परिवर्तन के आयामों की विवेचना कीजिए।Discuss the dimensions of change.

परिवर्तन के आयामों की विवेचना कीजिए।Discuss the dimensions of change.

परिवर्तन के आयाम (Dimensions of Change) – प्रायः पाठ्यक्रम परिवर्तन के नाम पर जो कुछ किया जाता है उसमें दिखावटीपन अधिक होता है तथा यह क्षेत्र विस्तार, प्रयासों के स्थायित्व एवं शिक्षार्थी के व्यवहार स्तर में सुधार की प्रभावशीलता तक ही सीमित होता है। अधिकतर नवाचारों को पाठ्यक्रम आयोजकों द्वारा अनमने ढंग से स्वीकार किया जाता है तथा निष्कर्ष यह निकलता है कि ‘कुछ भी नहीं बदला है।’ यहाँ पर लिपिट महोदय के शब्दों को उद्धृत करना बहुत ही समीचीन लग रहा है।

‘Our research is now rich with examples of opportunities provided but nothing gained; with new curricula developed, but lack of meaningful utilization; with new teaching practices invented, but nothing spread, with new richer school environments but no improvement in the learning experience of the child.’-Lippitt

अतः विद्यालयों के पाठ्यक्रम परिवर्तन हेतु एक विस्तृत खाका (Blueprint) बनाने की आवश्यकता है जिसके विभिन्न आयाम पाठ्यक्रम की पूर्णता को दर्शाते हों। ये विभिन्न आयाम इस प्रकार के होंगे-

  1. शैक्षिक लक्ष्य (Educational goals),
  2. लक्ष्यों के प्राप्त करने के साधन (Means to achieve the objectives).
  3. पुरानी परम्पराएँ एवं प्रचलन (Old traditions and practices),
  4. लक्ष्यों की उपयुक्तता एवं उनकी प्राप्ति को जानने के उपाय (Measures of appropriateness of goals and degree to which they are attained),
  5. नवाचारों के लिए अवसर (Provision for new innovations)। परिवर्तन की दिशाएँ (Directions of Change) – गुडलैंड (John I. Goodlad) ने पाठ्यक्रम परिवर्तन के सूक्ष्म अध्ययन के उपरान्त इसमें अग्रांकित प्रवृत्तियों की पहचान की है-
  1. अनुशासन-केन्द्रित पाठ्यक्रम जो विषयों के स्वरूपात्मक तत्त्वों द्वारा संगठित तथा स्थानीय उत्तरदायित्व के स्तर पर बाहरी व्यक्तियों एवं समूहों द्वारा विकसित किया जाता है।
  2. तथ्यों की अपेक्षा सिद्धान्तों पर, नियमों की अपेक्षा समस्या समाधान द्वारा सीखने पर तथा व्यक्तिगत भित्रता पर अधिक बल ।
  3. सम्पूर्ण पाठ्यक्रम के सम्बन्धों को आकलित एवं सन्तुलित करने हेतु नये प्रयोग।
  4. विद्यालय पूर्व (Pre school) से लेकर माध्यमिक विद्यालय स्तर तक सीखने के अनुभवों की क्रमबद्ध अवस्था (Sequential phasing) |
  5. सीखने की प्रत्येक विकासात्मक अवस्था के लिए शिक्षा के उद्देश्यों एवं कार्यों का आलेखन ।
  6. पाठ्यक्रम सुधार के सहकारी उपागम (Cooperative approaches to curriculum improvement)।
  7. मानवतावादी पाठ्यक्रम (Humanistic curriculum) जिसका मुख्य केन्द्र मानवीय अभिरुचियाँ एवं मानवीय मूल्य हो।

मील (Mile) ने ‘पाठ्यक्रम परिवर्तन के घुमावदार प्रतिमान’ (Spiral pattern of curriculum change) का सुझाव दिया है। इस घुमाव के तीन चक्र इस प्रकार के बताये गये हैं-

  1. ज्ञान का संगठन (Organization of knowledge) ।
  2. शिक्षण विधि में व्यक्तिगत शिक्षण से समूहगत शिक्षण’ की ओर परिवर्तन तथा इसमें पुनः पूर्व स्थिति की ओर परिवर्तन (Shifts in teaching methodology from the individual to the group and back again),
  3. बाल-केन्द्रित शिक्षा पर बल (Emphasis on child centered education) | विभिन्न शैक्षिक संगठनों एवं शिक्षा-शास्त्रियों ने निकट भविष्य में पाठ्यक्रम परिवर्तन की निम्नांकित प्रवृत्तियाँ अर्थात् दिशाओं का अनुमान लगाया है- 1. आर्थिक सहयोग को माध्यमिक शिक्षा से पूर्व बाल्यावस्था शिक्षा की ओर परिवर्तित करके पूर्व प्राथमिक शिक्षा के व्यापक कार्यक्रम पर विशेष बल। 2. जैव रासायनिक हस्तक्षेप (Bio-chemical intervention) के माध्यम से बौद्धिक एवं व्यक्तिगत योग्यताओं में वृद्धि।

3. विशिष्ट विद्यालयों में शैक्षिक अवसरों की असमानता को दूर करने के लिए नये

4. प्राथमिक शिक्षा में निरन्तर सुधार के माध्यम से जूनियर एवं सीनियर हाईस्कूल स्तर उपागम । पर बहुप्रतीक्षित परिवर्तन ।

5. साहसिक शैक्षिक कार्यों में व्यवसाय एवं उद्योग की भागीदारी में वृद्धि।

6. नवीन वृत्तीय भूमिकाओं (इदीग्दर्हत् दते) एवं उत्तरदायित्वों का उदय । इन परिवर्तनों को सम्पादित करने हेतु जन-सामान्य, अभिभावकों, विद्यार्थियों, शिक्षकों प्रशासकों तथा शैक्षिक परिषद के सदस्यों का सहयोग अति आवश्यक है।

परिवर्तन की प्रक्रिया में सहभागी व्यक्ति (People in the Process of Curriculum Change) – पाठ्यक्रम परिवर्तन केवल शैक्षिक लक्ष्यों एवं उन्हें प्राप्त करने के साधनों में परिवर्तन तक ही सीमित नहीं होता है अपितु इससे सम्बन्धित व्यक्तियों के ज्ञानात्मक एवं भावात्मक पक्षों में परिवर्तन से भी जुड़ा होता है। पाठ्यक्रम परिवर्तन की प्रक्रिया में उन सभी व्यक्तियों एवं संस्थाओं की सहभागिता आवश्यक होती है तथा होती भी है जो किसी-न-किसी रूप में शिक्षा से सम्बन्धित होते हैं। इनकी विस्तृत चर्चा हम अलग से इसी अध्याय क्रम में प्रस्तुत करेंगे। संक्षेप में पाठ्यक्रम परिवर्तन

प्रक्रिया अथवा पाठ्यक्रम परिवर्तन पाठ्यक्रम विकास की प्रक्रिया में निम्नांकित व्यक्तियों का सहभागित्व होता है-

  1. शिक्षक (Teacher),
  2. शिक्षार्थी (The Learner),
  3. विषय विशेषज्ञ (Subject Specialists),
  4. जन-सामान्य (Common People),
  5. प्रशासक (Administrator),
  6. समाजशास्त्री (Sociologists),
  7. राजनीतिज्ञ (Politicians),
  8. मनोवैज्ञानिक (Psychologists),
  9. अर्थशास्त्री एवं वित्त विशेषज्ञ (Economists & Financial Experts),
  10. तकनीकी विशेषज्ञ (Technological Experts).
  11. प्रकाशक, व्यवसायी एवं उद्योगपति (Publishers, Businessmen and Indus.

पाठ्यक्रम परिवर्तन के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाएँ की विवेचना कीजिए।

पाठ्यक्रम परिवर्तन के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाएँ- पाठ्यक्रम परिवर्तन के मार्ग में अनेक बाधाएँ भी आ जाती हैं जिससे परिवर्तन अपेक्षित गति से नहीं हो पाता। मौरिस एवं हाउसन (R. W. Morris and A. G. Howson) के अनुमान के अनुसार किसी सफल नवीन प्रवृत्ति की व्यापक स्वीकृति में सामान्यतया पचास वर्ष ‘तक लग जाते हैं। परिवर्तन की गति बहुत अधिक मन्द होने पर तो कभी-कभी इनके लागू होने तक इनकी वांछनीयता ही समाप्त हो जाती है। अतः पाठ्यक्रम परिवर्तन के मार्ग में आने वाली बाधाओं को जानना तथा उनको दूर करने के उपाय करना भी आवश्यक होता है।

पाठ्यक्रम परिवर्तन के मार्ग में उत्पन्न होने वाली कुछ प्रमुख बाधाएँ इस प्रकार हैं-

1. परम्परा के प्रति प्रेम एवं झुकाव,

2. आस्थाओं एवं सिद्धान्तों के प्रति प्रतिबद्धता की कमी,

3. अभिमत एवं आस्था में विभेद की असमर्थता,

4. शिक्षकों की जड़ता एवं रूढ़िवादिता,

5. राष्ट्रीय हठवादिता,

6. समुचित नियोजन का अभाव।

(1) परम्परा के प्रति प्रेम एवं झुकाव (Love and Tendency Towards Traditions)- प्रारम्भ में पाठ्यक्रम में जो भी प्रकरण अथवा अन्तर्वस्तु सम्मिलित किये जाते एनका अपना कुछ-न-कुछ औचित्य होता है। कुछ प्रकरणों का कुछ समय बाद कोई औचित्य नहीं रह जाता तथा वे कालातीत हो जाते हैं किन्तु फिर भी वे पाठ्यक्रम के अंग बने रहते हैं। ऐसा परम्परा के प्रति प्रेम एवं झुकाव के कारण होता है। इस कमी को सभी स्तरों के पाठ्यक्रम कार्यकर्ताओं में अनुभव किया जा सकता है। अतः ऐसे प्रकरणों को जिनके निकाल देने से छात्रों को कोई हानि नहीं होनी है तथा वे पाठ्यक्रम के आकार को मात्र बड़ा कर रहे हैं, निकालकर उनके स्थान पर उपयोगी समयानुकूल सामग्री को सम्मिलित किया जाना चाहिए।

(2) आस्थाओं एवं सिद्धान्तों के प्रति प्रतिबद्धता में कमी (Lesser Commitment for Principles and Beliefs)- किसी भी कार्यक्रम की सफलता उसमें आस्था की दृढता तथा उसके सिद्धान्तों के प्रति प्रतिबद्धता पर निर्भर करती है। प्रायः नवीन परिवर्तनों के प्रति कार्यकर्ताओं में आस्था एवं विश्वास का अभाव होता है जिससे वे उनके प्रति प्रतिबद्ध भी नहीं हो पाते हैं। ऐसे में इम परिवर्तित कार्यक्रमों से सम्बन्धित व्यक्ति ऊपरी मन से ही इन्हें स्वीकार करते हैं तथा अपेक्षित उद्यतता एवं तत्परता से कार्य नहीं करते हैं। परिणामस्वरूप परिवर्तन के मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है।

(3) अभिमत एवं आस्था में विभेद कर सकने की असमर्थता (Inability of Differentiation between Opinion and Faith) – परिवर्तन के प्रति अभिमत एवं आस्था को सामान्यतया एक ही अर्थ में ले लिया जाता हैं किन्तु इनमें अन्तर होता है। यद्यपि अभिमत, आस्था की दिशा में ही एक कदम होता है, फिर भी इसे आस्था नहीं माना जा सकता है। आस्था में अभिमत की अपेक्षा बहुत अधिक दृढ़ता होती है। इसका कारण यह है कि आस्था गहन चिन्तन के पश्चात् बनती है तथा इसकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। दूसरी तरफ अभिमत सामान्य दृष्टिकोण पर आधारित होता है तथा इसके स्थायित्व के बारे में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। अतः पाठ्यक्रम परिवर्तन की दृष्टि से इन दोनों में विभेद करना आवश्यक होता है। किन्तु प्रायः लोग इनके विभेद करने में असमर्थ होते हैं तथा अभिमत को ही आस्था मान बैठते हैं। अभिमत को ही आस्था का रूप मानने के कारण पाठ्यक्रम परिवर्तन का आधार मजबूत नहीं बन पाता। परिणामस्वरूप परिवर्तन को कार्यरूप में परिणित करने में कठिनाई होती है।

(4) शिक्षकों की जड़ता एवं रूढ़िवादिता (Inertia and Conservatism of Teachers)- किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम का आयोजन एवं उसका क्रियान्यवन शिक्षको द्वारा ही किया जाता है। नवीन कार्यक्रमों का क्रियान्यवन एवं उनकी सफलता शिक्षकों में उनके प्रति उत्साह, श्रमशीलता एवं भविष्योन्मुख सोच पर निर्भर करती है। किन्तु शिक्षाविदों के अनुभव यह बताते हैं कि वास्तव में जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है। प्रसिद्ध पाठ्यक्रम विशेषज्ञ डॉ० सी० ई० बीबी के अनुसार, ‘पाठ्यक्रम में परिवर्तन लाने तथा नवाचारों को अपनाने के मार्ग में शिक्षकों की जड़ता एवं रूढ़िवादिता सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करती है। वे नवीन प्रयोग करने में, नवाचारों को अपनाने में, उनका संचरण करने में हिचकते हैं। अभिभावकों तथा अन्य शैक्षिक रुचि वाले अभिकरणों की प्रतिकूल क्रियाओं का भी उन्हें भय रहता है। कुछ इसलिए भी हिचकते हैं कि उनके सहकर्मी उन पर ताने कसते हैं कि क्यों सबके मार्ग में काँटे बो रहे हो।’

अतः शिक्षकों की इस प्रवृत्ति के गहन विश्लेषण की आवश्यकता है। डॉ० बीबी के मतानुसार नवाचारों को अपनाने में शिक्षकों की विफलता के दो कारण हो सकते हैं। प्रथम-यह कि वे उन नवाचारों को अपनाना ही नहीं चाहते हों तथा द्वितीय-यह कि वे उन्हें समझने एवं अपनाने के लिए सक्षम ही न हों। अतः इसके समाधान हेतु उन्हें समुचित प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।

(5) राष्ट्रीय हठधर्मिता (National Obstinacy) पाठ्यक्रम विकास के सम्बन्ध में किसी भी राष्ट्र के सम्मुख दो स्थितियाँ होती हैं। एक तो यह कि किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था विदेशी प्रतिमानों पर नहीं चल सकती तथा उसे स्वयं अपने प्रतिमान विकसित करने आवश्यक होते हैं। दूसरी तरफ दूसरे देशों में शिक्षा सम्बन्धी सफल प्रयोगों से प्रत्येक देश न्यूनाधिक अंशों में अवश्य लाभान्वित हो सकता है। इसलिए जहाँ एक ओर किसी विदेशी प्रतिमान का अन्धानुकरण किसी देश के लिए हानिप्रद सिद्ध हो सकता है वहीं दूसरी ओर किसी उपयोगी विचार अथवा दृष्टिकोण को मात्र विदेशी होने के कारण अस्वीकार कर देना भी अविवेकपूर्ण कार्य है। दूसरी स्थिति के सम्बन्ध में अनेक राष्ट्रों में हठवादिता भी दिखाई पड़ती है। इस प्रकार की हठवादितापूर्ण राष्ट्रीय भावना पाठ्यक्रम परिवर्तन के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा होती है। विकासशील देशों के लिए तो इस प्रकार की भावना और भी अधिक हानिप्रद होती है। अतः किसी भी देश में किये गये सफल प्रयोगों को स्वीकार करने में दूसरे राष्ट्रों को उदार भावना अपनानी चाहिए तथा यदि अनिवार्य हो तो उन प्रयोगों में अपनी स्थितियों के अनुसार कुछ आवश्यक संशोधन कर लेने चाहिए।

(6) समुचित नियोजन का अभाव (Lack of Proper Planning)- समुचित नियोजन किसी भी कार्यक्रम की सफलता की एक अनिवार्य पूर्व आवश्यकता है। अतः पाठ्यक्रम विकास के लिए भी समुचित नियोजन अति आवश्यक होता है। समुचित नियोजन के अभाव में प्रभावी पाठ्यक्रम परिवर्तन सम्भव नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त परिवर्तन के प्रति प्रायः सभी क्षेत्रों में एक मनोवैज्ञानिक अवरोध की भावना भी पाई जाती है। इस अवरोध की भावना को समुचित नियोजन तथा उसमें अन्तर्निहित उपयुक्त मार्ग-दर्शन के द्वारा कम किया जा सकता है तथा कुछ समय पश्चात् समाप्त भी किया जा सकता है। किन्तु प्रायः यह देखने में आता है कि अनेक पाठ्यक्रम परिवर्तन सम्बन्धी कार्यक्रमों का समुचित नियोजन नहीं किया जाता है तथा उनके क्रियान्यवन का ठीक ढंग से निरन्तर मूल्यांकन भी नहीं किया जाता है। परिणामस्वरूप ऐसे कार्यक्रम विफल हो जाते हैं। अतः समुचित नियोजन का अभाव पाठ्यक्रम परिवर्तन के मार्ग में एक बाधा सिद्ध होता है।

उपर्युक्त बाधाओं के अतिरिक्त पाठ्यक्रम परिवर्तन के मार्ग में अनिश्चय की स्थिति, आत्म-विश्वास की कमी, अन्तर्द्वन्द्व, संकोच, आलोचना का भय, साहसपूर्ण प्रयोगों को कर सकने में अक्षमता, विरोध की प्रवृत्ति, तकनीकी ज्ञान का अभाव तथा अनुसन्धान के प्रति उपेक्षा भाव आदि अनेक ऐसी बाधाएँ आती हैं जिनके कारण परिवर्तन की गति या ता धीमी पड़ जाती है या परिवर्तन हो ही नहीं पाता है।

पाठ्यक्रम परिवर्तन हेतु उपयोगी सुझाव दीजिए।

पाठ्यक्रम परिवर्तन हेतु उपयोगी सुझाव (Useful Suggestions for Curriculum Change)- पाठ्यक्रम परिवर्तन के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने तथा नवीन पाठ्यक्रम के समुचित विकास हेतु कुछ उपयोगी सुझाव इस प्रकार के हैं-

1. पाठ्यक्रम परिवर्तन के लिए पूर्व नियोजन होना चाहिए। इसके अन्तर्गत पाठ्यक्रम संदर्शिकाओं का प्रकाशन, शिक्षकों को नवीन शैक्षिक सामग्री एवं परामर्श सेवाएँ उपलब्ध कराना, सेवारत प्रशिक्षण की व्यवस्था आदि सम्मिलित किये जाने चाहिए।

2. किसी भी अच्छे परिवर्तन को साहस करके प्रारम्भ कर देना चाहिए। प्रारम्भ होने पर तो इसका विरोध होता है किन्तु अच्छे परिणाम आने पर धीरे-धीरे कार्यक्रम के प्रति विरोध एवं उदासीनता समाप्त हो जाती है।

3. परिवर्तनों की सफलता को जानने के लिए निरन्तर रूप में सर्वेक्षण, मूल्यांकन तथा अनुसन्धान कार्य भी चलते रहने चाहिए।

4. किसी भी नवाचार को प्रारम्भ करने वालों के व्यक्तित्व का उनकी स्वीकार्यता पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। अतः पाठ्यक्रम परिवर्तन के क्षेत्र में भी यदि कोई या कुछ प्रभावशाली व्यक्ति उसे नेतृत्व प्रदान करते हैं तो उनके क्रियान्यवन एवं सफलता की सम्भावना अधिक हो जाती है।

5. पाठ्यक्रम परिवर्तन को औपचारिक ढंग से प्रस्तुत करने से पूर्व अनौपचारिक चर्चाओं एवं वार्ताओं के द्वारा इसकी स्वीकार्यता के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए।

6. किसी भी परिवर्तन को किसी लघु क्षेत्र एवं लघु रूप में क्रियान्वित करके यदि उसकी सफलता को लोगों को दिखला दिया जाए तो उसे स्वीकार करने को वे उद्यत हो जाते हैं। पाठ्यक्रम परिवर्तन को भी इसीलिए प्रारम्भ में किसी विशेष लघु क्षेत्र में लागू करके उसकी सफलता का पता लगाया जा सकता है।

7. एक फ्रांसीसी दार्शनिक के अनुसार शासकों एवं शिक्षकों में मतैक्य होना किसी भी देश के लिए सबसे अधिक सुखद स्थिति होती है। इसका तात्पर्य यह है कि शिक्षाविदों एवं उच्च शिखस्थ प्रशासकों में निकट का सम्पर्क होना चाहिए जिससे शिक्षाविदों द्वारा प्रस्तावित शैक्षिक परिवर्तनों को देश की शिक्षा नीति में समाविष्ट किया जा सके।

8. शिक्षक संगठनों द्वारा भी पाठ्यक्रम परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया जा सकता है। वे अपने सम्मेलनों, प्रकाशनों एवं अन्य क्रिया-कलापों के द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके लिए शिक्षक संगठनों को सशक्त बनाकर पाठ्यक्रन विकास के प्रति उनमें रुचि उत्पन्न की जा सकती है। इस हेतु अमेरिका एवं इंग्लैण्ड भी भाँति शिक्षा मन्त्रालय द्वारा उन्हें वित्तीय एवं तकनीकी सहायता भी प्रदान की जानी चाहिए।

9. पाठ्यक्रम परिवर्तन ऐसे उद्देश्यों पर आधारित होना चाहिए जो न केवल वांछनीय हो बल्कि प्राप्य भी हो। अतः पाठ्यक्रम परिवर्तन के लिए नियोजन करने से पूर्व छात्र जनसंख्या, प्रशासन व्यवस्था, सफल अभ्यासों तथा अपनी क्षमताओं एवं कमजोरियों का आकलन अवश्य कर लेना चाहिए।

10. पाठ्यक्रम में आमूलचूल परिवर्तन करने की अपेक्षा क्रमिक चरणों में परिवर्तन किया जाना चाहिए।

11. पाठ्यक्रम के उद्देश्य, देश एवं समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप होने चाहिए। किन्तु प्रायः यह देखने में आता है कि विकासशील देश सम्पन्न राष्ट्रों में विकसित किये गये पाठ्यक्रमों को बिना किसी अनुशीलन के अपना लेते हैं। चूँकि विभिन्न देशों के छात्रों की पृष्ठभूमि, पर्यावरण, ज्ञान एवं आकांक्षाएँ भिन्न होती हैं, अंतः किसी दूसरे देश में विकसितं पाठ्यक्रम अन्य देशों के लिए पूर्णरूपेण उपयुक्त नहीं हो सकता है। किसी विकासशील देश के लिए पाठ्यक्रम में परिवर्तन करके तदनुरूप सामग्री का निर्माण करना एक कठिन एवं साहसपूर्ण कार्य अवश्य होता है किन्तु वर्तमान समय में ज्ञान एवं विचारों का एक संचित कोष उपलब्ध होने के परिणामस्वरूप वे अपनी आवश्यकतानुसार चयन कर सकते हैं।

12. शिक्षकों में अनेक प्रकार की भिन्नताओं के कारण प्रायः शिक्षा में गुणात्मक सुधार को ठोस आधार नहीं मिल पाता है। पाठ्यक्रम परिवर्तन एवं सुधार के लिए कुछ शिक्षक एवं संस्थाएँ तो साहसपूर्ण कदम उठाती हैं किन्तु अन्य संस्थाएँ उदासीन एवं पिछड़ी हुई रहती हैं। सरकारी स्तर पर प्रायः एक ही समय से पाठ्यक्रम परिवर्तन लागू किया जाता है किन्तु अलग- अलग संस्थाओं में इसके क्रियान्यवन की गति भिन्न-भिन्न होती है। कई बार तो कुछ बड़े परिवर्तनों को अपनाने में कुछ संस्थाओं को लगभग एक पीढ़ी का समय लग जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि उपयुक्त पाठ्यक्रम परिवर्तन शिक्षा प्रणाली से दो परस्पर विरोधी अपेक्षाएँ रखता है। इसके अनुसार एक तरफ तो शिक्षा प्रणाली इतनी लचीली भी बनी रहे कि योग्य शिक्षकों को नवाचारों को लागू करने तथा नये प्रयोग करने की स्वतन्त्रता हो तथा इसके विपरीत दूसरी तरफ यह इतनी कठोर भी हो कि अकुशल शिक्षकों को आवश्यक निर्देशन एवं प्रशिक्षण भी दे सकें।

अतः किसी भी शैक्षिक प्रशासन की कार्य-कुशलता इस बात में होती है कि वह इन दो विपरीत आवश्यकताओं की पूर्ति में कितना अधिक उचित सन्तुलन स्थापित कर सकता है। इन उपर्युक्त सुझावों को अपनाकर पाठ्यक्रम परिवर्तन एवं विकास के मार्ग में आने वाली बाधाओं पर पर्याप्त सीमा तक नियन्त्रण बनाया जा सकता है।

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