने वाले अलग-अलग चुनावों से राष्ट्रीय एवं स्थानीय मुद्दे मिश्रित नहीं होते हैं। इसका सर्वाधिक लाभ क्षेत्रीय दलों को प्राप्त होता है एवं क्षेत्रीय दलों को विशिष्ट राजनैतिक पहचान प्राप्त होती है। ज्ञातव्य हो कि राष्ट्रीय एवं प्रांतीय मुद्दों की भिन्नता किसी लोकतांत्रिकी देश की अनिवार्य आवश्यकता है। अतः अगर लोक सभा एवं विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाए जाएं, तो इसकी प्रबल संभावना है कि राष्ट्रीय मुद्दों से समक्ष राष्ट्रीय मुद्दे गौण हो जाएं। यह दोनों स्थिति समान रूप से लोकतांत्रिक पद्धति के उद्देश्यों को पूर्ण करने की राह में बाधक सिद्ध होगी। साथ ही छोटे-छोटे अंतरालों पर होने वाले विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव एवं लोक सभा चुनाव राजनैतिक पार्टियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाती हैं एवं इसका सर्वाधिक लाभ मतदाताओं को प्राप्त होता है। इसके परिणामस्वरूप कोई भी राजनैतिक पार्टी निरंकुश होकर कार्य नहीं कर सकती है।

एक देश एक चुनाव विचार को मूर्त प्रदान करने में एक संवैधानिक अड़चन भी है। इसे कार्यान्वित करने हेतु जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के साथ-साथ संविधान में भी संशोधन करने पड़ेंगे। चूंकि इस प्रस्ताव से संविधान के अनुच्छेद 328 में वर्णित किसी राज्य के विधानमंडल के लिए निर्वाचनों के संबंध में उपबंध करने की उस विधानमंडल की शक्ति प्रभावित होगी। अतः इसके लिए अनुच्छेद 368 (2) के अंतर्गत संविधान का संशोधन करना होगा। सामान्यतः संविधान संशोधन हेतु आधे राज्यों की विधानसभाओं का अनुमोदन आवश्यक है। परंतु ‘एक देश एक चुनाव’ से सभी राज्यों के अधिकार एवं कार्य क्षेत्र प्रभावित होंगे। इसलिए संविधान के अनुच्छेद 368 के अंतर्गत लिया जाना चाहिए। यदि इस समस्या से बचने के लिए आधार की तर्ज पर एक देश एक चुनाव को भी धन विधेयक के तौर पर लाने की कोशिश की गई, तो यह संविधान के साथ छलावा होगा।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि एक देश एक चुनाव लोकतांत्रिक प्रणाली में जहां नए- नए संभावनाओं के द्वारा खोलती है, वहीं यह कुछ चुनौतियां भी उत्पन्न करती हैं। ‘एक देश एक कर’ (GST) व्यव्स्था को सफलतापूर्वक लागू करने के पश्चात ‘एक देश एक चुनाव’ प्रणाली को भी लागू करने की उम्मीदों को बल प्रदान किया गया। है। यद्यपि वर्तमान में इस प्रणाली में मौजूद चुनौतियों से इंकार नहीं किया जा सकता, परंतु इसके लिए आवश्यक है कि सभी क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय राजनीतिक दल एकजुट होकर स्वस्थ चर्चा करें। लेकिन इन सबसे परे जब तक यह व्यवस्था आपसी सहमति से लागू नहीं हो जाती तब तक चुनाव प्रणाली को स्वच्छ एवं दोषमुक्त करने हेतु वर्तमान समय के अनुरूप नीव चुनाव सुधारो की ओर कदम उठाए जाने चाहिए, जिससे सुदृढ़ लोकतांत्रिक व्यवस्था का निर्माण किया जा सके। रखने वाले अभिनेताओं और फिल्म निर्माताओं की एक बड़ी संख्या पिछले वर्षों में सक्रिय रही। ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ, जो भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्र की अवधारणा और उसके विकास कार्यों को आम जनता में स्वीकृति दिलाने में मदद करने वाली थी। संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पदमावत’ जो कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ‘राष्ट्र’ की धारणा के बेहद नजदीक है, ने जो बहस हिंदी सिने जगत के जरिए भारतीय समाज में छेड़ी, उससे काफी हद तक समाज में विभेद और टकराव पैदा हुआ जिसका पिरणाम यह हुआ कि धार्मिक और जातीय पहचान और उस पर आधारित राजनीति को बल मिला। इसका प्रत्यक्ष लाभ ऐसी पार्टियों और संगठनों का मिला, जो इन पहचाों पर आधारित राजनीति में यकीन रखती है। इसके अलावा ऐसी फिल्मों की भी एक लंबी सूची है, जिनमें सारी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने वाले नायक को दिखाया जाता है और जिसे न्यायापालिका और कानून से इतर जाने में कोई गुरेज नहीं है। सबसे बढ़कर इन फिल्मों में नायक के ऐसे कृत्यों को दर्शकों से भावनात्मक समर्थन प्रदान करवाया जाता है। यही प्रवृत्ति समकालीन भारतीय राजनीति में भी देखी जा रही है।

17वीं लोक सभा चुनाव के दौरान हिंदी सिनेमा ने चुनावों को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विशेषकर राजनीतिक बलों (भारतीय जनता पार्टी समेत कई आनुषांगिक दलों ने) सेना की कार्रवाई पर आधारित फिल्म ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ का पर्याप्त राजनितिक लाभ लिया। उसके बाद इसी कड़ी में ऐसी फिल्में बनीं, जिन्होंने किसी न किसी रूप में चुनावों में सरकार की मदद की। स्वयं प्रधानमंत्री पर आधारित बायोपिक बनी, जिस पर काफी विवाद के बाद चुनाव आयोग के हस्तक्षेप के बाद फिल्म को चुनाव संपन्न होने तक स्थगित किया गया। इसके अलावा अलग-अलग भारतीय भाषाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर तकरीबन 18 फिल्में बन चुकी है।

दूसरी तरफ ऐसी भी फिल्में, बनीं, जिन्होंने कांग्रेस की राजनीति और उसकी कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किए। संजय बारू की पुस्तक पर उसी नाम से बनी फिल्म ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री के पद की कमजोर स्थिति का बयान करती है। इसी तरह मधुर भंडाकर की फिल्म ‘इंदु सरकार’ को भी कांग्रेस के विरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि उसमें आपातकाल के दौरान की इंदिरा गांधी को प्रस्तुत किया गया था। इसी दौरान फिल्म ‘ताशकंद’ भी आई, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु और उसमें निहित साजिश की परतें खोलने की कोशिश की गई। इसमें कांगेस की परिवारवादी भूमिका को संदिग्ध राजनीतिक में प्रभुत्वशाली विमर्श के साथ खड़ी प्रतीत होती है। राज्य इनकी हर प्रकार से मदद करता है। दूसरी तरफ वे फिल्में, जो प्रति-वर्चस्ववादी आख्यान लाने की कोशिश करती हैं, उन्हें पहले तो सेंसर का सामना करना पड़ता है और बाद में फिल्म के कठिन अर्थशास्त्र से गुजरना पड़ता है और वे बॉक्स ऑफिस पर असफल साबित हो जाती हैं। आज के दौर में ऐसी फिल्मों और ऐसे निर्देशकों की संख्या भी गिनी-चुनी रह गई है।

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