साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है न कि दर्पण|Literature is a reflection of society and not a mirror
साहित्य समाज का दर्पण होता है, यह एक प्रसिद्ध उक्ति है। परंतु वही साहित्यकार सफल समझा जाता है, जो अपनी रचना में तत्कालीन समाज का वास्तविक प्रतिबिम्ब उतार पाता है। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि साहित्य समाज का दर्पण होता है क्योंकि दर्पण पूर्ण सत्य नहीं होता। प्रथम तो दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिम्ब हमेशा बिम्ब का आधा होता है। प्रथम तो दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिम्ब हमेशा बिम्ब का आधा होता है। दूसरा, दर्पण का क्या स्वरूप है? समतल, अवतल या उत्तल इसका प्रभाव भी साहित्य पर पड़ता है। यह संबंधित साहित्यकार पर निर्भर है कि वह क्या रूप चुनता है? यदि हम दर्पण को बिना समझे प्रतिबिम्ब को देखेंगे तो हमें कभी सही जानकारी नहीं मिलेगी। साहित्यकार क्या दर्पण चुनता है यह इस पर निर्भर है कि उसकी प्रतिबद्धता क्या है? उसके साहित्य का पाठक और श्रोता कौन है?
साहित्य लोगों के विकास के लिए नियोजित है। साहित्य मात्र मनोरंजन या मन बहलाव हेतु नहीं है अपितु इसका उद्देश्य व्यापक है। साहित्य में नायक-नायिका के संयोग-वियोग के प्रसंगों के अतिरिक्त जीवन की समस्याओं पर विचार करने और उन्हें हल करने की क्षमता है। साहित्य अपने काल का प्रतिबिम्ब होता है। जो भाव और विचार लोगों के हृदयों को स्पंदित करते हैं, वहीं साहित्य पर भी अपनी छाया डालते हैं। साहित्य में प्रभाव तभी उत्पन्न हो सकता है जब वह जीवन की सच्चाइयों का दर्पण हो। लेकिन साहित्य के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं कि वह महज दर्पण हो। मात्र दर्पण होना लोगों का विकास सुनिश्चित नहीं करता। साहित्य गुण दोष का विश्लेषण करने वाला आलोचक ही नहीं विधायक कलाकार है। अतः साहित्य समाज के प्रतिबिम्ब के रूप में अधिक स्पष्ट है।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है। यह ज्ञान जीवन से सीधा जुड़ा है। अतः साहित्य का आधार जीवन है। साहित्य तभी शाश्वत रूप धारण कर सकता है जब साहित्यकार समाज की उपेक्षा एवं कल्पनाशील साहित्य की रचना से परहेज करे। प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ के समाज के ऊपर ही आश्रित है। यदि ऐसा है, तो यह कहना कदापि उचित नहीं कि साहित्य समाज का दर्पण है क्योंकि दर्पण तो एक साधन मात्र है परंतु साहित्य का साध्य तो जीवन है, वह प्रतिबिम्ब है, वह सच्चाई है जिसका प्रतिबिम्ब हमें उस दर्पण में दिख रहा है। यह प्रतिबिम्ब सच का द्योतक है जिसे दर्पण में देख समाज की वास्तविकता को देखा जा सकता है। प्राचीन समाज में धर्म का प्रभाव साहित्य पर स्पष्ट परिलक्षित होता था। मनुष्य भय और प्रलोभन से कार्य लेता था। भय, प्रलोभन, पाप-पुण्य उसके साधन थे। वर्तमान में साहित्य न सौंदर्य प्रेम रूपी साधन के माध्यम से लोगों को प्रभावित किया है। साहित्य मस्तिष्क की वस्तु नहीं, हृदय की वस्तु है। सच्चा साहित्य वही है जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुंदर हो और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने की क्षमता हो। यह गुण उसी अवस्था में प्रकट हो सकता है जब उसमें जीवन की सच्चाइयाँ और अनुभूतियाँ व्यक्त की गई हो। यदि प्रतिबिम्ब, दर्पण और सच्चाई की तुलना की जाए तो प्रतिबिम्ब और सच्चाई में दर्पण और सच्चाई की अपेक्षा अधिक साम्य नजर आएगा। दर्पण सच्चा है या झूठा कहना मुश्किल है परंतु प्रतिबिम्ब तो व्यक्ति को स्वयं एवं सच का ही रूप है।
साहित्य समाज का प्रतिबिंब है परंतु कुछ साहित्य प्रेमी साहित्य में निष्क्रिय सौंदर्य के अतिरिक्त किसी अन्य चित्रण के पक्ष में नहीं है। डॉ. राम विलास शर्मा कहते हैं ऐसे साहित्य प्रेमी जो मात्र अपना ही प्रतिबिम्ब देखना चाहते हैं। उन्हें साहित्य की परिभाषा में परिवर्तन कर देना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों के अनुसार साहित्य वह दर्पण होना चाहिए जिसमें इन विशेष लोगों का ही प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। ऐसा कृत्रिम साहित्य समाज को कुछ समय तो पसंद आ सकता है परंतु वास्तविकता तो अंततः लोगों तक पहुँच ही जाती है। इस वास्तविक भाव और रसिकगणों द्वारा उत्पन्न छद्म भाव के मध्य अंतर को स्पष्ट करने का कार्य प्रतिबिम्ब करता है। जब आलोचनाओं एवं सच्ची व्याख्याओं का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, तो कृत्रिम साहित्य को समाज दर-किनार कर देता है। साहित्य कलाकार के आध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौंदर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं। कलाकार मन में ऐसे भावों का सृजन करता है, जो दृढ़ता और जीवन में सकारात्मक संदेश देते हैं।
साहित्य उस चिकित्सक के समान है जो हमारी कमजोरियों, मानसिक और नैतिक गिरावट का इलाज करता है। मनुष्य स्वभाव से देवतुल्य है। जमाने के छल, प्रपंच और परिस्थितियों के कारण वह अपना देवत्व खो बैठता है। साहित्य इसी देवत्व को प्रतिष्ठित करने का कार्य करता है। कहने का तात्पर्य है कि साहित्य समाज में प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक वर्ग को केंद्र में रखकर रचे जाते हैं।
स्पष्ट एवं सच्चाई को समाहित किए गए साहित्य ही जीवन का आधार हैं प्रतिबिम्ब में भी व्यक्ति स्वयं से परिचित होता है और कल देखे गए प्रतिबिम्ब से आज के बने प्रतिबिम्ब की तुलना कर देवत्व को पाने का प्रयास करता है। साहित्य समाज के वर्तमान रूप का प्रतिबिम्ब, अतीत का दर्पण और भावी जीवन का निर्देशन करने वाला होता है। समाज को राह दिखाने वाले दीपक का कार्य साहित्य करता है। वास्तविक साहित्य कभी पुराना नहीं होता इसलिए तो कालिदास, तुलसी, वाल्मीकि आदि की साहित्यिक कृतियाँ आज भी हमें दिशा दे रही हैं और भविष्य में भी देती रहेंगी। समाज का प्रभाव साहित्य पर जरूर पड़ता है। अतः साहित्यकार को ऐसे साहित्य की रचना करनी चाहिए जो जीवन को ऊँचा उठाए।
समाज के नवनिर्माण में साहित्य की भूमिका|Role of literature in reconstruction of society
साहित्य वह सशक्त माध्यम है, जो समाज को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। यह समाज में प्रबोधन की प्रक्रिया का सूत्रपात करता है। लोगों को उद्वेलित करता है। सत्य के सुखद परिणामों को रेखांकित करता है, तो असत्य के दुखद अंतों को स्पष्ट कर हमें सीख व शिक्षा प्रदान करता है। अच्छा साहित्य हमारे चरित्र निर्माण में सहायक होता है। इसकी उपादेयता व्यापक है। यही कारण है कि समाज के नवनिर्माण में साहित्य की केंद्रीय भूमिका होती है। यह समाज को दिशा- बोध कराने वाला, उसे नवनिर्मित करने वाला सशक्त माध्यम है। साहित्य, समाज को संस्कारित करता है, जीवन मूल्य देता है एवं कालखंड की विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं विरोधाभासों को रेखांकित कर समाज को संदेश देता है, जिससे समाज में सुधार आता है और सामाजिक विकास को लय मिलती है। साहित्य समाज को संजीविनी शक्ति प्रदान करके उसकी प्रशस्ति का मार्ग निर्धारित करता है।
वर्तमान साहित्य में तो साहित्य पर विभिन्न फिल्में व वेब सीरीज का निर्माण होने लगा है जो कि लोगों के जनमानस पर सीधा असर डाल रही हैं। हाल ही आई ‘लीला’ वेब सीरीज भविष्य में धार्मिक प्रोत्साहन के कारण एक सामाजिक विसंगति पैदा होने पर अपनी पैनी नजर डालती नजर आई और कहीं न कहीं हमें सचेत भी करती है। यह वेब सीरीज प्रयाग अकबर द्वारा लिखे गये उपन्यास पर आधारित है। इसी प्रकार संजय बारू की पुस्तक द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर हमें इतिहास में झाँकने का मौका देती है।
साहित्य की तीन खूबियाँ इसकी महत्ता को बढ़ाती हैं। मसलन, साहित्य अतीत से प्रेरणा ग्रहण करता है, वर्तमान को चित्रित करता है और भविष्य का मार्गदर्शन करता है। साहित्य में सामाजिक यथार्थ, मानवीय प्रतिभा और कल्पनाजन्य आदर्श का समन्वयन रहता है। वस्तुतः साहित्य जीवन के सत्य को प्रकट करने वाले शिवत्वमयी विचारों और भावों की घनीभूत अभिव्यक्ति है।
साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है। साहित्य में समाज की विशेषताओं और विकृतियों का चित्रण होता है। दर्पण हमारी बाह्य विकृतियों का परिचय देता है जबकि साहित्य हमारी आंतरिक विकृतियों को चिन्हित करता है। यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। कि साहित्यकार समाज में व्याप्त विकृतियों के निवारण हेतु अपेक्षित परिवर्तनों को भी व्यंजना प्रदान करता है। यहीं से समाज के नवनिर्माण में साहित्य का अवदान सुनिश्चित होता है।
साहित्य जीवन के सभी घटकों का श्रृंखला समुच्चय है। इसका एक-एक प्रमाण हीरक हार की मणिमुक्ताओं की भाँति संयोजित है। जीवन की समस्त विविधता को समग्रता से व्यंजित करने की क्षमता साहित्य में ही पायी जाती है।
समाज के नवनिर्माण में साहित्य की भूमिका का विश्लेषण करने से पूर्व साहित्य के स्वरूप और उसके समाज दर्पण का लक्ष्य समझना आवश्यक है।
संस्कृत का प्रसिद्ध सूत्र वाक्य है-
हितेन सह इति सष्टिम्ह तस्याभावः साहित्यम् ।
अर्थात् साहित्य का मूल तत्व सबका हितसाधन है। मानव स्वभाव से एक क्रियाशील प्राणी है तथा मन में उठने वाले भावों का चित्रण उसकी अनिवार्य आवश्यकता है। यही भाव जब लेखनीबद्ध होकर भाषा के माध्यम से प्रकट होते हैं, वहीं सामग्री यानी ज्ञानवर्धक अभिव्यक्ति साहित्य कहलाता है।
साहित्य का समाजदर्शन मानवीय विद्रूप परंपराओं और व्यवस्था के शोषण रूप का समर्थन करने वाले धार्मिक नैतिक मूल्यों के बहिष्कार से अनुप्राणित है। जीवन और साहित्य की प्रेरणाएँ समान होती है। साहित्य मानव जीवन के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकर्षण-विकर्षण के ताने-बाने से निर्मित होता है। उसमें मानवीय आत्मा की तरंगें प्रतिबिम्बित होती हैं। अस्तु समाज और साहित्य में अन्योन्याश्रित संबंध है, दोनों जीवन संबंधी सिक्के के दो पहलू हैं।
साहित्य समाज को नवनिर्माण के विभिन्न चरणों से परिचित कराता है। समाज के नवनिर्माण का पहला बिंदु है, सभी स्थितियों को ऐतिहासिक संदर्भों में रखकर निष्पक्ष ढंग से मूल्यांकित करना। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि साहित्य समाज का दर्पण है। एक ओर जहाँ समाज के शुभ संस्कार साहित्य में लिपिबद्ध होते हैं, वही अशुभ संस्कार भी साहित्य में समान रूप से समादृत होते हैं। साहित्य की यही पारदर्शिता समाज के नवनिर्माण में हमारी सहायक बनती है। साहित्य हमारी खामियों को उजागर ही नहीं करता, बल्कि सुधार के लिए प्रेरित भी करता है और समाधान भी सुझाता है। यह हमें उच्च कोटि के संस्कार भी प्रदान करता है, जिनका समाज निर्माण में विशेष महत्त्व होता है। समाज के नवनिर्माण में अब सामने आती है, युगबोध की सटीक अभिव्यक्ति युगबोध की अभिव्यक्ति कई रूपों में की जा सकती है। मसलन-समाज का यथार्थवादी चित्रण, समाज सुधार का चित्रण तथा समाज के प्रसंगों की जीवंत अभिव्यक्ति।
इस प्रकार हम देखते हैं कि साहित्य समाज की उन्नति और विकास की आधारशिला रखता है। अमीर खुसरो से लेकर तुलसी, कबीर, जायसी, रहीम, प्रेमचंद, भारतेन्दु, निराला, नागार्जुन तक की श्रृंखला के रचनाकारों ने समाज के लिजलिजे घावों की शल्यचिकित्सा की। शासकीय मान्यताओं के खिलाफ जाकर जोखिम लिया, जबकि वे भलीभांति जानते थे कि इसमें उन्हें व्यक्तिगत रूप से हानि और प्रतिकार के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा। तथापि समाज के निर्माण के लिए उन्होंने यह जोखिम सहर्ष उठाया और अमर हो गये।
रचना तथा मूल्यों का द्वंद्वात्मक रिश्ता होता है तथा इस द्वंद्व के माध्यम से रचना यथार्थ को प्रस्तुत करती है। यथार्थ मानव मूल्यों के निर्माण में सहायक होता है। जिस मूल्य को रचनाकार गढ़ता है, जब समाज में यह टूटता है, तब रचनाकार विद्रोह कर बैठता है। क्रांतिकारी लेखकों की पूरी जमात इसे सिद्ध करती है। लेखक समाज के त्रस्त लोगों से इतना निकट हो जाता है कि उनके कष्टों से एकाकार हो जाता है। तुलसी, कबीर आज भी इसलिए प्रासंगिक हैं कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभव का समाजीकरण किया, एक अविकसित वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में। यहाँ मुंशी प्रेमचंद का कथन उद्धृत करने योग्य है-
“जो दलित है, पीड़ित है, संत्रस्त है, उसकी साहित्य के माध्यम से हिमायत करना साहित्यकार का नैतिक दायित्व है।”
मजे की बात तो यह है कि समाज के भटकाव का भी चित्रण साहित्य में समान रूप 5 में होता है। समाज के वर्गों के टकराव को लेकर कई बार गंभीर स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। कारण समाज के वर्गों के मूल्य अलग-अलग होते हैं। एक निष्पक्ष रचनाकार इन मूल्यों में सदैव न्याय का पक्ष लेता है। उसकी रचना अन्याय, रूढ़िता तथा अमानवीयता को हमेशा अवरुद्ध करती रहती है। वास्तविकता तो यह है कि न्याय की तरह ही सच्चा साहित्य भी आत्मा से प्रसूत होता है। प्रेमचंद के किसान-मजदूर उस पीड़ा व संवदेना का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनसे होकर आज भी अविकसित एवं शोषित वर्ग गुजर रहा है। साहित्य शब्दों को बरतने की भी कला है। शब्द-शब्द संघर्ष का नाम ही साहित्य है। यह संघर्ष किसके लिए है? समाज के लिए ही तो है। साहित्य शब्दों के जरिए न सिर्फ समाज के निर्माण में आगे रहता है, बल्कि समाज के लिए संघर्ष कर सामाजिक मूल्यों की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। ये शब्द अत्यंत शक्तिशाली होते हैं और असाधारण प्रभाव उत्पन्न करते हैं। इन्हें अकारण ‘ब्रह्मा’ नहीं कहा गया है।
साहित्य में समाज की विविधता, जीवन दृष्टि और लोककलापों का संरक्षण होता है।वानस्पतिक वस्तुओं से लेकर मनुष्यों के प्राणवान रिश्तों के विभिन्न आयाम साहित्य की ही थाती है। साहित्य समाज को स्वस्थ कलात्मक ज्ञानवर्धक मनोरंजन प्रदान करता है जिससे सामाजिक संस्कारों का परिष्कार होता है। विभिन्न साहित्यिक विधाएँ सामाजिक गतिविधियों की व्यापक और बहुमुखी अभिव्यक्ति देती हैं। ‘प्रसाद का आनन्दवाद’ साहित्य की चिरंतन समस्या का समाधान घोषित करता है-
समरस थे सब जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था। चेतनता एक विलसती, आनंद अखंड घना था।
साहित्यकार समाज को पद्य और गद्य की विभिन्न विधाओं में नए-नए मनोरंजक और ज्ञानवर्धक उपकरण देता है। ये उपकरण हृदय को उथली तुष्टि देने के बजाए, मानसिक जिज्ञासा देते हैं। इस प्रकार वर्तमान के स्तंभों पर स्वस्थ भविष्य का भवन तैयार होता है। इसके अतिरिक्त साहित्य से ज्ञान का प्रसार होता है। रचनागत सौन्दर्य और तथ्यात्मक विस्तार मनुष्य के विचार हित का साधन होते हैं। रचनाएँ समाज की धार्मिक भावना, भक्ति, पद्धति समाजसेवा के माध्यम से मूल्यों के संदर्भ में मनुष्यहित की सर्वोच्चता का अनुसंधान करती हैं। यही दृष्टिकोण साहित्य को मनुष्य जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध करते हैं।
साहित्य की सार्थकता इसी में है कि वह कितनी सूक्ष्मता और मानवीय संवेदना के साथ सामाजिक अवयवों को उद्घाटित करता है। रचना की क्रियाशीलता प्राथमिक दर्जे से लेकर उच्च तथा विस्तृत फलक तक निष्पन्न होती हैं। रचना की सामाजिकता और रचना प्रक्रिया के संदर्भ में मूल्यों का अध्ययन उसे सार्थकता प्रदान करता है।
साहित्य मूल्यों के द्वारा टूटते-बिखरते समाज को सहेजता है। यह हमें मानवीय संवेदनाएँ प्रदान करता है, तो सौन्दर्य-बोध भी करवाता है। यह हमें सकारात्मक एवं आशावादी संस्पर्श देकर हमें अवसाद से उबारता है, कई बार इस हद तक उद्वेलित करता है कि व्यक्ति में रचनात्मक परिवर्तन देखने को मिलते हैं। उसकी जीवन धारा ही बदल जाती है और वह समाज निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साहित्य हमारी अनुभूतियों को जगाकर हमें चेतना प्रदान करता है और इस प्रकार जड़ता से उबारता है। सच कहा जाए जाए तो साहित्य, समाज के लिए एक अमृत रूपी तत्व है। यह समाज के विकारों को दूर कर उसे निर्मलता प्रदान करता है। साहित्यकार साहित्य को साधना की तरह से बरतता है। यही कारण है कि वह समाज की अन्य कल्याणकारी संस्थाओं की तुलना में अत्यंत लाभ पर सार्वजनिक हितों का संवर्धन करता है। साहित्यकार की यात्रा शब्द-शब्द संघर्ष की यात्रा होती है। उसके शब्द विशेष प्रभाव की उत्पत्ति करते हैं, मूल्यों का सृजन करते हैं, सत्य को रेखांकित करते हैं, असत्य का प्रतिकार करते हैं। शब्दों की यह सारगर्भित यात्रा वह समाज के लिए ही तो तय करता है। इस प्रकार वह समाज के नवनिर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाता है। साहित्य संस्कृति का संरक्षक है, भविष्य का पथ प्रदर्शक है। संस्कृति द्वारा संकलित होकर ही साहित्य ‘लोकमंगल’ की भावना से समन्वित होता है। लोकमंगल की साहित्यिक चेतना पंत के शब्दों में देखिए-
वही प्रज्ञा का सत्य स्वरूप हृदय में प्रणय अपार लोचनों में लावण्य अनूप लोक सेवा में शिव अविकार।
हाल के दिनों में संचार साधनों के प्रसार और सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्यिक अभिवृत्तियाँ समाज के नवनिर्माण में अपना योगदान अधिक सफलता से दे रही हैं। यद्यपि बाजारवादी प्रवृत्तियों के प्रभावस्वरूप साहित्यिक मूल्यों में गिरावट आयी है, लेकिन स्थितियाँ अभी भी नियंत्रण में हैं।
समाज के सभी वर्गों को समझना होगा कि साहित्य समाज के मूल्यों का निर्धारक है। हमें उसके मूल तत्वों को संरक्षित करना होगा। यथार्थ भाव एवं यथार्थवाद से अभिप्रेरित साहित्य आर्दशवाद के प्रतिमान स्थापित करता है। यथार्थ के धरातल से जुड़े यही आदर्श समाज के नवनिर्माण में नींव का पत्थर बनते हैं और हम एक सुसंस्कृत, विकसित, संतुलित व परिष्कृत समाज की संरचना को संभव बना पाते हैं।
सच्चा साहित्य राष्ट्रीय संस्कृति का पोषक होता है
साहित्य यदि वास्वत में साहित्य है, अर्थात् सकारात्मक अनुरंजन है, तो वह ‘सच्चा’ ही होगा। पर यह विशेषण कदाचित इसलिए आवश्यक हो गया है कि साहित्य में भी गैर-साहित्यिक प्रभाव बढ़ते जा रहे हैं। बहरहाल हम यहाँ सकारात्मक साहित्य की ही चर्चा करेंगे।
भारत विभिन्नताओं का देश है, इस महान देश की विविधता जीवन के हर पहलू में दृष्टिगत होती है, वस्तुतः भारत की संस्कृति विविधताओं और अनेकता के विभिन्न बिंदुओं का समुच्चय प्रतीत होती है। जाहिर है यह विविधता भाषा, साहित्य, लिपि के प्रचलन स्तर पर भी व्याप्त है।
पंजाबी, असमी, बंगाली, बिहारी, डोंगरी, कश्मीरी, सिन्धी, कोंकणी, भोजपुरी, तुरू, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, तमिल, मणिपुरी के अतिरिक्त सैकड़ों बोलियाँ और लुप्तप्राय भाषाएँ विद्यमान हैं, जिनका साहित्यिक और भाषा वैज्ञानिक महत्त्व समान है। अनेक भाषाओं का अपना साहित्य है जो विविध गुणवत्ता, परिमाण और प्राचीनता की कसौटी पर अत्यंत समृद्ध हैं।
हम देखते हैं कि बाहरी तौर पर दृष्टिगत विभिन्नता हमें अनुभूति और विचारों के धरातल पर संयुक्त कर देती है। समूचे साहित्यिक भंडार में अंतर्भूत सौहार्द और सद्भाव की धारा को हमारे संतों, सूक्तियों, कवियों, समाज सुधारकों तथा गुरुओं ने अपनी वाणी में समेटकर अभिव्यक्ति दी जिसके परिणामस्वरूप भारतीय साहित्य वास्तविक रूप में राष्ट्रीय संस्कृति के पोषक के रूप में परिणत हो पाया।
भारत में साहित्य ने राष्ट्रीय संस्कृति के संक्षेपण और संरक्षण का कार्य अपने आरंभ से ही प्रारंभ कर दिया था।
राजनैतिक अस्थिरता और विदेशी शासन की दासता की ग्लानि कम करने के लिए भक्तिकालीन लोक जागरण की प्रवृत्ति स्वतः विख्यात है। समाज के पराभव की बढ़ती गति को रोकने का कार्य भक्ति कवियों द्वारा ही किया गया था। 10वीं-11 वीं शताब्दी में नाथमुनि ने वैष्णव भक्ति को नवीन रूप प्रदान. किया। उनके उत्तराधिकारी रामानुजाचार्य ने शास्त्रीय पद्धति पर भक्ति का निरूपण किया। 13वीं शताब्दी में गुजरात के मध्वाचार्य ने अपने द्वैतवादी संप्रदाय की स्थापना की और सगुण भक्ति का प्रचार किया। इसी समय महाराष्ट्र के प्रसिद्ध भक्त कवि नामदेव ने हिन्दू- मुसलमान दोनों के लिए सामान्य भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। यहाँ हम हिन्दी साहित्य के विशेष संदर्भ में, विषय पर विचार करेंगे।
कबीर आदि संत कवियों ने बाह्य आडंबरों का विरोध करके सुधारात्मक वातावरण सृजित किया और दो विपरीत धर्मी समुदायों को निकट लाने का प्रयास किया। इसी परम्परा में भक्तिकालीन कवियों की वैचारिक प्रविधि विकसित हुई। सूफी संतों ने हिन्दू प्रेममार्गी कथाओं द्वारा धार्मिक सामंजस्य का मार्ग प्रशस्त किया।
भारतीय संस्कृति और मनीषा ने सदैव अखिल वैश्विक कल्याण की विचारधारा प्रतिपादित की। भारतीय मनीषा ने प्रायः कट्टर राष्ट्रीयता को महत्त्व प्रदान नहीं किया।
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरप्रायः‘ की भावना भारतीय साहित्यिक चिन्तर धारा का अजस्त्र स्त्रोत रही है।
भारतीय ऋषियों, संतों, कवियों के काव्य व साहित्य में भावात्मक एकता एक सहज स्वाभाविक वृत्ति रही है। देश के चारों कोनों पर चार धामों की स्थापना, सप्तपुरी व सप्त नदियों के नामों का मंत्र रूप में उच्चारण, पंच, देवोपासना, समस्त धर्मावलम्बियों को भी धर्म-पालन की स्वतंत्रता, समस्त दार्शनिक सिद्धांतों की समन्वयशीलता आदि भावात्मक एकता के ही बाह्य विधान हैं। हिन्दी के संत एवं भक्तिकालीन कवियों ने इस दिशा में विशेष योगदान दिया है, इन कवियों ने समाज की विघटनकारी परम्पराओं के विभेदीकरण की व्यवस्थाओं की सदैव आलोचना की।
हिन्दी साहित्य के महान कवियों ने विभिन्न विचारधाराओं एवं रीतियों के मध्य समन्वय स्थापित करने के गंभीर प्रयास किए। तुलसी का काव्य तो समन्वय की साधना ही है। संतों की कतिपय वाणियों में वेदशास्त्र का विरोध दिखाई पड़ता है, जो वस्तुतः वेद या संबद्ध शास्त्र का विरोध न होकर उन लोगों के प्रति अश्रद्धा है जो कि अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए उनके नाम पर जनता को गुमराह कर रहे थे, देखिए,
वेद कतेब कहौ मत झूठा।
झूठा सोई जो न आप विचारै।
साहित्य में समस्त भेदभाव और विभाजक रेखाओं को अस्वाभाविक, कृत्रिम और त्याज्य घोषित किया गया है।
साहित्यकारों ने सामाजिक ऐक्य की आधारशिला रखी और भक्तिकालीन कवियों ने मजबूत नींव तैयार की। इन्होंने निम्न वर्गों को जगाने का कार्य किया, उनमें आत्म-सम्मान जगाने का कार्य भक्तिकालीन कवियों ने कोल, किरात, भील, अनत्यज, शूद्र आदि का मोक्ष विधान द्वारा किया।
मध्यकाल में राजस्थान के अनेक कवियों ने राष्ट्रीय जातीयता के गौरव गान गाये। चित्तौड़ के राणा प्रताप को आलम्बन बनाकर सूरजमल, पृथ्वीराज आदि ने मार्मिक रचनाएँ प्रस्तुत कीं। राणा प्रताप के बाद राष्ट्रीयता के संरक्षक बने शिवाजी और छत्रसाल को आलम्बन बनाकर कवि भूषण ने ओजस्वी काव्य की रचना की। भूषण ने जिस प्रकार शिवाजी के गुणों को प्रशंसित किया। वह किसी व्यक्तिगत संबंध या आश्रयदाता के आधार पर नहीं है बल्कि राष्ट्रीयता के संरक्षक और – स्थानीय संस्कृति के रक्षक के रूप में है।
मध्यकाल में ही साहित्य में वैश्विक मानववाद की अभिव्यक्ति स्पष्ट होने लगी थी। इनकी सामाजिक चेतना मानववाद के व्यापक और उदात्त सिद्धांतों द्वारा अनुप्राणित थी। इन कवियों की वाणी मानव को मानव से जोड़ने वाली थी। गाँधीवाद उसी व्यापक सामाजिक चेतना का आधुनिक संस्करण है। अहिंसामूलक धर्म भावना की उद्भावना हमें साहित्य में ही दृष्टिगत होती हैं। सभी कवियों ने एक स्वर से ‘शोषण और दरिद्रता’ को त्याज्य बताया।
तुलसीदास ने स्पष्ट शब्दों में लिखा-
परहित सरिस धर्म नहि भाई।
परपीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
महिलाओं की दुर्दशा और विवशता पर भी गोस्वामी जी की टिप्पणी पूरी तरह सही है, जिसे हम आज भी महसूस करते हैं-
केहिं विधि सृजी नारि जग माही।
पराधीन सपनेहुँ सुख नाही ।।
रामराज्य के रूप में लोक कल्याणकारी राज्य की संकल्पना भी सर्वप्रथम उन्होंने ही प्रस्तुत की थी-
दैहिक-दैविक भौतिक तापा।
रामराज काहुहिं नहिं व्यापा।।
उनके रामराज्य में मानव का चरम विकास निहित है, जिसे हम ‘तंत्रविहीन समाज’ भी हैं।
कहते आधुनिक काल में राष्ट्रीयता की दिशा बदल गयी और यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रस्फुटित हुई। ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के साथ ही आधुनिक राजनीतिक तत्त्वों का आगमन हुआ, जिनकी भरपूर अभिव्यक्ति समकालीन साहित्यिक कृतियों में हुई। 1857 ई. के महाविद्रोह के बाद से ही राष्ट्रीय चेतना के दर्शन होने लगते हैं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, माखन लाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, सेठ गोविन्द दास, हरिकृष्ण प्रेमी, सद्गुरु शरण अवस्थी, प्रेमचंद, जैनेन्द्र, विष्णु प्रभाकर आदि ने साहित्य की प्रत्येक विधा के माध्यम से राष्ट्रीय संस्कृति को संपोषित किया।
गाँधी युग तथा द्विवेदी युग के अंतिम चरण में छायावादी का युग आ गया था। निराला ने “जागो फिर एक बार” जैसी राष्ट्रीयता की भावना से युक्त कविताओं द्वारा जनमानस को झकझोर दिया। पंत की रचनाओं (ग्राम्या व युगवाणी) में भारतीय आत्मा मुखरित हो गयी। प्रसाद के नाटक ऐतिहासिक गौरव की गाथा बन गये और सोहनलाल द्विवेदी की ‘भैरवी’ भारतीय अतीत के गौरवगान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अनुभूतिपूर्ण चित्रण है।
प्रगतिवादी युग में राष्ट्रीयता सिमटकर श्रमिक व दलित वर्ग की पीड़ा मुखरित करने लगी। स्वतंत्रता के बाद हमारी राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप बदल गया। ‘सर्वोदय’ का प्रचार किया गया, नवनिर्माण की प्रेरणा प्रदान की गयी। नई कविता व कहानी ने आधुनिक युग के तनाव, विघटन, संत्रास, पीड़ा, घुटन और वैयक्तिकता को बिना लाग-लपेट के व्यक्त किया। इन अभिव्यक्तियों में भी एक प्रकार की सार्थकता है, अर्थात् वे किसी क्षेत्र, जाति या समुदाय की ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय समाज की वंचनाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं। इस प्रकार राष्ट्रीय संस्कृति की सकारात्मक ही नहीं नकारात्मक अभिव्यक्तियाँ भी देश के ‘यूनीवर्सल’ को प्रमाणित करती हैं।
साहित्य में सांस्कृतिक अनेकता में एकता, सृजनात्मकता के स्तर पर अभिव्यक्त होती है। उसी पर राष्ट्रीय एकता अवलम्बित होती है। जब तक साहित्य एक समंजित इकाई के रूप में स्थापित रहेगा, भारतीय संस्कृति निरंतर विकासमान रहेगी, फिर भारतीय साहित्य की ‘प्रबुद्धि’ ही अपने आप में एक शुभ लक्षण है।
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