‘श्रव्य-माध्यम’ से क्या तात्पर्य है? भारतवर्ष में रेडियो के विकास का परिचय प्रस्तुत कीजिए।
‘श्रव्य-माध्यम’ से तात्पर्य है सूचना एवं संचार का ऐसा माध्यम जिसके द्वारा इच्छित सूचना, समाचार या अन्य कार्यक्रम ध्वनि के रूप में व्यापक जन-समूह तक प्रसारित किया जाता है। श्रव्य माध्यम का सबसे अच्छा उदाहरण रेडियो है। यों तो टेलीफोन भी श्रव्य माध्यम के अन्तर्गत आ सकता है, किन्तु टेलीफोन पर केवल दो व्यक्तियों के बीच बातचीत हो पाती है। कोई सूचना या समाचार हम टेलीफोन के द्वारा व्यापक जन-समुदाय तक नहीं पहुँचा सकते। इसलिए टेलीफोन जन-माध्यम की श्रेणी में नहीं आ सकता।
रेडियो का संक्षिप्त परिचय- रेडियो का आविष्कार 19वीं शताब्दी में हुआ। वास्तव में रेडियो की कहानी 1815 ई. से आरम्भ होती हैं, जब इटली के एक इंजीनियर गुग्लियों मार्कोनी ने रेडियो टेलीग्राफी के जरिए पहला सन्देश प्रसारित किया। यह सन्देश ‘मोर्सकोड’ के रूप में था। रेडियो पर मनुष्य की आवाज पहली बार सन् 1906 में सुनाई दी। यह तब सम्भव हुआ, जब अमेरिका के ली डी फारेस्ट ने प्रयोग के तौर पर एक प्रसारण करने में सफलता प्राप्त की। उसने एक परिष्कृत निर्वात नलिका का आविष्कार किया, जो आने वाले संकेतों को विस्तार देने के लिए थी। डी फारेस्ट ही था, जिसने सर्वप्रथम, 1916 ई. में पहला रेडियों समाचार प्रसारित किया। वह समाचार वास्तव में संयुक्त राष्ट्र में राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम की रिपोर्ट थी। 1920 ई. के बाद तो अमेरिका और ब्रिटेन ही क्या, विश्व के कई देशों में रेडियो ने धूम मचा दी। इसी अवधि में यूरोप, अमेरिका तथा एशियाई देशों में बहुत-से शोधकार्य हुए थे। इन शोधकार्यों के फलस्वरूप रेडियो ने अभूतपूर्व प्रगति की। कालान्तर में इलेक्ट्रॉन तथा ट्रांजिस्टर की खोज ने रेडियो, ट्रांजिस्टर तथा दूर-संचार के क्षेत्र में बहुत विकास किया।
भारत में रेडियो का उद्भव और विकास- भारतवर्ष में रेडियो प्रसारण का इतिहास सन् 1926 से शुरू होता है। बम्बई, कलकत्ता तथा मद्रास में व्यक्तिगत रेडियो क्लब स्थापित किए गए थे। इन क्लबों के व्यवसायियों ने एक प्रसारण कम्पनी गठित की थी और उसके माध्यम से निजी प्रसारण सेवा आरम्भ कर दी। सन् 1926 में ही तत्कालीन भारत सरकार ने इस प्रसारण कम्पनी को देश में प्रसारण केन्द्र स्थापित करने का लाइसेंस प्रदान किया। इस कम्पनी की ओर से पहला प्रसारण 23 जुलाई, 1927 को बम्बई से हुआ। इसे ‘इण्डिया ब्राडकास्टिंग कम्पनी’ ने प्रसारित किया था। इसी के साथ बम्बई रेडियो स्टेशन का उद्घाटन तत्कालीन वाइसराय लार्ड इर्विन ने किया था। इस विचार से भारत का पहला रेडियो स्टेशन बम्बई में स्थापित हुआ। इसके बाद 26 अगस्त, 1927 को कलकत्ता केन्द्र का उद्घाटन हुआ।’ यह एक संघर्षपूर्ण शुरुआत थी। कम शक्ति के मध्यम तरंग-प्रेषक (मीडियम वेव ट्रांसमीटर) लाइसेंस की तुलना में कम आय तथा लागत की अधिकता आदि के कारण यह कम्पनी (इण्डिया ब्राडकास्टिंग कम्पनी) बन्द होने की स्थिति में आ गई। इसी दौरान 1930 ई. में प्रसारण सेवा का प्रबन्ध भारत सरकार ने अपने अधिकार में ले लिया। अब इसका नाम हो गया ‘इण्डियन स्टेट ब्रांडकास्टिंग सर्विस’। यह ‘सर्विस’ विकसित होती चली गई और बाद में चलकर 1936 में इसका नाम ‘ऑल इण्डिया रेडियो’ हो गया। ई
यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि 1935 ई. में तत्कालीन देशी रियासत मैसूर में एक स्वतन्त्र रेडियो स्टेशन की स्थापना हुई थी। मैसूर रियासत के इस रेडियो स्टेशन का नाम ‘आकाशवाणी’ रखा गया था।
जब देश आजाद हुआ, तो 1957 ई. में भारत सरकार ने इस संगठन का नाम ‘आकाशवाणी’ घोषित किया, जो मैसूर रियासत के रेडियो स्टेशन का नाम हुआ करता था। लेकिन तब से ‘आकाशवाणी’ नाम का प्रयोग हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में समान रूप से हो रहा है। हाँ, अंग्रेजी प्रसारणों और विदेश सेवा के प्रसारणों में अभी भी ‘आल इण्डिया रेडिया’ ही प्रसारित होता है।
स्वतन्त्रता के बाद से ‘आकाशवाणी/ऑल इण्डिया रेडियो’ का व्यापक प्रसार हुआ है। सन् 1947 में जहाँ पूरे देश में मात्र 6 प्रसारण केन्द्र, एक दर्जन ट्रांसमीटर और दो-ढाई लाख रेडियो सैट थे, वहीं आज हमारे पास 100 से अधिक रेडियो स्टेशन हैं, जो देश के तीन चौथाई से अधिक भौगोलिक क्षेत्र तथा 90 प्रतिशत के लगभग जनसंख्या को अपनी प्रसारण सीमा में लिए हुए हैं। करीब तीन करोड़ या इससे अधिक रेडियो सैट देश के घरों में बज रहे हैं।
हमारे देश में ही नहीं, अपितु दुनिया के प्रायः हर देश में रेडियो-प्रसारण की स्थिति में क्रान्तिकारी प्रगति हुई और इस जन-माध्यम को एक व्यापकं समाज रुचिपूर्वक अपना चुका है।
भारत में टेलीविजन के इतिहास पर प्रकाश डालिए।
आज फिल्म और टेलीविजन की लोकप्रियता सबसे अधिक है, बल्कि फिल्म माध्यम भी अब टेलीविजन के साथ साठ-गाँठ कर हमारे जीवन का चेहरा बदल रहा है। सच तो यह है कि इन इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने जहाँ मनुष्य को घर बैठे सारी दुनिया से जोड़ दिया है, वहीं पर शिक्षित होते हुए भी अशिक्षा के अंधकार की ओर लौट रहा है। यह बात अतिशयोक्तिपूर्ण और विरोधाभासी लग सकती है, लेकिन तटस्थ विश्लेषण करने पर सच साबित होगी। टेलीविजन (टी. वी.) ने हमारे पढ़ने की आदत बिगाड़ दी है, उसी तरह जिस तरह कम्प्यूटर ने हमारी गणित की क्षमता को बाँध दिया है। यह एक कटु सत्य है। इसके बावजूद फिल्म, दूर-दर्शन (टीवी) और कम्प्यूटर की उपयोगिता एवं लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। यह दिन-पर-दिन बढ़ती ही जा रही है।
टेलीविजन आज के युग में संचार माध्यम सबसे बड़ा माध्यम है, जिसके द्वारा आज मानवीय संवेदनाएँ एकदम संचार के एक कोने से दूसरे कोने में प्रकट की जाती हैं और भावनाओं के इस समुद्र को उजागर करने के शायद आज का सबसे बड़ा सशक्त माध्यम है- दूरदर्शन । पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नया आयाम तब जुड़ा जब टेलीविजन का आविष्कार हुआ। दूरदर्शन मीलों दूर बैठे किसकी दृश्य, या वस्तु का हूबहू दर्शन। पहले प्रेस, रेडियो और फिर दूरदर्शन। हर माध्यम की अपनी सीमाएँ हैं जिन्हें कुछ हद तक रेडियो ने दूर किया और धीरे-धीरे पत्रकारिता के क्षेत्र में रेडियो अपना विशेष एवं अलग स्थान बना सका। रेडियो के माध्यम से जहाँ एक ओर ‘समाचार को तुरन्त दूर-दराज के क्षेत्रों तक पहुँचाने की विशेषता थी वहीं समाचार का संक्षिप्तीकरण, समय की सीमा और सिर्फ समाचार सुनाया जाना और सुनना ही था। इस तरह अपने-आप में पूर्ण होकर भी अपूर्ण था। दूरदर्शन से पत्रकारिता में मानों क्रान्ति आ गई तथा रेडियो पत्रकारिता में लगभग वैसे ही एक मोड़ आ गया जो कभी अखबारों के मार्ग में रेडियो के आविष्कार से आया था। अब श्रवण के साथ-साथ उस घटना वस्तु, परिस्थिति या क्रम की हूबहू तस्वीर भी भेजी और प्राप्त की जा सकती है। श्रोता, दर्शक समाचारों या किसी घटना विशेष की जानकारी और पृष्ठभूमि समझने के लिए श्रवण के साथ दृश्य की सुविधा का लाभ भी प्राप्त कर सकते हैं। रेडियो की कुछ कमियाँ और सीमाएँ दूरदर्शन के आविष्कार से दूर हो गईं।
भारत में टेलीविजन का विकास – भारत में प्रथम प्रायोगिक टेलीविजन केन्द्र का उद्घाटन 15 सितम्बर, 1959 को देश प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के हांथों सम्पन्न हुआ। इसकी शुरुआत के मूल में यूनेस्को का एक सम्मेलन था। इस सम्मेलन में यूनेस्को ने भारत को 20,000 डालर का अनुदान स्वीकृत किया था। उद्देश्य था, एक जनमाध्यम के रूप में टेलीविजन के प्रयोग का अध्ययन करने हेतु एक पायलट परियोजना की स्थापना। इस नए संचार-माध्यम को स्कूली बच्चों की औपचारिक शिक्षा में सहायता करने एवं आम आदमी को दिखाए जाने वाले सामुदायिक विकास कार्यक्रम तैयार करने के लिए शुरू किया जाना था। उस समय इन प्राथमिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर संयुक्त राज्य अमेरिका सरकार और यूनेस्को के सहयोग से आकाशवाणी भवन में एक छोटा-सा टेलीविजन स्टूडियो स्थापित किया गया। यूनेस्को ने टेलीक्लबों को निःशुल्क टीवी सेट दिए। ये आरम्भिक कार्यक्रम उत्साहवर्द्धक सिद्ध हुए और 1961 ई. में उच्चतर विद्यालयों के लिए एक नियमित टीवी कार्यक्रम शुरू हुआ। 1965 ई. में सरकार ने जनता की माँग और अनुकूल परिणामों से उत्साहित होकर शिक्षा के साथ मनोरंजपरक कार्यक्रम बनाने और प्रसारित करने का निश्चय किया। उल्लेखनीय है कि भारत में सबसे पहला समाचार बुलेटिन 15 अगस्त, 1965 को प्रसारित हुआ।
1 अप्रैल, 1976 से हमारे यहाँ टेलीविजन ‘दूरदर्श’ नाम से आकाशवाणी से अलग होकर स्वतंत्र अस्तित्व में आ गया। आज इसके 8 चैनल हैं और कई निजी चैनल कार्यरत हैं।
आज दूरदर्शन प्रतिदिन लोकप्रिय होता जा रहा है। इसकी लोकप्रियता से ऐसा लगता है कि यह एक दिन संचार के दूसरे माध्यमों को निगल जायेगा। पश्चिमी देशों में तो दूरदर्शन सुबह के समाचार-पत्रों से भी पहले लोगों तक खबरें पहुँचा देता है। विश्व में घट रही घटनाओं की जानकारी • एकदम आदमी के सामने हूबहू पेश हो जाती है, ये मामूली बात नहीं है। समाचार-पत्रों की अपेक्षा लोग दूरदर्शन की खबरों पर ज्यादा आश्रित होने लगे हैं। 1 अप्रैल, 1976 को सूचना और प्रसारण मंत्रालय से सम्बद्ध दूरदर्शन के लिए निम्नलिखित लक्ष्य निर्धारित किये गए-
1. सामाजिक परिवर्तन में प्रेरक भूमिका निभाना।
2. राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन देना।
3. जन-सामान्य में वैज्ञानिक चेतना जगाना।
4. परिवार कल्याण और जनसंख्या नियन्त्रण के संदेश को प्रसारित करना।
5. कृषि-उत्पादन प्रोत्साहित कर ‘हरित क्रांति’ और पशु-पालन को बढ़ावा देकर श्वेत क्लांति’ के क्षेत्र में प्रेरणा देना।
6. पर्यावरण संतुलन बनाये रखना।
7. गरीब और निर्बल वर्गों हेतु सामाजिक कल्याण के उपायों पर बल देना।
8 . खेल-कूद में रुचि बढ़ाना।
9. भारत की कला और सांस्कृतिक गरिमा के प्रति जागरूकता पैदा करना।
फिल्म क्या है? वर्णन कीजिए।
सौ वर्ष पूर्व मूवी कैमरे की आविष्कार हुआ जिसके परिणामस्वरूप चलचित्र का आविर्भाव हुआ। इसने कुछ ही वर्षों में सारे संसार को अपनी मायावी जकड़ में ले लिया। प्रारम्भ में चलचित्र मूक थे, परन्तु तीन दशक के बाद वे सवाक् हो गए। पहले वे श्वेत-श्याम थे। धीरे- धीरे रंगीन हो गए। इसके बद त्रिआयामी चलचित्र बने, परन्तु अधिक देर तक चल नहीं पाये। प्रारम्भ में चलचित्र मनोरंजन का माध्यम थे, परन्तु वृत्तचित्रों और न्यूज रीलों के द्वारा वे ज्ञान सूचना का प्रचार-प्रसार भी करते थे। टेलीविजन के आगमन से पूर्व यह मध्य वर्ग और निम्न वर्ग के मनोरंजन का सस्ता और लोकप्रिय साधन था।
इसमें मानवीय भावनाओं, संवेदनाओं और अनुभूतियों को सशक्त ढंग से अभिव्यक्त किया जाता है। यह एक सामूहिक कला है जिसमें लेखन, दृश्य-लेखन, कल्पना, मंच-निर्देशन, रूप-बन्ध, रूप-सज्जा के साथ प्रकाश, आवाज तथा अन्य अनेक कलाओं का मिश्रण है। एक ओर इसमें सृजनात्मकता है तो दूसरी ओर यांत्रिकता। इन दोनों के मिश्रण से यह आकर्षक रूप ले लेता है। यह रूप जनता का मनोरंजन तो करता ही है, उसे शिक्षा और ज्ञान भी प्रदान करता है। जिन समस्याओं को चलचित्रों में उठाया जाता है, वे सामाजिक कुरीतियों को दूर करने और समाज में नयी चेतना लाने में सहायक होती है। एक चलचित्र को लाखों दर्शक देखते हैं। वे दर्शक एक नगर या कस्बे के नहीं होते अपितु अनेक नगरों के होते हैं। चलचित्र का सन्देश लाखों लोगों को सम्प्रेषित हो जाता है। वी. सी. आर. केबल आदि पर चलचित्र चलने के कारण दर्शकों की संख्या करोड़ों में पहुँच जाती है। यह चलचित्र की लोकप्रियता का प्रमाण है।
चलचित्र में अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से कुछ भिन्नता भी है। इसे पुनः देखा जा सकता है। रेडियो के कार्यक्रम को एक बार सुन लेने के बाद दोबारा सुना नहीं जा सकता। टेलीविजन के कार्यक्रम को पुनः देखना सम्भव नहीं होता, परन्तु चलचित्र के आनन्द को पुनः- पुनः लिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इसमें एक अन्य गुण भी है। इसके लिए दर्शक का पढ़ा-लिखा होना आवश्यक नहीं है। इसके संगीत, नृत्य, अभिनय आदि का आनन्द सभी ले सकते हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि चलचित्र एक सामूहिक कला है। इसके निर्माण में हजारों व्यक्तियों का ही नहीं, पशुओं का भी योगदान भी है। कहानीकार, निर्माता, निर्देशक, कला-निर्देशक, नृत्य-निर्देशक फाईट मास्टर, सीन डिजाइनर, साउंड मैन, मेक-अप मैन, कैमरा मैन, कॉस्ट्यूममैन, लाइट्स मैन, संगीत निर्देशक, गीतकार आदि एक टीम के रूप में इसमें कार्य करते हैं। यदि फिल्म ऐतिहासिक हो तो उसमें हाथियों, घोड़ों तथा उनके प्रशिक्षकों का भी योगदान होता है। इन सबके सामूहिक प्रयासों से एक अच्छी फिल्म का निर्माण होता है। फिल्म-निर्माण के बाद यह प्रक्रिया समाप्त नहीं होती। इसके बाद फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर, एक्जीबीटर, विज्ञापक, पोस्टर-निर्माता, आदि का काम आरम्भ होता है। चलचित्रों के प्रिंट बनते हैं तथा सिनेमा में प्रदर्शन के लिए जाते हैं। फिल्म के प्रदर्शन तथा बाक्स आफिस पर हिट या फ्लाप होने के बाद यह प्रक्रिया समाप्त होती है। इस प्रकार चलचित्र एक सामूहिक कला है जो हजारों कलाकारों के परिश्रम का परिणाम होता है। संसार में भारत में एक वर्ष में आठ सौ के लगभग चलचित्र बनते हैं। सन् 1973 तक देश में सिनेमा घरों और सिने-दर्शकों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती रही। इसके बाद इसमें गिरावट आयी है। आठवें दशक तक पहुँचते-पहुँचते चलचित्र प्रतिदिन दिखा रहे हैं जिसके दर्शकों को घर बैठे चलचित्र उपलब्ध हो रहे हैं, वे सिनेमाघर जाने का कष्ट क्यों उठाएँ ! दूसरे, चलचित्रों के अर्थशास्त्र ने भी अच्छी फिल्मों के निर्माण को हतोत्साहित किया है। चलचित्र निर्माण, पर करोड़ों रुपए का निवेश होता है।
वीडियो पर टिप्पणी लिखिए।
दृश्य-श्रव्य संसाधनों में शिक्षा के क्षेत्र में फिल्मों स्लाइडों और ओवरहेड प्रोजैक्टरों का आगमन हुआ। इनं उपकरणों ने शिक्षा के फैलाव में काफी योगदान दिया। अब वर्तमान युक्तियों में वीडियो ध्वनियुक्त स्लाइड प्रोजैक्टरों का अत्यधिक उपयोग हो रहा है। वीडियो जहाँ दर्शकों का मनोरंजन कर रहा है, वहाँ शिक्षण के क्षेत्र में अपनी उपयोगिता और महत्ता को स्थापित कर रहा है। व्याख्यानों की रिकार्डिंग कर ली जाती है और उनके वीडियो कैसेट बाजार में आ जाते हैं। इन कैसेटों का पुस्तकालय, शिक्षण संस्थान, प्रयोगशालाएँ आदि उपयोग करते हैं। इस समय देश में जितने भी विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान् हैं, उनमें से अधिकांश के पास वीडियो की सुविधा उपलब्ध है।
एक शोध कार्य में कहा गया है कि वर्तमान विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा अभियांत्रिकी क्षेत्र में तीन अवरोध सामने आ रहे हैं –
1. देश के विज्ञान और अभियांत्रिकी संस्थाओं में सुविधासम्पन्न प्रयोगशालाओं का अभाव।
2. इन संस्थाओं में 30-35 प्रतिशत शिक्षक पदों को रिक्त होना तथा पाठ्यक्रमों का पूरा न होना।
3. भाषा माध्यम की समस्या।
इन तीनों अवरोधों का निराकरण वीडियो पर तैयार किए गए कार्यक्रमों की सहायता से किया जा सकता है। पुनश्चर्या पाठ्यक्रम तैयार करके उन्हें अद्यतन किया जा सकता है।
अमेरिका तथा अन्य कुछ देशों में क्लासरूम वीडियो शिक्षण कार्यक्रम जोर-शोर से चल रहे हैं। भारत के कुछ संस्थानों में इसका उपयोग हो रहा है। एक अध्ययन के अध्येताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि अभियांत्रिकी विद्यार्थियों के लिए वीडियो और स्लाइड कार्यक्रम के निर्माण से प्राप्त हुए अनुभव इस बात का समर्थन करते हैं कि भारत में अभियांत्रिकी की गुणवत्ता में सुधार के लिए श्रव्य-दृश्य शिक्षण सहायकों का उपयोग होना चाहिए। इसी प्रकार शिक्षा और प्रयोगशाला शिक्षण में वीडियो कार्यक्रम कमजोर छात्रों के अध्ययन, छात्रों के प्रयोगशाला परीक्षण की विधियों का अभिज्ञान और परिसर से बाहर कहीं भी सुविधानुसार शिक्षा प्रदान करने में ये आर्थिक दृष्टि से सस्ते साधन हैं। इनके द्वारा किसी भी क्षेत्र की औद्योगिक प्रक्रियाओं को कम समय में छात्रों को दिखाया और समझाया जा सकता है।
भारत में कई वीडियो पत्रिकाएँ निकलती हैं- ‘इन-साइट’, ‘न्यूज ट्रैक’, ‘कालचक्र’ ऐसी ही पत्रिकाएँ हैं। यह श्रव्य, दृश्य तथा पठनीय हैं। इन त्रिआयामी गुणों के कारण वीडियो काफी लोकप्रिय माध्यम है।
इंटरनेट क्या है? इंटरनेट का विकास किस तरह हुआ? वर्णन कीजिए।
इंटरनेट– सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जिस नवीनतम माध्यम ने क्रान्ति उपस्थित की है, वह है ‘इंटरनेट’। यह इस शताब्दी का मनुष्यता को दिया गया सर्वश्रेष्ठ उपहार है। यह हाई- टेक का पर्याय है और सूचना-क्रान्ति का संवाहक। सही अर्थों में दुनिया को एक गाँव में इसी तंत्र ने बदला है। रोचक बात तो यह है कि इंटरनेट अपने आप में स्वतंत्र रूप से कोई आविष्कार नहीं है, बल्कि यह कम्प्यूटर और टेलीफोन की व्यवस्थित जोड़-गाँठ से बना संजाल है। बहुत-सी प्रौद्योगिकियों को मिलाकर किया गया एक अभिनव प्रयोग। एक रोचक वैज्ञानिकं ‘तंत्र जाल’। ऐसा ग्लोबल संजाल, जिसमें सूचना, संचार और तकनीक का साझा उपयोग किया जाता है। जिसमें तमाम तरह की सूचनाएँ निरन्तर बहती रहती हैं।
इंटरनेट का विकास और स्थापना संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय विकास आकदमी द्वारा सन् 1990 में किया गया। वस्तुतः इसका जन्म सन् 1969 में हुआ माना जाना चाहिए, जब अमेरिका की सर्वोत्तम रक्षा अनुसंधान परियोजना एजेंसी ने कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों को एक परियोजना पर काम करने के लिए दिया। परियोजना की समस्या थी-दो या अधिक कम्प्यूटरों के बीच संवाद किस तरह स्थापित हो? इस अभिकल्पना और संरचना के मूल में उद्देश्य था-स्कूल, कॉलेज,विश्वविद्यालयों, राज्य सरकारों, इंटलैक्चुयल सोसाइटीज, व्यावसायिक संगठनों, वाणिज्यिक फर्मों तथा मिलिट्री कन्टोन्मेंट बेस आदि को आपस में जोड़ना, ताकि परस्पर गतिविधियों और सूचनाओं का आदान-प्रदान होता रहे। विशेष उद्देश्य था. परमाणु हमला या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में भी संचार का नेटवर्क काम करता रहे। इस परियोजना को पूरा करने में उस समय अध्ययनरत लियोनार्ड क्लीनराक नामक शोधछात्र को सफलता मिली थी। इस समय वे इसी विश्वविद्यालय में इस विषय के प्रोफेसर हैं।
एक तरह से यह ‘पारिवारिक नेटवर्क’ बनाया गया था और इस पर अमेरिका के रक्षा अनुसन्धान विभाग का ही अधिकार था, किन्तु आज यह अमेरिका के रक्षा अनुसन्धान विभाग से निकलकर आईबीएम, माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल, नेट्सकेप जैसी व्यावसायिक कम्पनियों के हाथों में आ गया है। आज इससे अनुमानतः 60 लाख से अधिक कम्प्यूटर आपस में जुड़े हुए हैं और यह 160 से अधिक देशों के 400 लाख से अधिक उपभोक्ताओं को अपनी सेवाएँ उपलब्ध करा रहा है। यह संख्या निरन्तर बड़ी तेजी से बढ़ रही है। आज कोई भी व्यक्ति ज्ञान के इस अथाह सागर से दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर किसी भी विषय पर घर बैठे सूचना प्राप्त कर सकता है। घर बैठे ही क्यों, वह चाहे तो यात्रा में भी ऐसा कर सकता है।
इंटरनेट की लोकप्रियता के कई कारण हैं, यथा-
( 1) यह सूचना-प्राप्ति का सहज-सरल और आकर्षक माध्यम है।
(2) विश्व के सभी देशों में इंटरनेट निरन्तर सस्ते होते जा रहे हैं, कीमतों की कमी के चलते इंटरनेट सुविधा उच्च वर्ग की ही नहीं अपितु मध्यम वर्ग के लोगों की पहुँच में हैं।
(3) समय की कमी।
(4) सूचना, ज्ञान और मनोरंजन के साझे उपयोग की आवश्यकता और
(5) समृद्ध ज्ञान-भण्डार में से मनचाही सामग्री को कम कीमत में तब प्राप्त करने की सुविधा।
(6) किताबों और शोधपत्रों की कीमतों में वृद्धि और इसकी तुलना में कुल मिलाकर कम खर्चीला माध्यम ।
(7) न कागज-स्याही का झंझट, न पुराने जमाने की डाक व्यवस्था की दरकार। चाहें प्राप्त सूचना का प्रिंट निकाल लें।
क्या हैं इंटरनेट ?– सूचना, आँकड़े, दस्तावेज, पत्रावलियों आदि के आदान-प्रदान के लिए एक ही जगह कुछ कम्प्यूटरों को एक-दूसरे के साथ जोड़ना इंटरनेट कहलाता है। ये सभी कम्प्यूटर एक ‘सर्वर’ (मुख्य कम्प्यूटर) द्वारा एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति उस बैंक में जाता है, जहाँ उसका खाता खुला हुआ है। उसने टेलर के पास जाकर अपने खाते में से पैसा निकाला। उसके द्वारा निकाली गई रकम की सूचना ‘सर्वर’ के माध्यम से सम्बन्धित क्लर्क के कम्प्यूटर में भी दर्ज हो जाएगी। इस व्यवस्था को ‘लोकल एरिया नेटवर्क- लैन’ कहते हैं। यह स्थानीय नेटवर्क हुआ। इस तरह के अनेकानेक नेटवर्कों तथा कम्प्यूटरों को उपग्रह के जरिए पूरे विश्व में आपस में जोड़ दिया जाता है। इसे ‘विश्वव्यापी जाल’ (वर्ल्ड वाइड वेब) कहा जाता है। इसी का संक्षिप्त नाम है- डब्ल्यू, डब्ल्यू. डब्ल्यू। इस तरह हम कह सकते हैं कि इंटरनेट बहुत सारे स्थानीय नेटवर्कों का नेटवर्क है, जालों का जाल-महाजाल। इससे जुड़ने के लिए आपके पास होना चाहिए एक ठीक-ठाक सा पर्सनल कम्प्यूटर और एक टेलीफोन कनैक्शन। बस आपको यह करना है कि इंटरनेट की सुविधा प्रदान करने वाली एमटीएनएल जैसी किसी कम्पनी में कुछ पैसे जमा करके आपको कनैक्शन लेना है और अपना, खाता खुलवाना है। इसके लिए आपको एक गुप्त कोड (पास वर्ड) मिलता है, ताकि आपकी गोपनीयता बनी रहे और आपके इंटरनेट कनैक्शन का दूसरों के हाथों में पड़कर गलत उपयोग न हो।
इंटरनेट के उपयोग- इंटरनेट के उपयोग जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप’ असंख्य हैं। इंटरनेट का उपयोग अब केवल उच्चतस्तरीय शोधकार्यों तक ही सीमित नहीं है। बल्कि हमारे जीवन के दिन-प्रतिदिन में कामों में इसकी उपयोगिता निरन्तर बढ़ती चली जा रही है। यही कारण है कि प्रयोक्ताओं के सर्वथा अनुकूल हजारों कम्प्यूटरों ने समूह से रचे गए इस इलेक्ट्रानिक सूचना संजाल ने करोड़ों लोगों को आपस में जोड़ दिया है। अब हम बातचीत और गपशप (चैटिंग) से लेकर गहन शोधपरक सूचनाओं, उपयोगी डाटा, मनोरंजक सन्देश और उपयोगी जानकारी तक सब कुछ आपस में बाँट सकते हैं। बेशक हम एक-दूसरे के आमने-सामने न हों। डॉ. एच. बालसुब्रह्मण्यम् के शब्दों में, ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’ की तरह ब्रह्माण्ड से जुड़ा यह इलेक्ट्रॉनिक पिंड आपका हर काम कर देता है। एक ऐसा गुलाम जो आपकी गलतियों की ओर भी संकेत देते हुए सही रास्ता सुझा सकता है, बिना वेतन माँगे ‘पीर बावर्ची भिश्ती खर’ बनकर सारा काम करता है। ‘ब्राउजिंग’ अर्थात् ज्ञानलोक का संचार है, ई-बैंकिंग, ई-वाणिज्य, ई-प्रशासन, खेल, चैट-गपशप, मनोरंजन, ई-कान्फ्रेंस, शिक्षा, योगासन, पाककला, अध्यात्म, बागवानी जो भी गतिविधि याद आए सब उसमें हैं और जिन गतिविधियों की आपने कल्पना नहीं की होगी वह भी यहाँ है। केवल ‘सर्च’ करने की जरूरत है। यह अजीब दुनिया देश- काल के बंधन के बिना सबकी अपनी है और इस विचित्र संसार के निर्माता हम सब विश्व-मानव है। आप अपना साइट बना सकते हैं और बने बनाए साइट में जाकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए बहस में भाग ले सकते हैं।
रेडियो नाटक पर संक्षिप्त लेख लिखिये।
जब टी. वी. हर घर में नहीं होती थी। तब घर में बैठे मनोरंजन का जो सबसे सस्ता और सहजता से प्राप्त साधन रेडियो था। रेडियो पर खबरें व ज्ञानवर्धक कार्यक्रम आते थे, खेलों का हाल भी रेडियो पर ही प्रसारित होता था। गीत-संगीत भी रेडियो पर प्रसारित होते थे। रेडियो पर नाटक भी प्रसारित होते थे।
हिन्दी साहित्य के तमाम बड़े नाम साहित्य रचना के साथ-साथ रेडियो स्टेशनों के लिए नाटक भी लिखते थे। हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के नाट्य आंदोलन के विकास में रेडियो नाटक की अहम भूमिका रही है। हिन्दी के कई नाटक जो बाद में मंच पर भी बेहद कामयाब रहें हैं, मूलतः रेडियो के लिए लिखे गए थे। इसके श्रेष्ठ उदाहरण “धर्मवीर भारती” कृत “अंधा युग” और “मौहन राकेश” का नाटक – “आषाढ़ का एक दिन” है।
रेडियो नाटक का स्वरूप – सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो नाटक में भी चरित्र होते हैं और इन्हीं संवादों के जरिये कहानी आगे बढ़ती है। सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो नाटक में विजुअल्स अर्थात दृश्य नहीं होते हैं।
रेडियो पूरी तरह से श्रव्य माध्यम है इसलिए रेडियो नाटक का लेखन सिनेमा व रंगमंच के लेखन में थोड़ा भिन्न भी है और थोड़ा मुश्किल भी है।
कहानी का प्रत्येक अंश संवादों और ध्वनि प्रभावों के माध्यम से संप्रेषित करना होता है। रेडियो में मंच सज्जा, वस्त्र सज्जा नहीं है। साथ ही अभिनेता के चेहरे की भाव-भंगिमाएँ भी नहीं है।
इसके अतिरिक्त रेडियो नाटक जैसा ही है। रेडियो की कहानी का वही ढाँचा है- शुरुआत-मध्य- अंत, अर्थात परिचय-द्वंद्व-समाधान। यह सब प्रदर्शित करने का माध्यम सिर्फ आवाज़ है।
रेडियो नाटक की कहानी के आवश्यक तत्त्व-
* कहानी ऐसी न हो जो पूरी तरह से एक्शन अर्थात हरकत पर निर्भर करती हो क्योंकि रेडियो पर बहुत ज्यादा एक्शन सुनाना उबाऊ हो सकता है।
* आमतौर पर रेडियो नाटक की अवधि 15 मिनट से 30 मिनट होती है क्योंकि श्रव्य नाटक या वार्ता जैसे कार्यक्रमों के लिए मनुष्य की एकाग्रता की अवधि 15 से 30 मिनट ही होती है, इससे ज्यादा नहीं।
* टी. बी. या रेडियो में आ रहे कार्यक्रम इंसान अपने घर में अपनी मर्जी से इन यंत्रों पर आ रहे कार्यक्रमों को देखता-सुनता है। जबकि सिनेमाघर या नाट्यगृह में बैठा दर्शक थोड़ा बोर हो जाएगा, तब भी आसानी से उठ कर नहीं जायेगा।
* रेडियो पर निश्चित समय पर निश्चित कार्यक्रम आते हैं, इसलिए उनकी अवधि भी निश्चित होती है- 15 मिनट, 30 मिनट, 45 मिनट, 60 मिनट आदि समय।
* अवधि सीमित होने के परिणाम स्वरूप पात्रों की संख्या भी सीमित हो जाती है। * श्रोता सिर्फ अवाज़ के सहारे चरित्रों को याद रख पाता है।
* रेडियो नाटक लिखने या चुनाव करते समय मुख्य रूप से तीन बातों का ख्याल रखना है – (1) कहानी सिर्फ घटना प्रधान न हो (2) उसकी अवधि बहुत ज्यादा न हो (3) पात्रों की संख्या सीमित हो।
* फिल्म की पटकथा और रेडियो के नाट्यलेखन में काफी समानता है लेकिन सबसे बड़ा अंतर यह है कि रेडियो में दृश्य नहीं होते हैं।
रेडियो नाटक का लेखन कुछ इस प्रकार होगा- (The writing of the radio drama will be something like this-)
राम श्याम, मुझे बड़ा डर लग रहा है, कितना भयानक जंगल है। श्याम – डर तो मुझे भी लग रहा है राम। इत्ती रात हो गई घर में अम्मा-बाबू सब परेशान होंगे।
राम – यह सब इस नालायक मोहन की वजह से हुआ। (मोहन की नकल करते हुए) जंगल से चलते हैं, मुझे एक छोटा रास्ता मालूम है…
श्याम (चौंककर) अरे। मोहन कहाँ रह गया? अभी तो यहीं था। (आवाज़ लगाकर) मोहन! मोहन !
राम – (लगभग रोते हुए) हम कभी घर नहीं पहुँच पाएँगे… श्याम चुप करो ! (आवाज़ लगाते हुए) मोहन ! अरे मोहन हो !
मोहन – (दूर से नजदीक आती आवाज़) आ रहा हूँ, वहीं रूकना पैर में काँटा चुभ
गया था। (नज़दीक ही कोई पक्षी पंख फड़फड़ाता भयानक स्वर करता उड़ जाता है) (राम चीख पड़ता है)
राम – श्याम, बचाओ।
मोहन – (नज़दीक आ चुका है) डरपोक कहीं का।
राम (डरे स्वर में) वो… वो… क्या था?
मोहन – कोई चिड़िया थी। हम लोगों की आवाज़ों से वो खुद डर गई थी। एक नंबर के डरपोक हो तुम दोनों।
श्याम मोहन रास्ता भटका दिया, अब बहादुरी दिखा रहा है…
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- मनोवैज्ञानिक आधार का योगदान और पाठ्यक्रम में भूमिका|Contribution of psychological basis and role in curriculum
- पाठ्यचर्या नियोजन का आधार |basis of curriculum planning
राष्ट्रीय एकता में कौन सी बाधाएं है(What are the obstacles to national unity) - पाठ्यचर्या प्रारुप के प्रमुख घटकों या चरणों का उल्लेख कीजिए।|Mention the major components or stages of curriculum design.
- अधिगमकर्ता के अनुभवों के चयन का निर्धारण किस प्रकार होता है? विवेचना कीजिए।How is a learner’s choice of experiences determined? To discuss.
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