मॉब लिंचिंग – अन्याय पर न्याय का मुखौटा
न्याय का सार्वभौमीकरण तो सर्व स्वीकार्य है, परंतु बात जब न्यायाधिकार के सार्वभौमीकरण की हो, तो स्थिति इसके उलट होती है। सभी की हर समय न्याय तक पहुंच जहां व्यवस्था को बनाए रखती है, वहीं सभी को न्याय करने का अधिकार व्यवस्था को मत्स्य न्याय की स्थिति में ले जाता है। यहां बलशाली खुद की रची परिभाषा के अनुसार, किसी को भी दोषी/निर्दोष सिद्ध करने लगता है तथा अपने ही अनुसार उसके लिए दण्ड और पुरस्कार का निर्धारण भी। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, जहां लोगों ने अपने अनुसार न्याय किया और पूरी मानवता को दांव पर लगा दिया। जहां हिटलर ने प्रजाति, धर्म और शारिरिक क्षमता को न्याय का अधिकार बनाया, तो वहीं लेनिन, माओ, मसोलिनी आदि ने विचारधारा के नाम पर रक्तरंजित न्याय किया। न्यायधिकार जब एक व्यक्ति से परे जाकर भीड़ को प्राप्त हो जाता है तो स्थिति और भी भयावह हो जाती है। भीड़ द्वारा दिया जाने वाला न्याय कभी-कभी न केवल व्यक्ति विशेष को अपितु पूरे समुदाय के अस्तित्व को संकट में डाल देता है।
आजकल भारत अनेक देशों में भीड़ द्वारा किये जाने वाले न्याय की घटनाओं जिसे मॉब लिंचिंग कहा जाता है, की आवृत्ति में बढ़ोतरी की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। लिंचिंग शब्द सं.रा. अमेरिका से आया है। लिंचिंग शब्द का अर्थ होता है-‘किसी को दोषी करार देकर उसे बिना किसी कानहूनी प्रक्रिया का पालन किए मृत्युदण्ड देना।” लिंचिंग शब्द कानून (Lynch Law) से आया है। इसे 1780 ई. के आस-पास संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्जीनिया प्रांत क निवासी विलियम
लिंच (William Lynch) के कुकृत्यों के बाद गढ़ा गया। विलियम लिंच द्वारा खुद के बनाए न्यायाधिकारण, जिसका वह स्वघोषित न्यायाधीश भी था, कि माध्यम से बिना किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन किए अनेक आरोपियों को उनका पक्ष रखने का अवसर दिए बिना मौत की सजा सुनाई गई। इस न्यायाधिकरण के सर्वाधिक शिकार अफ्रीकी मूल के व्यक्ति हुए, जिन्हें सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया गया। यद्यपि प्रारंभ में यह अमेरिका तक ही सीमित था, परंतु समय के साथ इस कुप्रथा का विस्तार अन्य देशों में भी होता गया।
भारत जैसा सहिष्णु, देश, जिसकी विशेषता ही रही है कि सबको अपनाया जाए, भी भीड़ हिंसा के दाग से खुद को बचा नहीं पाया। आधुनिक भारत में देखा जाए, तो स्वतंत्रता आंदोलन के समय अनेक अवसरों पर भीड़ ने अनियंत्रित होकर हिंसात्मक गतिविधियों को अंजाम दिया। असहयोग आंदोलन के समय में घटी चौरी-चौरा अग्निकांड की घटना तो जग जाहिर है। इसी तरह भारत छोड़ने आंदोलन में भी भीड़ हिंसा की अनेक घटनाएं प्रकाश में आती हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में विभाजन के कारण आबादी स्थानांतरण के समय मुस्लिम समुदाय तो इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात सिख समुदाय भीड़ के निशाने पर रहे।
हाल-फिलहाल में भारत में मॉब लिंचिंग की अनेक घटनाएं प्रकाश में आई, जिनमें किसी व्यक्ति को दोषी करार देकर भीड़ द्वारा सजा-ए-मौत का फरमान सुनाया गया। किसी का बच्चा चोरी के आरोप में, तो किसी को व्यभिचार के आरोप में. किसी को गो-वध के लिए, तो किसी को तांत्रिक क्रियाओं के लिए, किसी को धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने का, तो किसी को जातीय भावनाओं को चोट पहुंचाने का द्रोषी करार दिया गया। भले ही सभी घटनाएं अलग-अलग क्षेत्रों में और अलग-अलग कारणों से घटी हों, लेकिन सभी घटनाओं में ये बातें समान रही हैं कि इनमें न तो किसी का दोष सिद्ध हुआ था, न ही किसी को अपनी बात रखने का अवसर मिला और न ही उन्हें सजा देने के लिए किसी न्यायिक प्रक्रिया का पालन किया गया। ये सभी घटनाएं भीड़ द्वारा की गई मान्यताओं पर आधारित रहीं।
भारत में भीड़ द्वारा की गई हिंसा न तो कानूनी दृष्टि से मान्य और न ही नैतिक दृष्टि से उचित। इसी कारण हाल की मॉब लिंचिंग की घटनाओं की घटनाओं से पूरे देश में चिंता का माहौल बना हुआ है। भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा की घटनाओं तथा उस घटना की वीडियोग्राफी तथा उसका प्रचार कर श्रेय लेने की होड़ ने अनेक गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। भारत में मॉब लिंचिंग के कारणों तथा प्रभाव पर आने से पूर्व सामूहिक हिंसा के सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारणों की पड़ताल भी आवश्यक है।
सामूहिक हिंसा एक सामाजिक-मनोवैज्ञानिक क्रिया-कलाप है। हिंसा के विस्तार, लक्ष्य तथा इसकी योजना बद्धता के आधार पर इसे तीन प्रमुख वर्गों मे वर्गीकृत किया जा सकता है। इसका एक प्रकार है-सामुदायिक हिंसा, जिसमें किसी जातीय समूह को निशाना बनाकर सामूहिक हिंसा की जाती है। बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के विरूद्ध की गई हिंसा इसके अंतर्गत आती है। ऐसी हिंसाएं आमतौर पर नियोजित होती है तथा इनका विस्तार काफी अधिक होता है। इनसे पूरे समुदाय के विनाश का भी जोखिम बना रहता है। सामूहिक हिंसा का दूसरा प्रकार है-सामाजिक मान्यताओं का बचाने के लिए की जाने वाली हिंसा। इस प्रकार की हिंसा परंपरा को कानून से ऊपर मानने के कारण होती है इसमें हिंसा के द्वारा डर का माहौल पैदा कर एक संदेश दिया जाता है। इस प्रकार की हिंसा में हिंसा को एक पवित्र कार्य माना जाता है तथा इसे धर्म की गलत व्याख्याओं के द्वारा समर्थन भी प्राप्त होता है। जैसे कि “वेदों का आदेश है कि गो हत्या करने वालों का मार डालना पाप नहीं है (यद्यपि इसकी सत्यता संदिग्ध)।” इस तरह की हिंसा भी नियोजित होती है। सामूहिक हिंसा का तीसरा प्रकार है-भीड़ हिंसा। समान्यतः यह किसी तात्कालिक कारण से उत्पन्न आवेश का परिणाम होता है। आमतौर पर यह अनियोजित होता है और इसका विस्तार काफी सीमित क्षेत्रों तक होता है।
सामूहिक हिंसा के मनोविज्ञानिक आयामों को देखने के बाद अब इसके कारणों की पड़ताल करना उचित होगा। ऊपरी तौर से देखने से मॉब लिंचिंग किसी ऐसी तात्कालिक घटना का परिणाम दिखता है, जिससे जन भावनाएं आहत हों। जन भावनाओं को ठेस पहुंचाने की स्थिति में लोगों द्वारा सामूहिक प्रतिक्रिया (हिंसात्मक) की जाती है तथा समूह तथाकथित दोषी को शारीरिक दण्ड देता है। सामान्यतः भीड़ का उद्देश्य दोषी को केवल शारीरिक पीड़ा पहुंचाना होता है, परंतु इतनी अधिक हिंसा के बाद ज्यादातर मामलों में व्यक्ति काल के गाल में समा जाता है।
भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा के पीछे का तात्कालिक कारण केवल क्षणिक उन्माद देता है, जबकि लोगों के मन में अनेक कारणों से उन्मादी को जन्म देता है, जबकि लोगों के मन में अनेक कारणों से उन्मादी पृष्ठभूमि पहले से ही बन चुकी होती है, जिस कारण उनकी सहिणुता क्षीण हो चुकी होती है। भीड़ हिंसा के पीछे छिपे कारणों में मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, सामाजिक- सांस्कृतिक तथा आर्थिक चश्मों से देखने पर स्थिति और भी स्पष्ट होती है।
जहां तक बात मनोवैज्ञानिक कारकों की है तो भीड़ द्वारा की गई हिंसा के पीछे संदर्भ समूह (Refrence Group) की अवधारणा कार्य करती है। संदर्भ समूह एक मनोवैज्ञानिक समूह होता है जिसमें व्यक्ति सदस्य न होते हुए भी खुद को उससे जोड़ लेता है तथा अपने आप को उस समूह का सदस्य मानने लगता है। इसी मनोयोग के वशीभूत भीड़ के सदस्य जब भीड़ के किसी अन्य सदस्य (भले ही वो अनजान हो) के खिलाफ कोई उतपीड़क कृत्य देखते हैं, तो वे उसे खुद पर उत्पीड़न मान बैठते हैं तथा प्रतिक्रिया करते हैं और इसका परिणाम होता है-सामूहिक रूप से दोषी को दण्ड देने का क्रिया-कलाप। इसके अतिरिक्त अन्य कारणों (पारिवारिक, समाजिक, नौकरी संबंधी आदि) से मानसिक तनाव से ग्रसित व्यक्ति भी ऐसे अवसरों पर अपनी खीझ निकालने लगते हैं। इससे कई बार हिंसा का स्वरूप और भी वीभत्स हो जाता है।
भीड़ हिंसा में राजनैतिक कारकों की भूमिका भी कम नहीं है। भारत में भीड़ हिंसा से निपटने हेतु किसी स्पष्ट कानून के अभाव में सामान्य अपराध कानूनों से ही भीड़ हिंसा के दोषियों को दण्डित किए जाने के कारण कई बार सामूहिक अपराध करने वाले कई लोग बच निकलते हैं। कई बार पुलिस भी अनावश्यक विवेचना से बचने हेतु इसे अज्ञात द्वारा किया गया अपराध करार देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है। कुछ मामलों में राजनैतिक हस्तक्षेप भी पुलिस क कदमों को रोकने का कारण बनते प्रतीत होते है। इसके अतिरिक्त राजनीतिक विफलता भी भीड़ हिंसा की पृष्ठभूमि तैयार करती है। जब सरकार लोगों को अपराध पूर्व सुरक्षा तथा अपराध पश्चात न्याय व्यवस्था पर विश्वास कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में लोगों द्वारा इस भावना के वशीभूत कि अपराधी (भीड़ द्वारा घोषित) कानूनी प्रक्रिया में बच निकलेगा, अपराधी को तुरंत दण्ड दिया जाता है। कभी-कभी कुछ राजनीतिज्ञों द्वारा भी अपने संकीर्ण स्वार्थों के वशीभूत होकर वोटों के ध्रुवीकरण के लिए कभी-कभी भीड़ को गुमराह करके हिंसात्मक कार्रवाइयां करवाई जाती हैं। इस स्थिति में लोगों को यह विश्वास दिलवाया जाता है। कि अमुक गतिविधि जायज है तथा उन्हें उनके कृत्यों के लिए न केवल कानूनी संरक्षण प्राप्त होगा, अपितु उन्हें भविष्य में राजनैतिक लाभ भी मिलेंगे। भीड़ हिंसा में नेतृत्व की भावना ने भी भीड़ हिंसा की घटना में वृद्धि की पृष्ठभूमि बनायी है। इसके अतिरिक्त इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि संगठित अपराधी भी खुद को जांच से दूर रखने हेतु किसी की हत्या को भीड़ हत्या का जामा पहना दे।
भीड़ हिंसा के पीछे अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक कारक भी उत्तरदायी हैं। कई बार ऐसा होता है कि लोगों द्वारा अपनी आस्था एवं विश्वास को कानूनों से ऊपर माना जाता है। ऐसी स्थिति में उनकी आस्था एवं विश्वास को तोड़ने वालों को सजा देने को एक पवित्र कार्य माना जाता है। किसी समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह से इस भावना को और भी बल मिलता है। भारत में गो हत्या को लेकर की जा रही भीड़ हिंसा इसका एक उदाहरण है। इसेक अतिरिक्त धर्म की गलत व्याख्या, सामान्य कृत्य को धार्मिक अपराध के रूप में दर्शाना आदि भी भीड़ हिंसा के प्रमुख कारण रहे हैं।
इसके अतिरिक्त भीड़ हिंसा के लिए आर्थिक कारक भी उत्तरदायी हैं। मॉब लिंचिंग के लिए सबसे जरूरी है-मॉब अर्थात् भीड़। जब कोई देश पूर्ण रोजगार की स्थित में होता है, तो प्रत्येक व्यक्ति अपने दायित्वों के निर्वहन में व्यवस्त रहता है और भीड़ के हिंसात्मक स्वरूप का निर्माण ही नहीं हो पाता है। यह सामान्य धारणा है कि जितनी अधिक बेरोजगारी होगी, उतनी ही बड़ी भीड़। इसके अतिरिक्त बेरोजगारी आर्थिक अभाव को जन्म देती है और आर्थिक अभाव से तनावों के हिंसात्मक होने की संभावना काफी बढ़ जाती है। बड़ी मात्रा में बेरोजगारी की स्थिति अराजक तत्वां के लिए एक आसान परिवेश का निर्माण करती है। तथा वे इसे नकारात्मक भीड़ में रूपांतरित कर देते हैं।
आजकल अनियंत्रित सोशल मीडिया ने तथ्यहीन तथा भड़काऊ सामग्रियों के तीव्र संप्रेषण को आसान बना दिया है। इससे स्थानीय एवं सामान्य सी घटना को भी संवेदनशील स्वरूप में ढालकर राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया जाता है। इसके दो दुष्प्रभाव होते हैं। इससे एक तो सामान्य सी घटना को बृहद दंगे की पृष्ठभूमि बना दिया जाता है और दूसरे इन तथ्यहीन सामग्रियों से किसी समुदाय/ जाति/वर्ग विशेष को देश के शत्रु के रूप में रेखांकित कर दिया जाता है। इसका समग्र परिणाम देश में नागरिकता सैन्यीकरण के रूप में भी होता है तथा नागरिक देश के भीतरी शत्रुओं से मातृभूमि की रक्षा करने हेतु मनोवैज्ञानिक रूप से लामबंद होने लगते हैं।
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