अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण किस प्रकार होता है? विवेचना कीजिए।How is a learner’s choice of experiences determined? To discuss.

अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण किस प्रकार होता है? विवेचना कीजिए।How is a learner's choice of experiences determined? To discuss.

अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण किस प्रकार होता है? विवेचना कीजिए।

अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण- कुछ विद्वानों ने शिक्षकों की सहायता के लिए अधिगम अनुभवों के चयन के मापदण्ड निर्धारित किये हैं। यहाँ पर दो प्रमुख विद्वानों बर्टन एवं व्हीलर द्वारा निर्धारित मानदण्डों को प्रस्तुत किया जा रहा है-

बर्टन द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड- बर्टन द्वारा प्रस्तावित मानदण्ड के अनुसार अधिगग- अनुभवों को निम्नलिखित छः शर्तें पूरी करनी चाहिए-

  1. वह विद्यार्थियों की दृष्टि में उद्देश्य प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किये जाने के योग्य हो।
  2. शिक्षकों की दृष्टि में, वह वांछनीय सामाजिक उद्देश्यों की ओर ले जाने वाला हो।
  3. वह वर्ग के परिपक्वता स्तर के लिए उपयुक्त हो अर्थात् वर्ग के लिए चुनौतीपूर्ण हो, प्राप्य हो, नवीन अधिगम की ओर ले जाने वाला हो।
  4. उसमें विद्यार्थियों के सन्तुलित विकास के लिए विभिन्न प्रकार की वैयक्तिक तथा वर्गगत क्रियाओं का समावेश हो।
  5. उसका आयोजन विद्यालय तथा समाज में उपलब्ध साधन-सुविधाओं के द्वारा किया जाना सम्भव हो।
  6. उनमें व्यक्तिगत भिन्नताओं की दृष्टि से इतनी विविधता हो कि वर्ग के सभी सदस्यों को उपयुक्त प्रवृत्तियाँ सुलभ हो सकें।

अधिगम अनुभव के चयन में निम्नलिखित बिन्दुओं की भूमिका होती है-

1. वैधानिकता (Validity) अधिगम अनुभव मान्य या वैधानिक होने चाहिए। अधिगम वैधानिक उन स्थितियों में होते हैं जबकि वे अपेक्षित उद्देश्यों से सम्बन्धित हों। अधिगम अनुभव ऐसे होने चाहिए जिन्हें क्रियान्वित किया जा सके। अनेक व्यवहार ऐसे होते हैं जो शैक्षिक रूप से महत्वपूर्ण होते हैं परन्तु उन्हें परम्परागत विद्यालयीन विषयों के अध्ययन से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अतः इन्हें परिणामों से सम्बन्धित करने के लिए प्रत्यक्ष व्यवस्था होनी चाहिए।

व्यापकता (Comprehensiveness)- अधिगम अनुभवों की व्यापकता से तात्पर्य है कि उनका चयन इस प्रकार से किया जाये कि पाठ्यक्रम में घोषित प्रत्येक उद्देश्य के लिए उपयुक्त अधिगम अनुभव का चयन हो सके। प्रायः यह पाया जाता है कि शैक्षिक उद्देश्यों की सूची तो तैयार की जाती है परन्तु उनके कार्य रूप में परिणित करने के लिए उपयुक्त अधिगम अनुभव का चयन नहीं किया जाता और उच्च स्तर की प्रक्रियाओं जैसे अनुप्रयोग, संश्लेषण, विश्लेषण एवं मूल्यांकन के लिए कोई प्रावधान नहीं होता।

विविधता (Variety) – विविधता का व्यापकता से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिए अधिगम अनुभव का चुनाव अधिगम के पूर्ण विकास के परिप्रेक्ष्य में किया जाना चाहिए। बालकों में व्यक्तिगत भिन्नताएँ होती हैं। विभिन्न प्रकार के बालक विभिन्न विधियों से सीखते हैं। इसलिए अधिगम अनुभवों में विविधता होनी चाहिए जिससे बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं की समस्या का समाधान किया जा सके।

उपयुक्तता (Suitability)- अधिगम अनुभवों का उपयुक्त होना आवश्यक है। अधिगम अनुभव बालक एवं कक्षा दोनों ही दृष्टियों से उपयुक्त होने चाहिए। बालक का अपना संसार होता है, जो वयस्कों के संसार से भिन्न होता है। बचपन में बालक के जीवन में समाज की माँग उसके मनोवैज्ञानिक विकास से अन्तक्रिया करती है, जिससे वह अपने आन्तरिक एवं बाह्य संसार का प्रत्यक्षण करता है। अर्थात् वह अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग संसारों से होकर गुजरता हुआ वयस्कों के संसार में पहुँचता है। अतः वे अधिगम अनुभव ही बालक के लिए उपयुक्त होंगे जो उसकी आयु के अनुसार हों।

प्रतिकृति (Pattern) – विभिन्न अधिगम अनुभवों के पारस्परिक सम्बन्ध एवं तारतम्य को प्रतिकृति कहते हैं। अभिवृद्धि के निर्धारण में प्रतिकृति को ध्यान में रखना आवश्यक है। अधिगम अनुभवों के चुनाव के समय प्रतिकृति के दो पहलुओं- दिये गये समय में बालक की मापी गयी विशेषताएँ एवं समय के साथ होने वाले परिवर्तन के अन्तर्सम्बन्धों को ध्यान में रखना चाहिए। प्रतिकृति के प्रमुख पक्ष निम्न हैं-

1. सन्तुलन (Balance)- बालक अभिवृद्धि प्रक्रिया एवं पर्यावरण के मध्य की अन्तर्क्रिया के द्वारा परिपक्वता की ओर बढ़ता है. परिपक्वता ता पाने के लिए निश्चित अनुभवों की आवश्यकता होती है। गतिविधियों का सन्तुलन अलग-अलग कालांशों में व्यक्ति-दर-व्यक्ति बदलता है।

2. सततता (Continuity)- अधिगम एक सतत् प्रक्रिया है। प्रत्येक अनुभव अलग से निर्धारित नहीं किया जा सकता, प्रत्येक नवीन अनुभव पर पूर्व के अनुभव का प्रभाव कम अथवा ज्यादा अवश्य पड़ता है। जब अनुभवों का प्रत्यक्षण असतत् और असम्बन्धित रूप में किया जाता है, तब विद्यार्थी प्रयोजन अथवा क्रम का ध्यान नहीं देता है और परिणामस्वरूप उसका अधिगम प्रभावित होता है। यह सततता न केवल विद्यालयीन अनुभवों में होती है अपितु विद्यालयीन अनुभवों के साथ विद्यालय के बाहर के अनुभवों में भी होती है।

3. प्रायोगिक सतता (Practical Continuity) – कक्षा में प्रायोगिक सततता भी आवश्यक है। सततता के सिद्धान्त के अनुसार, कालांश पर्याप्त लम्बे होने चाहिए ताकि वे अनुभवों  से सम्बन्ध स्थापित कर सकें और उद्देश्यों की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकें। यह बिना उद्देश्यों के ज्ञान के निश्चित नहीं किए जा सकते हैं।

4. संचय (Cumulation)- अधिगम अनुभव परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। कोई भी अनुभव विशुद्ध रूप से किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता परन्तु विभिन्न अधिगम अनुभव किसी एक दूरगामी उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होते हैं। प्राथमिक कक्षाओं में छात्रों को कक्षा को स्वच्छ रखने, दूध वितरित करने अथवा पौधों, पशुओं एवं फूलों की देखरेख का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है। माध्यमिक कक्षाओं में उन्हें सामाजिक एवं खेलकूद की गतिविधयाँ आयोजित करने का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है। इस प्रकार के संचित प्रयास से अंतिम उद्देश्य की पूर्ति की जा सकती है।

5. अनुभवों की पुनरावृत्ति (Repetition of Experiences) – शिक्षा का उद्देश्य केवल किन्हीं निश्चित व्यवहार प्रतिरूपों को निर्मित करना ही नहीं है वरन् इनका अभ्यास कराना एवं आदत डालना भी है। इसीलिए अधिगम अनुभवों की पुनरावृत्ति उपयोगी होती है।

जीवन से सम्बद्ध – अधिगम अनुभवों का जीवन से अधिकतम सम्बन्ध होना चाहिए। यह सम्बन्ध न केवल भावी जीवन के लिए बल्कि इनका वर्तमान जीवन से भी सम्बन्ध होना चाहिए। अधिगम का स्थानान्तरण तब अधिकतम होगा जब अधिगम स्थितियाँ उन स्थितियों के समान हों जिसमें उनका उपयोग किया जाना हो। अतः ऐसे परिप्रेक्ष्यों को चयन किया जाना चाहिए जिससे अधिगमक अपने जीवन में उनका उपयोग कर सके।

नियोजन में शिक्षार्थियों की भागीदारी (Lerner Participation in Planning)

नियोजन में शिक्षार्थियों की भागीदारी (Lerner Participation in Planning) – शिक्षार्थियों की योजन में सहभागिता अवश्य होनी चाहिए। यदि शिक्षार्थियों की नियोजन में सहभागिता होगी तब शिक्षार्थी उसमें सहर्ष भाग लेगा एवं उसे अपना कार्य समझेगा। यदि ऐसा न किया गया तब वह दबाव में आकर अनिच्छा से भाग लेगा। परिणामस्वरूप उसके अधिगम परिणाम शून्य होंगे।

पाठ्यक्रम विकास हेतु शैक्षिक एवं व्यावसायिक क्षेत्रों में नये आयामों का वर्णन कीजिए।

विद्यालयी पाठ्यचर्या द्वारा यह अपेक्षित है कि इसके द्वारा राष्ट्रीय अस्मिता एवं एकता का सुदृढ़ीकरण भारत की सांस्कृतिक विरासत के अध्ययन के साथ हो। यहाँ आकर शिक्षा को दो प्रकार की भूमिका एक साथ निभानी है जिसमें परम्परा संरक्षण के साथ-साथ गतिशीलता निहित होगी। परिणामतः परिवर्तन-उन्मुखी प्रौद्योगिकी और देश की सांस्कृतिक परम्परा की निरन्तरता के बीच सुन्दर संश्लेषण एवं समन्वय लाया जा सके। जहाँ एक तरफ शिक्षा को पाठ्यचर्या द्वारा भूमण्डलीय विश्व व्यवस्था की चुनौतियों से निपटना है, वहीं दूसरी ओर शिक्षा ऐसी दिखाई देनी चाहिए कि वह राष्ट्रीय चेतना, राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रीय पहचान के लिए आवश्यक राष्ट्रीय एकता को विकसित कर सके।

इस सन्दर्भ में पाठ्यक्रम विकास के लिए शैक्षिक एवं व्यावसायिक क्षेत्रों के नये आयायों का समावेशन एवं उनका वर्णन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

सूचना और संचार प्रौद्योगिकी की चुनौतियों का सामना- नई प्रौद्योगिकी में क्रांति का एक मूलभूत चुनौती है। यह सूचनात्मक समाज को ज्ञानात्मक समाज में बदल देगी। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी को संक्षेप में कहा जा सकता है कि वह दूरसंचार, दूरदर्शन और कम्प्यूटरों का एक ही बिन्दु पर मिलन है। नई प्रौद्योगिकी में इतनी अधिक क्षमता है कि वह शिक्षा में क्रांति ला देगी। यह विद्यालयों का नाटकीय रूपान्तरण कर सकती है। यह उम्मीद की जाती है कि इससे औपचारिक शिक्षा और औपचारिक विद्यालय व्यवस्था का एकाधिकार इन संस्थाओं से बाहर प्राप्त किए गए ज्ञान और अनुभव के द्वारा समाप्त हो जाएगा।

भूमण्डलीकरण के प्रभाव के प्रत्युत्तर में पाठ्यचर्या में बदलाव- आज नई सदी में देश को अनेक अपूर्व चुनौतियों का सामना करना है। उनमें से एक उदारीकरण की परिस्थितियों, निजीकरण और भूमण्डलीकरण के वे प्रभाव हैं, जिनका आज दुनिया के अनेक हिस्सों पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। भूमण्डलीकरण तीव्र प्रगति से होने वाले महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी परिवर्तनों का एक परिणाम है और एक प्रकार का भू-राजनैतिक विकास है।

पाठ्यचर्या में स्वदेशी ज्ञान का समेकन- आज यदि हम पाठ्यचर्या के विकास पर गहनता से विचार करें तो इसमें पहले से कहीं ज्यादा भारतीय स्वदेशी ज्ञान प्रणाली को विश्वव्यापी मान्यता मिली है। उदाहरणार्थ भारतीय चिकित्सा और मनोविज्ञान के क्षेत्र में आयुर्वेद को तुलनात्मक रूप से अधिक मान्यता मिली है। उदाहरण के लिए भारतीय चिकित्सा और मनोविज्ञान के क्षेत्र में आयुर्वेद को तुलनात्मक रूप से अधिक समग्र और पूर्ण माना जा रहा है। इस सन्दर्भ में यह बताना प्रासंगिक होगा कि ज्ञान के ऐसे परिक्षेत्र हैं जिन्हें ‘समान्तर’, ‘स्वदेशी’, ‘पारम्परिक’ या ‘सभ्यतागत’ ज्ञान प्रणाली कहा जा सकता है। ये विकासशील विश्व के उन समाजों से भी सम्बन्धित हैं जिन्होंने अपनी ज्ञान प्रणाली को पाला-पोषण और परिभाषित करके उसका विभिन्न प्रकार के ज्ञान परिक्षेत्रों से नाता जोड़ दिया, जैसे- भूगर्भ विज्ञान, परिस्थिति विज्ञान, कृषि, स्वास्थ्य आदि।

पाठ्यचर्या गत विविध सरकारों का समेकन- पाठ्यचर्या के अन्य निर्धारकों के अतिरिक्त कुछ आलोचनात्मक चिन्त्य विषयों का भी ध्यान पाठ्य-विषयों के अन्तर्गत करना चाहिए। निरन्तर बढ़ता हुआ पर्यावरण प्रदूषण का एक चिन्त्य विषय है। अतः सबसे पहले पर्यावरण संरक्षण को पाठ्यचर्या में स्थान अवश्य दिया जाना चाहिए। यूनेस्को ने पर्यावरण शिक्षा को अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय मानते हुए इसकी पाठ्यक्रम में अनिवार्यता पर बल दिया था। इसी प्रकार जब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा की संकल्पना करते हुए इसमें एक सामान्य कोर की बात कही गयी तो इसमें पर्यावरण संरक्षण को भी शामिल किया गया।

कार्यजगत से शिक्षा की संबद्धता व व्यावसायिक शिक्षा का समावेशन- कार्य शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा विद्यालयी शिक्षा प्रणाली के अविभाज्य अंग हैं। कार्य शिक्षा से सम्बद्ध वर्तमान नीति, जिसमें कार्य शिक्षा को उद्देश्यपरक, सार्थक मानव-श्रम-गतिविधि के रूप में रखा गया है, को प्राथमिक स्तर पर अधिक प्रभावी ढंग से लागू करना जरूरी है। कार्य शिक्षा एक विचारपूर्ण कार्यनीति है जो विभिन्न प्रकार के कार्यों में निहित तथ्यों और सिद्धान्तों की समझ बढ़ाती है और कार्य करने के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण पैदा करती है। इससे राष्ट्र निर्माण के लिए महात्मा गाँधी का विचाररत उँगलियों (चिंकिंग फिंगर्स) की रचना का स्वप्न साकार होगा।

जीवन-कौशलों से शिक्षा की संबद्धता- मोटे तौर पर शिक्षा छात्रों के जीवंत अनुभव और विषय-वस्तु के बीच मौजूद मूलभूत गहरे अन्तर की शिकार रही है। शिक्षा का वास्तविक एवं आदर्श दायित्व है कि वह छात्रों को जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करें। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा विभिन्न जीवन-कौशलों से जुड़ी हो। वह ऐसी योग्यताएँ पैदा करे जो व्यक्ति को दैनिक जीवन की माँगों और चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निबटने के काबिल बनाए और सकारात्मक व्यवहार के विकास में सहायक हो। वह ऐसे मूलभत ऐसे हुनरों को विकसित करे जो बड़े पैमाने पर विविधता के साथ स्वास्थ्य और सामाजिक आवश्यकताओं जैसे तत्वों से जुड़े हों। इन्हीं कौशलों के द्वारा छात्र नशीले पदार्थों की लत, हिंसा, किशोरावस्था में अवांछित गर्भधारण, एड्स एवं अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं जैसी उत्पन्न चुनौतियों का मुकाबला कर सकते हैं। ये कौशल छात्रों में ऐसे मुद्दों के प्रति भी चेतना पैदा करेंगे जो जीवन से जुड़े हे हैं, जैसे- उपभोक्ता अधिकार, उपलब्ध उपभोक्ता-वस्तुओं की गुणवत्ता और उनसे जुड़ी सेवाओं पर प्रश्न खड़े करने का हौसला।

वैकल्पिक और मुक्त विद्यालयी व्यवस्था- वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली में अनौपचारिक शिक्षा, पत्राचार शिक्षण अन्य लचीली प्रणालियों शामिल हैं जिनका संचालन सरकारी व गैर- सरकारी संगठनों द्वारा किया जा रहा है। अनौपचारिक शिक्षा छह से चौदह वर्ष के आयुवर्ग के ऐसे छात्रों पर ध्यान देती है जो या तो कहीं भर्ती ही नहीं हुए या शिक्षा पूरी करने के पहले ही विद्यालय छोड़ चुके हैं।

इस दिशा में विगत कुछ दशकों में काफी प्रगति हुई है फिर भी प्रारम्भिक शिक्षा के लोकव्यापीकरण के राष्ट्रीय लक्ष्य को हासिल करने के लिए बहुत अधिक प्रयत्न की जरूरत है। शिक्षार्थियों की प्रवेश संख्या बढ़ना मात्र ही पर्याप्त नहीं है, वरन् इन छात्रों को शिक्षा में बनाए रखना और उन्हें सीखने के सार्थक अनुभव प्रदान करना भी बहुत महत्व का विषय है।

अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण किस प्रकार होता है? विवेचना कीजिए।

सार्वभौमिक व समावेशी शिक्षा हेतु पाठ्यक्रम में बदलाव- सार्वभौमिक अर्थात् विश्व एकता की शिक्षा आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यदि विश्व के सभी लोग अपने आपसी मतभेदों को एक-एक करके कम करें तथा एकता व शान्ति के आदर्शों के अन्तर्गत एकताबद्ध हो जायें तो विश्वव्यापी आतंकवाद ही नहीं वरन् अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी तथा पर्यावरण सम्वन्धी समस्याओं का समाधान हो सकता है। गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड और यूनेस्को शान्ति शिक्षा पुरस्कार से सम्मानित सिटी मॉण्टेसरी स्कूल ने अपना नैतिक उत्तरदायित्व समझते हुए विश्व के दो दो अरब बच्चों तथा आगे आने वाली पीढ़ियों के सुरक्षित भविष्य के लिए विगत 54 वर्षों से प्रयासरत है।

मूल्य विकास के लिए शिक्षा- स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद गत पाँच दशकों से आवश्यक सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों और गुणों का निरन्तर ह्रास दिखाई दे रहा है और सभी स्तरों पर कटुत्ता बढ़ी है। यद्यपि यह सही है कि आसपास व्याप्त उदासीनता के माहौल से विद्यालय भी अनछुए नहीं रहे हैं और वहाँ भी मूल्यों के प्रति अनादर पैदा हुआ है, फिर भी राष्ट्रीय मानस को निर्देशित करने के लिए उनकी प्रभावी भूमिका और दायित्व को कम नहीं माना जा सकता। विद्यालय ऐसा कर सकते हैं और उन्हें ऐसा करना भी चाहिए कि उन सार्वभौम और शाश्वत मूल्यों की पुर्नस्थापना के लिए प्रयत्नशील हों जो लोगों को एकता और एकीकरण की ओर उन्मुख करें और उन्हें इस काबिल बनाएँ कि वे अपने नैतिक और आध्यात्मिक विकास के साथ अपने भीतर मौजूद सम्पदा को महसूस कर सकें, समझ सकें।

पाठ्यक्रम भार को घटाना- बहुत लम्बे समय से आज तक माता-पिता और समुदाय की बड़ी शिकायत रही है कि विद्यालयी पाठ्यक्रम बहुत भारी है। पाठ्यक्रमों का भार केवल भौतिक ही नहीं है बल्कि बोध हीनता का भी है, जो कुछ बुनियादी अवधारणाओं के प्रति समझ के अभाव का फल है। इससे छात्रों के मन में जबरदस्त तनाव पैदा होता है और इस कारण उनके स्वाभाविक विकास की गति अवरुद्ध होती है। कुछ समय पहले ही इस समस्या का आकलन करने के प्रयास हुए थे। वे तरीके और साधन खोजने की भी कोशिश की गई थी जिनसे विद्यालयी छात्रों का और खास तौर से छोटे बच्चों का पाठ्‌यक्रम बोझ घटाया जा सके। अनेक उपाय सुझाने के बावजूद विद्यालयी पाठ्यक्रमों का बोझ अब भी बना हुआ है और अपेक्षाएँ भी बहुत अधिक हैं। इस समस्या का पूरी ईमानदारी के साथ हल निकालना अब अनिवार्य है।

संज्ञान, संवेग और क्रिया के बीच सामंजस्य- शिक्षा को छात्रों के व्यक्तिगत विकास के लिए अनिवार्य रूप से सुलभ बनाना चाहिए और मनोवैज्ञानिक रूप से उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रों में तेजी से घटित हो रहे परिवर्तनों से जूझने के लिए तैयार करना चाहिए। इस प्रकार शिक्षा का मुख्य केन्द्र संज्ञानात्मक कौशलों, जैसे- पढ़ना, लिखना और गणित से हटकर अंतरव्यक्तीय और आंतरव्यक्तीय विकास की ओर मुड़ गया है। प्रशिक्षक यह अनुभव करने लगे हैं कि अकादमिक कमियों के अलावा, एक अलग प्रकार की और अधिक चिंताजनक कमी भी है और वह है ‘भावनात्मक निरक्षरता’ की।

पर्यावरण शिक्षा व शान्ति शिक्षा- पर्यावरण शिक्षा व शान्ति शिक्षा को जानना आवश्यक है।

पर्यावरण शिक्षा से आशय उस ज्ञान से है जो हमें हमारे वातावरण के बारे में जानकारी उपलब्ध कराता है। यह भावी नागरिकों को पर्यावरण के प्रति सचेत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यूनेस्को (UNESCO) ने पर्यावरण शिक्षा को अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय माना है।

यूनेस्को के अनुसार- “पर्यावरण शिक्षा व्यक्ति, प्रकृति एवं समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का बोध कराते हुए पर्यावरण सुधार हेतु प्रेरणा प्रदान करती है।”

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