तीन तलाक – महिलाओं के आत्मसम्मान की दिशा में ऐतिहासिक निर्णय|Triple Talaq – Historic decision towards women’s self-respect in Hindi
इस्लाम में एक पुरूष और एक स्त्री अपनी इच्छा से एक-दूसरे के साथ पति-पत्नी के रूप में रहने का फैसला करते हैं, तो वह निकाह कहलाता है। इसकी तीन शर्तें हैं-पहली यह की पुरूष वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारीयों को उठाने की शपथ ले। दूसरी, एक निश्चित रकम जो अपनी बातचीत से तय हो, उसे मेहर के रूप में स्त्री को दे और तीसरी इस नए सम्बन्ध का यह अधिकार खण्डित हो जाता है। यहीं से स्त्री का शोषण शुरू होना आरम्भ होता है। इस शोषण तन्त्र का ताना- बाना प्रथा की आड़ में तलाक के माध्यम से बुना जाता है- तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत)। कुरान- शरीफ इस्लाम का संविधान है, जिसमे निकाह के साथ-साथ तलाक की बात भी लिखी है। उसमें लिखा है कि तलाक तभी जायज है जब की सभी कोशिशें असफल साबित हो गई हों। इसकी गलत व्याख्या की कीमत मुस्लिम स्त्रियाँ वर्षों से चुका रही हैं। समय के साथ रूढ़िगत प्रथाओं में भी बदलाव आना आवश्यक है। इसकी शुरूआत मुस्लिम महिलाओं द्वारा तीन तलाक प्रथा के विरूद्ध याचिका से की गई।
तीन तलाक प्रथा के विरूद्ध दायर याचिका
उत्तराखण्ड के काशीपुर की रहने वाली शायरा नाम की एक महिला को उसके पति ने 10 अक्टूबर, 2015 को स्पीडपोस्ट से एक पत्र भेजा, जिसमें उसने तीन बार तलाक तलाक लिखकर शायरा से सम्बन्ध तोड़ लिए थे। फलस्वरूप शायरा ने तीन तलाक, निकाह हलाला और बहु-विवाह के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में वर्ष 2016 याचिका दायर की। अक्टूबर 2016 में केन्द्र सरकार ने भी सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाकर्ता ‘शायरा की माँगों का सैद्धान्तिक तौर पर समर्थन करते हुए एक हलफनामा दायर किया था। इस प्रकार, प्रसिद्ध ‘शाह बानो मामले’ के तीन दशक बाद शायरा मामले ने एक बार फिर से लैंगिक समानता बनाम धार्मिक कट्टरपन्थ की बहस को जागृत कर दिया और तीन तलाक पर पूरे देश में जोरदार बहस छिड़ गई।
मामले की गम्भीरता को पहचानते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह मामला संवैधानिक मुद्दों से सम्बन्धित है अतः संविधन पीठ को इसकी सुनवाई करनी चाहिए। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया था कि इस मामले में केवल कानूनी पहलुओं पर ही सुनवाई होगी और न्यायालय तीन तलाक के अतिरिक्त किन्हीं अन्य माध्यमों से होने वाले तलाक के सम्बन्ध में विचार नहीं करेगा। मुस्लिम समुदाय में ‘तलाक-ए-बिद्दत’ के अतिरिक्त अन्य दो तरीकों से भी तलाक को सहमति प्राप्तं है-‘तलाक-ए-एहसन’ और ‘तालक-ए-हसना’।
उच्चतम न्यायालय का फैसला
मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर की अध्यक्षता वाली 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने 11 18 मई तक सुनवाई करने के पश्चात् अपना फैसला। सुरक्षित कर लिया तथा अगस्त, 2017 में 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने 3-2 के बहुमत से ‘एक साथ तीन तलाक’ अर्थात् एक ही बार में तीन तलाक बोलकर वैवाहिक सम्बन्ध विच्छेद कर लेने वाले लगभग 1400 वर्ष पुराने विवादस्पद मुस्लिम रिवाज को समाप्त करने के पक्ष में फैसला दिया, जो कि महिलाओ आत्मसम्मान की दिशा में एक ऐतिहासिक निर्णय है।
उल्लेखनीय है किइस महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई करने वाले पाँचों न्यायाधीश अलग- अलग समुदाय का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जिसमें जस्टिस सिंह जगदीश सिंह खेहर (सिख समुदाय), कुरियन जोसेफ (ईसाई), आर.ए.एफ नरीमन (पारसी), यू.यू ललित (हिन्दू) और अब्दुल नजीर (मुस्लिम) समुदाय से सम्बन्धित थे। इस फैसले में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर और जस्टिस अब्दुल नजीर ने कहा कि यह 1400 वर्ष पुरानी परम्परा है, जो इस्लाम का अभिन्न हिस्सा है, अतः न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इन दोनों न्यायाधीशों ने इस मामले पर संसद द्वारा कानून बनाए जाने हेतु सहमति व्यक्त की। वहीं दूसरी तरफ न्यायाधीश कुरियन जोसेफ, जस्टिस आर.ए.एफ. नीरमन और यू.यू. ललित ने ‘एक बार में तीन तलाक’ को असंवैधानिक ठहराते हुए इसे खारिज कर दिया। इन तीनों जजों ने तीन तलाक को संविधन के अनुच्छेद 14 का उल्लघंन माना। विदित है कि संविधान का अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों को विधि के समक्ष समानता का अधिकार प्रदान करता है।
न्यायालय का कहना है कि ‘तलाक-ए-बिद्दत’ इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है, अतः इसे अनुच्छेद 25 के अन्तर्गत धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का संरक्षण प्राप्त नहीं हो सकता। इसी के साथ न्यायालय ने शरियत कानून, 1937 की धारा-2 में दी गई ‘एक बार में तीन तलाक’ की मान्यता को रद्द कर दिया। देश की सर्वोच्च अदालत ने इसको असंवैधानिक बताते हुए इस पर 6 महिने की रोक लगा दी है। साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा है कि संसद इस पर कानून बनाए और यदि इस अवधि में ऐसा कानून नहीं लाया जाता है, तब भी तीन तलाक पर रोक जारी रहेगी।
इस सन्दर्भ में मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक, 2017 संसद में प्रस्तुत किया गया, जिसे लोकसभा ने दिसम्बर, 2017 में परित कर दिया। किन्तु राज्य सभा में इस विधेयक के अन्तर्गत कुछ प्रावधानों का लेकर विपक्षी दलों द्वारा विरोध जताने के पश्चात् इसे स्थायी समिति के पास पुनर्विचार हेतु भेज दिया गया है। अभी यह विधेयक राज्य सभा से पारित नहीं हुआ है।
फैसले का दूरगामी प्रभाव
न्यायालय का फैसला आने के पश्चात् समाज के सभी पक्षों ने इस निर्णय का स्वागत किया। न्यायालय के इस फैसले के बाद मुस्लिम महिलाओं का तीन तलाक, निकाह हलाला जैसे रिवाजों से भी बचाव होगा, जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। वैधानिक रूप से मुस्लिम महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार मिलेगा। यही लैंगिक न्याय होगा। एक साथ ‘तीन तलाक’ का कोई मतलब नहीं रह जाएगा, क्योंकि जब इससे विवाह समाप्त नहीं होगा। महिलाओं को तुरन्त तलाक का डर नहीं रहेगा, जिसके कारण उन्हें शोषण और अत्याचार का सामना करन पड़ता था। तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएँ अपने और अपने बच्चों के लिए अदालत में गुजारा-भत्ते की अपील कर सकेंगी। मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वली मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्थाएँ अन्य सामाजिक सुधारों क दिशा में सकारात्मक पहल करेंगी, ताकि अदालतों और सरकार को हस्तक्षेप करने का अवसर न मिले। केन्द्र सरकार मुस्लिमों में तलाक के मुद्दे पर कानून बनाने के अलावा अन्य विवादास्पद मुद्दों पर कानून बना सकेगी।
इस फैसले के विरूद्ध समीक्षा याचिका (रिव्यू पेटिशन) दायर की जा सकती है, जिस पर सुनवाई फैसला देने वाले न्यायाधीश ही करेंगे। समीक्षा याचिका विफल रहने पर उपचारात्मक याचिका (क्यूरिटिव पेटिशन) दायर की जा सकती है, जिसकी सुनवाई के लिए इन न्यायाधीशों के साथ दो न्यायाधीश और रहेंगे। अब कार्यपालिका की यह जिम्मेदारी होगी कि वह मुस्लिमों के लिए ‘कुरान-आधारति फैमिली लॉ’ बनाएगा, जैसा कि 1950 के दशक में हिन्दू परिवारों के लिए बनाया गया था।
निष्कर्ष
‘तीन तलाक’ पर आया सर्वोच्च न्यायालय का फैसला देश के संविधान की आत्मा के अनुरूप है और इसे देश की राष्ट्रीय भावनाओं को प्रतिबिम्ब भी कहा जा सकता है। अदालत ने ‘तीन तलाक’ ‘को संविधान में वर्णित समानता के अधिकार के परिप्रेक्ष्य में देखा य में देखा है। सरकार ने अदालत में यह तर्क दिया कि लैंगिक समानता और महिलाओं के आत्मसम्मान के अधिकार के साथ समझौता नहीं किया जा सकता है। यह एक कानुनी सुधार है, जो सामाजिक सुधार का एक छोटा-सा हिस्सा मात्र है। कोई भी सामाजिक बदलाव एक व्यापक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। अभी मुस्लिम पर्सनल लॉ से जुड़े बहुत-से ऐसे कानून हैं, जिनमें सुधार की आवश्यकता है।
1980 के दशक में बहुचर्चित शाह बानो मामले से लेकर शायरा बानों के इस मामले का सफर यह बताता है कि देश का माहौल बदल गया है। उनमें अधिकारों और सामाजिक सुधारों के लिए लड़ने का साहस आ गया है। इस फैसले को लेकर यह जरूर कहा जा सकता है कि दशे के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाली मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसी संस्थाएँ अब अन्य सामाजिक सुधारों की दिशा में सकारात्मक पहल करेंगी। इस फैसले ने का एक सन्देश यह भी है कि अन्य समुदाय भी अपने यहाँ व्याप्त सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करेंगे और उनसे निजात पाने का प्रयास करेंगे।
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