उपन्यास के शास्त्रीय पहलू का वर्णन कीजिये।Describe the classical aspect of the novel.
उपन्यास के शास्त्रीय पहलू निम्नलिखित हैं-
(1) कथावस्तु- उपन्यास के लिए पहली आवश्यक शर्त यह है कि उसमें कोई कहानी होनी चाहिए। इसको लेकर विवाद हो सकता है कि कथावस्तु क्या हो, लेकिन इससे कोई इंकार नहीं करता कि उपन्यास में मूल रूप से एक कथा होनी चाहिए। आमतौर पर उपन्यास- से करता लेखक कथा का चुनाव जिस तरह से है, जिस परिवेश को वह बार-बार रचता है, उससे एक तरह से लेखक की अपनी पहचान भी जुड़ती है, जो उसकी विश्वसनीयता का वाहक भी होती है। उदाहरण के लिए यह जानते हुए भी कि उपन्यास एक काल्पनिक विधा है, आप यह नहीं सोच सकते कि अज्ञेय गँबई जीवन की कथावस्तु का चयन उपन्यास के लिए करें या निर्मल वर्मा का कोई पात्र अपनी ग्रामीण बोली में बोलेगा। उसी तरह प्रेमचन्द के उपन्यासों का परिवेश, उसकी कथावस्तु मूलतः ग्रामीण रही है।
कथावस्तु की विशेषता मानी जाती है कि उसमें विश्वसनीयता हो, उपन्यास में व्यक्त अनुभव इस तरह से विन्यस्त किये गये हों कि वे प्रामाणिक् लगें। साथ ही, उसमें जीवन की किसी बड़ी समस्या, किसी बड़े पहलू को उभारने की योग्यता भी हो। इसके अलावा, कथानक ऐसा हो कि उसमें कार्य-कारण सम्बन्ध का अभाव न लगे। साहित्यिक उपन्यास जासूसी, रूमानी, तिलिस्मी आदि उपन्यासों से भिन्न इसी रूप में होते हैं कि उनमें कार्य-कारण सम्बन्ध होता है। इसके अलावा, कथानक का जो महत्त्वपूर्ण पहलू होता है वह अनुपात और सन्तुलन का होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि उपन्यास में कई पात्र होते हैं, कई घटनाएँ होती हैं- उनमें तारतम्य होना चाहिए और पूर्वापर सम्बन्ध होना चाहिए।
कथावस्तु और कथानक यानी प्लॉट के सम्बन्ध को इस तरह समझा जा सकता है। कथावस्तु किसी उपन्यास की उस मूल कहानी या उस विषय को कहते हैं जिसको लेकर उपन्यास लिखा गया होता है। उदाहरण के लिए प्रेमचन्द के विशाल उपन्यास ‘रंगभूमि’ की कथावस्तु या मूल कथा यह है कि किसी गाँव में सिगरेट का एक कारखाना लगने वाला है और जिससे लड़ने के लिए और कोई नहीं उसी गाँव का अन्धा भिखारी सूरदास उठ खड़ा होता है, जो एक बड़े आन्दोलन की शक्ल ले लेता है। लेकिन इस कथा का ताना-बाना किस तरह बुना गया वही उसका कथानक होता है। इस सम्बन्ध में ‘ऑस्पेक्ट्स ऑफ नावेल’ में ई. एम. फास्टर का लिखा कथन अक्सर कहा जाता है कि ‘राजा मर गया और रानी मर गयी – यह तो हुई कहानी लेकिन इसी कथन को अगर इस तरह से कहें कि राजा मर गया और उसके दुख में रानी भी मर गयी, तो यह कथानक हो गया, क्योंकि इसमें वह कारण आ गया जिससे राजा के मरने और रानी के मरने के बीच की कथा आगे बढ़ी।’
इसी तरह, अगर जॉर्ज आर्वेल की प्रसिद्ध उपन्यास ‘नाईंटीन एट्टीफोर‘ की कथा यह है कि उसमें एक ऐसे समाज का चित्रण है जिसमें ‘बिग ब्रदर’ का राज है। हर ओर उसके पोस्टर लगे हुए हैं, वह टेलीविजन के परदे पर अवतरित होता है। लेकिन जब आप कहते हैं कि विंस्टन स्मिथ नामक एक पात्र उस समाज में, बिग ब्रदर, के आतंक के उस राज में विद्रोह करने के लिए उठ खड़ा होता है। उससे आर्वेल के इस महान उपन्यास का कथानक स्पष्ट हो जाता है।
कोई उपन्यास इसलिए श्रेष्ठ नहीं हो जाता है कि उसमें किसी महान व्यक्ति का जीवन चित्रित होता है या वह किसी महान घटना पर आधारित होती है या उसे लिखने वाला कोई महान व्यक्ति होता है। उपन्यास के रूप में पाठकों को वही रचना अपनी लगती है जिसमें उसे अपने जैसा जीवन दिखायी देता है और जिसका कथानक इस तरह का होता है कि पाठक उसे पढ़ने में रम जाता है इसलिए उपन्यासकार से यह आशा की जाती है कि वह कुछ ऐसे सवालों से टकराए जिससे समाज का बड़ा तबका जूझ रहा हो, वह बेआवाजों की आवाज बने। जैसाकि ऊपर कहा गया है कि उपन्यास का समाज से सम्बन्ध साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा भले ही नया हो, लेकिन कम समय में ही वह समाज बड़ा साहित्यिक हमसफर बन गया है। इसी कारण समाज की अपेक्षाएँ भी उससे कुछ ज्यादा रहती हैं। उपन्यासकार से यह आशा की जाती है कि वह समाज की एक और तस्वीर दिखाए।
(2) पात्र-योजना एवं चरित्र चित्रण – ऊपर उपन्यास को प्रेमचन्द द्वारा दी गयी परिभाषा में जिस बात पर जोर दिया गया है वह यह है कि उपन्यास में मानव-जीवन की कथा होती है। वास्तव में प्रत्येक उपन्यास में कुछ लोगों के जीवन, घटनाएँ, सुख-दुख आदि का वर्णन किया जाता है। समाज में लोग अलग-अलग समूहों में रहते हैं, अलग-अलग वर्ग के होते हैं। आदमी जिस परिवेश में पलता-बढ़ता है उसी के अनुसार उसका व्यक्त्तित्त्व, उसका मानस ढलता है। उपन्यास का एक अपना समाज होता है, जिसमें अनेक लोग आते-जाते रहते हैं। यही उसके पात्र कहलाते हैं। कहानी की अपेक्षा उपन्यास में पात्र अधिक होते हैं। पात्रों की संख्या को लेकर ऐसा कोई नियम नहीं है, लेकिन इतना जरूर है कि जिस उपन्यास की कथा समाज के व्यापक पहलू को लेकर होती है, उसमें पात्रों की संख्या अधिक होगी। जैसे- अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘बूँद और समुद्र’ में। उसी प्रकार उपन्यास अगर व्यक्तिपरक होगा तो उसमें पात्रों की संख्या सीमित होगी। जैसे अज्ञेय का उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ में।
पात्र-योजना के साथ उपन्यासों में चरित्र-चित्रण का भी बहुत महत्व होता है। एक तरह से लेखक चरित्र-चित्रण के द्वारा पात्रों की प्राण-प्रतिष्ठा करता है। चरित्र-चित्रण के द्वारा ही किसी पात्र को लेखक विश्वसनीय बनाता है। कुछ उपन्यास घटना-प्रधान होते हैं, कुछ चरित्र-प्रधान। चरित्र-प्रधान उपन्यास में पात्रों के चरित्र का बड़ी बारीकी से अंकन किया जाता है, लेकिन कुछ व्यक्तिपरक उपन्यास भी चरित्र-प्रधान शैली में लिखे जाते हैं। शिवाजी सावन्त का उपन्यास ‘मृत्युंजय’ ऐतिहासिक चरित्र-प्रधान उपन्यास का उदाहरण है, तो रोम्यां रोलां का उपन्यास ‘ज्यां क्रिस्तोफ’ व्यक्तिपरक उपन्यास का उदाहरण है।
अब प्रश्न उठता है कि लेखक पात्रों का चरित्र-चित्रण या व्यक्तित्त्व-उद्घाटन किस प्रकार करता है? इस सम्बन्ध में लेखक तीन प्रकार की युक्तियों का प्रयोग करता है- (1) परिस्थितियों और घटनाओं के बीच पात्रों को डालकर उनके क्रिया-व्यापार और प्रतिक्रियाओं द्वारा, (2) लेखक द्वारा पात्रों की मानसिकता और जीवन-स्थितियों के विश्लेषण और जब पात्रों का परिचय कराया जाता है, तो उसे वर्णनात्मक शैली कहते हैं, इसके अलावा अन्य शैलियाँ नाटकीय कहलाती हैं। नाटकीय विधि द्वारा पात्र-परिचय, उसका चरित्रोद्घाटन अधिक सहज लगता है, लेकिन आजकल उत्तर-आधुनिक ढंग के उपन्यासकार कथा में लेखकीय हस्तक्षेप का भी युक्ति की तरह सायास उपयोग करते हैं।
विवरणात्मक शैली का एक उदाहरण-
‘भारी-भरकम, काले स्याह, गंजे सिर, बड़ी-सी नाक, चौड़े कानों वाले अब्बू साब किसी किताब का विषय नहीं हो सकते। वे गर्मियों में भवों और पलकों को छोड़कर पूरे जिस्म पर उस्तरा फिरवा लिया करते थे। जिस्म पर भालू जैसे बाल थे। गर्मियों में खजूर का पंखा उनके जिस्म का हिस्सा बन जाता था। नंगे बदन बैठे रहते थे। कुछ हिसाब-किताब किया करते थे। सामने पानदान खुला रहता था और लगातार गर्मी की शिकायतें करते रहते थे।’
(3) कथोपकथन या संवाद – पात्र अगर नाटकों का आधार होते हैं, तो उपन्यासों में संवाद से नाटकीयता पैदा होती है, पठनीयता पैदा होती है। जब भी दो या दो से अधिक पात्रों की बातचीत उपन्यास में होती है, तो उसे संवाद कहते हैं। यह कोई जरूरी नहीं है कि उपन्यासों में संवादों की बहुलता हो ही। कई उपन्यास किस्सागोई की शैली में लिखे जाते हैं, तो उसमें संवाद कम होते हैं। लेकिन उपन्यासों में भी उपन्यासकार संवाद-योजना द्वारा कई कार्यों की सिद्धि करता है। संवादों द्वारा कथा का क्रम आगे बढ़ाया जाता है, पात्रों के चरित्र का उद्घाटन किया जाता है, पात्रों की मानसिकता को सामने लाया जाता है।
संवाद संवाद को भले नाटकों का आवश्यक पहलू माना जाता हो, लेकिन संवादों में नाटकीयता नहीं होनी चाहिए। वही संवाद अच्छे माने जाते हैं जो स्वाभाविक समझे जाते हैं। स्वाभाविक कहने से तात्पर्य यह है कि संवाद को दो लोगों की बातचीत की तरह ही लगना चाहिए। लम्बे-लम्बे संवाद एक तो बातचीत की तरह नहीं लगते हैं, बल्कि उसमें भाषाबाजी की झलक अधिक आ जाती है। उसी तरह से संवाद देशकाल के विपरीत नहीं होना चाहिए। ऐतिहासिक उपन्यासों में इसका विशेष रूप से ध्यान रखने की आवश्यकता होती है। मान लीजिए आप उपन्यास मध्यकाल की किसी घटना या किसी चरित्र को आधार बनाकर लिख रहे हैं तो उसमें कोई ऐसी बात संवाद में नहीं आनी चाहिए, जो आधुनिक हो। उदाहरण के लिए उपन्यास कबीरदास के जीवन पर आधारित हो और उसमें आज की तरह साम्प्रदायिक भेदभाव की बात की जाने लगे, तो ऐसे में वह बातचीत स्वाभाविक नहीं लगेगी।
(4) देशकाल और वातावरण – प्राचीन आख्यानों, पुराणों और आधुनिक उपन्यासों में एक बड़ा अन्तर यही माना जाता है कि जहाँ आख्यानों, पुराणों की कथा ‘एक समय की बात है’ के अन्दाज में चलती है, तो उपन्यास में किसी निश्चित देश-काल की बात की जाती है। उपन्यास की कथा किसी देश यानी स्थान में अवस्थित होती है और उसमें किसी निश्चित काल का वर्णन होता है।
कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि देशकाल और वातावरण कहानी, पात्र और कथ्य के लिए विश्वसनीय पृष्ठभूमि भर होते हैं। वे यह मानते हैं कि मानव-जीवन के अर्थ देशकाल निरपेक्ष होते हैं। देशकाल और वातावरण का उपयोग उनको मूर्त या ठोस रूप देने के लिए किया जाता है। जबकि आधुनिक विद्वान इसे पूरी तरह से सही नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि मानव-जीवन की समस्याएँ देशकाल और वातावरण में विकसित होने वाली विभिन्न ऐतिहासिक शक्तियों के कारण पैदा होती है। देशकाल के सन्दर्भ से ही मनुष्य के जीवन में अर्थवत्ता आती है। देशकाल का तात्पर्य केवल प्राकृतिक नहीं होता है, वह सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक भी होता है। उदाहरण के लिए, हिन्दू-मुसलमान संघर्ष और उसमें एकता की समस्या मध्ययुग के पहले संभव नहीं थी। एकल परिवार, पति-पत्नी के बीच तनाव, बच्चों के जीवन में तनाव आधुनिक युग की देन है। के खिलाफ संघर्ष आधुनिक युग की ही देन है।
लेखक अपनी कथा, अपने पात्रों को देशकाल और वातावरण में इस प्रकार अविस्थित करता है कि उसकी कथा किसी समाज की कथा बन जाती है। इसलिए उपन्यास सजीव, जीवन्त लगे इसमें देशकाल और वातावरण, के वर्णनों का बड़ा महत्त्व होता है।
(5.) भाषा-शैली-उपन्यास का मायावी संसार भाषा में ही खड़ा होता है, इसलिए भाषा का उपन्यास में बहुत महत्त्व होता है। उपन्यास चूँकि यथार्थ का माध्यम है। इसलिए उसकी भाषा कथा के अनुरूप होनी चाहिए। उदाहरण के लिए फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘मैला आँचल’ में जमकर बिहार के पूर्णिया-फारबिसगंज अंचल की भाषा का प्रयोग किया है, तो कृष्णा सोबती ने अपने उपन्यास ‘जिन्दगीनामा’ में पंजाबी भाषा की खानगी का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। इसी तरह प्रेमचन्द के उपन्यासों के कथानक तो ग्रामीण है, लेकिन ज्यादातर खड़ी बोली हिन्दी का ही प्रयोग दिखता है। मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कुरू-कुरू-स्वाहा’ का उदाहरण यहाँ दिया जा सकता है, जिसमें हिन्दी जिस तरह से अलग-अलग शैलियों में देश के अलग-अलग हिस्सों में बोली जाती है यानी गुजराती हिन्दी, पंजाबी हिन्दी, मराठी हिन्दी, आदि उन सबकी बानगी इस उपन्यास में प्रस्तुत की गयी है।
भाषा के बाद सवाल आता है शैली का। शैली का तात्पर्य है कि रचनाकार में कथावस्तु का चुनाव कर लिया, पात्रों का भी चयन कर लिया, देशकाल-वातावरण सब कुछ के बाद जो सवाल आता है वह यह कि आखिर इस कथा को कहा किस तरह जाए? यह सवाल सबसे महत्त्वपूर्ण भी होता है उपन्यास की रचना के क्रम में, क्योंकि उपयुक्त शैली के अभाव में कथा की शुरुआत ही नहीं हो सकती है। जैसे पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का उपन्यास ‘चन्द हसीनों के खुतुत’ पत्र-शैली में लिखा गया है यानी पूरे उपन्यास की कथा कुछ पत्रों के सहारे चलती है। अज्ञेय के उपन्यास ‘नंदी के द्वीप’ की शैली में भी पत्रों का बड़ा अच्छा इस्तेमाल किया गया है। इसी तरह मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ की कथा सिनेमा के शॉट की तरह आगे चलती है। शैली का एक बड़ा अच्छा उदाहरण है उपन्यास ‘एक इंच मुस्कान’, जिसे राजेन्द्र यादव और मन्नू भण्डारी ने लिखा है। इस उपन्यास में पुरुष पात्र की कथा राजेन्द्र यादव ने लिखी है, तो मन्नू-भण्डारी ने स्त्री पात्र की कथा लिखी है। इसी तरह डॉ. देवराज के उपन्यास ‘अजय की डायरी’ का उदाहरण दिया जा सकता है, जो डायरी शैली में लिखा गया है। शानी का उपन्यास “कालाजल’ फ्लैशबैक यानी पूर्वदीप्ति शैली में लिखा गया है।
(6) उद्देश्य – उपन्यास लिखने का क्या उद्देश्य हौंता है ? जिस तरह अलग-अलग इंसान अपने जीवन में अलग-अलग उद्देश्यों से प्रेरित होते हैं, उसी तरह अलग-अलग उपन्यासों का उद्देश्य भी अलग-अलग होता है। ऐतिहासिक उपन्यासों का उद्देश्य इतिहास के किसी पात्र, कालखण्ड की कथा कहना होता है। जैसे- झाँसी की रानी तथा बुन्देलखण्ड के शाही परिवारों के जीवन की कथा को आधार बनाकर वृन्दावनलाल वर्मा ने उपन्यास लिखे। आजकल हिन्दी साहित्य में दलितवादी और स्त्रीवादी दृष्टिकोण से प्रेरित होकर उपन्यास लिखने का चलन बढ़ा है। विचारधारा के उद्देश्य से भी प्रेरित होकर खूब उपन्यास लिखे गये हैं। प्रेमचन्द ने अगर यथार्थवादी उद्देश्य से संचालित होकर उपन्यास लिखे, तो जैनेन्द्र कुमार का उद्देश्य पात्रों का मनोवैज्ञानिकों निरूपण होता था। इसी तरह फणीश्वरनाथ रेणु ने आँचलिक शैली में ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे उपन्यास लिखे। रांगेय राघव के उपन्यास ‘कब तक पुकारू” का उद्देश्य था नट-समाज के जीवन को यथार्थवादी तरीके से दिखानां।
मोटे तौर पर एक उपन्यास में इन पहलुओं का होना आवश्यक समझा जाता है। आवश्यक कोई नियम नहीं होता है। अनेक उपन्यास में जान-बूझकर समय का इस तरह उपयोग दिया जाता है कि उसकी संगति टूट जाती है। उपन्यास विधा के लगातार लोकप्रिय होने जाने का • शायद यह एक बड़ा कारण है कि उसमें कथा को लेकर, शिल्प को लेकर इतने प्रयोग किए गये हैं कि शायद ही किसी और विधा में किए गये हों। अँग्रेजी के प्रसिद्ध उपन्यासकार विक्रम सेठ का उपन्यास ‘द गोल्डेन गेट’ पूरी तरह से पद्य में लिखा गया है। आचार्य, जानकीवल्लभ’ शास्त्री ने ऐसा ही प्रयोग ‘गाथा’ में पद्म में कहानी-रचना कर किया है। इसी तरह के प्रयोग उपन्यास की विधा में लगातार चल रहे हैं। अभी हाल में ही अँग्रेजी भाषा के प्रसिद्ध उपन्यासकार जे. एम. फोएटजी का उपन्यास ‘एलिजबेथ कोसेलो’ आया। यह उपन्यास एक स्त्री मानवाधिकार कार्यकर्ता के जीवन पर आधारित है और यह पूरा उपन्यास उनके पाँच भाषणों के आधार पर बुना गया है। यही इस विधा की जीवन्तता का प्रमाण है।
निबन्ध लेखन की प्रक्रिया का वर्णन कीजिये।
निबन्धः गद्य लेखन की एक विधा है। लेकिन इस शब्द का प्रयोग किसी विषय की तार्किक और बौद्धिक विवेचना करने वाले लेखों के लिए भी किया जाता है। निबन्ध के पर्याय रूप में सन्दर्भ, रचना और प्रस्ताव का भी उल्लेख किया जाता है। लेकिन साहित्यिक आलोचना में सर्वाधिक प्रचलित शब्द निबन्ध ही है। इसे अंग्रेजी के कम्पोज़ीशन और एस्से के अर्थ में ग्रहण किया जाता है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार संस्कृत में भी निबन्ध का साहित्य है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के उन निबन्धों में धर्मशास्त्रीय सिद्धान्तों की तार्किक व्याख्या की जाती थी। उनमें व्यक्तित्व की विशेषता नहीं होती थी। किन्तु वर्तमान काल के निबन्ध संस्कृत के निबन्धों से ठीक उलटे हैं। उनमें व्यक्तित्व या वैयक्तिकता का गुण सर्वप्रधान है।
इतिहास-बोध परम्परा की रूढ़ियों से मनुष्य के व्यक्तित्व को मुक्त करता है। निबन्ध की विधा का सम्बन्ध इसी इतिहास-बोध से है। यही कारण है कि निबन्ध की प्रधान विशेषता व्यक्तित्व का प्रकाशन है।
निबन्ध की सबसे अच्छी परिभाषा है- निबंध, निबंध इन दो शब्दों से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है, किसी भी विषय पर सुव्यवस्थित, रचनात्मक, विचारपूर्वक और क्रमबद्ध रूप से लिखना।
पंडित श्यामसुंदर दास जी के अनुसार “निबंध वह लेख है, जिसमें किसी विषय पर विस्तारपूर्वक और पाठिडत्यपूर्वक तरीके से विचार किया गया हो।”
निबन्ध, लेखक के व्यक्तित्व को प्रकाशित करने वाली ललित गद्य- रचना है। इस परिभाषा में अतिव्याप्ति दोष है। लेकिन निबन्ध का रूप साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा इतना स्वतन्त्र है कि उसकी सटीक परिभाषा करना अत्यन्त कठिन है।
परिभाषा – निबन्ध वह रचना है जिसमें किसी गहन विषय पर विस्तार और. पाण्डित्यपूर्ण विचार किया जाता है। वास्तव में, निबन्ध शब्द का अर्थ है-बन्धन। यह बन्धन विविध विचारों का होता है, जो एक-दूसरे से गुँथे होते हैं और किसी विषय की व्याख्या करते हैं।
अच्छे निबंध की विशेषता- ‘निबन्ध’ गद्य-साहित्य की प्रमुख विधा है। निबन्ध को ‘गद्य की कसौटी’ कहा गया है। अंग्रेजी में निबन्ध को एस्से (Essay) कहते हैं। नि + बन्ध = निबन्ध का शाब्दिक अर्थ है-अच्छी प्रकार से बँधा हुआ अर्थात् वह गद्य-रचना जिसमें सीमित आकार के भीतर निजीपन, स्वच्छता, सौष्ठव, सजीवता और आवश्यक संगति से किसी विषय का वर्णन किया जाता है। शब्दों का चयन, वाक्यों की संरचना, अनुच्छेद का निर्माण, विचार एवं कल्पना की एकसूत्रता, भावों की क्रमबद्धता आदि सब कुछ निबंध का शरीर निर्मित करते हैं। भाषा की सरलता, स्पष्टता, कसावट और विषयानुकूलता निबंध हैं।
अच्छे निबन्ध की विशेषताएँ –
1. निबंध में विषय का वर्णन आवश्यक संगति तथा सम्बद्धता से किया गया हो. अर्थात् विचारों में क्रमबद्धता और तारतम्यता होनी चाहिए।
2. निबंध में मौलिकता, सरसता, स्पष्टता और सजीवता होनी चाहिए।
3. निबंध की भाषा सरल, प्रभावशाली तथा व्याकरणसम्मत तथा विषयानुरूप होनी चाहिए।
4. निबंध संकेत बिंदुओं के आधार पर अनुच्छेदों में लिखा जाना चाहिए।
5. निबंध लेखन से पूर्व रूपरेखा तय करके संकेत-बिन्दु बना लेने चाहिए।
6. निबंध निश्चित शब्द-सीमा में ही लिखा जाना चाहिए।
7. निबंध-लेखन में उद्धरणों, सूक्तियों, मुहावरों, लोकोक्तियों एवं काव्य-पंक्तियों का आवश्यकतानुसार यथास्थान प्रयोग किया जाना चाहिए।
8. विषय से संबंधित समस्त तथ्यों की चर्चा की जानी चाहिए।
9. वाक्यों की पुनरावृत्ति से बचना चाहिए।
10. निबंध के उपसंहार में निबंध का साराशं दिया जाना चाहिए।
निबंध के अंग-निबंध को लिखते समय इसकी विषय-वस्तु को सामान्य रूप से. निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-
(1) भूमिका, प्रस्तावना या आरम्भ- निबंध का प्रारम्भ जितना आकर्षक और प्रभावशाली होगा. वह उतना ही अच्छा माना जाता है। निबंध का प्रारम्भ किसी सूक्ति, काव्य-पंक्ति और विषय की प्रकृति को ध्यान में रखकर भूमिका के आधार पर किया जाना चाहिए।
(2) मध्य भाग या प्रसार- इस भाग में निबंध के विषय को स्पष्ट किया जाता है। लेखक को भूमिका के आधार पर अपने विचारों और तथ्यों को रोचक ढंग से अनुच्छेदों में बाँट कर प्रस्तुत करते हुए चलना चाहिए या उप-शीर्षकों में विभक्त कर मूल विषय-वस्तु का ही विवेचन करते हुए चलना चाहिए। ध्यान रहे, सभी उप-शीर्षक निबंध-विकास की दृष्टि से एक- दूसरे से जुड़े हों और विषय से सम्बद्ध हों।
(3) उपसंहार या अंत- निबन्ध के प्रारम्भ की भाँति इसका अन्त भी अत्यन्त प्रभावशाली होना चाहिए। अंत अर्थात् उपसंहार एक प्रकार से सम्पूर्ण निबंध का निचोड़ होता है। इसमें अपनी सम्मति भी दी जा सकती है।
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- पाठ्यचर्या नियोजन का आधार |basis of curriculum planning
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